Tuesday 10 November, 2009

कहां है संविधान और कहां है जनतंत्र?

मैं संविधान और जनतंत्र की बात क्यों कर रहा हूं? फिर सोचता हूं सब ही कर रहे हैं तो मैं भी कर रहा हूं तो क्या गुनाह कर रहा हूं? जब संज्ञाएं और शब्द अर्थ खो देते हैं तो उनका कोई महत्त्व नहीं रहता। ऐसे में अर्थहीन शब्द बोलना गुनाह नहीं रहता। जब किसी भाषा का कोई महत्त्व नहीं रहता तो शब्दों का ही क्या मतलब रह जाता है। भाषा से भले ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी न बनें पर साहित्य, इतिहास, समाजविज्ञान के मूल में भाषा ही होती है। संविधान की भी भाषा ही है। उसमें सब भारतीय भाषाओं को समान माना। हिंदी और अंग्रेज़ी को संपर्क भाषाएं मान लिया गया। एक साज़िश की गई कि हिंदी राज भाषा बना दी गई। दोनों भाषाएं, एक विदेशी भाषा और वह भाषा जिसमें आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी एक नाव में सवार हो गई। हिंदी राजभाषा बनाकर दूसरी भाषाओं की आंख की किरकिरी बना दी गई। यह भाषाओं को बांटने की सोची समझी राजनीतिक साज़िश थी। उसका विकृत नतीजा 9 नवंबर 09 को महाराष्ट्र की विधान सभा में देखने को मिला। यह संविधान का सम्मान है या विधान सभा का या आदमियत का? अब इस सवाल को राजनीतिज्ञ ही सुलझाएंगे। इसे न बुद्धीजीवी सुलझा सकते हैं और न साधु संत और न विधिवेत्ता। जिन्होंने यह अवलेह घोटा है उन्हें ही चखना पड़ेगा। तीन क्या चार भाषाओं में शपथ ली गई। मराठी में, संस्कृत में, हिंदी में और अंग्रजी में। मराठी में तो ली जानी थी। एक तो मनसा के अध्यक्ष राज ठाकरे का तानाशाही हुक्मनामा, दूसरे राज्य की भाषा। हुक्म डराने वाला था कि मराठी में शपथ न लेने पर दंडित किया जाएगा। तुम कौन, जन प्रतिनिधियों के नाम संविधान विरोधी हुक्मनामा जारी करने वाले? आप अपील करते तो भी एक बात थी। ऐसा करना भी अधिकार के बाहर की बात थी। एक बाहरी आदमी का सदन के चुने गए सदस्यों को हुक्म जारी करना सदन और अध्यक्ष की अवमानना है। दुसरे संविधान में किसी भी भाषा में शपथ लेने की दी गई छूट और संवैधानिक अधिकार में ख़लअंदाज़ी है। यह नया तानाशाह पिछले सप्ताह भर से संविधान विरोधी आदेशों की बरसात कर रहा था लेकिन न तो सरकार ने इसका वरोध किया और न इस असंवैधिनक स्वयंभू तानाशाह के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही की गई। दो ही बातें हो सकती हैं या तो सरकार डरती है या फिर तरह दे रही थी। गैरकानूनी काम के खिलाफ़ तत्काल कार्यवाही न करना उसे वैधता देना है। अराजकता पैदा करना है। सपा के चुने हुए सदस्य अबु आज़मी का यह अधिकार था कि वह किसी भी भाषा में शपथ ले। उन्होंने इस अधिकार का उपयोग किया। वैसे भी अपने को लोहिया जी का अनुयायी मानने वाला व्यक्ति अपने नेता का भाषा वाले निर्देश का पालन उसी पकार कर रहा था जिस प्रकार मनसा के आततायी सदस्यों ने राज ठाकरे के निराधार और असंवैधानिक आदेश का पालन किया।
आप यानी ठाकरे परिवार हिंदी से क्यों नाराज़ है? राज ठाकरे तो ज़हर घोले बैठा है,हिंदी के खिलाफ़ भी और हिंदी वालों के खिलाफ़ भी। जबकि देवनागरी यानी लिपि को बहुत अच्छी तरह मराठी ने अपनाई है। शायद इसीलिए कि मराठी और हिंदी भाषियों की डोर दोनों को बांधे रहेगी। पराडकर जी ने हिंदी पत्रकारिता को परवान चढ़ाया। दरअसल हिंदी के समर्थक अहिंदी भाषी ही रहे, गांधी, तिलक, और स्वामी दयानंद से लेकर पराडकर जी तक। इस बार अंग्रेज़ी में शपथ ली गई तो मनसा के गुंडे कहूं या महान प्रदेश भक्त क्यों नहीं बोले, क्या वह मराठी की सगी थी? संस्कृत में ली गई। वह मराठी नहीं थी। सिर्फ हिंदी से ऐसी क्या दुश्मनी थी कि मनसा के सदस्यों ने सम्मानित राजनीति पार्टी के सम्मानित सदस्य को पीटा। राज ठाकरे जी , मैं आपके नाम के आगे जी इस लिए लगा रहा हूं कि आप एक पार्टी के नेता हैं। नहीं तो शायद नाम भी न लेता। मराठी गुंडा कहना मुझे गवारा नहीं हुआ। आप आइए उत्तर प्रदेश में देखिए मराठी कितने सम्मान के साथ रखे जाते हैं। शिक्षा संस्थाओं में अध्यापक ही नहीं प्रचार्य भी बड़ी संख्यां में हैं। इसलिए नहीं के बहुत योग्य हैं बल्कि इसलिए स्थानीय लोगों के साथ वे घुल मिल गए हैं। आई आई टी कानपुर के पहले निदेशक मराठी थे। उन्होंने उन लोगों के अधिकार को नज़रअंदाज़ करके जिनकी ज़मीने आई आई टी बसाने के लिए ली गई थीं, मराठियों का नौकरियांदीं। लेकिन कभी स्थानीय लोगों ने उफ़ नहीं की। आपके यहां जब टैक्सी चलीं तो उच्च वर्गीय मराठियों को स्वयं चलाना गवारा नहीं हुआ। वे उत्तर भारत से ड्राइवर ले गए। जब उन्होंने स्वयं अपनी बना ली तो मुंबई के मानुस की भृकुटि तन गई। आजकल आई आई टी कानपुर के निदेशक भी मराठी हैं। यही नहीं दूसरी बार हुए हैं। रजिस्ट्रार भी मराठी मानुस है। लेकिन किसी के ज़ायके में कोई फ़र्क नहीं। अगर आपकी तरह सोचने लगें तो इतने बड़े बड़े पदों पर बैठे लोग कैसा अनुभव करेंगे। यही दूसरे प्रदेशों में भी होगा। हिंदुस्तान मानवीय रिश्तों का सम्मान करना जानता है। उत्तर भारत तो ख़ासतौर से। दक्षिण और देश के अन्य भागों में विज्ञान की पी जी स्तर की शिक्षा की कम संस्थाएं थीं। सब जगह से बच्चे कानपुर लखनऊ आदि बड़े शहरों में पढ़ने आते थे। यही मेडिकल शिक्षा की स्थिति थी। कभी किसी ने न भाषा का सवाल उठाया और न परदेसी होने का, जो आप उठा रहे हैं। श्रीमन्, आप नहीं जानते, जानते हैं तो समझना नहीं चाहते कि देश को अलगाववाद की किस आग में झोंक रहे हैं। राजनीतिज्ञ तो अपनी रोटी सेक लेता है आम आदमी का चूल्हा भी नहीं सुलगता। अब ऐसा लगने लगा है कि राजनीतिज्ञों से बड़े स्वार्थी इन्द्र भी नहीं। क्षमा करें गांधी ने तो संसद को ही वेश्या बताया था हमारे राजनीतिज्ञों ने तो जनतंत्र को भी उसी पैराय पर ला खड़ा किया। जिन्ना ने पूर्वी बंगाल में उनकी भाषा को पशेमान किया था। बंगला-वंगला कुछ नहीं उर्दू सब कुछ है। राज साहब भी उसी रास्ते पर हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा वह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन मनसा ने यह सोचे समझे बिना चिंगारी फेंक दी कि जो तरह देंगे वे तक हाथ जला बैठेंगे। तटस्थ रहेंगे तो मौजे ए तलातुम उनको भी नहीं बक्शेगी।
ईस्ट इंडिया द्वारा पेशवाओं को पुणे से निकाल दिए जाने पर उत्तर भारत ने ही उनकी पेशवाई की इज़्जत बचाई थी। उत्तर भारत के लोगों ने ही उनका साथ दिया था। आज भी बिठुर के खंडहर पेशावाओं पर गोरों के प्रकोप की गवाही दे रहे हैं। वहीं उन सबकी याद को नानाराव पार्क, मैसेकर घाट यानी नानाराव घाट, तात्या टोपे के स्मारक उनका परिवार उन सबकी याद ताज़ा कराते हैं। वे माहराष्ट्र से अधिक उत्तर भारत के पुरखे हैं। कई मराठी धुलेकर जी आदि सम्मानीय जननेता रहे हैं। वे सब मराठी भी बोलते थे हिंदी भी बोलते थे। आज भी उत्तर भात में रहने वाले मराठी दोनों भाषाएं बोलते हैं। कोई नहीं कहता हिन्दी ही बोलिए। वे सम्मान से ही नहीं रह रहे रोज़ीरोटी भी कमा रहे हैं। महाराष्ट्र में रहने वाले उत्तर भारतीयों की तरह उन पर किसी तरह की न बंदिश है न संकट है। न होना चाहिए। बाल ठाकरे का यह इलज़ाम कि अब्बु आज़मी को हिंदी में शपथ लेने से रोका नहीं गया निहायत अपरिपक्व है। लगता है कि वाक़ई खून पानी से अधिक गाढ़ा होता है। भतीजे और भाषा का पक्ष लेना संविधान के सम्मान से अधिक ज़रूरी है। ताज्जुब की बात है कि अंग्रेज़ी में शपथ लेनेवालों के लिए इस वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने कुछ नहीं कहा कि उससे महाराष्ट्र और मराठी की अवमानना नहीं हुई, शायद सम्मान बढ़ा। जिन पेशावाओं को अंग्रेज़ों ने बेइज़्जत किया हिंदी वालों ने उनका साथ दिया वह हिंदी शिवसेना और मनसा की दुश्मन है और अंग्रेज़ी सगी। भाषा कोई गैर नहीं होती न उसके प्रवाह को रोका जा सकता है। ठाकरे साहबान, इंसान से अधिक भाषाएं आपस में लेन देन करती हैं। हम जितने संकुचित और छोटे दिलों के हैं भाषाएं कहीं ज्यादा फ़राख़दिल हैं। एक ज़माना था जब ब्रिटिश संसद में अंग्रेज़ी बोलने वालों पर मनसा की तरह फ्रांसिसी भाषा प्रेमी मनसा की तरह आक्रमण करके हाथ पैर तोड़ देते थे। लेकिन क्या वे अंग्रेज़ी का कुछ बिगाड़ पाए। भाषा अपना रास्ता बनाने के साथ साथ अपने रास्ते के अवरोध भी स्वयं हटाती है। हिंदी भी यही कर रही है अपनी बहनों का सम्मान रखते हुए आगे बढ़ रही है। हिंदी का लिपि के कारण दामन चोली का साथ है। दामन उतारोगे तो बेपर्दगी होगी, चोली उतारोगे तो शर्मज़दा होगे।

Friday 6 November, 2009

प्रभाष जोशी हिंदी के अंतिम समर्पित सेनानी

आज सवेरे हिंदुस्तान दैनिक के पहले पृष्ठ पर सूचना देखी तो सन्न रह गया प्रभाष जी चुपके से निकल गए। मुझसे एक साल छोटे थे। पहले मैं उन्हें अपने से बड़ा ही समझता था। जब यह राज़ खुला कि मैं उनसे एक साल बड़ा हूं तो वे बोले अब मैं तुम्हें प्रणाम किया करूंगा। इस बात को उन्होंने कुछ दिन पहले तक निभाया। हिंद स्वराज पर मेरी पुस्तक सस्ता साहित्य मंडल से आई तो मैंनें उन्हें बताने के लिए फ़ोन किया तो उन्होंने प्रणाम करने वाली रिवायत को निभाया। जब वे प्रणाम कहते थे मुझे संकोच होता था। मैंने बेकार ही बताया कि मैं उनसे एक साल बड़ा हूं। दरअसल पहला गिरिमिटिया पर जनसत्ता में बहुत उन्होंने आत्मीय ढंग से समृद्ध लेख लिखा था। लेकिन दलित विमर्श-संदर्भ गांधी पढ़कर स्पष्ट कहा था दलित विमर्श के लिए गांधी को जस्टिफ़िकेशन की ज़रूरत नहीं है। उनमें साफ़ कहने की अद्भुत शक्ति थी। उन्होंने सोनिया गांधी को हिंद स्वराज पढ़ने की सलाह दी थी।
मेरी उनसे तब मुलाकात हुई थी जब वे अज्ञेय जी के साथ एवरीमेन में काम करते थे। जहां तक मुझे याद है तब वे बुशर्ट पैंट भी पहनते थे। बाद में उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखना पढ़ना लगभग छोड़ दिया। दूसरी बार मैं उनसे राजेन्द्र यादव के साथ इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग में मिला था। उन्होंने लिखी कागद कोरे की प्रति भी भेंट की थी। हालांकि उन दिनों मैं फ्री लेंसिंग कर रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा ‘आप कहानी उपन्यास के सिवाय भी कुछ और लिखते हैं?’
मैंने कहा ‘नाटक भी लिख लेता हूं।‘
‘नहीं, मेरा मतलब है अखबारं के लिए भी लिखते हैं।‘ मैंने गर्दन हिला दी। वे चुप रहकर बोले।
‘आपके मित्र तो बड़े लेखक हैं। इन्हें तो जनरलिस्टिक लेखन छोटा काम लगता है। लेकिन एक लेखक को समसामयिक विषयों पर ज़रूर लिखना चाहिए। इससे एक तो अपने सरोकारों का पता चलता है दूसरे देश की हालत और समस्याओं से दो चार होने का अवसर मिलता है।‘ यह बात मुझे रघुवीर सहाय भी कहते थे। लेकिन जिस तरह उन्होंने कहा उसमें एक तरह की पकड़ थी। हो सकता उसके पीछे यह भी मंशा रही हो कि यह आदमी फ्री लेंसिग कर रहा है अगर यह अखबारों मे लिखेगा तो आर्थिक मदद भी मिल जाएगी। या केवल एक लेखक को जरनेलिस्टिक लेखन की तरफ़ आकर्षित करने का तरीका था। मेरे मामा 1920 में जब आक्सफोर्ड लंदन से एम ए करके आए तो गांधी जी का संदेश मिला। बापू बंबई में ही थे। वे उनसे मिलने गए। बापू ने सीधे सवाल किया ‘तुम आज़ादी से सरोकार रखते हो या गुलामी की सुख सुविधा से?’
वे कुछ देर समझ नहीं पाए सवाल का मर्म क्या है। बापू काम करते रहे। कुछ देर बाद पूछा क्या सोचा। उनके मुहं से अनायास निकला –आज़ादी। हालंकि इन दोनों घटनाओं में कोई साम्य नहीं था। लेकिन एकाएक उस घटना का ध्यान आ गया था, पर मैं बोला नहीं। कुछ महीने बाद जब मैं उनसे मिलने गया तो वे बोले आपने क्या सोचा। मैंने एक लेख निकालकर उनके सामने रख दिया। जहां तक मुझे याद है वह भाषा के संदर्भ में था। उन्होंने अल्टा पल्टा और पी ए को बुलाकर कहा यह जाएगा। किसी काम का इतना जल्दी नतीजा पहली बार मिला था। हो सकता है यह उनका प्रोत्साहित करने का तरीका रहा हो।
प्रभाष जी ने चंद दिनों पहले मुझसे फ़ोन पर कहा था। मैंने कलकत्ता संस्कृति संसद वालों से कहा है कि जब पहला गिरमिटिया जैसे बड़े उपन्यास के लेखक आ रहे हैं तो 15 नवंबर को होने वाले हिंद स्वराज की गोष्ठी की वही अध्यक्षता करेंगे। कुछ ही देर बाद सचिव रत्नशाह जी का फ़ोन आ गया। हम भले ही कम मिलते हों पर उन्हें सदा गांधी के संदर्भ में मेरी याद रहती थी। जब मेरा उपन्यास छपा तो उन्होंने मुझे फ़ोन किया आपको पटना चलना है और गिरमिटिया पर बोलना है। मैं दिल्ली से आऊंगा आप कानपुर अमुक गाड़ी पर मिलें। मैं जाम के कारण वक्त के वक्त स्टेशन पहुंचा। वे इंतज़ार में टहल रहे थे। बिस्तर लगा तैयार था। जैसी आडियंस वहां मिली वैसी कहीं और नहीं मिली। शिवानंद जी तो थे ही। लालू जी से भी पहली बार उन्होंने ही भेंट कराई। मुझे विचित्र अनुभव हो रहा है हिंदी और गांधी के प्रति समर्पित ऐसा जुझारू योद्धा अब कौन मिलेगा। उनके दम से मुझे दम था। कोई पत्रकार आज हिंदी में ऐसा नहीं जो हिंदी के सवाल को जन्म मरण का सवाल समझता हो। अधिकतर हिंदी के पत्रकार हिंग्लिश के पत्रकार हैं। उन्हीं का दम था कि जनसत्ता को उन्होंने हिंदी का शीर्ष पत्र बना दिया था। आज भी हिंदी के अख़बारों में जनसत्ता को ही बौद्धिक सम्मान प्राप्त है। यह ठीक है कि तीसरे नंबर पर वे क्रिकेट के शैदाई थे। उन्होंने जनसत्ता के बाद कोई दूसरा अखबार नहीं पकड़ा। यही खेल के साथ हुआ। खेलों में क्रिकेट ही उनका पहला प्यार बना रहा। जब गए तो अपने प्रिय खेल देख रहे थे। मैं समझ सकता हूं कि सचिन के इतने बड़े स्कोर पर वे कितने ख़ुश होंगे लकिन 3 रन से हारना कितना बड़ा धक्का रहा होगा। शायद अपने प्रिय खेल और देश के लिए इतना बड़ा बलिदान इतने बड़े पत्रकार ने शायद ही कभी दिया हो।
एक घटना मुझे इस समय फिर याद आ रही है। सूरीनाम भारत सरकार का प्रतिनिधि मंडल जाने वाला था। विदेश मंत्रालय से नाम प्रस्तावित होकर पी एम ओ भेजे गए। उसमें जोशी जी का और मेरा भी नाम था। उन्हीं दिनों मैंने जनसत्ता में इस बात का सख्त शब्दों में खंडन किया था कि मैं आचार्य गिरिराज किशोर नहीं हूं। लोग कई बार मुझे वी एच पी का नेता समझकर पत्र लिखते थे। परिचय देते हुए नाम से पहले आचार्य लगा देते थे। सांप्रदायिकता के प्रतीक व्यक्ति से मेरा नाम जोड़ना मेरे लिए अपमानजनक था। शायद प्रधानमंत्री हाऊस में उस बात को पढ़ लिया गया था। फ़ाइल लौटी तो मेरे और जोशी जी के नाम पर फ़ाइल में निशान लगा था। राज्यमंत्री विदेश ने पीएम से जाकर कहा कि जोशी जी इतने बड़े पत्रकार और गिरिराज किशोर ने गांधी जी पर पहला गिरमिटिया जैसा उपन्यास लिखा है। प्रधानमंत्री ने सदाशयता दिखाई और दिग्विजय सिहं जी की बात मान ली। दरअसल जोशी जी ने अपनी राय के साथ कभी धोखा नहीं किया। वे निडर होकर बी जे पी नीतियों के खिलाफ़ बोलते रहे। इतना बड़ा पत्रकार क्या राज्यसभा में जाने योग्य नहीं थे। लेकिन पार्टियां सरकार में रहीं और गिरीं पर किसी को न हिंदी का धयान आया और न जोशी जीजैसे निर्भीक पत्रकार का।
मैंने समाचार पढ़कर उनके सहयोगी रहे प्रताप सोमवंशी को फ़ोन करके पूछा दाह संस्कार कब होगा उन्होंने बताया कि उनका शरीर इंदौर ले जाया जा रहा है। ख़ामोश हो जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। वे अपना काम पूरा करके घर लौट रहे थे। मैंने मन ही मन प्रणाम कर लिया।

Thursday 5 November, 2009

अपणी ढोणी

राजस्थानी के लिए तो समझना कठिन नहीं है कि अपणी ढोणी क्या है। लेकिन बिना देखे और जाने किसी दूसरे प्रदेश वासी के लिए शायद आसान न हो। किसी भी प्रदेश के रहने वाले क्यों न हों, हम लोग अपनी ग्रामीण संस्कृति की न शब्दावली से रले मिले रहे और न जीवन से। बस सुने सुनाए नाम याद रह गए हों तो बात अलग है। लेकिन उनका नाता आम आदमी से क्या है, संवेदना से क्या है, उसकी अर्थवत्ता क्या है यह सब समझना आसान नहीं है। किसी भी शब्द के अर्थ से तब तक समरसता नहीं होती जब तक जीवन में उसका उपयोग न हो और संवेदना से रिश्ता न बने। यह बात इस बार संगमन के कार्यक्रम मे उदयपुर गए तो समझ में आई। मेरे मेज़बान, संबंधी तथा मेडिकल कालेज के बालरोग विभाग के अध्यक्ष डा ए पी गुप्ता ने अंतिम दिन कहा कि आज बाहर खाना खाया जाए। कहां? वे बोले एक ऐसी जगह जो आपने पहले कभी देखी नहीं होगी। मैंने कहा इस बात का ध्यान रखिएगा मैं और मेरी पत्नी पूरी तरह निरामिष हैं। वे दोनों स्वयं भी निरामिष हैं। इसीलिए अपणी ढोणी ले चल रहे हैं। वहां प्याज़ और लहसुन का प्रयोग भी कम प्रयोग होता है। यह नाम एकाएक समझ में नहीं आया। जब उन्होंने बताया इसका मतलब है अपनी झोपड़ी या कुटिया। भोजनालयों के अंगीठी, रसोई, साझाचूल्हा आदि नाम तो हमारी तरफ़ चलते थे। यह नया नाम था। वह ढोणी शहर से दूरी पर एक पहाड़ी पर थी। एकदम ऊबड़ खाबड, गांव का सा वातावरण। कार एक तरफ़ खड़ी की। थोड़ी दूर एक गेट था जिस पर बंदनवारें लटकी थी। ढोल बज रहा था। गेट पर एक आदमी पगड़ी वगड़ी बांधे राजस्थानी धोती पहने अंदर जाने वालों के तिलक लगाकर स्वागत कर रह था। उसकी थाली में लोग रूपये डाल देते थे। चढ़ाई के बाद ऊपर पहुंचे। वहां खाटें बिछीं थी। कुर्सियां भी थीं। राजस्थानी लोकगीत पर एक महिला ग्रामीण नृत्य कर रही थी। छाछ और पापड़ अतिथियों को पेश किया जा रहा था। एक छोटी ढोनी जादूगरी की थी। कहीं कपुतली का नाच हो रहा था। ऊंट की सवारी का इंतज़ाम था। यानी पूरा देहाती मेले का तामझाम था।तभी बारिश होने लगी।जिसको जहां जग मिली घुस गया। जादू की ढोनी जो ठंडी पड़ी थी गर्मा गई। जादूगर ने एक के तीन कबूतर बना दिए। बोला हाथ की सफ़ाई, पेट की कमाई।
असली बात थी जिम्मन की। ज़मीन में पटोरे बिछे थे। सामने चौकियां लगी थीं। हर जाति, धर्म का आदमी उस पंगत में मौजूद था। सब लोग खुशी से सजे बैठे थे। मैं सोच रहा था। हम लोग कितने आधुनिक हो गए। इन रवायतों को भूल गए। इसीलिए उसकी पुनर्प्रस्तुति का आयोजन करके कितने ख़ुश होते हैं। कई राजस्थानी टहलुए खाना परस रहे थे। लग रहा था जैसे किसी ब्याह शादी की पंगत हो। गट्टे की सब्ज़ी, पनीर, आलू, रायता दाल घी, बाटी, ताज़ा निकला मक्खन, गुड़ मक्का बाजरे की रोटी। यानी सब राजस्थानी ठाठ में रचे बसे थे। हालांकि छोटे स्तर पर ऐसा देहाती आयोजन कभी कभार परिवारों में भी किया जा सकता है। लकिन सब क्या, अधिकतर घरों में, डायनिंग टेबिल स्थायी रूप से थिर हो गई। उसे कौन खिसका सकता है। सब से महत्त्वपूर्ण था मनुहार का कार्यक्रम। पहले एक बार गर्म गर्म जलेबी परसी गई। फिर एक आदमी आया। उसके हाथ मेंजलेबी से भरी थाली थी। वह सबको अपनी तरफ़ से नाम देता जा रहा था और सीधे मुहं में जलेबी रखता जा रहा था। एक के बाद एक जब तक वह मुंह ही न फेर ले। वह मुंह में जलेबी रखता जाता था कहता जाता था वाह जी राम नारायण, एक राम के नाम की। महिला हुई तो ज़नाना नाम, मुसलमान हुआ तो कहता हां जी हमीदा बीबी। सब पंगत हंस हंस कर लोटपोट थी। उसके हाथ से जलेबी खाने और अपना नया नामकरण कराने में हर किसी को मज़ा आ रहा था।
सबसे बड़ी बात हिंदू, मुसलमान, ईसाई, ब्राह्मण, और अन्य जाति सब उसके ही हाथ से बिना भेद भाव के खा रहे थे। तबसे मेरे दिमाग में यह सवाल घूम रहा है गांव के एक प्रायोजित वातावरण में इन स्थितियों में हम फूले नहीं समाते लेकिन इस आत्मीयता को ज़िंदगी की वास्तविकता बना लेने में हमें गुरेज़ है। गांव हमारे लिए सपने की चीज़ हो गई। मसनूई गांव बनाकर उसमें कुछ समय जीना हमें तरोताज़ा कर देता है। वाह जी वाह!