Thursday 18 December, 2008

साहित्य का आविष्कार
भाषा एक चमत्कार की तरह मनुष्य के सामने आई। साहित्य भाषा का परिष्कार है। जब भाषा सामने होती है तो भाषा को भाषा के रूप में तो हम पहचानते हैं कि यह हमारी भाषा है हम इसी तरह जानते पहचाने हैं जैसे शक्लें पहचानी जाती हैं। वह भाषा के साथ प्रतिति मात्र होती है। हम जानते रहते हैं कि इस आदमी क साथ हमारा इससे कोई संबंध है, हम इसे पहचानते हैं। जिसे हम पहचानते हैं क्या जानते भी हैं, लेकिन उन जाने पहचाने, आप कह सकते हैं परखी शक्लों को, कितनी अंतरंगता से जानते बूझते हैं, शायद आंशिक रूप से। भाषा का संबंध भी मनुष्य के साथ लगभग इसी तरह का है। हम भाषा को केवल इतना ही समझते हैं जितना दैनंदनि व्यवहार में उससे संबंघ रहता है। यानी बोल चाल में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली से संपर्क रहता है। जैसे संपर्क मात्र मनुष्य को जानना नहीं होता ऐसे ही भाषा का संवाद या अभिव्यक्ति के स्तर प्रयोग भाषा को जानना नहीं होता।
आप पूछेंगे मनुष्य का भाषा से रिश्ता क्या है। इसका जवाब आसान नहीं। भाषा इंसान की मूलभूत ज़रूरत है। वह चाहे लिपी विकिसत कर पाऐ या नहीं संवाद की भाषा विकसित करने में कभी चूक नहीं करता। भले ही सीमित उपयोग की हो। कबीलाई भाषा भले ही बोली तक ही सीमित हो। कबीलाई भाषा प्राकृतिक ध्वनियों का परिष्कृत समुच्य है। आऱंभ में तो सभी भाषाओं के साथ कमोबेश यही हुआ होगा। लेकिन जैसे बोलियों ने भाषा का रूप ग्रहण करना शुरू किया मनुष्य की आंतरिक प्रतिक्रियाओं या कहिए अहसासों का समावेष होता गया। पशुओं और पक्षियों की ध्वनियों में भी उनकी संवेदनाओं का समिश्रण रहता है तभी वे कभी करुण कभी कर्कश समयानुकूल ध्वनियां निकालते हैं। पपिहे की करूण ध्वनि हमारे साहित्य का सर्वाधिक करुण आर्त स्वर माना जाता है। डहगल नाम के पक्षी के बारे में कहा जाता है कि वह सवेरे इस तरह मनोहारी सीटी बजाता है जैसे बांस के दरख्तों के बीच से हवा गुजरते हुए बोलती है। जैसे जैसे दिन च़ढ़ता है वैसे वैसे कर्कशता बढ़ती जाती है। मेरे कहने का मतलब है कि भाषा बाह्य वस्तु नहीं है जिसे हम एक उपकरण या यंत्र के रूप में इस्तेमाल कर सकें या पुराना समझ कर फेंक या बदल सकें। भले ही पशु पक्षियों की भाषा हमारी भाषा से बिल्कुल भिन्न हो लेकिन उसे छोड़कर क्या वे जी सकते हैं। शायद नहीं। आदमी भले ही जीले। उस स्थिति में उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम दैहिक हो जाएगा जो उसे अव्यक्त औऱ अपूर्ण्र बना देगा। भाषा का मूल आधार संवेदना है और उद्येश्य अभिव्यक्ति का विकास, विस्तार, संप्रेषण और परिमार्जन। दैहिक भाषा यानी बॉडी लेंग्वेज जिसका ऊपर जि़क्र किया, हाथ, पैर, मुखाकृतियां तो उसके माध्यम हैं ही लेकिन आँखे सबसे अधिक मुखर होती हैं। उनकी सीमित पर सटीक भाषा है। इस सबके बावजूद वे सब अभिव्यक्तियाँ न भाषा प्रमाण बन सकती हैं और न संवेदना का विस्तार करके उसमें कुछ जोड़ती हैं। भाषा का अर्थ है अक्षऱ समुच्य और अर्थ-समीकरण उनका विभिन्न रूपों में संप्रेषण तथा प्रक्षेपण। हर अक्षर-समुच्य की संवेदना उसी तरह उससे जुड़ी़ होती है जैसे प्रत्येक जाति के आम के साथ उसका स्वाद या रस। वह दूसरे अक्षऱ-समुच्य यानी शब्द के साथ मिलकर नए नए रूप धरती रहती है। घटती बढ़ती है। लड़की का विधवा होना औऱ पुरूष का विधुर होना, पिता का न रहना और माँ का न रहना संबंधित व्यक्ति से लेकर समाज तक अलग संदर्भों मे संप्रेषित होगा। पिता ने बेटी को प्यार किया, माँ ने किया, प्रेमी ने प्रेमिका को किया। प्यार एक ही शब्द है, संवेदना की अभिव्यक्ति के स्तर भी वज़न में समान है लेकिन हर रिश्ते के साथ प्रक्षेपण और प्रतिक्रिया अलग अलग होते हैं। भाषा एक ऐसा पिटारा है जो नए नए शब्द और नए नए अर्थ जादूगर की तरह निकालता जाता है। वे शब्द मात्र शब्द ही नहीं हैं ऊनके साथ संवेदना भी आती है। वह स्थिर नहीं होती घटती बढ़ती भी रहती है। जब घटने लगती है तो आयु की तरह वह भी समाप्त हो जाती है। यानी संवेदना विहीन शब्द विलु्प्त होते जाते हैं। माँ, जब तक जनन प्रक्रिया रहेगी यह शब्द रहेगा। ताज्जुब की बात है कि लगभग सभी भाषाओं में म से ही मातृत्व संबोधक संज्ञा मां, माता,मदर आदि बने हैं। म ही वह मूल धातू है जिसमें मां बसती है निकलती भी उसी में से है। यह बात अलग है कि गुजराती में मां बा हो गई लेकिन बा के पीछे अवधारणा मां की है। बड़ा आश्चर्य होता है जब आदमी का बच्चा भी पहला उच्चारण मा या म करता है और बकरी का बच्चा भी म या मैं.. करता है। बच्चा माता या माम नहीं कहता। ये शब्द कल्चर्ड संस्करण हैं। यानी संवेदना संबंध, ममत्व और संस्कार का संचयन माम माता मदर के मुकाबले म और फिर माँ में होता गया है। पिता के साथ शायद ऐसा नहीं।
यहां मैं गालियां का ज़िक्र भी करना चाहता हूं। गालियां भी मनुष्य के गुस्से या घृणा को जिसे आप भले संवेदना न कहें पर है वह संवेदना का ही विलोम उतनी ही या उससे भी अधिक कन्सनटरेटेड आक्रोश भाव की अभिव्यक्ति। उस भाव को अभिव्यक्त करने वाला मंत्र। मंत्र साधे जाते हैं। इन्हें क्रोध के मनोभाव की शाब्दिक सिद्धी भी कही जा सकती है जो तात्कलिक प्रतिक्रिया के रूप में आंतिरक विस्फोट की तरह अभिव्यक्त होती है। मेरा कहने का तात्पर्य है कि भाषा केवल शब्द संचयन नहीं है और न संभाषण का कोई मानव निर्मित उपकरण है। संवेदना उसकी आत्मा है। साहित्य उसे जानने पहचानने और बढ़ाने की जुस्तजू में रात दिन लगा रहता है। अनुभव के स्तर पर भी और अभिव्यिक्त के स्तर भी। भाषा और संवेदना साहित्य का सामुहिक आविष्कार है जो पता नहीं कब से चल रहा है और कब तक चलता रहेगा। शायद यह अनन्त प्रक्रिया है।

Tuesday 2 December, 2008

अरदास
2 दिसंबर 08

मैं 1979 से स्वाध्याय और ध्यान से पूर्व कानपुर में रहते आठ दस लाइन लिखकर 'उसे' समर्पित कर रहा हूं। वह ज़माना आई आई टी के साथ संघर्ष का था। तब आप बीती अधिक होती थी। अब जैसा भाव आए उसे उसी तरह उतार देता हूं। मैं नहीं चाहता कि जब कभी मिलूं तो 'वह यह कह सके कि 'अरे तू ऐसा सोचता था, या इतना खुश या दुखी था, तूने मुझे बताया ही नहीं।' लिखता हूं जिससे रसीद तो रहे। तब हो सकता है उससे यहीं कहते बने इतनी अरदास आती हैं क्या करूं। पर मेरी तो लिखित थी कभी तो नज़र आशनाई करते। हालांकि मैं नहीं जानता 'वह' कौन है कहां है। वह सुनता है या केवल देखता है या कुछ भी नहीं करता। केवल तरंगों से ही काम चलाता है। या सब मेरे अपने दिमाग़ का सिर्फ़ फ़ितूर है? जो भी हो पर है। मैं अपनी तरफ़ से उसे लिख पढ़ कर बांधे रखना चाहता हूं। पर कहते है वह बंधता नहीं, उसे बांधा ही नहीं जा सकता। लेकिन सुना है इश्क उसे बांध लेता है। पर आम इंसान इश्क की उतनी मोटी रस्सी बट नहीं पाता। जन्म लग जाएं तो भी मुश्किल होता है। इसी लिए लिखता हूं। क़यामत के रोज कह सकूं 'तुझे ग़ैरों से कब फ़ुर्सत, हम अपने गम से कब ख़ाली, बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली।' उलट भी हो सकता है। मैं दो चार बंदिशें पेश करदूं जिससे वक्त आने पर आपसे भी पूछ सकूं कि मैं झूठ बोल्यां? मैं जानता हूं कई बार पुख्ता से पुख्ता गवाह भी पलट जाते हैं। कितना भी बापर्दा रह ले, मैं जानता हूं तू नहीं पलटेगा। चुप्पी भले ही साध ले। पेश ए ख़िदमत है-
23 11 08
अब तो हम कहीं नहीं, जहां हैं वह स्थान भी धीरे धीरे बेगाना होता जा रहा है। जिस स्थान को अपना बनाना चाहता हूं वह बहुत बहुत दूर है। उसे देखा भी नहीं। शायद देख भी नहीं सकते। हालांकि यहां के बाद वही मंज़िल है। लेकिन कौन कह सकता है पहुंचेगे भी या नहीं। कई बार सीढ़ियां इतनी चिकनी और खड़ी होती हैं कि पता नहीं चलता कब पांव फिसल जाए और फिर उसी खड्ड में जा गिरें जहां से निकलकर इन सीढ़ियों तक पहुंचे थे, उन सीढ़ियों तक फिर से पहुंचनें में उतना या उससे ज्यादा समय लग जाए। फिर महारनी शुरू करनी होगी। एक ही संभावना है अगर तुमने मेरी अंधी लकड़ पकड़ ली तो हो सकता है मैं ही मंज़िल बन जाऊं।
24.' 11. 08


प्रभों, हम बच्चों को केवल फूलों की तरह न निहारकर उन्हें सींचकर ऐसा पुष्पवृक्ष बनाना चाहते हैं कि उस पर फल फूल हमेशा खिलें। महकें। राहगीर को छाया दें। भूखे को फल दें। लेकिन हम ऐसा नहीं करते। उन्हें दुखी करते हैं। उनकी भावनाओं और भाषा से खेलते हैं। उन्हें रुलाते हैं। प्रताड़ित करते हैं। उनमें अपने स्वार्थों के प्रतिबिंब देखते हैं और उन्हीं से उन्हें लाद देते हैं। गलत रास्ते पर डाल देते हैं। कैसे माता पिता हैं? कैसे शिक्षक और समाज सुधारक हैं। बच्चे ख़ुश नहीं तो जग केसे ख़ुश रहेगा। वे हमारे लिए कांटे बन जाएंगे हम उनके लिए बबूल।
28. 11. 08
संसार में कितने साधनहीन और असहाय लोग हैं। बस एकटक तेरी ओर देखते हैं। जैसे पपीहा स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा में निर्जल रहकर पीऊ पीऊ की रट लगाए रहता है वे भी...। भले ही कवि की कल्पना हो पर इंसानों के बारे में सही है। बेसहारापन मनुष्य को पपीहे से बदतर कर देता है। मैं अपने ही संबंधों में कुछ को देखता हूं, बच्चे तक स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा में आकाश की तरफ़ देखा करते हैं। कब बरसे कब उनके सपने पूरे हों। क्या उनके लिए स्वाति के आने को समय निर्धारित नहीं? तेरा यह कालचक्र कैसा है? कहीं साल में एक बार आता है कहीं आता ही नहीं।
2. 12 08
मंगल भवन अमंगलहारी, द्रवहू सो दशरथ अजिर बिहारी।
हम अमंगल को जीवित नहीं रहने देना चाहते। कैसी विडंबना है! दोनों एक दूसरे के कारक हैं। दषरथ के अजिर बिहारी से कह रहे हैं। अजिर में विचरण करने वाला किसी के अमगल को क्या समझेगा? कह रहे हैं हमारा अमंगल हर ले। यह ठीक है कि आस्था के स्तर पर वह सब जानता हो। वह क्या उनके दुख भी जानता है जो धरती पर चलते है? अगर वन बिहारी दषरथ पुत्र से कहते तो शायद हमारे दुखों को अच्छी तरह जानता। उनके प्रति संवेदनशील होता। अजिर बिहारी, राम होकर भी बच्चा है। वह अपने सुख दुख के बारे में ही अनजान है। हम उससे यह क्यों न कहें कि तुम हमारे दुख के साथी बनो। हम तुम्हरे दुख के साथी हैं। दुखों को बना रहने दो वे तुमसे अधिक सच्चे साथी हैं।