Friday 1 October, 2010

Akhilesh ji ko patr

27. 9. 10
प्रिय अखिलेश जी,
आपका पत्र संख्या 2, दिनांक 21. 9 10 का पत्र मिला। धन्यवाद। आपने पुस्तकें वापिस करने वाले प्रश्न पर जवाब सोच समझकर ही दिया होगा तभी इतना समय लगा। आप इस बात से तो सहमत ही होंगे कि पुस्तक वाला यह मामला कोई लेखक और प्रकाशक के बीच किसी व्यावसायिक गतिरोध (डिस्प्यूट) का मामला नहीं है। यह लेखकों के सम्मान से जुड़ा प्रश्न हो गया है। खासतौर से महिला लेखकों के सम्मान से, जो लेखक वर्ग का अभिन्न हिस्सा हैं। चाहे पुरुष हों या महिलाएं किसी के सम्मान पर भी आंच आए वह सबके सम्मान पर आंच होती है। हो सकता है कुछ लोग निहित कारणों से इस बात से सहमत न हों। या जान-बूझकर ऐसा करते हों और समझते हों वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग कर रहे हैं। भले ही वह नकारात्मक हो।
जब मैंनें किताब दी थी तब ज्ञानपीठ एक प्रकाशन से अधिक साहित्यिक संस्थान था जिसे लोग एक लीजेंड (रवायत) की तरह मानते थे। यहां छपना सम्मान की बात थी। लेखक को इसके संस्थापक देवो भव का दर्जा देते थे। स्टाफ को भी ही यही बताया जाता था। अब जब ज्ञानपीठ की साख केवल दो या तीन लोगों के कारण सामान्य प्रकाशन से भी नीचले पायदान पर आ गई तो स्वाभाविक है कि केवल पूर्व प्रतिष्ठा पर आने का अवसर देने के लिए कुछ लोग ज्ञानपीठ से किताबें वापिस ले रहे हैं। ज्ञानपीठ के मंच से जिस प्रकार की असांस्कृतिक और आपत्तिजनक बातें कही गईं हैं आपके निदेशक/संपादक और न्यासी द्वारा उसका समर्थन किया गया है, अफवाहें फैलाई गई हैं, उसके बाद किसी भी आत्मसम्मान वाले लेखक के लिए यह सोचना बाध्यता हो गई कि यह कोकस किसी के साथ किसी भी सीमा तक जाकर असभ्यता कर सकता है। आपके आजीवन न्यासी, इस गुमान में कि वे ज्ञानपीठ के मालिक हैं, आपकी पत्रिका में मेरे नए उपन्यास इक आग का दरिया है का ईर्ष्यावश सम्यक विज्ञापन न देने के सवाल पर, आपको पत्र लिखकर विरोध करने पर, किताब वापिस ले लेने की धमकी दे चुके थे। उस अव्यवसायिक व्यवहार को मैं ज्ञानपीठ की समृद्ध परंपरा तथा रमेश जी और अन्य सभ्य लोगों के व्यवहार को ध्यान में रखकर सहन कर गया था। इस बार तो सीमा का अतिक्रमण हुआ है। अपने असम्मान की घूंट तो पी जा सकती है जब पूरे समाज और खासतौर पर अपने बीच की महिलाओं का अपमान हो तो लेखकों की संवेदना प्रतिक्रियायित नहीं होगी तो किसकी होगी। प्रबंधन का व्यक्ति इस बात को न समझे यह बात चकित करने वाली है। मैनेजमेंट का ऐसे लोगों को संरक्षण देना असभ्य व्यवहार को बढ़ावा देना है। यह प्रबंधन को देखना है कि वह इस लीजेंडरी संस्था को कैसा प्रशासन देना चाहता है। मेरा कहने का तात्पर्य है कि इसे लेखक और प्रकाशक के बीच का गतिरोध न समझकर संस्था को, अशिष्ट कहना तो अनुचित होगा, कुछ असहज लोगों के हाथों में सौंप दिए जाने का, सद्भावना पूर्ण विरोध है। इसलिए इस प्रकरण को उसी रूप में सुलझाना चाहिए। बेहतर हो कि उसी नज़रिए से सुलझाएं। बची हुई किताबों के बारें में आपका क्या प्रस्ताव है बताएंगे तो आभारी हूंगा। तभी विचार करना संभव होगा।
आप ने लिखा है कि कि मेरे और प्रियंवद की तरह की शर्तें किसी दूसरे लेखक ने नहीं लगाईं। श्री अशोक वाजपेयी ने बताया उन्होंने भी इसी तरह की शर्त लगाई थी। अन्य लोगों का मुझे मालूम नहीं। यह तो प्रबंधन भी महसूस करता है कि अनुचित हुआ है। शायद आपके एक न्यासी जिनको संस्था के मालिक होने का अहसास है कई कारणों से ऐसा अनुभव नहीं करते। उसके पीछे अनेक कारणों के साथ उनका व्यक्तिमोह भी हो सकता है जिसे बार बार व्यक्त करते रहे हैं। किसी भी संस्था से बड़ा मैंनें सुना है कि व्यक्ति नहीं होता। व्यक्ति के संस्था से बड़ा होते ही बड़े बड़े राज्य खत्म हो गए या उनकी गरिमा नष्ट हो गई। मैंने केवल उदाहारण दिया है। आक्षेप न समझें।
मुझे इस और आपका ध्यान आकर्षित करते हुए हार्दिक दुख हो रहा है कि अभी देश का सर्वोच्च साहित्यिक ज्ञानपीठ सम्मान घोषित हुआ है। पहले जब सम्मान घोषित होने का अवसर आता था तो लगता था कि कोई बड़ी साहित्यक घटना होने जा रही है। इस बार एक प्राइवेट चैनल ने जब नाम घोषित किया तो उसे हाई लाइट करने के लिए उमराव जान अदा में रेखा के द्वारा पुरस्कृत लेखक द्रारा लिखा गाना और उस पर किया गया न्रत्य कई सैंकेड तक दिखाया जाता रहा। मेरे पास फोन आया आपने सुना ज्ञानपीठ का पुरस्कार घोषित हो गया। मुझे तब तक नहीं मालूम था। मैनें पूछा किसको मिला है। वे सज्जन बोले श्री शहरयार को मिला है। मैंने सुना था कि उनके लिए उर्दू के एक नक्काद जो जुरी के सदस्य हैं कोशिश कर रहे हैं। मैंनें कहा वे बड़े शायर हैं। कमलेश्वर के दोस्त रहे हैं। अरे नहीं साहब वह तो उमरावजान अदा में रेखा के गाए गाने पर मिला है। आप अमुक चेनल खोल कर देखिए। मैंने खोला तो रेखा लाल जोड़े में गा रही थी। फिर उनकी फ़ोन पर बात सुनवाई गई। उनसे पूछा गया कि इतनी देर से आपको यह सम्मान क्यों मिला। जवाब था पहले मैं जुरी का मेंबर था। मेंबर नहीं रहा तो मिल गया। पहले लेखक के जीवन के मुख्य अंश दिखाए जाते थे। पुस्तकें डिस्प्ले की जाती थीं। शायर या कवि हुआ तो उसके मुंह से पंक्ति सुनवाई जाती थी, या भाषण का अंश। उन सज्जन ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह यहां कहने से शायर की शान को चोट लगेगी। अगर आप गहराई से सोचें तो शायद आप भी महसुस करेंगे जो इंसानियत के साथ पिछले दिनों ‘बेवफाई’ हुई है, शायद यही कारण है देश कि इतने बड़े सम्मान को चैनल्स ने गैरजिम्मेदारी से लिया है। किसे मिलना चाहिए था किसे नहीं, यह सवाल बेमानी है पर मुख्य बात है कि लोग ज्ञानपीठ की बड़ी से बड़ी कारगुज़ारी को भी कैसे ले रहे हैं।
आपने अपने उपरोक्त पत्र में लिखा है कि गिरमिटिया गांधी की संपादिका डा. निर्मला जैन ने सूचित किया है बगैर उनकी अनुमति के पुस्तक को लौटाने का कोई निर्णय न लिया जाए। वे एक विदूषी महिला हैं मैं उन्हें पारिवरिक व परांगत संबंधो के कारण बड़ी बहन का सम्मान देता रहा हूं। वे आपको लिखने से पहले मुझसे अवश्य बात करतीं। ऐसा मैं मानता हूं। उन्होंने नहीं की कोई बात नहीं। वाणी प्रकाशन के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। वह कहानी लंबी है। जब ज्ञानपीठ, निर्मला जी और वाणी प्रकाशन के बीच इस उपन्यास को लेने के बारे में समझौता हुआ तो मैं उसका हिस्सा नहीं था। चूंकि संस्था और संक्षिप्तकर्ता पर मुझे विश्वास था, मैं चुप रहा। आपका उपरोक्त वाक्य अजीब लगा। शायद आपने पुस्तक नहीं देखी उस पर कापीराइट मूल लेखक का है संक्षिप्तकर्ता का नहीं। लगता आपके निदेशालय ने इस तथ्य़ को छिपाकर पत्र पर आपके हस्ताक्षर करा लिए। आप तय करें कि आप क्या चाहते हैं। ज्ञानपीठ पुस्तक पर छपे लेखक के उन अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं करना चाहेगी जो अब तक आपके यहां सबसे सुरक्षित माने जाते रहे हैं।
रमेश जी के सुपुत्र होने के नाते मैं आपको अपने अजीज़ की तरह बेमांगी राय दे रहा हूं कि आप निहत स्वार्थों के जंग को या तो सधे प्रशासक की तरह डील करें या इसकी प्रतिष्ठा को नष्ट करने की जंग से बचें। शुभकामनाओं सहित,
श्री अखिलेश जैन, प्रबंध न्यासी
ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
आपका

गिरिराज किशोर

Sunday 12 September, 2010

13 सितंबर 10

प्रिय अखिलेश जी,
आशा है मेरे इस चौथे पत्र लिखने को अन्यथा न लेंगे। मुझे प्रियंवद और सुधा अरोड़ा ने बताया है कि ज्ञानपीठके निदेशक का उन दोनों के पास पत्र पहुंचा है कि वे ज्ञानपीठ उनकी पुस्तकें भेजने के लिए तैयार है।. इस पत्र ने मेरे सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं-
1. क्या पत्र उन सब लोगों को गया है जिन्होंने किताबें वापिस मांगी थी। जिन्होंने सबसे पहले पत्र लिखा , जैसे मैंने, उनको कोई सूचना नहीं।
2. शायद अमर उजाला में छपा था कि निदेशक/संपादक प्रकरण पर इस माह के अंत में निर्णय लिया जाएगा। प्रियंवद और शायद अन्य लेख -कों के पत्र में यह शर्त थी की वर्तमान पदासीन अधिकारी के रहने पर पुस्तकें वापिस नहीं ली जाएंगी।
3. यदि अभी यह तय होना शेष है तो क्या विचाराधीन अधिकारी द्वारा ऐसा पत्र लेखकों को लिखना न्याय संगत है? या किसी नीति के तहत लिखा गया है। कुछ को लिखना कुछको न लिखना शंका की स्थिति पैदा करती है।
4. यह निर्णय न्यासी मंडल का है या स्वयं निदेशक का अपना?
5. ये सवाल स्थिति को प्रश्नाकुल बनाती है।
श्री अखिलेश जैन, प्रबंध न्यासी,ज्ञानपीठ नई दिल्ली।

आपका

गिरिराज किशोर

Tuesday 7 September, 2010

5,6 सितंबर 10
प्रिय अखिलेश जी,
मैंने आपको इसी बीते रविवार को यह जानने के लिए ईमेल किया था कि इतना सब होने और आपके लिखित आश्वासन के बाद कि आप ज्ञानपीठ के सम्मान की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं क्या निर्णय हुआ, उसकी अधिकारिक सूचना नहीं मिली। मैं आशा करता था कि मेरे पहले पत्र के संदर्भ में आप हमारे ज्ञानपीठ के साथ सरोकारों का इतना तो सम्मान करेंगे कि न्यासी मंडल में, एक नौकरशाह कुलपति और अपने निदेशक/संपादक की मिली भगत के फल स्वरूप आधी महिला आबादी की प्रतिनिधि लेखिकाओं के बारे में छिनाल और कुतिया जैसे अपशब्दों का साज़िशन प्रयोग करने और उन्हें और संपादक द्वारा बेबाक कहे जाने का नोटिस लिया जाएगा और निर्णय से अवगत किया जाएगा। अधिकारिक सूचना न प्राप्त होने के कारण मुझे अखबारों और आपके एक न्यासी और कर्मचारी द्वारा फोन के ज़रिए अपने पक्ष में वातावरण बनाने के लिए दबाव डालने, से सूचनाएं मिल रहीं हैं वे ही हमारे इस पत्र का आधार है।
न्यासी मंडल ने हिंदी साहित्य में महिलाओं की प्रतिनिधि लेखिकाओं का ज्ञानपीठ से प्रकाशित पत्रिका नया ज्ञानोदय में आपकी ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रवर समिति के सदस्य, पूर्व आई पी एस एवं म.गां.अं.हिं वि वि के कुलपति और आपके निदेशक /संपादक ने साज़िशन पुलिसिया गालियों का प्रयोग करके अपमान किया। जिसका विरोध ज्ञानपीठ विजेता कुंवर नारायण, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, बलदेव कृष्ण वैद, अशोक वाजपेयी, मृणाल पांडे आदि तथा अनेक अंचलों के प्रमुख साहित्यकारों ने किया है। अंग्रेज़ी, हिंदी अखबारों ने खबरें तो छापीं ही संपादकीय भी लिखे। हो सकता है वे सब आपकी और आपके न्यासियों की नज़र से न गुज़रे हों। अनेक ब्लाग्स में इस घटना से क्षुब्ध होकर टिप्पणियां भी पोस्ट की गईं हैं।
आपके एक आजावीन न्यासी ने उन्हीं दिनों फ़ोन पर सूचित किया कि म. गांधी अं. हिं वि वि वर्धा के आई पी एस कुलपति को, जो अपशब्दों के जनक हैं, प्रवर सिमति से हटाकर उनकी जगह डा नामवर सिंह को सदस्य बना दिया गया है जो नितांत भ्रामक था। नामवर सिंह जी जैसे आलोचक के लिए अपमानजनक था जबकि ऐसा करना संभव ही नहीं था। पूर्व राज्यपाल, मंडल के सदस्य श्री टी एन चतुर्वेदी ने तकनीकी आधार पर इस प्रचार का विरोध भी किया। न्यासी महोदय ने यह भी कहा कि संपादक/निदेशक को नहीं हटाया जा सकता क्योंकि स्व. लक्षमी चंद जैन के बाद उन महोदय ने ज्ञानपीठ को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। यह बराबरी भी भ्रामक होने के साथ अनुचित थी। एक तरह स्व जैन का अपमान था। इससे पता चलता है कि इस दुर्भाग्य पूर्ण घटना को मैनेजमेंट समर्थन दे रहा था और वह इस निर्णय पहुंच चुका था महिला लेखकों का अपमान करने वालों को वे बिना जांच के संरक्षण देंगे।
आश्चर्य होता है कि स्व. रमा जैन जैसी विदूषी और हिंदी के प्रति समर्पित महिला जिन्होंने ज्ञानपीठ संस्था की परिकल्पना को साकार किया, उसी संस्था के मंच पर हिंदी लेखकाओं को इतने घृणित व अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया गया है। (करने वाले सज्जन अभी तक प्रवर समिति पर बनें हैं क्योंकि संपादक/निदेशक, सुना जाता है दोनों हर काम में एक दूसरे के हर तरह पूरक हैं।) उसकी प्रशंसा संपादक ने अपने संपादकीय में की है। मज़े की बात है उक्त संपादक को आपके न्यासी स्व. लक्षमी चंद के समकक्ष रख रहे हैं। क्या इससे यह नहीं लगता कि एक व्यक्तिगत संबंधो के संरक्षण के लिए रमा जी की परंपरा, वर्तमान प्रबंधन, दरकिनार करने के लिए तैयार है? किसी भी दोषी का क्षमा मांग लेना क्या सब दोषों को नज़र अंदाज़ करने के लिए इतना काफी हो सकता है कि कोई संस्था अपनी सालों से चली आ रही परंपराओं को बेदखल कर दे। पुलिस मे तो क्षमा का कोई महत्त्व ही नहीं। सड़क पर रोज देखते हैं लोग पुलिस से पिटते और माफी की गुहार करते रहते हैं। यह लोमड़ी की चालाकी मानी जा रही है। प्रबंधन भी लीपा पोती करके मुक्त होने की जल्दी में है। यही बात सरकार भी लागी होती है। पता नहीं वि वि के कुलाधिपति ने कुलपति के इस व्यवहार के बारे में अपनी रपट विज़िटर को भेजी या नहीं।
जो सुनने और देखने में आ रहा है उससे पता चलता है कि प्रबंधन कुछ कार्यालयी रद्दोबदल करके, उसे इतने बड़े हिंदी साहित्य में पनप रहे असंतोष और उसके अपमान की भरपायी मान रहा है। सीटों के रद्दोबदल और अधिकारों की कतरब्योंत का कार्यक्रम दफ्तरों में स्वभाविक रूप में भी हुआ करता है और कमोफ्लेज के रूप में भी होता है। हिंदी लेखकों का इतना बड़ा सामुहिक विरोध पहली बार हुआ है। यह दूर तक जाएगा। कुछ लेखक तटस्थ हैं कुछ निहित स्वार्थों के चलते इस लहर की अनदेखी करके अपशब्दों का प्रयोग भी कर रहे हैं। लेकिन यह एकजुटती निरअर्थक नहीं जायगी।
मुझे नहीं मालूम आपके संपादक द्वारा, आपही के दो ज्ञानपीठ विजेताओं अज्ञेय और नरेश मेहता तथा देश के वरिष्ठ कवियों की कविताओं को सुपर बेवफ़ाई अंक में छापने के उनके निर्णय के बारे में प्रबंधन की राय क्या है। उसमें किससे कितनी बेवफाई है।
साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जहां किसी का आधिपत्य नहीं चलता, न लेखक का, नआलोचक का, न प्रकाशक का, न संपादक का। प्रतिरोध अधिकार अक्षुण्य है। प्रतिराध धीरे धीरे प्रभावी होता है। मझे दुख है कि ज्ञानपीठ जैसी प्रतिष्ठित संस्था का विरोध वर्तमान प्रबंधन के समय में आपके कुछेक लोगों की अहमन्यता कारण शुरू हुआ। काश वे इसकी गंभीरता और नज़ाकत को समझते।।
फिर भी मैं सब वर्गों के लिए मंगलकामना करता हूं। इस मनमानी के प्रतिरोध में मैं अपनी पुस्तकों की वापसी के बारे में लिख चुका हूं।
श्री अखिलेश जैन, प्रबंधन न्यासी, ज्ञानपीठ
नई –दिल्ली।
आपका

गिरिराज किशोर

Wednesday 18 August, 2010

14 अगस्त 10
प्रिय अखिलेश जी़,
आपका 9 अगस्त का पत्र मिला। धन्यवाद।
आपके इस आश्वासन से मन को अच्छा लगा कि आप ज्ञानपीठ की गरिमा बनाए रखने के प्रति कृतसंकल्प हैं यह तभी संभव है जब एक प्रोफेशनल प्रशासक की तरह स्थितियों का तटस्थता के साथ मूल्यांकन करके निष्कर्षों पर पहुंचा जा सके। व्यक्तिगत आग्रहों को नज़रअंदाज़ किया जा सके। मैं समझता हूं आप और अन्य सदस्य ऐसा कर सकेंगे।
जहां तक आपत्तिजनक शब्द निकाल कर पृष्ठ पुनर्प्रकाशित करने की बात है इस संदर्भ में दो बाते हैं 1. जितना जिसको नुकसान होना था हो चुका। चाहे ज्ञानपीठ हो या इंगित व्यक्ति हों। मुझे नहीं पता कौन कौन से शब्द निकाले गए। छिनाल तो निकाल ही दिया गया होगा। प्रोमोटेड और ओवररेटेड? जो महिला विशेष की ओर संकेत करता है। जबकि यह कहने वाला स्वयं भी इसी घेरे में आता है। इसके अलावा कितने बिस्तरों पर कितनी बार भी किसी महिला विशेष की ओर संकेत करता है। यही स्थिति साक्षात्कार में प्रयुक्त निम्फोमेनियाक कुतिया का है। उस महिला को साक्षात्कार देने वाला ही नहीं जानता आपकी पत्रिका संपादक भी जानता है, शायद। 2. आपने शब्द निकलवा दिए चटख़ारे लेने और महिलाओं को अपमानित करने की मानसिकता भी क्या निकल सकी है?
कुलपति महोदय ने मंत्री जी को अपना माफीनामा दे दिया संपादक जी ने आपको। क्या यह आभास नहीं देता कितना संयुक्तरूप से नियोजित निर्णय है भले ही अलग अलग कार्यान्वित हुआ हो। हत्या करके माफी मांगना कितना तर्क संगत है यह तो माफ़ करने वाले जानें। कई बार सोचता हूं देह हत्या बड़ी है या सम्मान की हत्या।
आपके संपादक का कथन है कि वे गोवा गए थे। जहां तक मासिक पत्रिकाओं का सवाल वे महीने की बीस तरीख को तैयार हो जाती हैं। प्रूफ रीडींग पहले खत्म हो चुकती है। संपादक महोदय पहले ही अपने संपादकीय में उस साक्षात्कार को बेबाक कहकर प्रशंसा कर चुके हैं। इस पृष्ठ भूमि में प्रबंधन उनके इस तर्क से संतुष्ट है तो बात अलग है।
हमने आपको संदर्भित पत्र में ज्ञानपीठ से संबंध न रखने की बात मजबूरी में कही है। मेरा संबंध तो ज्ञानपीठ से पुराना है। साहू शाति प्रसाद जैन, रमा जी के ज़माने से है। साहू रमेश चंद जैन से तो मित्रवत था। उनका आग्रह था कि मैं अपनी पुस्तकें ज्ञानपीठ को देता रहूं। लेकिन मैंने वर्तमान निदेशक के रवैए से आहत होकर आपको सबसे पहला पत्र लिखाथा। मुझे संदेश मिला था आप चाहें किताबे वापिस ले लें। उस वक्त तो मैं रमेश जी का आग्रह याद करके खामोश रहा लेकिन उसके बाद मैंने अपनी चार पुस्तकें दूसरे प्रकाशकों को देना उचित समझा। इस घटना के बाद अगर कुलपति और वर्तमान संपादक का युग्म ज्ञानपीठ से जुड़ा रहता है तो उपरोक्त सदेश स्वीकार करना होगा। प्रियंवद जी पिछले पत्र में अपनी इस तरह की इच्छा ज़ाहिर कर चुके हैं। बाद में अशोक वाजपेयी ने भी इस आशय की अपील की थी। मैं ज्ञानपीठ की सफलता की कामना करता हूं।

श्री अखिलेश जैन, प्रबंधन न्यासी
ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
आपका

(गिरिराज किशोर)

Tuesday 10 August, 2010

किसी को गाली किसी को सुहाली

हिंदी जगत में एक ऐसी घटना घटी है जिसने दो मूलभूत आस्थाओं को हिला कर रख दिया है। वे आस्थाएं हैं शैक्षिक जगत के शीर्ष कहलाने वाले प्रज्ञापुरुष कुलपतियों के शब्द संस्कार व विवेक के प्रति आस्था और संपादकीय दायित्वों, संवेदनाओं की समझ और संस्कृतिगत मान्यताओं के निर्वहन की क्षमता के प्रति पाठकों की जन्मजात आस्था। पहली बार एक कुलपति ने, (वह भी म. गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति) लेखिकाओं की गरिमा को आहत करने वाली ग्राम्य कही जाने वाली शब्दावली का अपने स्टेटस सॆ गिरकर प्रयोग करके देश की आधी आबादी को ही नहीं बल्कि बाकी आधी आबादी को भी शर्मसार किया। संपादक महोदय ने, जिनके बारे में कहा जाता है कि दूसरों को अपमानित करने और कराने में मज़ा लेते हैं, अपनी पत्रिका उस साक्षात्कार को छापकर मियां मिट्ठू बनने की तर्ज़ पर बेबाक करार दिया। उनकी उस पुलिसिया भाषा को जिसमें लेखिकाओं को छिनाल शब्द से सम्मानित किया है वे ये सिद्ध कर रहे हैं कि वह अपमानक जनक शब्द नहीं है। शायद उस पृष्ठ भूमि वालों के लिए वर्जित से वर्जित शब्द भी वर्जित नहीं होता। मैंने ओम जी का ध्यान उस साक्षात्कार में प्रयुक्त एक और शब्द की ओर आकर्षित किया जिसकी ओर ध्यान या तो गया नहीं या देना ज़रूरी नहीं समझा। वह शब्द है ‘निम्फोमेनियाक कुतिया’ जिसका ग्राम्या पर्यायवाची न बोला जा सकता है न छापा जा सकता है। यह शब्द किसी काल्पनिक पात्र के संदर्भ मे प्रयोग नहीं किया गया है बल्कि हाड़ मास की जीती जागती महिला के बारे में किया गया है जिसका साक्षात्कार में उल्लिखित कहानी के लेखक के संदर्भ में किया गया है। संपादक महोदय भी अनजान नहीं होंगे। उन्होंने इतने गंदे संदर्भ को कैसे जाने दिया। इसके पीछे खुन्नस निकालने का मंतव्य शायद ही हो। संस्था की स्वस्थ परंपराएं रही हैं। संपादक व पत्रिका के ऐसे लेखकों के मौज मज़े और स्थानीय खुन्नस के लिए संस्था अपनी मान्यताओं को इस लिए डाल्यूट नहीं करेगी कि वह एन केन प्रकारेण पत्रिका को चीप बनाकर उनका चहेता संपादक पैसा कमाकर दे और लेखकों को स्वयं अपमानित करे या पुलिसिया अंदाज़ में कराए। ऐसा पहले भी हुआ है। हमारी सबकी आदरणीय और वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती और कवि विजयकुमार के साथ भी इस प्रकार की अशोभनीय घटनाएं हुई है।
संपादक महोदय हमारे तबसे मित्र हैं जबसे वे रानीमंडी इलाहाबाद में प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। तब से अब तक मैं उनके साथ रहा हूं। वफ़ा और बेवफ़ाई औरत और मर्द के संबंधों के बीच ही नहीं होती मर्दों के बीच भी होती है। उसका क्या ज़िक्र। एक घटना जो संपादन से ही संबंधित है उसका उल्लेख गैरमुनासिब नहीं होगा। यह बेवफा का नहीं वफा की बात है। गंगा जमुना के संपादन के दिनों की बात है। नया ज्ञानोदय के संपादक ही गंगा जमुना टेब्लायड के संपादक भी थे। किसी पीड़ित व्यक्ति ने संपादक और उसके मालिक आलोक बाबू के खिलाफ उरई में मुकदमा दायर किया था। शायद गंगा जमुना में गलत बयानी का मामला था। कोई इलाहाबाद का वकील था वह संपादक जी को झांसा देता रहा कि वह केस खत्म करा देगा। उसने शायद कुछ नहीं किया। आखिर वारंट जारी हो गया। संपादक जी का फोन आया कि ऐसा मामला है। मैंने कहा तुम आ जाओ देखेंगे क्या हो सकता है। प्रियंवद को साथ लेकर हम दोनों उरई गए। वकील दोपहर तक टहलाता रहा। मजिस्ट्रेट जब आया मामला पेश हुआ तो मजिस्ट्रेट का रुख गड़बड़ लगा। ज़मानत कराओ या जेल जाओ। हम दोनों ने तय किया उन्हें जेल नहीं जाने देंगे।एक पत्रकार प्रियंवद की फैक्ट्री में काम कर चुका था। प्रियंवद शायद पहली बार संपादक जी से मिला था। प्रियवंद ने उसे बुला लिया। संपादक जी उंगलियों मे सिगरेट फंसाकर लगातार घुमा रहे थे। वह पत्रकार वहां के बड़े डाक्टर को लेकर आए। उनके कोर्ट में जाते ही मामला रफा दफा हो गया। संपादक जी ने तब जाकर उंगलियों में नाचती सिगरेट सुलगाई। हम लोग उन्हे लेकर कानपुर भागे। कहने का मतलब बिना सोचे समझे कुछ भी लिख देने में माहिर हैं।
बेव़फाई अंक में कई प्रकृति संबंधी कविताओं पर भी बेवफाई का तौक लटका दिया गया है। पता नहीं उन कविताओं ने किसके साथ बेवफाई की। कहानियों को भी कहीं लेखकों ने छपवाने के नाम पर हो सकता है बेवफाई के चबच्चे में न धिकलवा दिया हो। उनकी मर्जी। नकारात्मकता जल्दी पापुलर होती है। जब मुझसे एक ज्ञानवान वरिष्ठ व्यक्ति नें कहा कि लक्ष्मी चंद जी के बाद इन सज्जन ने संस्था आगे बढाया है। मैं समझ नही पाया उनका मतलब गरिमा से है या पैसे से। फिर ध्यान आया कही लक्ष्मी चंद जी ने न सुन लिया हो। उनकी आत्मा को कैसा लगेगा। जितने निदेशक आए संस्थान से व्यक्तिगत लाभ सबसे कम समय में वर्तमान सज्जन ने उठाया, ऐसी चर्चा है। कोई बुरी बात नहीं मौक़ा मिलने और लहने की बात है। लेकिन दूसरों पर गर्द उड़ाने और दोस्तों को चढ़ाना साऊ को गिराना भी सिक्के का दूसरा स्याहा पहलू है। सुनने में आया है कि कुलपति के साक्षात्कार में चार महिलाओं के नाम थे। वे नहीं छपे। पर कुलपतिजी ने छिनाल शब्द छापने पर आग्रह किया। अगर ऐसा है तो वे कैसे कह सकते हैं कि मंत्री ने फोर्सड माफीनामा लिखवाया। क्या नौकरी बचाने के लिए। दीक्षान्त समारोह में दीक्षा देने वाले कुलपति की निष्ठा पर सवाल लगता है। वैसे भी यह शब्द एक या दो चार महिलाओं या लेखक वर्ग पर ही आक्षेप नहीं हर वर्ग की छोटी बड़ी माननीयों पर भी छींटाकशी है। उनके अपने घरों की महिलाओं को भी आपत्ति हो सकती है। दूसरे वाचाल लोग गलत इस्तेमाल कर सकते हैं। संपादक पर जब बात आई तो सुना कि अपने अभिन्न मित्र कुलपति की जगह, यह कहकर नामवर जी को प्रवर समिति में रखवाया कि उनके आने से बात संभल जाएगी। सुना है उनके पास तो पत्र भी नहीं पहुंचा। सूत न कपास जुलाहे से लट्ठम लट्ठा।

Thursday 24 June, 2010

आदिवासी समस्या का हल माओवाद नहीं राजनीतिक है

6 जून 10 के अमर उजाला(आनंद) में एक नक्सली की डायरी छपी है। वह मई 1973 से लेकर 2010 यानी 37 वर्ष के नक्सली जीवन पर आधारित है। अनेक अंतर्विरोधों से भरी हुई। सरकारें तो अत्याचार और दमन करती ही हैं चाहे कम्यूनिस्ट सरकार हो या अमेरिका व भारत की जनतंत्रात्मक सरकार या माओवादी सरकार। 8 जून के yahoo ईमेल पर न्यूज़फ्लेश था कि व्हाइट हाउस की लीजेंड पत्रकार रिटायर कर दी गई क्योंकि उसने कहा था कि इज़राल ने हदें पार कर दीं। हांलांकि अमेरिका मानव अधिकार का सबसे बड़ा पोषक और संवर्धक होने का दावा करता है परंतु जबसे अमेरिका अस्तित्व में आया तबसे लेकर आज तक उन अधिकारों के उलंघन का पुरोधा बना हुआ है। रेड इंडियन्स से लेकर इराक़ का अन्याय पूर्ण दमन और उत्पीड़न तथा इज़राइल द्वारा फिलिस्तान के मुसीबतज़दा लोगों के लिए राहत सामग्री ले जाने वाले जाहज़ों पर अमानवीय आक्रमण व अधिग्रहण का एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा विरोध करने पर उसका व्हाइट हाउस से निष्काषण, क्या अमेरिका को मानवअधिकारों का संरक्षक कहा जा सकता है? शायद जनतंत्र भी मानवीयता का बाना पहन कर उतना ही तुर्रमखां है जितनी तानाशाही। स्टालिन के मिडनाइट नाक के नाम से आज भी पसीना आजाता है। आपातकाल में हमारे यहां भी यही हुआ। माओ की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन के सब लेखक/बुद्धिजीवी कामगर बना दिए गए थे। रात में मोमबत्ती की रोशनी में कितांबें स्मगल करके पढ़ते थे। पकड़े जाते थे तो लेशिंग होती थे। यानी ठोक पीटकर पोलितेरियत बनाया जाता था। उपरोक्त नक्सली की डायरी में नंबर 1997 को डायरी नवीस ने एक अमनोवैज्ञानिक घटना का जिक्र किया जो शायद उनके अनुशासन का हिस्सा हो। लगता है सब मानवेतर और अमनोवैज्ञानिक निर्णय अनुशासन के नाम पर ही लिए जाते हैं।
1997 ...लक्ष्मी और अशोक। सशस्त्र क्रांति में बंदिशें हैं, लेकिन प्रेम कहां कोई बंधन मानता है। दोनों ने जाने कब एक दूसरे को दिल दे दिया पता नहीं। दोनों मद्देड़ के पास हुई बड़ी कार्यवाही में भी शामिल हुए थे। अब शादी करना चाहते हैं। आज की बैठक इसी मुद्दे पर है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी ने शादी की मंज़ूरी दे दी।...पार्टी ने एक शपथ पत्र तैयार किया है। यही शपथ कामरेड के लिए अग्निकुंड है, सात जन्मों में बंधने का जतन। दोनों ने शपथ ली कि वे शादी के बाद भी पहले की तरह पार्टी का काम करते रहेंगे।...(पहले की तरह का मतलब...?)
अक्तूबर, 1998 ...दोनारपाल से बीजापुर के बीच एक बड़े आपरेशन को हमने अंजाम दिया। हम पर सुरक्षा बलों का दबाव बढ़ गया है। इस बीच खबर आई कि लक्ष्मी और अशोक ने सरंडर कर दिया। दोनों बच्चा चाहते थे। पार्टी में प्रेम की इजाज़त है, बच्चा पैदा करने की नहीं।
2010, सत्तर के दशक में जो सपना देखा था उसका यह हश्र! उस दौर में लोग हमें क्रांतिकारी समझते थे अब आतंकवादी कहने लगे हैं। हमारी विचारधारा में तो कोई खोट नहीं था। फिर हमारे हाथ उसी जन के ख़ून से क्यों सने हैं जिसके नाम पर हमने जनसंघर्ष की शुरूआत की थी?
37 साल के नक्सली जीवन के बाद जब एक सेंट्रल कमेटी का सदस्य अपने आप से यह सवाल करता है कि हमारे हाथ उसी जन के खून से क्यों सने हैं जिसके नाम पर जन संघर्ष की शुरूआत की थी तो यह सवाल पुनर्विचार की गुंजायश पैदा करता है उनके लिए खासतौर से जो इस रक्ताभ आंदोलन के कर्णाधार हैं या समर्थक हैं (कनू बाबू का प्रायश्चित भी शायद यही था)। हम क्या हिंसा या बंदूक के वल पर परिवर्तन ला सकते हैं? कर सकते हैं तो कितने समय के लिए? अगर ला सकते तो स्टालिन और क्रुश्चेव की बिदाई के बाद गोर्बोचोव इतनी जल्दी सफल न होते। माओ के बाद चीन रिविज़निस्ट या क्षमा करें रेनिगेड बनकर पूंजीवादी व्यवस्था को आत्मसात करने को बाध्य न होता। (आज चीन में हर पूंजीपति 12 सीटर व्यक्तिगत एयर क्राफ्ट पर चलता है)। बंदूक से निकलने वाली वह गोली न चीन अपने अशांत प्रदेशों में उनकी आज़ादी के लिए इस्तेमाल कर पा रहा है और न ही पूंजीवादी देशों के दबाव से मुक्ति पाने के लिए। शांतिपूर्ण हल निकालने के लिए बंदर भभकी का सहारा ले रहा है। यही हाल पूंजीपति देशों का है। दरअसल सब देश अपने अपने असलहे चमका रहे हैं पर सब शार्टकट शांति चाहते हैं सीधे शांति की बात नहीं करते। अलबत्ता तीसरी दुनिया के देशों के गरीब और अनपढ़ जन को मारने या धमकाने के लिए जिस जन के लिए जन के नाम पर जनसंघर्ष कर रहे हैं उसी को मार रहे हैं उसी के ख़ून से हाथ सान रहे हैं। चाहे मुख़बिर का नाम देकर उसी आदिवासी को मारें जिसके अधिकार को संरक्षित करने की बात करते हैं या उस सिपाही को मारें जो रोज़ी रोटी के लिए जान जोखिम में डालकर वहां तैनात है। वह लड़ नहीं रहा था, बस से घर जा रहा था। रेल गाडियों को उड़ाकर उन बेगुनाह लोगों को खत्म कर देते हैं कि जो या तो बर्तनभांडे बेचकर नौकरी की तलाश में जा रहे होते है या फिर बीमार संबंधी को देखने किस तरह जुगाड़ करके उस गाड़ी में यात्रा कर रहे होते है। किस लिए? उसका तुम्हारे ऊपर तो असर पड़ना ही नहीं तुम तो जनक्रांति कर रहे हो। उनके ऊपर तो पड़ना ही नहीं जिनका उद्देश्य देश को आतंकवाद से सुरक्षित करना है। जनता को तुम दोनों ने इस तथा कथित दुमूही क्रांति के नशे के बीच जीने की आदत डाल दी है। वह कुछ समय के लिए दुखी होता है फिर सर्द आह भरकर काम में लग जाता है। इन दो कोष्टों ने उस जन से विरोध और समझदारी का अधिकार छीन लिया है।
हमारे बुद्धिजीवी दुमूही बातें करने में पारंगत हैं। वे आसानी से कह देते हैं कि मैं हिंसा का समर्थन नहीं करती या करता जैसे अरुणधति जी। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि एक सशस्त्र आंदोलन होना चाहिए, साथ ही यह भी चुनौती कि सरकार चाहे जेल में बंद कर दे। एक बार जेल यात्रा का मौक़ा आया था तब महीने भर जेल में रहना गवारा नही हुआ था माफ़ी मांगकर चले आना सुखकर लगा था। सशस्त्र आंदोलन किस लिए जब आप हिंसा का समर्थन नहीं करते तो सशस्त्र आंदोलन क्या फैशन परेड है जिसे आप हर्ष फायरिंग की तरह करना चाहते हैं। बुद्धिजीवी हिंसा का विरोध भी करेगा और हिंसा का साज़ो सामान इकट्ठा करने को प्रोत्साहन देकर पेट्रोल को आग के पास भी ले जाएगा। बेहतर यही है वे एक तरफ हो कर साफ़ बात करें। कोई एतराज़ नहीं अगर वे हिंसा के समर्थक बने रहें। संसार में सशस्त्र आंदोलनों के दौरान कहीं ऐसा नहीं हुआ कि शस्त्रों या उनके धारकों ने गुनाहगार और बेगुनाह में भेद किया हो। यह कहना कि मैं हिंसा का या बेगुनाह लोगों की हत्याओं के पक्ष में नहीं हूं महज़ लफ़्फाज़ी ही कही जाएगी। हिंसा तो सामने दिखती है पर गुनाहगार और बेगुनाह छिप जाते हैं। जो मारा गया वह गुनाहगार हो गया। जिसे शासन शहीद या बेगुनाह करार देता है मारे जाने के बाद ‘क्रतिकारी’ गुनाहगार करार दे देते हैं। उसे और उसके घरवालों को भी मौत को दो कोष्ठों के बीच जीना पड़ता है। बकौल अरुणधति जी के सरकार अपने देशवासियों के खिलाफ युद्ध कर रही है यह बात गलत नहीं। लेकिन क्या माओवादी देश के लोगों के खिलाफ हथियार नहीं उठाए हुए हैं। जिन आदिवासियों के पक्ष में वे हथियार थामें हैं क्या उन्हीं को मुखबिर का नाम देकर हत्याऐं नहीं कर रहे हैं? सिपाहियों को तो वे मार ही रहे हैं। जैसा कि ‘एक नक्सली की डायरी’ में लिखा है क्या लक्षमी अशोक को विवाह की अनुमति देकर बच्चा न पैदा करने की बंदिश तालिबाना हुक्म नहीं है। विवाह की इजाज़त देकर बच्चा पैदा न करने देना, स्वाभाविक जीवन जीने की अपेक्षा को अग्निकुंड में झोंक देना तो और भी बड़ी अमानवियता है। उन्होंने सरेंडर करके उन तथाकथित क्रतिकारियों की नज़र में शायद गद्दारी की हो लेकिन अपनी संवेदनाओं को सुरिक्षत करने का संभवतः यही एक तरीक़ बचा था। हो सकता है बाद में एस पी ओ नाम देकर उनकी भी हत्या कर दी गई हो। मानवीय संवेदनाओं के आधार पर उनकी समस्यों को सुलझाना या दिलों को बदलने का दायित्व उन सशस्त्र क्रातिकारियों का नहीं? सेनाएं भी संवेंदनाओं के सहारे चल सकती हैं। बड़ी विचित्र बात है अरुणधति जैसे बुद्धिजीवी अपनी रौ में किसी पर भी किसी तरह का आधारहीन लांछन लगा सकते हैं। मैं इस रिमार्क को कि ‘विरोध के गांधीवादी तरीके को दर्शकों की ज़रूरत होती है जो यहां नहीं हैं’ अपरिपक्व और अनभिज्ञतापूर्ण मानता हूं। इतना ही कहा जा सकता है कि सबसे अधिक आत्मीय हिस्से दारी आज़ादी के उसी आंदोलन में थी जिसमें जन निहत्था संघर्ष करता था। उन्हें मात्र दर्शकों की संज्ञा देकर एक ऐसे प्रयोग को लांछित करना है जो न पहले कभी हुआ, न आगे होगा। जो अपने आप में हथियारों के बल पर लड़ने से अधिक साहसी काम है। क्रांतिकारियों के कैंप का दौरा करना और लेख लिखने हिस्सेदारी नहीं दर्शन करना मात्र है। यहां मैं उस ज़माने के विदेशी पत्रकार की टिप्पणी पेश करना चाहता हूं जो नमक आंदोलन के बारे में अखबार को भेजी गई थी। अंग्रज़ी में ही दे रहा हूं अंग्रेज़ीदां बुद्धजीवी अगर पढ़ना चाहेंगे तो कम से कम वे इसका लाभ ले सकेंगे और अपनी अनभिज्ञता से थोड़ी बहुत मुक्ति पा सकेंगे-
‘This spectacular event was reported around the world; in the striking words of Webb Miller, the united press correspondent: From where I stood I heard the sickening whack of sticks on unprotected skulls…those struck down fell sprawling , unconscious, or writhing with fractured skulls or broken shoulders.’ (Gandhi Naked Ambition P. 191 , Jad Adams)
वे लोग बंदूकों या गोलियों के सहारे हिस्स्दारी नहीं कर रहे थे। हथियार क्रांतिकरियों की अपनी सुरक्षा के माध्यम अधिक होते हैं। वे गांधीवादी तमाशबीन नहीं थे। वे निहत्थे असुरक्षित होने के बावजूद अपने शरीरों पर आक्रमण झेलकर अहिंसक क्रांति कर रहे थे। उन दरिंदो को सचेत कर रहे थे कब तक मारोगे। क्रांति के नाम पर सशस्त्र क्रंतिकारियों के लिए हिंसा के द्वारा हत्याएं करना गुरूमंत्र है वहीं अहिंसक क्रांति में आत्मबलिदान करके परिवर्तन लाना जीवन का उदेश्य है। शायद हमारे मार्क्सवाद बुद्धिजीवियों को हिंसक क्रांति पसंद है। वह आत्मरक्षा के साथ दूसरों की जान लेकर बचे हुए लोगां को समझदार बनाते हैं। हम समझदार हैं हमारे पास हथियार हैं हमारी बात मानो।
कोई उनसे क्यों नहीं पूछता कि पार्टनर तुम्हारी क्या राजनीति है। अगर तुम इस शस्त्र क्रांति में सफल हो गए तो क्या करोगे? क्या तब भी बंदूक की गोलियों से लोगों को ज्ञानी बनाओगे? चंगेज़ खा़, सिकंदर, नादिर शाह, हिटलर, मोसोलोनी, स्टालिन, हिटलर, माओ कोई हिंसा को अमरत्व प्रदान नहीं कर पाया। अमेरिका का अणु बम भी चमत्कार नहीं कर पाया। उसके मालिक को जापान के सामने आज भी याचक का बाना पहनना पड़ता है। गांधी ने कहा था ’l see no difference between the Nazi powers and the allies . All are exploiters, all resort to ruthlessness.’ (पृ 221, वही)
हिटलर की, गांधी ने उसके व्यक्तिगत आचरण के लिए प्रशंसा की थी पर उसके राजनीतिक नज़रिए के बारे मे 1940 में उन्हें ही लिखा ‘Dear Friend, We have no doubt about your bravery or devotion to your father land nor do we believe that you are a monster described by your opponents (though) many of your actions are monstrous and unbecoming of human dignity, specially in estimation of men like me who believe in universal friendliness,’ (पृ एवं पुस्तक वही)
हिटलर की तरफ से भारत के पूर्व गर्वनर जनरल और तत्कालीन विदेश सचिव लार्ड हेलिफेक्स को सलाह दी गई थी कि तुम्हें एक ही काम करना है गांधी को शूट कर दो। अगर ज़रूरत समझो तो कांग्रेस के कुछ और नेताओं को खत्म कर दो। तुम देखना कितनी जल्दी तुम मुसीबत से निजात पा जाते हो। असिहष्णुता तानाशाही की जनक है और जनतंत्र की हत्यारी। अंग्रज़ों के लिए हिटलर की सलाह पर अमल करना मुश्किल नहीं था लेकिन उन्होंने, और चाहे जो किया हो, पर ऐसा नहीं किया। हमारे देश के हिंदूवादी लोगों ने भले ही कर दिखाया।
एक सवाल जो शायद सबके दिमाग में आता हो, अपवादों को छोड़कर। वे सत्ता प्राप्त करने के लिए सशस्त्र क्रांति पर आमादा है या जन कल्याण के लिए? जन कल्याण का माध्यम क्या होगा? उनका नारा है सत्ता बंदूक की नली से निकली गोली से मिलती है। उसे बरकरार रखने के लिए भी शायद उसी की ज़रूर होती है जैसा कि कई देशों में हुआ है। जव उसका भय खत्म हो जाता है या सामने बड़ी शक्ति आ जाती है तो शांति की खोज होने लगती है। गोली की समय सीमा क्या है, सत्ता मिलने तक या उसके बाद भी..? सवाल उठेगा सत्ता मिलने पर उनकी योजना क्या होगी।
नाम भले ही जनता से जुड़ा हो पर उन्हें भी औद्योगिकरण करना है। ज़मीन भी चाहिए, पानी भी चाहिए, खनिज भी चाहिए हर वह चीज़ चाहिए जो कोर्पोरेट जगत को चाहिए। धन तो चाहिए ही। य़ा वे मशीनों के मुकाबले जन शक्ति और अहिंसा को प्राथमिकता देंगे? शहरों में कितनी ज़मीन बची है, जंगलों की तरफ जाना उनकी भी नियति होगी। जो विरोध करेगा उसे जनविरोधी की संज्ञा देकर किनारे लगा दिया जाएगा या उनकी बात सुनी जाएगी? विकास का ऐसा उदाहारण कहीं नहीं है जो यह बताता हो कि उन्होंने बंदूकें छोडकर मेहनतकशों व किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया हो। समाज में समरसता बनाई हो। भय उनका परोक्ष और प्रभावी हथियार रहा। सभ्य बनने के साथ इस हिंसक संस्कृति से आम जन को निजात दिलानी होगी। वे तो कमिसार बने ट्रिगर पर उंगली रखे खड़े रहते हैं। उनकी तरबियत ही ऐसी है। आम आदमी सुरक्षा चाहता है, शांति चाहता है। भय के ज़रिए सुरक्षा देने के आदी आत्मियता और भाईचारे की नीति से अनभिज्ञ रहते हैं। दोनों सवाल अलग हैं सत्ता पाना और आदिवासियों का मित्र बनकर उनका साथ देना। नफ़रत की डाल पकड़कर हिंसा परवन चढ़ती है।
ये दोनों बातें अलग हैं, सशस्त्र क्रांति और आदिवासी सस्याओं का समाधान। ये आधुनिक हथियार उनके मित्र नहीं। ठोक पीटकर भले ही उन्हें हथियारों का मित्र बना दो पर वह उनके नैसर्गिक मित्र नहीं हो सकते। जो लोग कपड़ों को अपने जीवन के लिए अनिवार्य नहीं मानते वे उन आधुनिक हथियारों को अगर स्वीकार करेंगे तो एक कड़वी गोली की तरह ही। उन्होंने 19वी शताब्दी में अपने ही हथियारों से अंग्रज़ो को पानी पिलाया था। मानगढ़ का विद्रोह इसका उदाहारण है। उसी पर आधारित हरिराम मीणा का उपन्यास धुनि तपे तीर है। वे इन हथियारों से सहजता अनुभव कर ही नहीं सकते। न उन्हें उपलब्ध करना उनके बस की बात है। आप ही एक से एक साफेस्टिकेटेड हथियार आभूषणों की तरह प्राप्त करके उन पर वर्चस्व कायम कर रहे हैं। उन्हें परनिर्भर बना रहे हैं। जिनसे आप हथियार ले रहे हैं वे देश जन के अधिकारों की सुरक्षा मं रुचि नहीं रखते बल्कि उनकी रुचि अपने देश के लोगों के माध्म से देश में असंतुलन पैदा करके अपना राजनीतिक हित साधना है। आदिवासियों की समस्या बाहरी हस्तक्षेप से नहीं निबटेगी उसके लिए उनके साथ काम करके उन्हें उनके आत्मबल का अहसास कराना होगा। हथियारों की लड़ाई तो परमुखापेक्षी बनाकर उनकी आज़ादी का अपहरण होगा। वे कमज़ोर नहीं हैं। अपने हथियारों की चकाचौंध में उन्हें भरमाए नहीं। आज़ादी की लड़ाई के दौरान न क्रंतिकारियों ने विदेशों से इस तरह की सहायता ली और न अहिसक राजनीति ने। गांधी का मानना था कि दूसरों के सहारे हिंसा की लड़ाई लड़ना देश को गुलाम दर गुलाम बनाना है इसी संकट से बचने के लिए अपनी तकनीक ईजाद की। जिन्ना भी इस बात को जानते थे कि हर समस्या का राजनीतिक हल निकल सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि मार्क्सवादी सोच के कारण ही दूसरे देशों में इस तरह का हस्तक्षेप बढ़ा है। हम मध्यकाल में और 18वी 19वं सदी में देख चुके हैं कि अपने भेद भावों के चलते हमने बाहर ताकतों को बुलाया और गुलामी दर गुलामी भोगी। वही काम प्रकांतर से अब हो रहा है। आदिवासी समस्या हमारी बिगाड़ी हुई है उसको संवारना हमारी ही जिम्मेदारी होनी चाहिए। इसे वहन करना पड़ेगा और उसका राजनीतिक हल निकालना होगा।
(sankshipt ansh 24.6. 10 ko Jansatta mai chapa hai)



Thursday 3 June, 2010

सुल्ताना डाकू और उसका दोस्त

हिंदुस्तान दैनिक 30 मई 10 में एन सी शाह के शोध के माध्यम से छपे एक समाचार ने मेरा बचपन मुझे याद दिला दिया। सुल्ताना डाकू पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसी आख्यान के नायक की तरह था। स्कूलों में नाटक खेले जाते थे, नौटंकियां और सांग होते थे। वह डाकू कम नायक ज़्यादा था। वह वेष बदलने में माहिर था। अकसर अग्रेज़ अफसरों को मूर्ख बनाकर निकल जाता था। कभी कलक्टर बन जाता था कभी कमिश्नर और कभी एस पी। उसके बारे में अनेक ऐसी किंवदन्तियां प्रचलित थीं कि अमीरों को लूटता था और गरीबों का साथी था। कई बार वह वेष बदलकर ऐसे बेसहारा परिवारों की मदद के लिए पहुंच जाता था जहां बेटी की बारात आने वाली होती थी और घर में भुनी भांग नहीं होती थी। पीछे पुलिस होती थी। वह साधु या साहुकार के वेश में आता जो धन देना होता देकर निकल जाता। पीछे से पुलिस आती देखती जहां कुछ देर पहले पैसा न हाने के कारण मुर्दनी छाई थी वहां शादी की तैयारियां चालू है। तहकीकात करने पर पता चलता कि एक सेठ या महात्मा आया धन देकर चला गया। वे मार पीट करते पर इससे ज़्यादा न वे बता पाते और न वे जान पाते। पुलिस वाले भी समझ जाते कि सुल्ताना फिर हाथ से निकल गया। कई बार तो वह आला अफसरों से बैठकर बात कर जाता, नाई बनकर उनकी हजामत तक बना जाता। उसके जाने के बाद जान पाते कि वह सुल्ताना से बात हो रही थी। वह चाहता तो उन्हें आराम से हलाक कर सकता था। वे रोमांचित हो उठते थे और सीने पर क्रास बनाने लगते थे। ईशू ने बचा लिया।
सुल्ताना कभी धोखे से वार नहीं करता था। अफसरों को मूर्ख बनाने में उसे मज़ा आता था। आम जनता की हमदर्दी के कारण उसे पकड़ना अंग्रेज़ों के लिए टेढी खीर था। अगर कभी हाथ भी आ जाता था तो चकमा देकर निकल जाता था। एक किंवदंति थी कि वह किसी बच्चे को गोद नहीं लेता अपने बच्चे को भी नहीं। बताते हैं उसे शाप था कि जिस दिन बच्चे को गोद में उठाएगा वही उसका अंतिम दिन होगा। पूरा किस्सा तो श्री शाह के शोध में होगा। लेकिन कहते हैं कि स्थिति ऐसी उत्पन्न हुई या की गई कि उसने बच्चा गोद में उठा लिया। उसी दिन वह पकड़ लिया गया। उसे फांसी की सज़ा सुनाई गई। कहा जाता है कि फांसी से पहले उसकी मां मिलने आई तो उसने मिलने से यह कहकर मना कर दिया कि आज यह दिन तेरे कारण देखने को मिला। इससे यही पता चलता है कि उसे वास्तव में डाकू बनने का कितना पछतावा था।
मेरा बचपन आल्हउदल और शाहआलम के आख्यानों की तरह सुल्ताना डाकू के किस्से सुनते बीता। लेकिन डा शाह के शोध के इस हिस्से ने मुझे रोमांचित कर दिया। यह तो सुना था कि फांसी से पहले किसी अंग्रेज़ अफसर ने आश्वासन दिया था कि वह बाद में उसके परिवार की देख भाल करेगा। यह एक बड़ा रहस्योदघाटन है कि जिस पुलिस अफसर फ्रेड्रिक यंग ने उसे फांसी दिलवाई वही उसकी पत्नी और बेटे को अपने साथ लंदन ले गया, उनकी परवरिश की और बेटे को पढ़ा लिखाकर आई सी एस बनाया। डा शाह का शोध हालांकि मैंने नही पढ़ा लेकिन दो परस्पर विरोधी और एक तरह से जानी दुश्मनों की संवेदना भरी कथा है। मि. यंग का सुल्ताना के आख्यानों में प्रमुख भूमिका थी। सुल्ताना यंग को तरह तरह के रूप रखकर बहुत छकाता था। शायद हिंदुस्तानी अधिकारी ऐसे डाकू को कानूनी ज़द में लाकर फांसी दिलाने के बजाए एनकाउंटर करके बार बार होने वाली अपनी बेइज्ज़ती का बदला लेता। उसके परिवार के साथ यह सलूक तो अकल्पनीय है।
मैंने अपने छात्र जीवन में सुल्ताना डाकू नाटक में यंग की भूमिका की थी। यंग का एक संवाद मुझे स्मरण है। सुल्ताना जब नाई बनकर यंग की हजामत बनाते हुए कुछ सुचनाएं इकट्ठी करके निकल जाता है तो यंग को पता चलता है। पहले सिपाहियों को दौड़ाता है फिर स्वगत कहता है सुल्ताना काश पुलिस में होता। इससे लगता है यंग उसकी क्षमता को समझता था। शाह ने लिखा है कि दोनों मज़बूत इरादे और चरित्र के इंसान थे। शाह का शोध यंग के द्वारा अंग्रेज़ हुकूमत को रोज़ाना भेजी जाने वाली रिपोर्टों पर आधारित है। मुझे खुशी है कि मैंने नाटक में एक ऐसे अधिकारी की भूमिका की जिसने इंसानियत की ऐसी मिसाल कायम की जिसका सानी मिलना लगभग असंभव है। डाकू माने जाने वाले जिस इंसान को फांसी दिलाई उसी के बेटे को अंग्रेज़ होते हुए भी ब्रिटिश शासन के सर्वोच्च प्रशासकीय पद के लायक बनाया।

Saturday 1 May, 2010

वनवासियों का दर्द

23 अप्रेल 2010 को लोकसभा में आदिवासी विकास के बजट पर बहस में झारखंड के पूर्व मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडे को सुन रहा था। अर्जुन मुंडे बी जे पी से संसद सदस्य हैं। बी जे पी से हों या कांग्रेस या किसी साम्यवादी पार्टीँ से अगर बात दिल की गहराई से आती है तो असर करती है। केवल राजनीति, उखाड़ पछाड़ और जुगाड़बाज़ी हो तो बकवास अधिक लगती है। अकसर लोग टी वी बंद कर देते हैं। आई पी एल पर बात हो रही थी तो लग रहा था संभालने की नहीं गिराने उठाने की राजनीति ज्यादा है। मुझे लगा हालांकि मुंडे, सरकार के 9 करोड़ आदिवासियों के लिए केवल 32 हज़ार करोड़ के बजट प्रवधान की आलोचना कर रहे थे जो पूरे बजट का 1 प्रतिशत भी नहीं है। जैसे ऊंट के मुंह में ज़ीरा। सवाल है सरकारें आदिवासियों के विकास का गाना क्यों गाती हैं। छः साल बी जे पी की सरकार रही उसने ही कौनसा आदिवासयों को सिर से खड़ा कर दिया। इसलिए सवाल सरकारों का नहीं यह आदिवासियों के प्रति सामाऩ्य संवेदनहीनता का है। यह बात सही है कि जो भी आता है वह यही कहता है कि आदिवासियों को अंग्रज़ों ने जंगलो में बसाया। मुंडे का सवाल था कि अंग्रेज़ पहले आए या आदिवासी पहले से थे। जंगल किसके थे, किसने उनकी परवरिश की, किसने देख भाल की, किसने जंगल के ख़तरे उठाए। आदिवासियों के बारे में कहना है कि वे गरीब नहीं हैं। उन्होंने एक से एक मूल्यवान खनिज की जान देकर रक्षा की। सम्मानित चोरों की तरह विदेशियों को नहीं बेची। वे लोग जंगल के पेड़ पौधो की भी पूजा करते हैं। फल भी तोड़ना हो तो पहले इजाज़त लेते हैं। धरती की जुताई करने से पूर्व धरती माता से क्षमा मांगते हैं। तुम्हें कष्ट होगा मुझे पेट भरने के लिए खेती करने की आज्ञा दो जिससे मैं पेट भर सकूं। इसका जवाब क्या इन तथाकथित आधुनिक वादियों के पास है। सवाल है कि इन आदिवासयों को जंगलों से क्यों उजाड़ जा रहा है? दांतेवाड़ा के आसपास पता चला है कार्पोरेटस् को जगह देने के लिए आदिवासियों के लगभग 2500 गावों को उजाड़ा गया है। अभी मैंने कनाडा की संस्था संसद की एक ई मेल में देखा कि 30 मार्च को राजस्थान में एक गांव को एक औद्योगिक घराने के गुंडो ने ज़बरदस्ती उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया। लगता है इस देश में या तो सत्ता की नकेल इन व्यवसायिक घरानों के हाथ में है। या औद्योगिक क्षेत्रों की नकेल ट्रेड यूनिनों के हाथ में है। कानपुर में फ़ैक्ट्रियों की कब्रगाह इसका प्रमाण है। सवाल यह है कि गांधी के अंतिम आदमी की चिंता किसको है, क्या सरकार को या तथाकथित मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा करने के नाम पर बेरोज़गारी के गर्त में बेहतरी का झांसा देकर उन्हें उद्योगपतियों की भूख के बायलर में धकेल देनेवाली यूनियनों को। सवाल बहुत असुविधाजनक भी है और अपने अंदर झांकने के लिए गुंजायश भी पैदा करता है। इसका तोड़ जन के पास है। किसी के पास नहीं।
डा. बनवारी लाल रायपुर से दंतेवाड़ा तक शांत मार्च कर रहे हैं। इस दुहरी हत्या के विरोध में। सरकार की नीतियां भी गरीब को मारती हैं और माओवादी भी। सवाल है कि माओवादियों को ज़मीन कैसे मिली। इसपर न माओवादियों का अधिकार है न पूंजीपतियों का। वनवासियों की जमीन के अधिकार उन्हें न देकर सरमायेदारों को सेज के लिए दी जा रही है, उनकी नदियों पर मल्टीनेशनल कब्ज़ा कर रहे हैं, उनके द्वारा परवरिश दरख्त ठेकेदार और धनपति काट रहे हैं। खनिज की लड़ाई है जिसे आदिवासियों ने जानकी बाज़ी लगाकर बचाया हुआ है। उन जानवरों को जो उनके द्वारा पालित हैं, उनकी दवादारू के उपयोग में उनके अंगो के हिस्से आते हैं उन्हें व्यवसायिक शिकारी मार रहे हैं। उनके बच्चे हर साल बिमारियों से मर जाते हैं। जो बच जाते हैं वे गरीबी की चक्की में पिसते हैं। जो बच जाते हैं उन्हें आश्चर्य होता है कि वे मौत के पंजे से कैसे बच गए। सवाल है जो माओवादी उनके हमदर्द हैं और जिनके बल पर वे लड़ रहे हैं। उनका उद्देश्य भी औद्योगिकरण ही है। उसी को वे समृद्धि का साधन मानते हैं। अब औद्योगिकरण चीन में भी व्यक्तिगत सरमाए का रूप लेता जा रहा है। आगे उसका क्या रूप होगा कहना मुश्किल है। लेकिन यह निश्चित है कि सर्वहारा का दखल सैद्धांतिक फलसफा रह जाए तो रह जाए। लेकिन उन्हें भी सेज के लिए ज़मीन चाहिए, पानी चाहिए, बिजली चाहिए, जो इन सरकारों को चाहिए वह सब कुछ इन जुझारू माओवादियों को भी चाहिएगा। उनकी सत्ता बंदूक से निकलती है शायद तब भी निकले। यह बात अलग है कि उनका तरीका जनतंत्रात्मक होते हुए भी शब्द तानाशाही से जुड़ा होगा। बंदुक अब ताकत है तो तब भी ताकत होगी। हर सत्ता के अपने पूंजीपति होते हैं। व्यवसायी होते हैं। कुछ शासन के नियम होते हैं और कुछ वे अपने नियम चलाते हैं जिनकी मौन स्वीकृति प्राप्त रहती है। उसका लाभ राज्य को भी मिलता है पार्टी को भी और व्यक्तियों को भी। यह राजनीति की प्रकृति है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है, मुसीबत में जहां से सहनुभूति की बयार आती महसूस होती है सब लोग उधर ही सिमटते चले जाते हैं भले ही उसमें हिंसा की गंध मिली हो। हिंसा अगर दूसरों के लिए संभव हो सकती है तो हमारे लिए क्यों नहीं हो सकती, दरअसल हिंसा किसी को नहीं पहचानत वह साम्यवादी निज़ाम पहचानती। उन देशों में जहां खेती जीवनाधार होता है वहां समग्र औद्योगिकरण उस देश की संस्कृति की हित को हानि पहुंचाता है। खेती को पूर्ण रूप से औद्यौगिकरण में हस्तांरित करना उस देश के सांस्कृतिक़, आर्थिक टिशूज़ के लिए कीमोथरिपी की तरह है। जबकि खेती ही उस देश का स्वास्थ्य होता है वह कोई बीमारी या कमज़ोरी नहीं होती। ये आदिवासी उस पूरी उत्पादन संस्कृति की रक्षा ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उसे संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। अगर माओवादी उनकी सहानुभूति अपनी तथाकथित सहानुभूति की एवज़ में हिंसा के पक्ष में भुना सकते हैं तो हमारी जनतंत्रात्मक सरकारें क्यों नहीं भुना सकती। एक ही कारण हो सकता है कि सरकारों की पक्षधरताएं न्याय और 9 करोड़ लोगों के हितों से बड़ी हैं। सब जानते हैं अगर स्टालिन का अहं और तानाशाही प्रवृत्ति सर्वहारा और जनहित से बड़ा न हुआ होता तो सोवियत यूनियन का निज़ाम इतनी जल्दी न बिखरता। इंसान कितना भी शक्तिशाली बन जाए उसे हिंसा का रास्ता अंततः छोड़ना ही पड़ता। भले ही वह हिटलर हो मसोलोनी हो, स्टालिन हो या चीन में कल्चरल रेव्यूलूशन के प्रणेता हूं सबको अंत में वैचारिक और भौतिक हिंसा को बिना स्थायित्व प्रदान किए उस ज़मीन को छोड़नी पड़ी। समय जितना भी लगा हो। शांति और हिंसा में तो स्थायित्व होता भी है। तालाब के जल की तरह भले ही कुछ समय के लिए हलचल पैदा करने में सफल हो जाएं सब जानते हैं अंततः जल को शांत होना ही है। आप अपनी ज़िद में जल के स्रोत ही बंद करने पर उतारू हो जाएं तो बात अलग। पर यह भी सही कि दूसरे स्रोत खुल जाएंगे।

Thursday 1 April, 2010

‘द गिरमिटिया सागा’ का विमोचन
यह ‘द गरिमिटिया सागा’ क्या है यह सवाल दिमाग में आना स्वाभाविक है। मैं शायद इस बारे में न लिखता क्योंकि यह अपने बारे में है। यह पहला और अलग अनुभव है। मेरे मित्र और आई आई टी कानपुर के सहयोगी प्रो. प्रजापति साह ने पहला गिरमिटिया का दो वर्ष लगाकर अंग्रेज़ी में ‘द गिरमिटिया सागा’ नाम से अनुवद किया है। लगभग 1012 पृष्टों में, संक्षिप्त करते भी फैल गया। हालांकि मूल हिंदी उपन्यास 904 पृष्टों में है। इसका विमोचन यानी लांचिंग भी साहित्यिक पुस्तकों की विमोचन परंपरा से थोड़ा अलग ढंग से हुआ। 18 मार्च 10 को, गांधी स्मृति, 30 जनवरी मार्ग नई दिल्ली के हाल में, न किसी राज नेता द्वारा हुआ और न किसी नामी गिरामी साहित्यकार द्वारा, गांधी जी की पौत्री श्रीमती तारा गांधी भट्टाचार्य ने किया। गांधी स्मृति गांधी जी के बलिदान की पुण्य भूमि है। राजेंद्र यादव, बरनवाल जैसे मित्रों को छोड़कर दिल्ली के बड़े़ लेखक कम ही शरीक हुए। किसी ने कहा तुम बाहरी हो। ज़रूरी नहीं यही ए कारण हो। हो सकता है प्रकाशक द्वारा भेजे गए निमंत्रण न मिले हों। लेकिन जिन लोगों को एस एम एस किए या फ़ोन किए, हामी के बावजूद उनमें से भी कम ही लोग पाए। महिला लेखक तो नहीं के बराबर। उनकी अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन फिर भी हाल भरा था। अपने जैसे लोग थे। जहा तक अंग्रेज़ी पत्रकारों की उपस्थिति का सवाल है हिंदी के आयोजनों में उनकी उपस्थिति स्वाति बूंद की सी होती है। एक समाचार पत्र जो हिंदी और साहित्य का पक्षधर माना जाता है उसकी अप्रत्याशित अनुपस्थिति ने चौंकया ज़रूर। वाजिब कारण हो सकते हैं। रुख़ की भी बात होती है।
द गिरमिटिया सागा दिल्ली के नियोगी बुक्स(डी 78, ओखला इंडिस्ट्रियल एस्टेटफेज़ 1,नई दिल्ली 20) ने छापा है। एक साल से अधिक लगा। वैसे वे एकेडेमिक पुस्तकें छापते हैं यह पहली पुस्तक है जो उपन्यास की श्रेणी में आती है। व्यवसायी से अधिक एक उत्साही और संवेदनशील प्रकाशक। लोगों का कहना है कि प्रोडेक्शन विश्व स्तरीय हुआ है। ख़ैर इस मामले में पाठकों की राय सर्वोपरि होगी। इस अवसर पर प्रो. इन्द्रनाथ चौधरी एवं श्री निर्मलकांत भट्टाचार्य ने अपने अपने पर्चे पढ़े। मेरे लिए इसके अलावा और कुछ भी कहना संभव नहीं, दो बातें कह सकता हूं कि उनमें आत्मीयता के साथ साहित्य मानकों का निर्वहन था। रचना के प्रति व्यापक दृष्टि थी। दोनों ही एक बात पर एकमत थे कि अनुवाद निर्बाध बहते जल की तरह है। इनके अलावा प्रजापति साह ने अपना वक्तव्य दिया जो अनुवाद और अनुवादकों तथा समाज के परस्पर संबंधों का खुलासा करता था। एक बात और बताई कि उन्होंने अनुवाद के लिए मेरे इस उपन्यास को क्यों चुना। वे चाहते थे यह उपन्यास जो हिंदी पाठकों में आवश्यकता बनता जा रहा है और अहिंदी भाषी लोग भी पढ़ने में रुचि रखते हैं वह अंग्रेज़ी पाठकों तक भी पहुंचे। अभी नवजीवऩ अहमादाबाद द्वारा गुजराती में छपा है। मराठी और उड़िया में प्रकाशाधीन है। साह साह ने उस घटना का भी उल्लेख किया जो मेरे साथ घटी थी। ज्ञानपीठ ने पहला गिरमिटिया की पहली प्रति राष्ट्रपति नारायणन साहब को भेंट की थी। चलते समय उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा था कि मैं इस उपन्यास को कैसे पढ़ूंगा। मैंने कहा था कि जैसे ही अंग्रे़ज़ी में छपेगा मैं लेकर उपस्थित हूंगा। अब जब छपा तो वे नहीं हैं। द गिरमिटिया सागा उनको समर्पित करने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं था। केवल अपने मन की शांति के लिए। साह साहब ने ढ़ाईघर उपन्यास भी साहित्य अकाडेमी के लिए अनुदित किया था। जो वहीं से प्रकाशित है।
श्रीमती तारा गांधी का भाषण गांधी जी के बारे में अनेक संस्मरणों से युक्त था। उन्होंने पहला गिरमिटिया और द गिरमिटिया सागा से मार्मिक प्रसंग तक उद्धृत किए थे। चौधरी साहब और निर्मल जी ने भी किए थे। पाठकों को रुचिकर लगे। तारा जी ने एक बात कही कि मैंने तीन सत्याग्रही देखे एक बापू और दो और, गिरिराज किशोर तथा प्रजापति साह। मैं चौंका। फिर सोचा कि शायद इसलिए इस श्रेणी में रख दिया कि हम दोनों बटुकों की तरह चोटी छत से बांधकर इस काम मे सन्नद्ध हो गए थे, गफलत में पड़कर सो न जाएं। वे 14 साल तक अपने दादा के साथ रहीं थीं। वह भी दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद। अगले दिन मुझे फोन करके कहा कि देखो मैंने इस उपन्यास को तीन बार पढ़ा। कस्तूर बा के बारे में भी लिखो। उनके कहने में ममत्व था। मेरी तरह श्री नियोगी का भी यही प्रयत्न है कि गांधी जी के इस अपेक्षाकृत कमतर जाने गए, पर महत्त्व पूर् 20 साल के निर्माण काल को लोग गहराई से जानें।

20 मार्च को इस पुस्तक को आई आई टी कानपुर में निदेशक प्रो. संजय गोंविंद ढांढे द्वारा विमोचित कराया गया। श्री नियोगी चाहते थे कि जिस रचनात्मक केंद्र को मैंने आरंभ किया और जहां इस उपन्यास के पहले दो ड्राफ्ट तैयार हुए वहां ज़रूर विमोचन किया जाए। मैं बहुत आशावान नहीं था। क्योंकि आई आई टी के लिए अस्पर्श्य की श्रेणी में आता था। इतने बड़े संस्थान से लड़कर आने वाला सामान्य व्यक्ति चुभन पैदा करता है। ढांढे साहित्य की दृष्टि से संवेदनशील व्यक्ति हैं। अगर कोई निदेशक होता तो शायद इस काम के लिए उत्साहपूर्वक तैयार न होता। उऩ्होंने एक बात कही हम सब गिरमिटिया हैं फर्क इतना ही है कि अपने एग्रीमेंट का पता नहीं है कि कब उसकी तरीख समाप्त होगी। गिरमिट यानी एग्रीमेंट की यह एक दार्शनिक व्याख्या है। प्रो साह ने इतिहास और रचनात्मकता की द गिरमिट सागा से उदाहारण देकर मार्मिक व्याख्या की। इतिहास ने कस्तूरबा से चेंबर पाट उठवा फेंकने की घटना को चार छः पंक्तियों में निबटा दिया उसी को एक रचनाकार कितनी संवेदना और कल्पनाशील ढंग से बयान करता है इस बात को उन्होंने गिरमिटिया सागा प्रभावी ढंग से प्रसतुत किया। लीलावती कृष्णन जो ह्यूमेनिटिज़ और रचनात्मक लेखन केंद्र की अध्यक्षा हैं उन्होंने और उनके साथियों ने तैयारी में व्यक्तिगत रुचि ली। श्री नियोगी ने लंच का आयोजन किया और धन्यवाद देते हुए संकेत किया कि उनका अन्य मेगा सिटिज़ में भी इस पुस्तक की लांचिंग का इरादा है। मुझे खुशी है कि जहां मैंने कठिनाई के दिन देखे वहीं मेरे जीवन का सर्वाधिक रचनात्मक काल बीता है। मैं इसलिए इस संस्था अवदान को याद रखुंगा।

Thursday 21 January, 2010

राजनीति की गति जानी न जाए

राजनीति में कुछ लोग अब दो वजह से आते हैं एक, अधिकाधिक सत्ता और पद लाभ उठाने दूसरे अपने अंदर जमा गंदी निसारने। कभी राजनीति सेवा और बलिदान का माध्यम थी। लेकिन अब अरबपतियों की मंडी है। अपने रसूखों से वे पार्टियों को बनाने बिगाड़ने का काम करते हैं। सपा इसका ताज़ा उदाहारण है। मुलायम सिंह कभी जननेता थे। उनके बारे सामान्य मान्यता थी कि वे गरीब के दोस्त हैं, किसान के रहनुमा हैं। मैंने उन्हें बस की छत पर खड़े होकर गांव गांव किसानों से संवाद करते देखा था। तब वे चौ. चरण सिंह के साथ थे। साहित्यकारों के प्रति भी उनका दोस्ताना रुख था। जब मैं पहला गिरमिटिया पर काम कर रहा था तो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका जाने के लिए 75 हज़ार रू.की राशि दी थी। अगर उस समय मदद न मिली होती तो शायद मेरे लिए जाना संभव न हो पाता। लेकिन बाद में उनका नेतृत्व हाई फ़ाई नेतृत्व हो गया। उनके लोग वे लोग हो गए जो सबके नहीं कुछ के हैं। जनेश्वर जी जैसे नेता जो समाजवाद के स्तंभ और लोहिया जी के दाहिने हाथ थे हाशिए पर हो गए। समाजवाद मात्र राजनीति करने का मंच नहीं है। जन सेवा और इबादत है। गांधी और लोहिया ने राजनीति को इसी नज़रिए से देखा था। न ही वह धन अर्जित करने और उच्च श्रेणी के लोगों धन्नासेठों को और लाभ पहुंचाने का माध्यम है। नए समाजवाद में यही सब प्रमुख हो गए। मुझे लगता है समाजवादी दृष्टि की कमी ही इसका कारण रहा होगा। यही बसपा के साथ हुआ। वहां भी अंबेडकर जी और कांशीराम का कोई प्रतिबिंब नज़र नही आता। मेरा डा. अंबेडकर से कोई न संपर्क रहा न परिचय। अलबत्ता कांशीराम जी से ज़रूर एक से अधिक बार मिलने का अवसर मिला। वे रफ़ीअहमद मार्ग पर पटेल हाऊस में एक कमरे में रहते थे। तब उनका संबंध बामसेफ़ से था। उनके पास एक पेंट और बुशर्ट रहती थी। शायद दो लुंगी। पेंट बुशर्ट धोकर डाल देते थे और लुंगी पहनकर सो जाते थे। कहीं जाना होता था न कार की दरकार होती थी और न हवाई जहाज़ की, दुपहिए पर पीछे बैठकर चल देते थे। लेकिन उनकी उत्तराधिकारी सौ सौ कारों के काफले में चलती हैं। धन तो सबसे बड़ी प्राथमिकता है। बड़े लोगों वाली असुरक्षा उनमें भी है। ताम झाम का तो कहना ही क्या। एक बार मैंने दिल्ली में अंबेडकर जी को पटेल जी के बंगले से निकलकर अपने बंगले पैदल जाते देखा था,बस।
यह बातें मैं इसलिए लिख रहा हूं कि समाजवाद का जो रूप सामने आ रहा है वह चकित करने वाला है। शायद समाजवाद को समझना अब और भी मुश्किल हो गया। आचार्य नरेंन्द्रदेव अद्वितिय विद्वान थे। लेकिन उन्होंने धन की तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखा। उनकी अंत्येष्टि का प्रबंध जहां तक मुझे मालूम है उनके मित्र और साथी चंद्रभानु गुप्त ने किया था। चंद्रभानु गुप्त की मृत्यु हुई उनके बैंक में चंद हज़ार रुपए थे। जिसका बटवारा अपनी वसियत में कर गए थे। बाक़ी जो कुछ था कार तक ,मोती लाल नेहरू ट्रस्ट के नाम कर दिया था। उन्हें पूंजीपतियों का आदमी कहा जाता था लेकिन उन्होंने कभी किसानों से ज़मीनें छीनकर उन्हें नहीं दी। अलबत्ता शिक्षा के काम के लिए ज़मीन घेरी। किसान को पूरा मुआवज़ा दिया पर 1400 एकड़ ज़मीन एक रुपए में आई आई टी कानपुर को दे दी। टाटा और अंबानी को पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश सरकार ने जिस तरह दी, जितनी हायतोबा हुई उसका ज़िक्र करना बेकार है। मुलायम सिंह जैसे गरीब परस्त नेता अपने महामंत्री के दबाव में अपने विवेक का सही इस्तेमाल नहीं कर पाए। सपा के पूर्व महामंत्री कहते हैं कि अब मैं मुलायमवादी की जगह, समाजवादी नेता जनेश्वर जी की राय मान कर समाजवादी बनूंगी। समाजवादी क्या किसी की राय मानकर या अनुयाई बनकर बन जा सकता है। यह अंदर की चिंगारी है जो समाजवादी बना देती है। सरवेश्वर दयाल सक्सेना की कहानी है लड़ाई है जो इंसान की ज़िंदगी में होने वाले सतत् संघर्ष को चित्रित करती है। लहू लुहान आदमी डा. लोहिया हैं और कोई नहीं। अब मेरे सामने कुछ सवाल हैं। अमिताभ बच्चन और उनका पूरा परिवार कहां जाएगा? बच्चन परिवार के सदस्यों को कला और संस्कृति के समस्त पुरस्कारों से लाद दिया गया था। महामंत्री जो साथ जीने की कसम खाते रहे थे अब कहा हैं। रामपुर से सपा की सीट से जीती तारिका जयाप्रदा सपा के पूर्व महमंत्री के बराबर में खड़ी नज़र आईं। छोटी सरकार अनिल अंबवानी का पता चल जाएगा, अंदाज़ तो है, वे कहां जाएंगे। सबसे बड़ी बात तो संजय दत्त की है। फिल्म से उठाया और महासचिव बना दिया। इतना विवेक तो बनाने वालो में होना चाहिए कि समाजवाद तमग़ा नहीं है सेवा और समर्पण है। उनके पिता ने शांति यात्रा निकाल कर आतंकवाद का विरोध किया था। वे ही सबसे पहले कूदकर भागे। आए भी वो गए भी वो, खत्म फसाना हो गया। समाजवाद क्या ऐसा ही होता है। समाजवादी क्या अपने साथियों की सहायता करके उसको इस तरह गाते हैं जिस तरह पूर्व महा सचिव अमर सिहं उसका महानाद कर रहे हैं। ख़ासतौर से समाजवाद के प्रति समर्पित नेता जनेश्वर जी के संदर्भ में। उनकी बीमारी में उन्होंने पैसा दिया। मैं जानता हूं उत्तर प्रदेश में ऐसे कई नेता हुए जो मदद करते थे पर ज़बान पर नहीं लाते थे।
चंद्रभानु गुप्त तो राजनारायण जैसे बड़े नेताओं तक की सहायता करते थे। जब कांग्रेस टूटी और उनके साथ रहे मंत्री दूसरी कांग्रेस में चले गए तब भी वे उनकी मदद करते रहे। किदवई साहब के घर से तो शायद कोई खाली लौटता हो। गुप्ता जी के बारे में तो लखनऊ में, जिन्हें न दे मौला उसे दे आसफ़ुद्दौला के वज़न पर एक कहावत चलती थी जिसे न दे मौला उसे दे सी बी गुप्ता। जनेश्वर जी को मैं 1960 के पहले से जानता हूं । वे इलाहाबाद का चक्कर पैदल लगाते थे। सरकार में रहते हुए भी वे निर्मल छवि वाले रहे। लोहिया और समाजवाद यही दो ध्यये थे। मुझे नहीं मालूम उन्होंने ऐसी कितनी मदद कर दी कि टाइम्स आफ इंडिया के माध्यम से उदघोष करने की ज़रूरत पड़ गई।राजनीति हो या और दूसरे सेवा के क्षेत्र यह छिछोरापन ही माना जाएगा। शायद नेताओं को अपनी नेताई के संरक्षण की ज़रूर पड़ती है। खुदा ख़ैर करे।

Monday 18 January, 2010

ज्योति बाबू चले गए।

(1914-2010)

ज्योति बाबू का निधन राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से एक दुखद घटना है। सी पी एम में वे हरिकृष्ण सुरजीत के जाने के बाद अकेले कद्दारवर नेता बचे थे जिनके पास देश की बढ़ोत्तरी क ब्ल्यू प्रिंट था। वे समर्पित कम्यूनिस्ट होने के बावजूद समन्व्य की अनवार्यता को भी महत्त्व देते थे। ज़रूरत पड़ती थी कट्टरपन से ऊपर उठकर मानवीय पक्ष का समर्थन करने से पीछे नहीं हटते थे। यह ठीक है कि उन्होंने बंगाल का मुख्यमंत्री रहते हुए सी पी एम की नीतियों को धार दी। लेकिन नानकम्यूनिस्ट वर्ग के साथ अन्याय भी नहीं हुआ। पर वे संभवतः कम्यूनिस्ट कैडर की तरह स्वतंत्र नहीं था। कैडर का वर्चस्व रहता था। उन लोगों को लगता था कि वे कैडर की बात को ही महत्त्व देते थे। बंगाल की आर्थिक उन्नति उनके लिए सर्वोपरि थी। उसके लिए पूंजी निवेश के प्रति दुराग्रही नहीं थे। सबसे बड़ा काम उन्होंने ज़मीन के पुनर्प्रबंधन का किया जिसके कारण किसानों को लाभ पहुंचा। उसी के दम पर सी पी एम आज तक गद्दीनशीन है। पंचायतों का जनतंत्रीकरण उन्हीं के काल में हुआ। सांप्रदायिक सदभाव को मज़बूत किया। लेकिन आज जिस प्रकार की राजनीति सी पी एम नेतृत्व कर रहा है वह ज्योतिबाबू की राजनीति से काफ़ी भिन्न है। यह ठीक है कि कम्युनिस्ट पार्टीज़ की नीति उनका पालितब्यूरो नियोजित करता है। लेकिन उनका व्यक्तित्व इस तरह का था कि पालितब्यूरो भी नीति निर्धारण के समय उनके दृष्टिकोण की कदर करने के लिए बाध्य हो जाता था। देश और उनके साथ पालितब्यूरो ने उस समय खुला अन्याय किया था जब सब पार्टीज़ उनके प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में थी लेकिन तत्कालीन पार्टी सचिव या कहिए पालितब्यूरो तैयार नहीं हुआ था। सारा देश सकते में आ गया था। उनके स्थान पर एक अनुभवहीन व्यक्ति के नाम छींका छूट गया था। आज भी लोग उस क्षण को कोसते हैं कि अगर ज्योति बाबू प्रधानमंत्री हो जाते देश का इतिहास ही अलग होता।
दरअसल कम्यनिस्ट पार्टी कई बार एक ऐसे बच्चे के तरह व्यवहार करतीं हैं कि सिद्धान्त के नाम पर वे अपनी पसंद नापसंद को धीरे से क्रियान्वित करके सुर्ख़ रूह बन जाती हैं। बाद में सोचती हैं कि यह गलत हुआ पर स्वीकार नहीं करतीं। यही पिछले दिनों स्पीकर के सवाल पर यही हुआ। मुखर्जी साहब को पार्टी से निकाल दिया गया सिर्फ इसलिए सब जनतंत्रों में प्रचलित परंपरा के तहत उन्होंने कहा था कि स्पीकर किसी पार्टी का सदस्य नहीं रहता। इसलिए पार्टी के संयुक्त मंच से हट जाने पर स्पीकर का त्यागपत्र देना आवश्यक नहीं। जब ज्योति बाबू को प्रधानमंत्री बनने देना सिद्धान्त विरुद्ध था तो स्पीकर बनने देना कैसे सिद्धांत के अंतरर्गत आ गया। सिद्धांत क्या शक्ल बदलने के साथ बदल जाते हैं। ज्योति बाबू का प्रधानमंत्री बनना देश के लिए तो लाभकर था ही पार्टी का भी कम लाभ नहीं होता। दरअसल मुखर्जी साहब वरिष्ठतम व्यक्ति थे। योग्य भी। उनके पार्टी में बने रहने से हो सकता है कि वर्तमान पार्टी नेतृत्व को खतरा हो जाता। ज्योति बाबू एक वरिष्ठ सदस्य को इस तरह अपमानित करने के पक्ष में नहीं थे। मुखर्जी ने ठीक ही कहा मुझे लगा कि मेरे पिता की दूसरी बार मृत्यु हुई।
ज्योति बसु का चला जाना देश की राजनीति से एक अनुशासित, दूरअंदेश, संतुलित और दानिशमंद आदमी का चला जाना है। साहित्य जगत में भी उनकी अनुपस्थिति अनुभव की जाएगी।

Wednesday 13 January, 2010

साहित्य अकादमी की स्वायत्तता?

देश हो या संस्था उसकी स्वायत्तता को खतरा अंदर के लोगों से होता है। या कहिए उन हां-बरदार मित्रों से होता है जो संस्था-हित से अधिक अपने स्वार्थों को ‘चिड़िया की आंख’ की तरह ताकते रहने की कुव्वत पैदा कर लेते हैं। मित्र मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि संस्था का हित चाहने वाला सदा सत्ताधारियों की नज़र में अमित्र और शत्रु ही समझा जाता है। मुझे साहित्य अकादमी में पिछले सत्र में काम करने का मौक़ा मिला था। कुछ समय तक अध्यक्ष और मेरे बीच अच्छे संबंध रहे। हालांकि वामपंथी लाबी उनके ख़िलाफ़ थी। मुझे सलाह भी दी गई कि मैं जीत गया हूं अब त्यागपत्र देकर शहीद बन जाऊं। लेकिन मैं कोशिश करता हूं कि संकटों के बावजूद मैं अपना दायित्व अंत तक निभाऊं। वही मैंने यहां भी किया। यह समस्या मेरे सामने आई आई टी कानपुर में कुलसचिव रहते हुए भी तत्कालीन निदेशक के साथ गहरे मतभेद हो जाने के वक्त भी आई थी। वे कहते थे Administration is a bulldozer. उस समय बोर्ड के चेयरमेन प्रसिद्ध उद्योगपति स्व. ललित मोहन थापर ने थापर हाउस में बुलाकर मेरे सामने नियुक्तिपत्र फेंक कर कहा था तुम एक ईमानदार आदमी हूं तुम्हारी वक़त सरकारी संस्था नहीं कर सकती इसलिए उठाओ नियुक्ति पत्र त्याग पत्र देकर मेरे यहां आ जाओ। जितना वहां पाते हो उससे दुगना मिलेगा। मैंने क्षमा मांगी तो उनकी नज़र बदल गई। आंखे तरेर कर कहा देखता हूं कैसे नौकरी करते हो। वहां बैठे अपने ही बीच के लोग शह दे रहे थे इतना बड़ी बिज़नेस टाइकून तुम्हें स्वयं बुला रहा है। तुम बदकिस्मत हो जो ठुकरा रहे हो। यहां तक कि तत्कालीन शिक्षामंत्री शीला कौल ने समझाया था रिज़ाइन करदो इतने योग्य आदमी हो कोई बड़ी जगह तुम्हारा इंतज़ार कर रही है। मैंने धीरे से कहा योग्य आदमी की तो हर जग ज़रूरत होती है, आप तो मंत्री हैं आपसे मैं न्याय की उम्मीद करता था। त्यागपत्र देना तो कायरता होगी। वे उठकर चली गईं थीं। उधर जब मैं थापर साहब को मनाकर के लौटा तो संभावना के अनुरूप मुझे अगले दिन निलंबन पत्र थमा दिया गया था। खैर, ओखली, सिर और मूसल का गहरा रिश्ता है। न ओखली को डरना चाहिए न सिर को, मूसल डरेगा तो सिर को कूटेगा कैसे, कहावत कैसे चरितार्थ होगी। यही अकादमी के दौराना हुआ। साल भर बाद ही पूर्व अध्यक्ष की मनमाने निर्णयों और भाषा संबंधी भेदभाव के कारण मेरे संबंध तनावपूर्ण होते गए। जब उन्होंने दोबरा चुनाव लड़कर सचिव और बी जे पी नेताओं से मिलकर अध्यक्ष बनने का मैनुप्लेशन चालू किया तो मैंने बोर्ड में विरोध किया। उन्होंने मेरा प्रस्ताव तक रिकार्ड पर नहीं रखे। उसके और भी बहुत से कारण थे जो बाद में मौक़ा मिला तो लिखूंगा। पहले दिन जनरल काउंसिल की बैठक थी। उसमें पहली बार बी जे पी और आर एस एस समर्थकों का बहुमत था। उसमें उनके ही लोग चुने गए थे। उनका जीतना तय था। मैंने तय कर लिया मैं आखरी दम तक विरोध करूंगा। मैंने किसी तरह उच्चतम सर्किल में सब कागाज़त भिजवाए, उसक नतीजा हुआ कि उन्हें बुलाकर हिंदी में समझा दिया गया कि आप अपनी उम्मीदवारी वापिस ले लें, वरना आप जानें। अगले दिन बोर्ड की मीटिंग में उन्होंने सबसे पहले अपनी उम्मीदवारी वापिस ले ली। मैंने उनके खिलाफ़ एक प्रस्ताव अपने तीन मित्रों से समर्थन करने की सहमति लेकर प्रस्तुत किया लेकिन वक्त पर वे चुप रहे। सत्ता का दबदबा हिंसक जानवर की दहाड़ की तरह बाद में भी गूंजता रहता है। अध्यक्ष महोदय आरंभ में ही विड्राल की घोषणा कर चुके थे। स्वाभाविक है मेरा प्रस्ताव अन नोटिस्ड चला गया।
लेकिन उस समय कि तानाशाही से अधिक खतरनाक बात अब सामने आ रही है। सामसुंग मल्टीनेशन कंपनी के साथ समझौता हुआ है कि अकादमी 24 भाषाओं में सामसुंग की तरफ़ से भी रवीन्द्र पुरस्कार देगी। सुना है विदेश मंत्रालय के कहने पर अकादमी ने यह निर्णय लिया है। सवाल है कि क्या बोर्ड या जनरल काउंसिल की बाध्यता है कि सरकार का ऐसा प्रस्ताव माने जो उस संस्था की मूल भावना व प्रकृति के विपरीत हो? इस समय साहित्य अकादमी का पुरस्कार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक सम्मानित माना जाता है। किसी भी देश की अकादमी आफ लेटर्स द्वारा दिया जाना वाला सम्मान संसार भर में सम्मान से देखा जाता है। सामसुंग सम्मान की क्या स्थिति होगी? सामसुंग पुरस्कार एक मल्टीनेशल कंपनी द्वारा दिया जाने वाला प्राइवेट पुरस्कार होगा। उस पर ठप्पा साहित्य अकादेमी का लगवाकर उसे अंतर्राष्ट्रीय वेलिडिटी दिलाने की चाल मात्र लगती है। विश्व की साहित्यिक सस्थाओं के बीच आदान प्रदन का तो कोई अर्थ हो सकता है लेकिन मल्टिनेशनल कंपनी का सीधा सा उद्देश्य है इस बात का विज्ञापन कि हम तुम्हारे साहित्य का प्रचार कर रहे हैं, कल दूसरी कंपनियां यही करने को कहेंगी। साहित्य अकादेमी की देखा देखी हिंदी अकादेमी या दूसरी संस्थाएं भी इस होड़ में पड़ सकती हैं। एक और खतरा है हमारे देश में विदेशी वस्तु ज़्यादा चलती है। कल हो सकता है इस बात पर असंतोष या विवाद हो कि हमें सामसुंग सम्मान की जगह साहित्य अकादेमी पुरस्कार देकर अपमानित किया गया। हो सकता है कल सामसुंग अपने इन विजेताओं को अपने देश में काम के लिए या घूमने के लिए आमंत्रित करे तब और सिर फुटव्वल होगा। आखिर बैठे बैठाए साहित्य अकादेमी यह ख़तरा क्यों मोल ले रही है। एक व्यवसायिक मल्टीनेशनल के साहित्यिक मूल्य क्या हो सकते हैं सिवाय इसके अपने व्यवसाय में किसी सम्मानित संस्था का कैसे बाज़ारीय उपयोग किया जा सकता है। एक बार इस तरह की सम्मानित संस्था अगर किसी व्यावसायिक कंपनी के प्रचार का माध्यम बनी फिर उसकी स्वायत्तता और प्रतिष्ठा कानपुर की गंगा की धारा की तरह हो जाती है जिसमें हज़ारों टन टेनरीज़ के क्रोमियम आदि मिश्रित ज़हरीले नाले गिरकर उसकी तासीर और शक्ल बदल देते हें। अलबत्ता नाम तो गंगा ही रहता है पर आदमी आचमन करता भी डरता है। यह भी एक दृष्टिकोण है कि भाषाई लेखक कब तक कड़की में जीता रहेगा। उससे बचने के अनेक तरीके हैं। सामसुंग भी अपने पैसे से नोबेल न्यास की तरह अपनी संस्था विश्व भर की भाषाओं के लिए आरंभ कर सकता है। लेकिन एक कहावत है कि जब दूध खरीदे मिल जाए तो भैंस कौन बांधे।
अकादेमी के सचिव ने मुझे पत्र लिखकर इस वर्ष के वार्षिक उत्सव में डा. लोहिया पर आयोजित किए जाने वाले राष्ट्रीय सेमिनार में आमंत्रित किया है। जब सामसुंग को सरपरस्ती दे रहे हैं तो डा लोहिया जैसे अपना काते अपना पहनो वाले ज़मीनी चिंतक पर सेमिनार करने की क्या तुक है। जब मैंने लोहेया जी पर आलेख लिखवाने के प्रसेताव रखा था तो कर्क दिया गया था अगर उन पर लिखवाया गया तो अन्य राजनीतिज्ञों की ओर से भी दबाव पड़ेगा। मैंने ईमेल द्वारा लिखा है कि समाचार पत्रों में पढ़ा है कि अकादमी अपनी स्वायत्तता मल्टीनेशनल कंपनी को बेच रही है क्या सही है। मेरा लोहिया जी से संबंध रहा है इसलिए मैं एक दिन को आ सकता हूं। कोई जवाब नहीं आयी। बाद में फोन आया कि आप एक दिन को ही आइए। मुझे कहना पड़ा पत्र का जवाब मिलने पर निश्चित करूंगा। देश का पानी बिक गया, जंगल बिक रहे हैं, हर चीज़ आन सेल है। क्या साहित्य अकादमी जैसी संवेदनलशील संस्था जो एक ऐसे छतनार दरख्त की तरह है जिस पर देश की 24 भाषाओं के घोसले हैं, उस पर भी मल्टीनेशनल का नाग सरसराता हुआ आकर घोसला बना लेगा? और एक एक करके उन भाषाओं की रचनात्मक स्वायत्तता को चट कर जाएगा जो अपनी रचनात्मकता को निर्विघ्न जी रही हैं। राजनीतिज्ञ और नौकरशाही इस संवेदनशीलता को क्या समझें पर इतने लेखक, बड़े और छोटे, जो वहां बैठे हैं, और स्वायत्तता के कस्टोडियन हैं, वे भी क्या उतने ही असंवेदनशील हो गए हैं? यह सवाल आज सामने नहीं लेकिन जब अन्य कंपनियों का दबाव बढ़ेगा तो पता नहीं भारतीय लेखको का क्या होगा। लाजवंती को बच्चा छुए या बड़ा हर हालत में मुर्झाती है। उसको माली हो या अकादेमी जैसी संस्थाएं उन्हें वातावरण और धरती के अनुसार ध्यान रखना पड़ता है। ज़्यादा केमिकल्स का विपरीत असर हो सकता है। बल्कि होता है।
देसी रंग
हमारे भाषाई बुद्धिजीवी जिनकी बाज़ारवाद में पैठ है उन्हें केवल विदेश में ही रंग नज़र आते हैं। हमारे देश में तो हर मौसम को अलग अलग रंग सजाते हैं। पलाश जैसे गाढ़े रंग भी है, अमलतास जैसे पीले रंग पत्तों तक को अपने रंग से रंग देते हैं, कचनार के विभिन्न रंग सफेद, बैंजनी, फ़िरोज़ी जब खिलते हैं तो लगता है रंग भरी थाली बिखेर दी गई है। गर्मी में धूप की चुभन को अमलतास के रंग ऐसे राहत देते हैं जैसे आंखों में गुलाबजल डाल दिया गया हो। अमरबेल तक अपनी चुनरी रंग लेती है। चमेली, जूही, गदराया मोगरा, चांदनी सब सफ़ेद होते