Thursday 21 January, 2010

राजनीति की गति जानी न जाए

राजनीति में कुछ लोग अब दो वजह से आते हैं एक, अधिकाधिक सत्ता और पद लाभ उठाने दूसरे अपने अंदर जमा गंदी निसारने। कभी राजनीति सेवा और बलिदान का माध्यम थी। लेकिन अब अरबपतियों की मंडी है। अपने रसूखों से वे पार्टियों को बनाने बिगाड़ने का काम करते हैं। सपा इसका ताज़ा उदाहारण है। मुलायम सिंह कभी जननेता थे। उनके बारे सामान्य मान्यता थी कि वे गरीब के दोस्त हैं, किसान के रहनुमा हैं। मैंने उन्हें बस की छत पर खड़े होकर गांव गांव किसानों से संवाद करते देखा था। तब वे चौ. चरण सिंह के साथ थे। साहित्यकारों के प्रति भी उनका दोस्ताना रुख था। जब मैं पहला गिरमिटिया पर काम कर रहा था तो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका जाने के लिए 75 हज़ार रू.की राशि दी थी। अगर उस समय मदद न मिली होती तो शायद मेरे लिए जाना संभव न हो पाता। लेकिन बाद में उनका नेतृत्व हाई फ़ाई नेतृत्व हो गया। उनके लोग वे लोग हो गए जो सबके नहीं कुछ के हैं। जनेश्वर जी जैसे नेता जो समाजवाद के स्तंभ और लोहिया जी के दाहिने हाथ थे हाशिए पर हो गए। समाजवाद मात्र राजनीति करने का मंच नहीं है। जन सेवा और इबादत है। गांधी और लोहिया ने राजनीति को इसी नज़रिए से देखा था। न ही वह धन अर्जित करने और उच्च श्रेणी के लोगों धन्नासेठों को और लाभ पहुंचाने का माध्यम है। नए समाजवाद में यही सब प्रमुख हो गए। मुझे लगता है समाजवादी दृष्टि की कमी ही इसका कारण रहा होगा। यही बसपा के साथ हुआ। वहां भी अंबेडकर जी और कांशीराम का कोई प्रतिबिंब नज़र नही आता। मेरा डा. अंबेडकर से कोई न संपर्क रहा न परिचय। अलबत्ता कांशीराम जी से ज़रूर एक से अधिक बार मिलने का अवसर मिला। वे रफ़ीअहमद मार्ग पर पटेल हाऊस में एक कमरे में रहते थे। तब उनका संबंध बामसेफ़ से था। उनके पास एक पेंट और बुशर्ट रहती थी। शायद दो लुंगी। पेंट बुशर्ट धोकर डाल देते थे और लुंगी पहनकर सो जाते थे। कहीं जाना होता था न कार की दरकार होती थी और न हवाई जहाज़ की, दुपहिए पर पीछे बैठकर चल देते थे। लेकिन उनकी उत्तराधिकारी सौ सौ कारों के काफले में चलती हैं। धन तो सबसे बड़ी प्राथमिकता है। बड़े लोगों वाली असुरक्षा उनमें भी है। ताम झाम का तो कहना ही क्या। एक बार मैंने दिल्ली में अंबेडकर जी को पटेल जी के बंगले से निकलकर अपने बंगले पैदल जाते देखा था,बस।
यह बातें मैं इसलिए लिख रहा हूं कि समाजवाद का जो रूप सामने आ रहा है वह चकित करने वाला है। शायद समाजवाद को समझना अब और भी मुश्किल हो गया। आचार्य नरेंन्द्रदेव अद्वितिय विद्वान थे। लेकिन उन्होंने धन की तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखा। उनकी अंत्येष्टि का प्रबंध जहां तक मुझे मालूम है उनके मित्र और साथी चंद्रभानु गुप्त ने किया था। चंद्रभानु गुप्त की मृत्यु हुई उनके बैंक में चंद हज़ार रुपए थे। जिसका बटवारा अपनी वसियत में कर गए थे। बाक़ी जो कुछ था कार तक ,मोती लाल नेहरू ट्रस्ट के नाम कर दिया था। उन्हें पूंजीपतियों का आदमी कहा जाता था लेकिन उन्होंने कभी किसानों से ज़मीनें छीनकर उन्हें नहीं दी। अलबत्ता शिक्षा के काम के लिए ज़मीन घेरी। किसान को पूरा मुआवज़ा दिया पर 1400 एकड़ ज़मीन एक रुपए में आई आई टी कानपुर को दे दी। टाटा और अंबानी को पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश सरकार ने जिस तरह दी, जितनी हायतोबा हुई उसका ज़िक्र करना बेकार है। मुलायम सिंह जैसे गरीब परस्त नेता अपने महामंत्री के दबाव में अपने विवेक का सही इस्तेमाल नहीं कर पाए। सपा के पूर्व महामंत्री कहते हैं कि अब मैं मुलायमवादी की जगह, समाजवादी नेता जनेश्वर जी की राय मान कर समाजवादी बनूंगी। समाजवादी क्या किसी की राय मानकर या अनुयाई बनकर बन जा सकता है। यह अंदर की चिंगारी है जो समाजवादी बना देती है। सरवेश्वर दयाल सक्सेना की कहानी है लड़ाई है जो इंसान की ज़िंदगी में होने वाले सतत् संघर्ष को चित्रित करती है। लहू लुहान आदमी डा. लोहिया हैं और कोई नहीं। अब मेरे सामने कुछ सवाल हैं। अमिताभ बच्चन और उनका पूरा परिवार कहां जाएगा? बच्चन परिवार के सदस्यों को कला और संस्कृति के समस्त पुरस्कारों से लाद दिया गया था। महामंत्री जो साथ जीने की कसम खाते रहे थे अब कहा हैं। रामपुर से सपा की सीट से जीती तारिका जयाप्रदा सपा के पूर्व महमंत्री के बराबर में खड़ी नज़र आईं। छोटी सरकार अनिल अंबवानी का पता चल जाएगा, अंदाज़ तो है, वे कहां जाएंगे। सबसे बड़ी बात तो संजय दत्त की है। फिल्म से उठाया और महासचिव बना दिया। इतना विवेक तो बनाने वालो में होना चाहिए कि समाजवाद तमग़ा नहीं है सेवा और समर्पण है। उनके पिता ने शांति यात्रा निकाल कर आतंकवाद का विरोध किया था। वे ही सबसे पहले कूदकर भागे। आए भी वो गए भी वो, खत्म फसाना हो गया। समाजवाद क्या ऐसा ही होता है। समाजवादी क्या अपने साथियों की सहायता करके उसको इस तरह गाते हैं जिस तरह पूर्व महा सचिव अमर सिहं उसका महानाद कर रहे हैं। ख़ासतौर से समाजवाद के प्रति समर्पित नेता जनेश्वर जी के संदर्भ में। उनकी बीमारी में उन्होंने पैसा दिया। मैं जानता हूं उत्तर प्रदेश में ऐसे कई नेता हुए जो मदद करते थे पर ज़बान पर नहीं लाते थे।
चंद्रभानु गुप्त तो राजनारायण जैसे बड़े नेताओं तक की सहायता करते थे। जब कांग्रेस टूटी और उनके साथ रहे मंत्री दूसरी कांग्रेस में चले गए तब भी वे उनकी मदद करते रहे। किदवई साहब के घर से तो शायद कोई खाली लौटता हो। गुप्ता जी के बारे में तो लखनऊ में, जिन्हें न दे मौला उसे दे आसफ़ुद्दौला के वज़न पर एक कहावत चलती थी जिसे न दे मौला उसे दे सी बी गुप्ता। जनेश्वर जी को मैं 1960 के पहले से जानता हूं । वे इलाहाबाद का चक्कर पैदल लगाते थे। सरकार में रहते हुए भी वे निर्मल छवि वाले रहे। लोहिया और समाजवाद यही दो ध्यये थे। मुझे नहीं मालूम उन्होंने ऐसी कितनी मदद कर दी कि टाइम्स आफ इंडिया के माध्यम से उदघोष करने की ज़रूरत पड़ गई।राजनीति हो या और दूसरे सेवा के क्षेत्र यह छिछोरापन ही माना जाएगा। शायद नेताओं को अपनी नेताई के संरक्षण की ज़रूर पड़ती है। खुदा ख़ैर करे।

4 comments:

Unknown said...

giriraj ji,
gorakh pandey ki ek kavita hai-
samajvad babuaa dheere dheere aayee
hathee par aayee
ghoda par aayee
angreji baja bajayee,
samajvad babuaa dheere dheere aayee.
notava se aayee
votava se aayee
bidala ke ghar mein samayee,
samajvad babuaa dheere dheere aayee.
gandhi se aayee
aandhi se aayee
tutahee madaiyo udayee,
samajvad babuaa dheere dheere aayee.
congres se aayee
janta se aayee
jhanda ke badlee ho jaayee,
samajvad babuaa dheere dheere aayee.

yah kavita aap padhen. mil jayegi.
yah sabke charitra ka khula khaka hai.
krishnabihari, abudhabi,uae

अशोक कुमार said...

आपकी व्यथा समझ आती है पर आप यह उन से ज्यादा ही उम्मीद कर रहे हैं जो केवल नाम के समाजवादी हैं या फिर उस सियार की तरह हैं जो भेड की खाल पहने बैठे हैं . समाजवादी की खाल पहन लेने से कोई समाजवादी कैसे हो सकता है, न ही सारा दोष महासचिव पर मढने से सियार भेड सिद्ध हो सकता है.

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan said...

मान्यवर, आपका लेख मन को छूता है, पर प्रश्न यह है की कितने लोग ऐसी संवेदना रखते है और जो रखते भी है उनकी आवाज कितनौ तक पहुँच पा रही है? फिर भी आपकी आवाज लोगों तक पहुँच रही है. सुखद है. धन्यबाद. स्नेहाधीन- अवनीश सिंह चौहान,इटावा, उ.प.

Anonymous said...

Sir, Samajwad is no doubt the best form of administration. The philosophy of Samajwad concerns the whole society,regardless the caste,religion,or other social boundries. Samajwad is better than Communism because it doesn't advocate about the total control of state over all the means of production and distribution. It is better than capitalism as it doesn't advocate the monopolistic cacus over the society. The Samajwad if implemented honestly can be fitted in the Ideal Welfare State definition.