Tuesday 24 February, 2009

साहित्य अकदेमी की फैलोशिप का मज़ाक

आज़ादी के बाद जो राष्ट्रीय संस्थाएं देश के नेताओं ने स्थापित की थीं वे आज छोटे छोटे स्वार्थो के साधन बन गई हैं। लोग अपनी अपनी आकांक्षाओं को पूरी करने के लिए इस्तेमाल करके अपने को बड़ा सावित करने में लगे हैं। हमारे देश के नायकों का स्वप्न रहा होगा कि इन संस्थाओं की सहायता से गुलामी से निकलकर आ रहे अपने देश को दूसरे देशों के मुकाबले में खड़ा कर सकें। उन संस्थाओं में ऐसे स्वनामधन्य लोगों को सौंप सकें जो अपने अपने क्षेत्रों में देश को शीर्ष पर ले जा सकें। उन लोगों के जाने के बाद क्या यह संभव हो सका? क्यों नहीं हो सका इस सवाल का जवाब शायद ही किसी के पास हो। जवाहरलाल का सपना था कि देश में ऐसी अकादमियां बनें जो संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रतिभाओं को देश के सामने ला सकें। इसी उद्येश्य से तकनीकी क्षेत्रों के अलावा कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में तीन अकादेमियाँ आरंभ कीं। साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष वे स्वयं बने। साहित्य अकादेमी उनकी भावनाओं के सबसे ज्यादा नज़दीक थी। उस समय के शीर्षस्थ रचनाकार और बुद्धिजीवी साहित्य अकादेमी के सबसे बड़े ख़ैरख्वाह और वास्तुकार थे। 12 मार्च 1954 को संसद के केंद्रिय हॉल में साहित्य अकादेमी का उदघाटन संपन्न हुआ। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और देश के पहले शिक्षा मंत्री ने अपने भाषण में कहा था कि ‘the akademi must lay down standard for those who seek to be recognized as distinguished men of letters. The Academi would serve its purpose only if its standard was set as high as possible.’
यहां मैं एक घटना का और उल्लेख करना चाहता हूं 1964 में जवाहर लाल नेहरू नहीं रहे तो मुल्कराज आनन्द ने प्रस्ताव रखा कि नेहरू मरणोपरान्त पहले फ़ैलो बनाए जाएं। कृष्णा कृपालानी ने सवाल किया अगर वे मरणोपरांत फैलो बनाए जा सकते हैं तो कालीदास व्यास वाल्मिकी क्यों नहीं हो सकते? फैलोशिप केवल उन्हीं जीवित लेखकों को प्रदान की जा सकती थी जो निर्विवाद रूप से लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हों। नेहरू ही नहीं बहुत से महान लेखक इसलिए फैलो नहीं बने क्योंकि वे जनरल काउन्सिल के सदस्य थे। साहित्य अकाडेमी के द्वारा प्रकाशित “five decades (A short History of Sahitya Academi” के पृ 20-21 पर उन महानुभवों के लगभग 24 यशस्वी नाम गिनाएं हैं जिन्होंने जनरल काउंन्सिल के सदस्य होने के कारण फैलो चुने जाने से इंकार कर दिया था। यह सही है कि नारंग साहब पूर्व अध्यक्ष, जनरल काउंसिल के सदस्य नहीं हैं। लेकिन वे सलाहाकार समिति की सदस्य से लेकर अध्यक्ष पद तक हरपद पर शोभायमान रहे। एक तरह से सिटिंग प्रेसिडेंट ही हैं। यहां तक कि दोबारा प्रेसिडेन्ट बनने की पूरी तैयारी कर ली थी। कहते हैं व्यक्तिगत स्तर पर और संबंधों के ज़रिए, एक राजीतिक पार्टी के ज़रिए अपने पक्ष के नाम जनरल काउंसिल की सदस्यता के लिए मंगवा लिए थे। अकादेमी के कुछ अधिकारी भी मिले थे। महाराष्ट्र की एक संस्था द्वारा लिखित शिकायत अकादेमी को भेजी गई थी। एक बार जब पाकिस्तान की यात्रा में जाने के लिए उपाध्यक्ष ने रुचि दिखाई थी तो अध्यक्ष महोदय ने सलाह दी थी। इंसान को कुछ तो छोड़ना सीखना चाहिए। काश ऐसा हो पाता। दरअसल इंसान की ज़रूरत तो पूरी हो जाती है पर लिप्सा कभी पूरी नहीं होती।
अगर भारत सरकार ने आख़री क्षण हस्तक्षेप न किया होता तो नेहऱू और और सुनीति बाबू की तरह दूसरी बार भी पूर्व अध्यक्ष दूसरी बार अध्यक्ष बने गए होते । वासुदेवन नायर को तीन या चार वोटो से हराकर सुनील दा जैसे व्यक्ति को अध्यक्ष न बनवाते। उनके बारे में उन्होंने कभी सम्मानजनक ढंग से बात नहीं की। लेकिन एक सिद्धांत प्रिय व्यक्ति के मुक़ाबले ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष न बनने देते जिसके सामने संस्था का हित बड़ा न हो। संस्था ने स्वीकार किया है कि प्रेसिडेंट और वाइस प्रेसिडेंट ने अपने कार्य काल में सचिव से मिलकर, अकादेमी के चार चार लाख रूपए लगाकर अपने घुटने बदलवाए। संभवतः सरकार ने वेतन भोगी कर्मचारियों के लिए तो मैडिकल क्लेम का प्रावधान किया है लेकिन विधायकों के अलावा इस तरह के नियम नहीं हैं जहां जन सेवा के लिए चुनाव होते हों। साहित्य अकादेमी के 50 वर्ष के इतिहास में यह पहला उदाहारण है जब प्रेसिडेंट और वाइस प्रेसिडेंट के अकादेमी के खर्च पर बिना बजट प्राविज़न के इतने बड़े आपरेशन संपन्न हुए हों और खर्च अकादेमी ने वहन किया हो। यह अकेली ऐसी घटना है जहां व्यक्तिगत हित में सचिव को मिलाकर जन धन का दुरुपयोग किया गया है। अगर शासन अपनी साख बचाने की इच्छुक होती तो कम से कम नया अध्यक्ष और फैलो चुनने से पहले कम स कम पूर्व और वर्तमान अधयक्षों द्वारा जन धन के अपने ऊपर किए गए आर्थिक अपव्यय के बारे में जांच तो कराती।

Sunday 8 February, 2009

Bhasha ka tap tyag aur upeksha

भाषा का तप त्याग और उपेक्षा
भाषा का प्रृश्न अब इतना आसान नहीं रहा। ख़ासतौर से हिंदी का सवाल तो चौतरफ़ा से घिरा हुआ है। राजनीतिक दृष्टि से भी व्यवसायिक और शैक्षिक स्तर पर भी। जिस प्रकार से लोग बंटते जा रहे हैं उससे लगता है कि हिंदी सिमटकर क्षेत्रिय भाषा बन जाएगी। शैक्षिक स्तर पर ही लें तो हिंदी का जो विस्तार आज़ादी के दौरान हुआ था, यही नहीं हिंदी को उन प्रदेशों में भी जिनकी अपनी भाषा थी तथा जो अंग्रेज़ी की जगह देश की वैकल्पित राष्ट्र भाषा हिंदी को मानते थे वे भी अब हिंदी को हाशिए की भाषा मानने लगे हैं। महाराष्ट्र इसका जीता जागता उदाहारण है। यह विचित्र संयोंग है कि मराठी की लिपी देवनागरी है। अधिकतर राजनीतिज्ञ हिंदी में ही बात करते हैं जबकि केंद्र मे अंग्रेज़ी का ही इस्तेमाल करते हैं। यहां तक कि फिल्मी नई पीढ़ी भी अंग्रज़ी में ही बोलती है। रोटी वे हिंदी की ही खाते हैं। अधिकतर उनकी फ़िल्म देखने वाले भी हिंदी वाले ही हैं। यह मज़ाक ही हुआ ना उस जनता को ये लोग अपनी बात अंग्रेज़ी में समझाते हैं। बिना इस बात की चिंता किए वे उनकी बात समझ रहे हैं या नहीं। बुज़ुर्ग कलाकार जैसे लता जी स्व. अशोक कुमार, दलीप कुमार राजकुमार तक हिंदी या हिंदुस्तानी में बोलते हैं। एक और अजीब बात है फिल्म की स्क्रिप्ट में निर्देश अंग्रेज़ी में लिखे होते हैं जबकि संवाद हिंदी या मूल भाषा में लिखे होते हैं। एक्टर्स का हो सकता है इस खिचड़ी भाषा से हाज़मा दुरुस्त रहता हो। हो सकता है इसी भाषा के कारण हिंदी का मुंबईया संस्करण विकसित होने में सहयता मिली हो। इसे मैं भाषा की ग्रहणशीलता मानता हूं। हिंदी की यह अद्भुत सामर्थ्य है हर अंचल में लोग हिंदी का प्रयोग स्थानीय रंग के साथ करने के लिए स्वतंत्र हैं। इससे हिंदी की शब्द शक्ति तो बढ़ती है। नई नई ध्वन्यात्मकता से भी परिचय होता है। शुध्दतावाद भाषा को रिजिड बनाता है। कई बार शुद्धतावाद के कारण भाषाओं की अपनी प्रक्षेपण शक्ति और लोच बाधित होती है। इसका उदाहारण संस्कृत और फ़रसी आदि संस्कारित भाषाएं हैं। हो सकता है विद्वानों ने सहजता और सामान्य व्यक्ति के लिए हिदी और उर्दू जैसी भाषाएं, रब्त ज़ब्त के ख्याल से विकसित करने की ज़रूरत अनुभव की हो। भाषाई अनुभव कई बार अपनी आंतरिक प्रक्रिया के माध्म से जाने अनजाने नई भाषा निर्मित करता रहता है। बच्चे इसके सटीक उदाहारण है। पहले वे अपनी निजी भाषा गढ़ते है। बाद में व्याकरण सम्मत बनाने में समाज ओर भाषा के जानकार उसका परिमार्जन करते हैं। भाषा एक ऐसी आंतरिक प्रकिया है जिसे प्रयोग में लाने के लिए किसी बाहरी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती। भाषा ईश्वरप्रदत्त नैसर्गिक उपकरण है। इसका मनुष्य बोलचाल में भी प्रयोग करता है इसका परिमार्जन कर के उसे साहित्यिक रूप दे देता है। यह उसकी अपनी सामर्थ्य पर निर्भर करता है। शब्द सब वही होते हैं उनका चुनाव और संयोजन और अर्थवत्ता देने की सामर्थ्य ही उसे बोली से भाषा का दर्जा दे देता है।
अभी पिछले दिनों कोलकोता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से एक घुमक्कड़ परिपत्र आया था उसमें हिंदी के सिमटते परिवेश पर चिंता दिखाई गई थी। उसे पढ़कर कई सवाल दिमाग में आए। आज सब क्षेत्रिय भाषाएं संविधान की आठवीं सूची में प्रविष्ट होने की जद्दोजहद में हैं तो हिंदी की क्या स्थिती होगी। साहित्य अकादेमी ने कई क्षेत्रिय भाषाओं को स्वतंत्र भाषा के रूप में साहित्यिक भाषा स्वीकार करके पुरस्कारों की श्रेणी में ले लिया है। यह एक अच्छी शुरुआत है और थी। हर अच्छी बात के विवादास्पद पक्ष भी होते हैं। मैथिली अब एक स्वतंत्र भाषा है। इसी प्रकार राजस्थानी भाषा है। भोजपुरी की सविंधान की आठवीं सूची में सम्मिलित होना लगभग तय समझा जा रहा है। शायद ब्रज भाषा और अवधी भी अपनी पहचान के लिए संविधान में अपना आरक्षण कराना चाहती हों। सब अपनी स्वतंत्र पहचान चाहते हैं। वैसे भी ब्रज भाषा तो पुरानी काव्य भाषा है। लगभग सभी बड़े और दूसरी भाषा के कवियों ने अपने काव्य सृजन में ब्रज का सहारा लिया था। उनके कवित्त ब्रज भाषा में शायद उलब्ध हैं।
1909 में गांधी जी ने हिंद स्वराज में अंग्रेज़ों को चेतावनी दी थी कि अगर गोरों को हमसे बात करनी है तो हिंदी में करो। यह थोड़ा हास्यास्पद भी है। गांधी तब हिंदी नहीं जानते थे। जानते भी होंगे तो कि काम चलाऊ। ऐसा मानने के पीछे उनका भाषा और समाज का सार्वजनीन विश्लेषण रहा होगा। यही बात चरखे के संदर्भ में है। उनके आर्थिक कार्यक्रम मे चरख़ा पहले से सम्मिलित था। मैं इसे गांधी जी की आशु दृष्टि कहूं तो गलत नहीं होगा। गांधी की इस दृष्टि की उनके अनुयाइयों ने निरंतर अवेहलना की। लेकिन भाषा के संदर्भ में वे स्पष्ट थे कि राष्ट्र भाषा एक होनी चाहिए। भाषा परक इस चिंतन में उर्दू का भी स्थान था। यह बात यहीं समाप्त नहीं होती। राष्ट्र भाषा कब बनेगी कैसे बनेगी इस सवाल को उन्होंने कानूनी मुद्दा नहीं बनाया। अलबत्ता हिंदी को उन अंचलो में भी ले गए जहां उनकी अपनी भाषा थी। लोगों ने उनके भाषा मत का सम्मान किया।
गांधी का यहां उल्लेख करना जरूरी है। जिस व्यक्ति ने हिंदी को देसीय भाषाओं को साथ मिलाकर राष्ट्र भाषा का सपना देखा था। उसके जाते ही राष्ट्र भाषा का शिराज़ा बिखर गया। आज हिंदी हाशिए पर है। क्यों है ? यह सवाल भी ज़रूरी है। पहले हिंदी पर सब जान छिड़कते थे। अब क्षेत्रिय भाषाएं सबका हित हो गईं। लोग भूल गए कि हिंदी मातृ भाषा थी जिसे सब अपनी भाषा मानते थे उत्तर भारत में ही नहीं दक्षिण भारत में भी। लेकिन अब ऐसा लगने लगा जैसे किसी व्यक्ति के युद्ध में दिखाए पराक्रम के कारण देखने वाले उसके मुरीद हो जाएं बाद में उसकी उपेक्षा करके अपने हितों की रक्षा में संलग्न हो जाएं। हिंदी कहीं की यानी किसी क्षेत्र की भाषा नहीं और सबकी भाषा है। यह कैसे हो गया। कई बार मुझे दुर्गा सप्तशती का ध्यान आता है। यह मैं धार्मिक मन्तव्य से नहीं कह रहा हूं। जब एक कॉमन शत्रु का सामना करना था तो सब देवताओं ने एक ऐसी सुपर शक्ति का संयोजन किया था जो सब पर भारी पड़े। हर देवता ने अपने श्रेष्ठ अस्त्र उस संयोजित शक्ति को समर्पित कर दिए। उसी का नतीजा था कि वह हर किसी योद्धा को हरा पाई। अब उस शक्ति का क्या हुआ। अब भी लोग उसकी पूजा करते हैं लेकिन औपचारिकता और स्वार्थवश। हिंदी की स्थिती भी कुछ कुछ वैसी ही है। हमारी पूज्य है। हम मर मिटने का दावा करते हैं। इतनी छोटी बात के लिए नहीं।
हिंदी को सब क्षेत्रिय भाषाओं ने अपना श्रेष्ठतम उसे समर्पित किया। किसी भाषा ने अपना रस दिया किसी ने अपना माधुर्य दिया। किसी ने अपनी गेयता दी। किसी ने अपनी परुषता दी, किसी ने करुणा दी। तब जाकर हिंदी जन भाषा बनी। लोगों ने उसे अपनाया। उसके सहारे आज़ादी की लंबी लड़ाई लड़ी और जीते। एक सवाल आपको भी परेशान करता होगा कि आज़ादी की लडाई में जो भाषा आज़ादी दिलाने का प्रभावी उपकरण थी अब हमारे जीवन में उसकी कोई प्रासंगिकता है या नहीं?या स्वतंत्रता सेनानियों की भांति उस भाषा को भी पेंशन देकर किनारे कर दिया जाना उचित होगा? एक हद तक कर भी दिया गया है। आप जानते हैं कि हिंदी के हिमायती कितने बचे हैं। खासतौर से इस वैश्वीकरण के युग में। हिंदी पढ़ने वालों की संख्या कम होती जा रही है। यहां पर भी और विदेशों में भी। या फिर वे लोग हिंदी लेते हैं जिनके बारे में यह मान लिया जाता है कि इनका भविष्य हिंदी में ही संभव है। इस बेरूख़ी का कारण यह तो नहीं कि हिंदी का सवाल करियर की होड़ में आखरी आदमी से जोड़ दिया गया है जो हमेशा अंत में खड़ा दिखाई पड़ता है। वे न तो उच्च स्तरीय हैं और निम्न।
वे न काम कर सकते हैं और न उच्च स्तरीय चर्चाओं में भाग ले सकते हैं। न उनको क़ायदे से अपनी बात समझा सकते हैं। क्यों? क्योंकि हिंदी वाले अर्ध शिक्षित माने जाते हैं, हैं नहीं। उनके पास अंधविश्वास है। वैज्ञानिक ऩज़रिया और तर्क भाषा से आते है या व्यक्तिगत गुण होता है? मैंने बहुत से मिस्त्रियों को देखा है जो नितांत अनपढ़ होने के बावजूद अच्छे क्वालिफ़ाइड इंजिनियर्स से बेहतर टेक्निकल माइंड के होते हैं। इस व्यक्तिगत गुण को प्रोत्साहन देने को हमारे पास कोई भाषा नहीं न साधन हैं। एक मात्र मातृ भाषा ही हो सकती थी या है। उसकी गुंजायश अंग्रेज़ी या कहिए वैश्वीकरण ने लगभग समाप्त कर दी। हीन भावना इतने गहरे पैठ चुकी है कि भाषा जो मात्र आरंभ में संवाद का उपकरण होता है उसकी अनभिज्ञता या पारंगतता मनुष्य की श्रेष्ठ गुणों को कुंठित करने के लिए काफ़ी है।
मैं अंदर ही अंदर एक सवाल से जूझ रहा हूं। मेरे लिए यह कह पाना संभव नहीं कि मेरी यह चिंता वाजिब है या नहीं। क्षेत्रिय भाषाओं को संविधान की आठवीं सूची में लाने के प्रश्न पर खींचातानी चल रही है। उसे मैं गैर वाजिब भी नहीं मानता। अपनी भाषा और संस्कृति को बढ़ाने का सबको अधिकार है। दरअसल हम लोग जो दोआबा क्षेत्र के वासी हैं किस भाषा को अपनी भाषा कहें? हिंदी को अपनी भाषा मानकर ही संतोष पाते हैं। पहले उर्दू वहां की भाषा थी। गांवों मे लठमार ख़डी़बोली बोली जाती थी। जो टकसाली खड़ी बोली बोलते थे उन्हें साहेब माना जाता था और उन्हें परंपरागत खड़ीबोली से अलग मानकर अलग से एक वर्ग में रख दिया जाता था। जन द्वारा अंदर ही अंदर अनेक क्षेत्रिय भाषाओं के सहयोग से निर्मित हो रही हिंदी जनभाषा के रूप में रूपायित हो रही थी। सबसे बड़ी़ बात थी कि जन उसे स्वीकार कर रहा था और उसे अपनी क्षेत्रिय भाषाओं से जोड़कर सार्वभौमिक भाषा के रूप में उन अंतरराष्ट्रीय भाषाओं की प्रतिस्पर्धा में विश्व स्तर पर उतार रहा था जो सब से ऊपर थीं। आज़ादी के बाद एक सीमा तक उसका यह सपना साकार होता नज़र भी आया। उत्तर भारत की अनेक क्षेत्रिय भाषाओं ने उसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान भी दिया। अंतर राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और उसका साहित्य विश्विद्यालयी स्तर पर स्वीकृत भी हुआ। यह जो भाषा का सर्वसम्मत रूप बना वह हिंदी/हिंदुस्तानी की शक्ल में सामने आया। उसे अविलंब स्वीकार कर लिया गया। अपनी संवेदना का हिस्सा उसी तरह मान लिया जैसे उनकी मातृ भाषा थी। शायद उसका कारण यह भी रहा हो इस नई साझा भाषा में सब क्षेत्रिय भाषओं का श्रेष्ठतम समाविष्ट होता गया था। भोजपुरी, अवधी़ हरियाणवी, उर्दू बांगड़ू खड़ी बोली राजस्थानी आदि सब भाषाओं ने विदेशी भाषाओं के प्रतिरोध में हिंदी को उतारा था। लेकिन बहु भाषी भारत का इलीट इस देशी भरतीय भाषा के मुकाबले मैकोले की सुगम सम्मानित अंग्रेज़ी भाषा का मुरीद बना रहा। आज तो वह भक्त है। कोई भारतीय भाषा उसके सामने नहीं टिकती। टिक सकती थी हिंदी ही टिक सकती थी। लेकिन अब उसकी संभावना भी नज़र नही आती। दो दशक या तीन दशक पहले बल्कि कहिए आज़ादी के बाद....। हिंदी एक सर्वमान्य भाषा के रूप में उभरी थी। विरोध के बावजूद अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाते थे। लेकिन हिंदी अब उपेक्षितों की भाषा है। कुछ समय बाद हो सकता है हैव नॉट्स की भाषा रह जाए। यह भी संभव की बोल चाल की भाषा रह जाए।
मैं यह बात एक ऐसे समय कह रहा हूं जब हिंदी की दीवारें दरक रही हैं। यह सवाल उठना स्वभाविक है भाषाओं के भी क्या दीवारें होती हैं अगर होती भी हैं तो वे दरकती कैसे हैं? मुझे फिर दुर्गा सप्तशती का दृष्टान्त ध्यान आने लगता है। आठवीं सूची में क्षेत्रिय भाषाओं का पूर्ण भाषा के ऱूप में समावेश जहाँ अपने आप में खुशी की बात हैं वहीं चेतावनी भी है। हिंदी अन्य भाषाओं की तरह कभी किसी क्षेत्र की भाषा नहीं रही। हालांकि इसके अनेक नाम रहे। दक्खिनी हिंदी से लेकर आज की साहित्यिक हिंदी तक। लेकिन उसकी अपनी कांस्टीट्वेंसी कभी नहीं रही। उसकी कांस्टीट्वेंसी उस समय भी नहीं थी जब हिंदी का वर्तमान साझा स्वरूप अस्तित्व में आया यानी जब उसे एकेडेमिक स्वरूप मिला। पहले हिंदी कूंजङों क भाषा थी। यदि हिंदी से अवधी रामचरित मानस वापिस ले लेगी, जायसी चले जाएंगे़, मैथिल विद्यापति मैथिली के हो जाएंगे, राजस्थानी मीरा को लेकर अलग हो जाएगी, ब्रज सूरदास घनानंद बिहारी के साथ अपना अलग घर बसा लेंगे तो हिंदी के पास क्या बचेगा। या तो हिंदी अंग्रेज़ी के साथ गठजोड़ करे या उर्दू के साथ? हिंदी तो पहले से थी लेकिन उसका एकेडेमिक स्वरूप धीरे धीरे विकसित हुआ। जब हो गया तो हिंदी की सानी कोई दूसरी भाषा सामने नहीं थी। उसने इन सब क्षेत्रिय भाषाओं को अपनी कंस्टीट्वेंसी बनाकर आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि एक अनपढ़ कुपढ़ पीड़ित वर्ग था उसमें शिक्षा का संचार किया। हिंदी ज़मीन की भाषा थी इसिलए संस्कृत और फ़रसी की तरह महान भाषा होने का न तो अहंकार था और न अभिजात्यता थी। अब हिंदी के सामने अजीब गरीब चुनौती है। बोलियों और भाषाओं ने हिंदी को हिंदी बनाने में जो कुछ दिया अगर वे सब अपना अपना वापिस ले लेंगी तो वह अंतरराष्ट्रीय बड़ा संग्राम कैसे लड़ेगी। गांधी ने जिस भाषा को अपनी लड़ाई का आयुध बनाया था वह उससे वंचित हो जाएगी। यह लड़ाई खत्म नहीं हुई बल्कि घनी होने की प्रक्रिया में है। वैश्वीकरण केवल आर्थिक लड़ाई नहीं है। इसके पीछे सांस्कृतिक लड़ाई आ रही है। हर आर्थिक संक्रमण के पीछे सांस्कृतिक संघर्ष भी रहता है। इस मंदी ने विश्व स्तर पर इस सांस्कृतिक संघर्ष की एक बानगी दी है। गरीब और संघर्षशील देश शक्तिशाली और धनाड्य देशों के मुक़ाबले अपनी परंपराओं और संस्कृति के बल पर अधिक मज़बूती से खड़े रह सकते हैं। उसमें भाषा की भूमिका अहम् होती है। भाषा केवल शब्दों का संचयन ही नहीं होता वह संवेदनाओं का अविरल प्रवाह भी होता है उसमें अनेक स्रोतों से आने वाली ध्वन्यात्मकता हमें हमारा रास्ता दिखाती है। कई बार गंगासागर के डेल्टेनुमा टीलों से टकराने वाले जल प्रवाह कानाफूसी की तरह अनेक संदेश अनायास प्रक्षेपित होते महसूस होते हैं। शायद मैं अपनी बात ज्यादा लंबी कर रहा हूं। लेकिन भाषा को मैंने महिलाओं की तरह परिधान बदल बदल कर नए नए रूपों में अपने को संप्रेषित होते देखा ही नहीं बल्कि संवादित होते देखा है। हिंदी अनेक स्रोतों से आकर एक धारामय होते देखा है इसलिए उसकी विविधता के स्वरों को आत्मसात करने का मुझे अवसर मिला है। एक लेखक अपनी भाषा को जीता है उसकी गुन गुन को अंगीकार करता है। उसके रंग को ओढ़ता है। उसकी प्रखरता को धरती की तरह वहन करता है। प्रवाह की तरह उसके साथ बहता है। वह भाषा को बटते कैसे देखेगा। सती की तरह उसके अंग अंग को कटकर गिरते देखना कितना दुखदाई होगा। हिंदी को कोई कुछ भी कहे मैं उसे एकमात्र धर्म निरपेक्ष भाषा मानता हूं। क्यों मानता हूं। इसने ज़मीन से अपने को जोड़कर उन सब परिवर्तनों को आत्मसात किया है जो भाषागत होते रहे हैं। शायद इसलिए ज़मीनी भाषा में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। जिसका नतीजा है कि हिंदी न सही ईलीट की भाषा हो, लेकिन उस आदमी की भाषा है जिसके दुख सुख में वह हिस्सेदारी करने की कोशिश लगातार करती आई है। उसका सारा तामझाम सामान्यता के स्तर पर आम आदमी से जुड़ा़ है। यही कारण है कि देश का अस्सी प्रतिशत आदमी हिंदी और अपनी मातृ भाषा से जुड़कर अपनी भाषा के अस्तित्व की घनघोर लडा़ई लड़ रहा है। लड़ाई या तो बौद्धिक वर्ग के निर्देशन में होती है या फिर जन आन्दोलन से जीती जाती है। यह हद ही है कि हिंदी को लेकर कोई जन आन्दोलन नहीं हुआ। जबकि दूसरी भाषाओं में बड़े बड़े आन्दोलन हुए। ख़ून ख़राबे तक हुए। मनसा ने महाराष्ट्र में तो हिंदी भाषियों को मार मार कर खदेड़ने के अनवरत प्रयत्न किए। यही पंजाब और असम में भी हुआ। यह एक तरह की नफ़रत की अभियिक्त थी। लेकिन लोग यह नहीं समझ रहे कि दूसरी भाषाओं का स्थायित्व हिंदी के सरवाइवल पर निर्भर है। हिंदी सब भाषाओं के लिए गुंजायश बनाती है। यह बात कुछ अटपटी लग सकती है। इतने बड़े भारतीय समाज में य़दि किसी एक भाषा को प्रमुखता मिलती है तो दूसरी भाषाएं अपना स्थान मज़बूत करेंगी ही। किसी बहू भाषी समाज में , अपने समाज में अपना मज़बूत स्थान बना लेती हैं। वे एक दूसरे की संगति में मज़बूत होते हैं। बल्कि जितना आदान प्रदान भाषाओं के बीच होता है उतना किसी के बीच संभव नहीं होता। वैश्विकरण की भी इस दृष्टि समा है। शब्द कोष इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं। बोल चाल की भाषाएं शब्दों की उससे भी बड़े रिज़ववायर हैं। आप जितना भाषाओं का विच्छेदन करेंगे उनका संकट उतना ही गहराएगा। मुझे लगता है कि संविधान की आठवीं सूची में समायोजित करने की जगह विच्छेदन की भूमिका अधिक सौष्ठव ढंग से सरअंजाम दे रही हैं जिस तरह नदियों को जोड़कर देश को सरसब्ज़ करने की बात है। भाषाओं के पास एक अंतर्निहित सामर्थ्य होती है। भाषा में जितनी जल्दी समन्वय और सांमजस्य होता है उतना ही भेदभाव और तनाव घृणा के बीज भी बो सकती है। हम लोग अपनी अपनी भाषा की संतान है लेकिन दूसरी भाषा का सम्मान करने की कला से अनभिज्ञ क्यों है। खासतौर से जो हमारी अपनी देशी भाषाएं हैं।