tag:blogger.com,1999:blog-49251855965681185072024-02-20T13:51:22.056-08:00फिलहालगिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.comBlogger50125tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-14323809638604693622010-10-01T02:53:00.000-07:002010-10-01T02:57:15.050-07:00Akhilesh ji ko patr27. 9. 10<br /> प्रिय अखिलेश जी,<br /> आपका पत्र संख्या 2, दिनांक 21. 9 10 का पत्र मिला। धन्यवाद। आपने पुस्तकें वापिस करने वाले प्रश्न पर जवाब सोच समझकर ही दिया होगा तभी इतना समय लगा। आप इस बात से तो सहमत ही होंगे कि पुस्तक वाला यह मामला कोई लेखक और प्रकाशक के बीच किसी व्यावसायिक गतिरोध (डिस्प्यूट) का मामला नहीं है। यह लेखकों के सम्मान से जुड़ा प्रश्न हो गया है। खासतौर से महिला लेखकों के सम्मान से, जो लेखक वर्ग का अभिन्न हिस्सा हैं। चाहे पुरुष हों या महिलाएं किसी के सम्मान पर भी आंच आए वह सबके सम्मान पर आंच होती है। हो सकता है कुछ लोग निहित कारणों से इस बात से सहमत न हों। या जान-बूझकर ऐसा करते हों और समझते हों वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग कर रहे हैं। भले ही वह नकारात्मक हो।<br />जब मैंनें किताब दी थी तब ज्ञानपीठ एक प्रकाशन से अधिक साहित्यिक संस्थान था जिसे लोग एक लीजेंड (रवायत) की तरह मानते थे। यहां छपना सम्मान की बात थी। लेखक को इसके संस्थापक देवो भव का दर्जा देते थे। स्टाफ को भी ही यही बताया जाता था। अब जब ज्ञानपीठ की साख केवल दो या तीन लोगों के कारण सामान्य प्रकाशन से भी नीचले पायदान पर आ गई तो स्वाभाविक है कि केवल पूर्व प्रतिष्ठा पर आने का अवसर देने के लिए कुछ लोग ज्ञानपीठ से किताबें वापिस ले रहे हैं। ज्ञानपीठ के मंच से जिस प्रकार की असांस्कृतिक और आपत्तिजनक बातें कही गईं हैं आपके निदेशक/संपादक और न्यासी द्वारा उसका समर्थन किया गया है, अफवाहें फैलाई गई हैं, उसके बाद किसी भी आत्मसम्मान वाले लेखक के लिए यह सोचना बाध्यता हो गई कि यह कोकस किसी के साथ किसी भी सीमा तक जाकर असभ्यता कर सकता है। आपके आजीवन न्यासी, इस गुमान में कि वे ज्ञानपीठ के मालिक हैं, आपकी पत्रिका में मेरे नए उपन्यास इक आग का दरिया है का ईर्ष्यावश सम्यक विज्ञापन न देने के सवाल पर, आपको पत्र लिखकर विरोध करने पर, किताब वापिस ले लेने की धमकी दे चुके थे। उस अव्यवसायिक व्यवहार को मैं ज्ञानपीठ की समृद्ध परंपरा तथा रमेश जी और अन्य सभ्य लोगों के व्यवहार को ध्यान में रखकर सहन कर गया था। इस बार तो सीमा का अतिक्रमण हुआ है। अपने असम्मान की घूंट तो पी जा सकती है जब पूरे समाज और खासतौर पर अपने बीच की महिलाओं का अपमान हो तो लेखकों की संवेदना प्रतिक्रियायित नहीं होगी तो किसकी होगी। प्रबंधन का व्यक्ति इस बात को न समझे यह बात चकित करने वाली है। मैनेजमेंट का ऐसे लोगों को संरक्षण देना असभ्य व्यवहार को बढ़ावा देना है। यह प्रबंधन को देखना है कि वह इस लीजेंडरी संस्था को कैसा प्रशासन देना चाहता है। मेरा कहने का तात्पर्य है कि इसे लेखक और प्रकाशक के बीच का गतिरोध न समझकर संस्था को, अशिष्ट कहना तो अनुचित होगा, कुछ असहज लोगों के हाथों में सौंप दिए जाने का, सद्भावना पूर्ण विरोध है। इसलिए इस प्रकरण को उसी रूप में सुलझाना चाहिए। बेहतर हो कि उसी नज़रिए से सुलझाएं। बची हुई किताबों के बारें में आपका क्या प्रस्ताव है बताएंगे तो आभारी हूंगा। तभी विचार करना संभव होगा।<br />आप ने लिखा है कि कि मेरे और प्रियंवद की तरह की शर्तें किसी दूसरे लेखक ने नहीं लगाईं। श्री अशोक वाजपेयी ने बताया उन्होंने भी इसी तरह की शर्त लगाई थी। अन्य लोगों का मुझे मालूम नहीं। यह तो प्रबंधन भी महसूस करता है कि अनुचित हुआ है। शायद आपके एक न्यासी जिनको संस्था के मालिक होने का अहसास है कई कारणों से ऐसा अनुभव नहीं करते। उसके पीछे अनेक कारणों के साथ उनका व्यक्तिमोह भी हो सकता है जिसे बार बार व्यक्त करते रहे हैं। किसी भी संस्था से बड़ा मैंनें सुना है कि व्यक्ति नहीं होता। व्यक्ति के संस्था से बड़ा होते ही बड़े बड़े राज्य खत्म हो गए या उनकी गरिमा नष्ट हो गई। मैंने केवल उदाहारण दिया है। आक्षेप न समझें।<br />मुझे इस और आपका ध्यान आकर्षित करते हुए हार्दिक दुख हो रहा है कि अभी देश का सर्वोच्च साहित्यिक ज्ञानपीठ सम्मान घोषित हुआ है। पहले जब सम्मान घोषित होने का अवसर आता था तो लगता था कि कोई बड़ी साहित्यक घटना होने जा रही है। इस बार एक प्राइवेट चैनल ने जब नाम घोषित किया तो उसे हाई लाइट करने के लिए उमराव जान अदा में रेखा के द्वारा पुरस्कृत लेखक द्रारा लिखा गाना और उस पर किया गया न्रत्य कई सैंकेड तक दिखाया जाता रहा। मेरे पास फोन आया आपने सुना ज्ञानपीठ का पुरस्कार घोषित हो गया। मुझे तब तक नहीं मालूम था। मैनें पूछा किसको मिला है। वे सज्जन बोले श्री शहरयार को मिला है। मैंने सुना था कि उनके लिए उर्दू के एक नक्काद जो जुरी के सदस्य हैं कोशिश कर रहे हैं। मैंनें कहा वे बड़े शायर हैं। कमलेश्वर के दोस्त रहे हैं। अरे नहीं साहब वह तो उमरावजान अदा में रेखा के गाए गाने पर मिला है। आप अमुक चेनल खोल कर देखिए। मैंने खोला तो रेखा लाल जोड़े में गा रही थी। फिर उनकी फ़ोन पर बात सुनवाई गई। उनसे पूछा गया कि इतनी देर से आपको यह सम्मान क्यों मिला। जवाब था पहले मैं जुरी का मेंबर था। मेंबर नहीं रहा तो मिल गया। पहले लेखक के जीवन के मुख्य अंश दिखाए जाते थे। पुस्तकें डिस्प्ले की जाती थीं। शायर या कवि हुआ तो उसके मुंह से पंक्ति सुनवाई जाती थी, या भाषण का अंश। उन सज्जन ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह यहां कहने से शायर की शान को चोट लगेगी। अगर आप गहराई से सोचें तो शायद आप भी महसुस करेंगे जो इंसानियत के साथ पिछले दिनों ‘बेवफाई’ हुई है, शायद यही कारण है देश कि इतने बड़े सम्मान को चैनल्स ने गैरजिम्मेदारी से लिया है। किसे मिलना चाहिए था किसे नहीं, यह सवाल बेमानी है पर मुख्य बात है कि लोग ज्ञानपीठ की बड़ी से बड़ी कारगुज़ारी को भी कैसे ले रहे हैं।<br />आपने अपने उपरोक्त पत्र में लिखा है कि गिरमिटिया गांधी की संपादिका डा. निर्मला जैन ने सूचित किया है बगैर उनकी अनुमति के पुस्तक को लौटाने का कोई निर्णय न लिया जाए। वे एक विदूषी महिला हैं मैं उन्हें पारिवरिक व परांगत संबंधो के कारण बड़ी बहन का सम्मान देता रहा हूं। वे आपको लिखने से पहले मुझसे अवश्य बात करतीं। ऐसा मैं मानता हूं। उन्होंने नहीं की कोई बात नहीं। वाणी प्रकाशन के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। वह कहानी लंबी है। जब ज्ञानपीठ, निर्मला जी और वाणी प्रकाशन के बीच इस उपन्यास को लेने के बारे में समझौता हुआ तो मैं उसका हिस्सा नहीं था। चूंकि संस्था और संक्षिप्तकर्ता पर मुझे विश्वास था, मैं चुप रहा। आपका उपरोक्त वाक्य अजीब लगा। शायद आपने पुस्तक नहीं देखी उस पर कापीराइट मूल लेखक का है संक्षिप्तकर्ता का नहीं। लगता आपके निदेशालय ने इस तथ्य़ को छिपाकर पत्र पर आपके हस्ताक्षर करा लिए। आप तय करें कि आप क्या चाहते हैं। ज्ञानपीठ पुस्तक पर छपे लेखक के उन अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं करना चाहेगी जो अब तक आपके यहां सबसे सुरक्षित माने जाते रहे हैं।<br />रमेश जी के सुपुत्र होने के नाते मैं आपको अपने अजीज़ की तरह बेमांगी राय दे रहा हूं कि आप निहत स्वार्थों के जंग को या तो सधे प्रशासक की तरह डील करें या इसकी प्रतिष्ठा को नष्ट करने की जंग से बचें। शुभकामनाओं सहित,<br />श्री अखिलेश जैन, प्रबंध न्यासी<br />ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।<br /> आपका<br /><br /> गिरिराज किशोरगिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-57792429557877633112010-09-12T23:50:00.000-07:002010-09-12T23:51:55.242-07:0013 सितंबर 10<br /><br />प्रिय अखिलेश जी,<br /> आशा है मेरे इस चौथे पत्र लिखने को अन्यथा न लेंगे। मुझे प्रियंवद और सुधा अरोड़ा ने बताया है कि ज्ञानपीठके निदेशक का उन दोनों के पास पत्र पहुंचा है कि वे ज्ञानपीठ उनकी पुस्तकें भेजने के लिए तैयार है।. इस पत्र ने मेरे सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं-<br />1. क्या पत्र उन सब लोगों को गया है जिन्होंने किताबें वापिस मांगी थी। जिन्होंने सबसे पहले पत्र लिखा , जैसे मैंने, उनको कोई सूचना नहीं।<br />2. शायद अमर उजाला में छपा था कि निदेशक/संपादक प्रकरण पर इस माह के अंत में निर्णय लिया जाएगा। प्रियंवद और शायद अन्य लेख -कों के पत्र में यह शर्त थी की वर्तमान पदासीन अधिकारी के रहने पर पुस्तकें वापिस नहीं ली जाएंगी।<br />3. यदि अभी यह तय होना शेष है तो क्या विचाराधीन अधिकारी द्वारा ऐसा पत्र लेखकों को लिखना न्याय संगत है? या किसी नीति के तहत लिखा गया है। कुछ को लिखना कुछको न लिखना शंका की स्थिति पैदा करती है। <br />4. यह निर्णय न्यासी मंडल का है या स्वयं निदेशक का अपना?<br />5. ये सवाल स्थिति को प्रश्नाकुल बनाती है।<br />श्री अखिलेश जैन, प्रबंध न्यासी,ज्ञानपीठ नई दिल्ली।<br /><br /> आपका<br /><br /> गिरिराज किशोरगिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-35393675058105506922010-09-07T04:28:00.000-07:002010-09-07T04:29:59.352-07:005,6 सितंबर 10<br />प्रिय अखिलेश जी,<br /> मैंने आपको इसी बीते रविवार को यह जानने के लिए ईमेल किया था कि इतना सब होने और आपके लिखित आश्वासन के बाद कि आप ज्ञानपीठ के सम्मान की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं क्या निर्णय हुआ, उसकी अधिकारिक सूचना नहीं मिली। मैं आशा करता था कि मेरे पहले पत्र के संदर्भ में आप हमारे ज्ञानपीठ के साथ सरोकारों का इतना तो सम्मान करेंगे कि न्यासी मंडल में, एक नौकरशाह कुलपति और अपने निदेशक/संपादक की मिली भगत के फल स्वरूप आधी महिला आबादी की प्रतिनिधि लेखिकाओं के बारे में छिनाल और कुतिया जैसे अपशब्दों का साज़िशन प्रयोग करने और उन्हें और संपादक द्वारा बेबाक कहे जाने का नोटिस लिया जाएगा और निर्णय से अवगत किया जाएगा। अधिकारिक सूचना न प्राप्त होने के कारण मुझे अखबारों और आपके एक न्यासी और कर्मचारी द्वारा फोन के ज़रिए अपने पक्ष में वातावरण बनाने के लिए दबाव डालने, से सूचनाएं मिल रहीं हैं वे ही हमारे इस पत्र का आधार है।<br />न्यासी मंडल ने हिंदी साहित्य में महिलाओं की प्रतिनिधि लेखिकाओं का ज्ञानपीठ से प्रकाशित पत्रिका नया ज्ञानोदय में आपकी ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रवर समिति के सदस्य, पूर्व आई पी एस एवं म.गां.अं.हिं वि वि के कुलपति और आपके निदेशक /संपादक ने साज़िशन पुलिसिया गालियों का प्रयोग करके अपमान किया। जिसका विरोध ज्ञानपीठ विजेता कुंवर नारायण, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, बलदेव कृष्ण वैद, अशोक वाजपेयी, मृणाल पांडे आदि तथा अनेक अंचलों के प्रमुख साहित्यकारों ने किया है। अंग्रेज़ी, हिंदी अखबारों ने खबरें तो छापीं ही संपादकीय भी लिखे। हो सकता है वे सब आपकी और आपके न्यासियों की नज़र से न गुज़रे हों। अनेक ब्लाग्स में इस घटना से क्षुब्ध होकर टिप्पणियां भी पोस्ट की गईं हैं।<br />आपके एक आजावीन न्यासी ने उन्हीं दिनों फ़ोन पर सूचित किया कि म. गांधी अं. हिं वि वि वर्धा के आई पी एस कुलपति को, जो अपशब्दों के जनक हैं, प्रवर सिमति से हटाकर उनकी जगह डा नामवर सिंह को सदस्य बना दिया गया है जो नितांत भ्रामक था। नामवर सिंह जी जैसे आलोचक के लिए अपमानजनक था जबकि ऐसा करना संभव ही नहीं था। पूर्व राज्यपाल, मंडल के सदस्य श्री टी एन चतुर्वेदी ने तकनीकी आधार पर इस प्रचार का विरोध भी किया। न्यासी महोदय ने यह भी कहा कि संपादक/निदेशक को नहीं हटाया जा सकता क्योंकि स्व. लक्षमी चंद जैन के बाद उन महोदय ने ज्ञानपीठ को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। यह बराबरी भी भ्रामक होने के साथ अनुचित थी। एक तरह स्व जैन का अपमान था। इससे पता चलता है कि इस दुर्भाग्य पूर्ण घटना को मैनेजमेंट समर्थन दे रहा था और वह इस निर्णय पहुंच चुका था महिला लेखकों का अपमान करने वालों को वे बिना जांच के संरक्षण देंगे।<br />आश्चर्य होता है कि स्व. रमा जैन जैसी विदूषी और हिंदी के प्रति समर्पित महिला जिन्होंने ज्ञानपीठ संस्था की परिकल्पना को साकार किया, उसी संस्था के मंच पर हिंदी लेखकाओं को इतने घृणित व अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया गया है। (करने वाले सज्जन अभी तक प्रवर समिति पर बनें हैं क्योंकि संपादक/निदेशक, सुना जाता है दोनों हर काम में एक दूसरे के हर तरह पूरक हैं।) उसकी प्रशंसा संपादक ने अपने संपादकीय में की है। मज़े की बात है उक्त संपादक को आपके न्यासी स्व. लक्षमी चंद के समकक्ष रख रहे हैं। क्या इससे यह नहीं लगता कि एक व्यक्तिगत संबंधो के संरक्षण के लिए रमा जी की परंपरा, वर्तमान प्रबंधन, दरकिनार करने के लिए तैयार है? किसी भी दोषी का क्षमा मांग लेना क्या सब दोषों को नज़र अंदाज़ करने के लिए इतना काफी हो सकता है कि कोई संस्था अपनी सालों से चली आ रही परंपराओं को बेदखल कर दे। पुलिस मे तो क्षमा का कोई महत्त्व ही नहीं। सड़क पर रोज देखते हैं लोग पुलिस से पिटते और माफी की गुहार करते रहते हैं। यह लोमड़ी की चालाकी मानी जा रही है। प्रबंधन भी लीपा पोती करके मुक्त होने की जल्दी में है। यही बात सरकार भी लागी होती है। पता नहीं वि वि के कुलाधिपति ने कुलपति के इस व्यवहार के बारे में अपनी रपट विज़िटर को भेजी या नहीं। <br />जो सुनने और देखने में आ रहा है उससे पता चलता है कि प्रबंधन कुछ कार्यालयी रद्दोबदल करके, उसे इतने बड़े हिंदी साहित्य में पनप रहे असंतोष और उसके अपमान की भरपायी मान रहा है। सीटों के रद्दोबदल और अधिकारों की कतरब्योंत का कार्यक्रम दफ्तरों में स्वभाविक रूप में भी हुआ करता है और कमोफ्लेज के रूप में भी होता है। हिंदी लेखकों का इतना बड़ा सामुहिक विरोध पहली बार हुआ है। यह दूर तक जाएगा। कुछ लेखक तटस्थ हैं कुछ निहित स्वार्थों के चलते इस लहर की अनदेखी करके अपशब्दों का प्रयोग भी कर रहे हैं। लेकिन यह एकजुटती निरअर्थक नहीं जायगी।<br />मुझे नहीं मालूम आपके संपादक द्वारा, आपही के दो ज्ञानपीठ विजेताओं अज्ञेय और नरेश मेहता तथा देश के वरिष्ठ कवियों की कविताओं को सुपर बेवफ़ाई अंक में छापने के उनके निर्णय के बारे में प्रबंधन की राय क्या है। उसमें किससे कितनी बेवफाई है। <br />साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जहां किसी का आधिपत्य नहीं चलता, न लेखक का, नआलोचक का, न प्रकाशक का, न संपादक का। प्रतिरोध अधिकार अक्षुण्य है। प्रतिराध धीरे धीरे प्रभावी होता है। मझे दुख है कि ज्ञानपीठ जैसी प्रतिष्ठित संस्था का विरोध वर्तमान प्रबंधन के समय में आपके कुछेक लोगों की अहमन्यता कारण शुरू हुआ। काश वे इसकी गंभीरता और नज़ाकत को समझते।।<br />फिर भी मैं सब वर्गों के लिए मंगलकामना करता हूं। इस मनमानी के प्रतिरोध में मैं अपनी पुस्तकों की वापसी के बारे में लिख चुका हूं।<br />श्री अखिलेश जैन, प्रबंधन न्यासी, ज्ञानपीठ<br />नई –दिल्ली।<br /> आपका<br /><br /> गिरिराज किशोरगिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-32647636999736232512010-08-18T22:38:00.000-07:002010-08-18T22:50:42.363-07:0014 अगस्त 10<br />प्रिय अखिलेश जी़,<br /> आपका 9 अगस्त का पत्र मिला। धन्यवाद।<br /> आपके इस आश्वासन से मन को अच्छा लगा कि आप ज्ञानपीठ की गरिमा बनाए रखने के प्रति कृतसंकल्प हैं यह तभी संभव है जब एक प्रोफेशनल प्रशासक की तरह स्थितियों का तटस्थता के साथ मूल्यांकन करके निष्कर्षों पर पहुंचा जा सके। व्यक्तिगत आग्रहों को नज़रअंदाज़ किया जा सके। मैं समझता हूं आप और अन्य सदस्य ऐसा कर सकेंगे।<br />जहां तक आपत्तिजनक शब्द निकाल कर पृष्ठ पुनर्प्रकाशित करने की बात है इस संदर्भ में दो बाते हैं 1. जितना जिसको नुकसान होना था हो चुका। चाहे ज्ञानपीठ हो या इंगित व्यक्ति हों। मुझे नहीं पता कौन कौन से शब्द निकाले गए। छिनाल तो निकाल ही दिया गया होगा। प्रोमोटेड और ओवररेटेड? जो महिला विशेष की ओर संकेत करता है। जबकि यह कहने वाला स्वयं भी इसी घेरे में आता है। इसके अलावा कितने बिस्तरों पर कितनी बार भी किसी महिला विशेष की ओर संकेत करता है। यही स्थिति साक्षात्कार में प्रयुक्त निम्फोमेनियाक कुतिया का है। उस महिला को साक्षात्कार देने वाला ही नहीं जानता आपकी पत्रिका संपादक भी जानता है, शायद। 2. आपने शब्द निकलवा दिए चटख़ारे लेने और महिलाओं को अपमानित करने की मानसिकता भी क्या निकल सकी है?<br />कुलपति महोदय ने मंत्री जी को अपना माफीनामा दे दिया संपादक जी ने आपको। क्या यह आभास नहीं देता कितना संयुक्तरूप से नियोजित निर्णय है भले ही अलग अलग कार्यान्वित हुआ हो। हत्या करके माफी मांगना कितना तर्क संगत है यह तो माफ़ करने वाले जानें। कई बार सोचता हूं देह हत्या बड़ी है या सम्मान की हत्या। <br />आपके संपादक का कथन है कि वे गोवा गए थे। जहां तक मासिक पत्रिकाओं का सवाल वे महीने की बीस तरीख को तैयार हो जाती हैं। प्रूफ रीडींग पहले खत्म हो चुकती है। संपादक महोदय पहले ही अपने संपादकीय में उस साक्षात्कार को बेबाक कहकर प्रशंसा कर चुके हैं। इस पृष्ठ भूमि में प्रबंधन उनके इस तर्क से संतुष्ट है तो बात अलग है।<br />हमने आपको संदर्भित पत्र में ज्ञानपीठ से संबंध न रखने की बात मजबूरी में कही है। मेरा संबंध तो ज्ञानपीठ से पुराना है। साहू शाति प्रसाद जैन, रमा जी के ज़माने से है। साहू रमेश चंद जैन से तो मित्रवत था। उनका आग्रह था कि मैं अपनी पुस्तकें ज्ञानपीठ को देता रहूं। लेकिन मैंने वर्तमान निदेशक के रवैए से आहत होकर आपको सबसे पहला पत्र लिखाथा। मुझे संदेश मिला था आप चाहें किताबे वापिस ले लें। उस वक्त तो मैं रमेश जी का आग्रह याद करके खामोश रहा लेकिन उसके बाद मैंने अपनी चार पुस्तकें दूसरे प्रकाशकों को देना उचित समझा। इस घटना के बाद अगर कुलपति और वर्तमान संपादक का युग्म ज्ञानपीठ से जुड़ा रहता है तो उपरोक्त सदेश स्वीकार करना होगा। प्रियंवद जी पिछले पत्र में अपनी इस तरह की इच्छा ज़ाहिर कर चुके हैं। बाद में अशोक वाजपेयी ने भी इस आशय की अपील की थी। मैं ज्ञानपीठ की सफलता की कामना करता हूं।<br /><br />श्री अखिलेश जैन, प्रबंधन न्यासी<br />ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।<br /> आपका<br /><br /> (गिरिराज किशोर)गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-40245073748166447062010-08-10T22:40:00.000-07:002010-08-10T22:48:12.624-07:00किसी को गाली किसी को सुहालीहिंदी जगत में एक ऐसी घटना घटी है जिसने दो मूलभूत आस्थाओं को हिला कर रख दिया है। वे आस्थाएं हैं शैक्षिक जगत के शीर्ष कहलाने वाले प्रज्ञापुरुष कुलपतियों के शब्द संस्कार व विवेक के प्रति आस्था और संपादकीय दायित्वों, संवेदनाओं की समझ और संस्कृतिगत मान्यताओं के निर्वहन की क्षमता के प्रति पाठकों की जन्मजात आस्था। पहली बार एक कुलपति ने, (वह भी म. गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति) लेखिकाओं की गरिमा को आहत करने वाली ग्राम्य कही जाने वाली शब्दावली का अपने स्टेटस सॆ गिरकर प्रयोग करके देश की आधी आबादी को ही नहीं बल्कि बाकी आधी आबादी को भी शर्मसार किया। संपादक महोदय ने, जिनके बारे में कहा जाता है कि दूसरों को अपमानित करने और कराने में मज़ा लेते हैं, अपनी पत्रिका उस साक्षात्कार को छापकर मियां मिट्ठू बनने की तर्ज़ पर बेबाक करार दिया। उनकी उस पुलिसिया भाषा को जिसमें लेखिकाओं को छिनाल शब्द से सम्मानित किया है वे ये सिद्ध कर रहे हैं कि वह अपमानक जनक शब्द नहीं है। शायद उस पृष्ठ भूमि वालों के लिए वर्जित से वर्जित शब्द भी वर्जित नहीं होता। मैंने ओम जी का ध्यान उस साक्षात्कार में प्रयुक्त एक और शब्द की ओर आकर्षित किया जिसकी ओर ध्यान या तो गया नहीं या देना ज़रूरी नहीं समझा। वह शब्द है ‘निम्फोमेनियाक कुतिया’ जिसका ग्राम्या पर्यायवाची न बोला जा सकता है न छापा जा सकता है। यह शब्द किसी काल्पनिक पात्र के संदर्भ मे प्रयोग नहीं किया गया है बल्कि हाड़ मास की जीती जागती महिला के बारे में किया गया है जिसका साक्षात्कार में उल्लिखित कहानी के लेखक के संदर्भ में किया गया है। संपादक महोदय भी अनजान नहीं होंगे। उन्होंने इतने गंदे संदर्भ को कैसे जाने दिया। इसके पीछे खुन्नस निकालने का मंतव्य शायद ही हो। संस्था की स्वस्थ परंपराएं रही हैं। संपादक व पत्रिका के ऐसे लेखकों के मौज मज़े और स्थानीय खुन्नस के लिए संस्था अपनी मान्यताओं को इस लिए डाल्यूट नहीं करेगी कि वह एन केन प्रकारेण पत्रिका को चीप बनाकर उनका चहेता संपादक पैसा कमाकर दे और लेखकों को स्वयं अपमानित करे या पुलिसिया अंदाज़ में कराए। ऐसा पहले भी हुआ है। हमारी सबकी आदरणीय और वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती और कवि विजयकुमार के साथ भी इस प्रकार की अशोभनीय घटनाएं हुई है।<br />संपादक महोदय हमारे तबसे मित्र हैं जबसे वे रानीमंडी इलाहाबाद में प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। तब से अब तक मैं उनके साथ रहा हूं। वफ़ा और बेवफ़ाई औरत और मर्द के संबंधों के बीच ही नहीं होती मर्दों के बीच भी होती है। उसका क्या ज़िक्र। एक घटना जो संपादन से ही संबंधित है उसका उल्लेख गैरमुनासिब नहीं होगा। यह बेवफा का नहीं वफा की बात है। गंगा जमुना के संपादन के दिनों की बात है। नया ज्ञानोदय के संपादक ही गंगा जमुना टेब्लायड के संपादक भी थे। किसी पीड़ित व्यक्ति ने संपादक और उसके मालिक आलोक बाबू के खिलाफ उरई में मुकदमा दायर किया था। शायद गंगा जमुना में गलत बयानी का मामला था। कोई इलाहाबाद का वकील था वह संपादक जी को झांसा देता रहा कि वह केस खत्म करा देगा। उसने शायद कुछ नहीं किया। आखिर वारंट जारी हो गया। संपादक जी का फोन आया कि ऐसा मामला है। मैंने कहा तुम आ जाओ देखेंगे क्या हो सकता है। प्रियंवद को साथ लेकर हम दोनों उरई गए। वकील दोपहर तक टहलाता रहा। मजिस्ट्रेट जब आया मामला पेश हुआ तो मजिस्ट्रेट का रुख गड़बड़ लगा। ज़मानत कराओ या जेल जाओ। हम दोनों ने तय किया उन्हें जेल नहीं जाने देंगे।एक पत्रकार प्रियंवद की फैक्ट्री में काम कर चुका था। प्रियंवद शायद पहली बार संपादक जी से मिला था। प्रियवंद ने उसे बुला लिया। संपादक जी उंगलियों मे सिगरेट फंसाकर लगातार घुमा रहे थे। वह पत्रकार वहां के बड़े डाक्टर को लेकर आए। उनके कोर्ट में जाते ही मामला रफा दफा हो गया। संपादक जी ने तब जाकर उंगलियों में नाचती सिगरेट सुलगाई। हम लोग उन्हे लेकर कानपुर भागे। कहने का मतलब बिना सोचे समझे कुछ भी लिख देने में माहिर हैं।<br />बेव़फाई अंक में कई प्रकृति संबंधी कविताओं पर भी बेवफाई का तौक लटका दिया गया है। पता नहीं उन कविताओं ने किसके साथ बेवफाई की। कहानियों को भी कहीं लेखकों ने छपवाने के नाम पर हो सकता है बेवफाई के चबच्चे में न धिकलवा दिया हो। उनकी मर्जी। नकारात्मकता जल्दी पापुलर होती है। जब मुझसे एक ज्ञानवान वरिष्ठ व्यक्ति नें कहा कि लक्ष्मी चंद जी के बाद इन सज्जन ने संस्था आगे बढाया है। मैं समझ नही पाया उनका मतलब गरिमा से है या पैसे से। फिर ध्यान आया कही लक्ष्मी चंद जी ने न सुन लिया हो। उनकी आत्मा को कैसा लगेगा। जितने निदेशक आए संस्थान से व्यक्तिगत लाभ सबसे कम समय में वर्तमान सज्जन ने उठाया, ऐसी चर्चा है। कोई बुरी बात नहीं मौक़ा मिलने और लहने की बात है। लेकिन दूसरों पर गर्द उड़ाने और दोस्तों को चढ़ाना साऊ को गिराना भी सिक्के का दूसरा स्याहा पहलू है। सुनने में आया है कि कुलपति के साक्षात्कार में चार महिलाओं के नाम थे। वे नहीं छपे। पर कुलपतिजी ने छिनाल शब्द छापने पर आग्रह किया। अगर ऐसा है तो वे कैसे कह सकते हैं कि मंत्री ने फोर्सड माफीनामा लिखवाया। क्या नौकरी बचाने के लिए। दीक्षान्त समारोह में दीक्षा देने वाले कुलपति की निष्ठा पर सवाल लगता है। वैसे भी यह शब्द एक या दो चार महिलाओं या लेखक वर्ग पर ही आक्षेप नहीं हर वर्ग की छोटी बड़ी माननीयों पर भी छींटाकशी है। उनके अपने घरों की महिलाओं को भी आपत्ति हो सकती है। दूसरे वाचाल लोग गलत इस्तेमाल कर सकते हैं। संपादक पर जब बात आई तो सुना कि अपने अभिन्न मित्र कुलपति की जगह, यह कहकर नामवर जी को प्रवर समिति में रखवाया कि उनके आने से बात संभल जाएगी। सुना है उनके पास तो पत्र भी नहीं पहुंचा। सूत न कपास जुलाहे से लट्ठम लट्ठा।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-565678910257643422010-06-24T21:38:00.000-07:002010-06-24T21:42:04.870-07:00आदिवासी समस्या का हल माओवाद नहीं राजनीतिक है6 जून 10 के अमर उजाला(आनंद) में एक नक्सली की डायरी छपी है। वह मई 1973 से लेकर 2010 यानी 37 वर्ष के नक्सली जीवन पर आधारित है। अनेक अंतर्विरोधों से भरी हुई। सरकारें तो अत्याचार और दमन करती ही हैं चाहे कम्यूनिस्ट सरकार हो या अमेरिका व भारत की जनतंत्रात्मक सरकार या माओवादी सरकार। 8 जून के yahoo ईमेल पर न्यूज़फ्लेश था कि व्हाइट हाउस की लीजेंड पत्रकार रिटायर कर दी गई क्योंकि उसने कहा था कि इज़राल ने हदें पार कर दीं। हांलांकि अमेरिका मानव अधिकार का सबसे बड़ा पोषक और संवर्धक होने का दावा करता है परंतु जबसे अमेरिका अस्तित्व में आया तबसे लेकर आज तक उन अधिकारों के उलंघन का पुरोधा बना हुआ है। रेड इंडियन्स से लेकर इराक़ का अन्याय पूर्ण दमन और उत्पीड़न तथा इज़राइल द्वारा फिलिस्तान के मुसीबतज़दा लोगों के लिए राहत सामग्री ले जाने वाले जाहज़ों पर अमानवीय आक्रमण व अधिग्रहण का एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा विरोध करने पर उसका व्हाइट हाउस से निष्काषण, क्या अमेरिका को मानवअधिकारों का संरक्षक कहा जा सकता है? शायद जनतंत्र भी मानवीयता का बाना पहन कर उतना ही तुर्रमखां है जितनी तानाशाही। स्टालिन के मिडनाइट नाक के नाम से आज भी पसीना आजाता है। आपातकाल में हमारे यहां भी यही हुआ। माओ की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन के सब लेखक/बुद्धिजीवी कामगर बना दिए गए थे। रात में मोमबत्ती की रोशनी में कितांबें स्मगल करके पढ़ते थे। पकड़े जाते थे तो लेशिंग होती थे। यानी ठोक पीटकर पोलितेरियत बनाया जाता था। उपरोक्त नक्सली की डायरी में नंबर 1997 को डायरी नवीस ने एक अमनोवैज्ञानिक घटना का जिक्र किया जो शायद उनके अनुशासन का हिस्सा हो। लगता है सब मानवेतर और अमनोवैज्ञानिक निर्णय अनुशासन के नाम पर ही लिए जाते हैं।<br /> 1997 ...लक्ष्मी और अशोक। सशस्त्र क्रांति में बंदिशें हैं, लेकिन प्रेम कहां कोई बंधन मानता है। दोनों ने जाने कब एक दूसरे को दिल दे दिया पता नहीं। दोनों मद्देड़ के पास हुई बड़ी कार्यवाही में भी शामिल हुए थे। अब शादी करना चाहते हैं। आज की बैठक इसी मुद्दे पर है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी ने शादी की मंज़ूरी दे दी।...पार्टी ने एक शपथ पत्र तैयार किया है। यही शपथ कामरेड के लिए अग्निकुंड है, सात जन्मों में बंधने का जतन। दोनों ने शपथ ली कि वे शादी के बाद भी पहले की तरह पार्टी का काम करते रहेंगे।...(पहले की तरह का मतलब...?)<br />अक्तूबर, 1998 ...दोनारपाल से बीजापुर के बीच एक बड़े आपरेशन को हमने अंजाम दिया। हम पर सुरक्षा बलों का दबाव बढ़ गया है। इस बीच खबर आई कि लक्ष्मी और अशोक ने सरंडर कर दिया। दोनों बच्चा चाहते थे। पार्टी में प्रेम की इजाज़त है, बच्चा पैदा करने की नहीं।<br />2010, सत्तर के दशक में जो सपना देखा था उसका यह हश्र! उस दौर में लोग हमें क्रांतिकारी समझते थे अब आतंकवादी कहने लगे हैं। हमारी विचारधारा में तो कोई खोट नहीं था। फिर हमारे हाथ उसी जन के ख़ून से क्यों सने हैं जिसके नाम पर हमने जनसंघर्ष की शुरूआत की थी?<br />37 साल के नक्सली जीवन के बाद जब एक सेंट्रल कमेटी का सदस्य अपने आप से यह सवाल करता है कि हमारे हाथ उसी जन के खून से क्यों सने हैं जिसके नाम पर जन संघर्ष की शुरूआत की थी तो यह सवाल पुनर्विचार की गुंजायश पैदा करता है उनके लिए खासतौर से जो इस रक्ताभ आंदोलन के कर्णाधार हैं या समर्थक हैं (कनू बाबू का प्रायश्चित भी शायद यही था)। हम क्या हिंसा या बंदूक के वल पर परिवर्तन ला सकते हैं? कर सकते हैं तो कितने समय के लिए? अगर ला सकते तो स्टालिन और क्रुश्चेव की बिदाई के बाद गोर्बोचोव इतनी जल्दी सफल न होते। माओ के बाद चीन रिविज़निस्ट या क्षमा करें रेनिगेड बनकर पूंजीवादी व्यवस्था को आत्मसात करने को बाध्य न होता। (आज चीन में हर पूंजीपति 12 सीटर व्यक्तिगत एयर क्राफ्ट पर चलता है)। बंदूक से निकलने वाली वह गोली न चीन अपने अशांत प्रदेशों में उनकी आज़ादी के लिए इस्तेमाल कर पा रहा है और न ही पूंजीवादी देशों के दबाव से मुक्ति पाने के लिए। शांतिपूर्ण हल निकालने के लिए बंदर भभकी का सहारा ले रहा है। यही हाल पूंजीपति देशों का है। दरअसल सब देश अपने अपने असलहे चमका रहे हैं पर सब शार्टकट शांति चाहते हैं सीधे शांति की बात नहीं करते। अलबत्ता तीसरी दुनिया के देशों के गरीब और अनपढ़ जन को मारने या धमकाने के लिए जिस जन के लिए जन के नाम पर जनसंघर्ष कर रहे हैं उसी को मार रहे हैं उसी के ख़ून से हाथ सान रहे हैं। चाहे मुख़बिर का नाम देकर उसी आदिवासी को मारें जिसके अधिकार को संरक्षित करने की बात करते हैं या उस सिपाही को मारें जो रोज़ी रोटी के लिए जान जोखिम में डालकर वहां तैनात है। वह लड़ नहीं रहा था, बस से घर जा रहा था। रेल गाडियों को उड़ाकर उन बेगुनाह लोगों को खत्म कर देते हैं कि जो या तो बर्तनभांडे बेचकर नौकरी की तलाश में जा रहे होते है या फिर बीमार संबंधी को देखने किस तरह जुगाड़ करके उस गाड़ी में यात्रा कर रहे होते है। किस लिए? उसका तुम्हारे ऊपर तो असर पड़ना ही नहीं तुम तो जनक्रांति कर रहे हो। उनके ऊपर तो पड़ना ही नहीं जिनका उद्देश्य देश को आतंकवाद से सुरक्षित करना है। जनता को तुम दोनों ने इस तथा कथित दुमूही क्रांति के नशे के बीच जीने की आदत डाल दी है। वह कुछ समय के लिए दुखी होता है फिर सर्द आह भरकर काम में लग जाता है। इन दो कोष्टों ने उस जन से विरोध और समझदारी का अधिकार छीन लिया है।<br />हमारे बुद्धिजीवी दुमूही बातें करने में पारंगत हैं। वे आसानी से कह देते हैं कि मैं हिंसा का समर्थन नहीं करती या करता जैसे अरुणधति जी। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि एक सशस्त्र आंदोलन होना चाहिए, साथ ही यह भी चुनौती कि सरकार चाहे जेल में बंद कर दे। एक बार जेल यात्रा का मौक़ा आया था तब महीने भर जेल में रहना गवारा नही हुआ था माफ़ी मांगकर चले आना सुखकर लगा था। सशस्त्र आंदोलन किस लिए जब आप हिंसा का समर्थन नहीं करते तो सशस्त्र आंदोलन क्या फैशन परेड है जिसे आप हर्ष फायरिंग की तरह करना चाहते हैं। बुद्धिजीवी हिंसा का विरोध भी करेगा और हिंसा का साज़ो सामान इकट्ठा करने को प्रोत्साहन देकर पेट्रोल को आग के पास भी ले जाएगा। बेहतर यही है वे एक तरफ हो कर साफ़ बात करें। कोई एतराज़ नहीं अगर वे हिंसा के समर्थक बने रहें। संसार में सशस्त्र आंदोलनों के दौरान कहीं ऐसा नहीं हुआ कि शस्त्रों या उनके धारकों ने गुनाहगार और बेगुनाह में भेद किया हो। यह कहना कि मैं हिंसा का या बेगुनाह लोगों की हत्याओं के पक्ष में नहीं हूं महज़ लफ़्फाज़ी ही कही जाएगी। हिंसा तो सामने दिखती है पर गुनाहगार और बेगुनाह छिप जाते हैं। जो मारा गया वह गुनाहगार हो गया। जिसे शासन शहीद या बेगुनाह करार देता है मारे जाने के बाद ‘क्रतिकारी’ गुनाहगार करार दे देते हैं। उसे और उसके घरवालों को भी मौत को दो कोष्ठों के बीच जीना पड़ता है। बकौल अरुणधति जी के सरकार अपने देशवासियों के खिलाफ युद्ध कर रही है यह बात गलत नहीं। लेकिन क्या माओवादी देश के लोगों के खिलाफ हथियार नहीं उठाए हुए हैं। जिन आदिवासियों के पक्ष में वे हथियार थामें हैं क्या उन्हीं को मुखबिर का नाम देकर हत्याऐं नहीं कर रहे हैं? सिपाहियों को तो वे मार ही रहे हैं। जैसा कि ‘एक नक्सली की डायरी’ में लिखा है क्या लक्षमी अशोक को विवाह की अनुमति देकर बच्चा न पैदा करने की बंदिश तालिबाना हुक्म नहीं है। विवाह की इजाज़त देकर बच्चा पैदा न करने देना, स्वाभाविक जीवन जीने की अपेक्षा को अग्निकुंड में झोंक देना तो और भी बड़ी अमानवियता है। उन्होंने सरेंडर करके उन तथाकथित क्रतिकारियों की नज़र में शायद गद्दारी की हो लेकिन अपनी संवेदनाओं को सुरिक्षत करने का संभवतः यही एक तरीक़ बचा था। हो सकता है बाद में एस पी ओ नाम देकर उनकी भी हत्या कर दी गई हो। मानवीय संवेदनाओं के आधार पर उनकी समस्यों को सुलझाना या दिलों को बदलने का दायित्व उन सशस्त्र क्रातिकारियों का नहीं? सेनाएं भी संवेंदनाओं के सहारे चल सकती हैं। बड़ी विचित्र बात है अरुणधति जैसे बुद्धिजीवी अपनी रौ में किसी पर भी किसी तरह का आधारहीन लांछन लगा सकते हैं। मैं इस रिमार्क को कि ‘विरोध के गांधीवादी तरीके को दर्शकों की ज़रूरत होती है जो यहां नहीं हैं’ अपरिपक्व और अनभिज्ञतापूर्ण मानता हूं। इतना ही कहा जा सकता है कि सबसे अधिक आत्मीय हिस्से दारी आज़ादी के उसी आंदोलन में थी जिसमें जन निहत्था संघर्ष करता था। उन्हें मात्र दर्शकों की संज्ञा देकर एक ऐसे प्रयोग को लांछित करना है जो न पहले कभी हुआ, न आगे होगा। जो अपने आप में हथियारों के बल पर लड़ने से अधिक साहसी काम है। क्रांतिकारियों के कैंप का दौरा करना और लेख लिखने हिस्सेदारी नहीं दर्शन करना मात्र है। यहां मैं उस ज़माने के विदेशी पत्रकार की टिप्पणी पेश करना चाहता हूं जो नमक आंदोलन के बारे में अखबार को भेजी गई थी। अंग्रज़ी में ही दे रहा हूं अंग्रेज़ीदां बुद्धजीवी अगर पढ़ना चाहेंगे तो कम से कम वे इसका लाभ ले सकेंगे और अपनी अनभिज्ञता से थोड़ी बहुत मुक्ति पा सकेंगे-<br />‘This spectacular event was reported around the world; in the striking words of Webb Miller, the united press correspondent: From where I stood I heard the sickening whack of sticks on unprotected skulls…those struck down fell sprawling , unconscious, or writhing with fractured skulls or broken shoulders.’ (Gandhi Naked Ambition P. 191 , Jad Adams)<br />वे लोग बंदूकों या गोलियों के सहारे हिस्स्दारी नहीं कर रहे थे। हथियार क्रांतिकरियों की अपनी सुरक्षा के माध्यम अधिक होते हैं। वे गांधीवादी तमाशबीन नहीं थे। वे निहत्थे असुरक्षित होने के बावजूद अपने शरीरों पर आक्रमण झेलकर अहिंसक क्रांति कर रहे थे। उन दरिंदो को सचेत कर रहे थे कब तक मारोगे। क्रांति के नाम पर सशस्त्र क्रंतिकारियों के लिए हिंसा के द्वारा हत्याएं करना गुरूमंत्र है वहीं अहिंसक क्रांति में आत्मबलिदान करके परिवर्तन लाना जीवन का उदेश्य है। शायद हमारे मार्क्सवाद बुद्धिजीवियों को हिंसक क्रांति पसंद है। वह आत्मरक्षा के साथ दूसरों की जान लेकर बचे हुए लोगां को समझदार बनाते हैं। हम समझदार हैं हमारे पास हथियार हैं हमारी बात मानो। <br />कोई उनसे क्यों नहीं पूछता कि पार्टनर तुम्हारी क्या राजनीति है। अगर तुम इस शस्त्र क्रांति में सफल हो गए तो क्या करोगे? क्या तब भी बंदूक की गोलियों से लोगों को ज्ञानी बनाओगे? चंगेज़ खा़, सिकंदर, नादिर शाह, हिटलर, मोसोलोनी, स्टालिन, हिटलर, माओ कोई हिंसा को अमरत्व प्रदान नहीं कर पाया। अमेरिका का अणु बम भी चमत्कार नहीं कर पाया। उसके मालिक को जापान के सामने आज भी याचक का बाना पहनना पड़ता है। गांधी ने कहा था ’l see no difference between the Nazi powers and the allies . All are exploiters, all resort to ruthlessness.’ (पृ 221, वही) <br />हिटलर की, गांधी ने उसके व्यक्तिगत आचरण के लिए प्रशंसा की थी पर उसके राजनीतिक नज़रिए के बारे मे 1940 में उन्हें ही लिखा ‘Dear Friend, We have no doubt about your bravery or devotion to your father land nor do we believe that you are a monster described by your opponents (though) many of your actions are monstrous and unbecoming of human dignity, specially in estimation of men like me who believe in universal friendliness,’ (पृ एवं पुस्तक वही)<br />हिटलर की तरफ से भारत के पूर्व गर्वनर जनरल और तत्कालीन विदेश सचिव लार्ड हेलिफेक्स को सलाह दी गई थी कि तुम्हें एक ही काम करना है गांधी को शूट कर दो। अगर ज़रूरत समझो तो कांग्रेस के कुछ और नेताओं को खत्म कर दो। तुम देखना कितनी जल्दी तुम मुसीबत से निजात पा जाते हो। असिहष्णुता तानाशाही की जनक है और जनतंत्र की हत्यारी। अंग्रज़ों के लिए हिटलर की सलाह पर अमल करना मुश्किल नहीं था लेकिन उन्होंने, और चाहे जो किया हो, पर ऐसा नहीं किया। हमारे देश के हिंदूवादी लोगों ने भले ही कर दिखाया।<br />एक सवाल जो शायद सबके दिमाग में आता हो, अपवादों को छोड़कर। वे सत्ता प्राप्त करने के लिए सशस्त्र क्रांति पर आमादा है या जन कल्याण के लिए? जन कल्याण का माध्यम क्या होगा? उनका नारा है सत्ता बंदूक की नली से निकली गोली से मिलती है। उसे बरकरार रखने के लिए भी शायद उसी की ज़रूर होती है जैसा कि कई देशों में हुआ है। जव उसका भय खत्म हो जाता है या सामने बड़ी शक्ति आ जाती है तो शांति की खोज होने लगती है। गोली की समय सीमा क्या है, सत्ता मिलने तक या उसके बाद भी..? सवाल उठेगा सत्ता मिलने पर उनकी योजना क्या होगी।<br /> नाम भले ही जनता से जुड़ा हो पर उन्हें भी औद्योगिकरण करना है। ज़मीन भी चाहिए, पानी भी चाहिए, खनिज भी चाहिए हर वह चीज़ चाहिए जो कोर्पोरेट जगत को चाहिए। धन तो चाहिए ही। य़ा वे मशीनों के मुकाबले जन शक्ति और अहिंसा को प्राथमिकता देंगे? शहरों में कितनी ज़मीन बची है, जंगलों की तरफ जाना उनकी भी नियति होगी। जो विरोध करेगा उसे जनविरोधी की संज्ञा देकर किनारे लगा दिया जाएगा या उनकी बात सुनी जाएगी? विकास का ऐसा उदाहारण कहीं नहीं है जो यह बताता हो कि उन्होंने बंदूकें छोडकर मेहनतकशों व किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया हो। समाज में समरसता बनाई हो। भय उनका परोक्ष और प्रभावी हथियार रहा। सभ्य बनने के साथ इस हिंसक संस्कृति से आम जन को निजात दिलानी होगी। वे तो कमिसार बने ट्रिगर पर उंगली रखे खड़े रहते हैं। उनकी तरबियत ही ऐसी है। आम आदमी सुरक्षा चाहता है, शांति चाहता है। भय के ज़रिए सुरक्षा देने के आदी आत्मियता और भाईचारे की नीति से अनभिज्ञ रहते हैं। दोनों सवाल अलग हैं सत्ता पाना और आदिवासियों का मित्र बनकर उनका साथ देना। नफ़रत की डाल पकड़कर हिंसा परवन चढ़ती है।<br />ये दोनों बातें अलग हैं, सशस्त्र क्रांति और आदिवासी सस्याओं का समाधान। ये आधुनिक हथियार उनके मित्र नहीं। ठोक पीटकर भले ही उन्हें हथियारों का मित्र बना दो पर वह उनके नैसर्गिक मित्र नहीं हो सकते। जो लोग कपड़ों को अपने जीवन के लिए अनिवार्य नहीं मानते वे उन आधुनिक हथियारों को अगर स्वीकार करेंगे तो एक कड़वी गोली की तरह ही। उन्होंने 19वी शताब्दी में अपने ही हथियारों से अंग्रज़ो को पानी पिलाया था। मानगढ़ का विद्रोह इसका उदाहारण है। उसी पर आधारित हरिराम मीणा का उपन्यास धुनि तपे तीर है। वे इन हथियारों से सहजता अनुभव कर ही नहीं सकते। न उन्हें उपलब्ध करना उनके बस की बात है। आप ही एक से एक साफेस्टिकेटेड हथियार आभूषणों की तरह प्राप्त करके उन पर वर्चस्व कायम कर रहे हैं। उन्हें परनिर्भर बना रहे हैं। जिनसे आप हथियार ले रहे हैं वे देश जन के अधिकारों की सुरक्षा मं रुचि नहीं रखते बल्कि उनकी रुचि अपने देश के लोगों के माध्म से देश में असंतुलन पैदा करके अपना राजनीतिक हित साधना है। आदिवासियों की समस्या बाहरी हस्तक्षेप से नहीं निबटेगी उसके लिए उनके साथ काम करके उन्हें उनके आत्मबल का अहसास कराना होगा। हथियारों की लड़ाई तो परमुखापेक्षी बनाकर उनकी आज़ादी का अपहरण होगा। वे कमज़ोर नहीं हैं। अपने हथियारों की चकाचौंध में उन्हें भरमाए नहीं। आज़ादी की लड़ाई के दौरान न क्रंतिकारियों ने विदेशों से इस तरह की सहायता ली और न अहिसक राजनीति ने। गांधी का मानना था कि दूसरों के सहारे हिंसा की लड़ाई लड़ना देश को गुलाम दर गुलाम बनाना है इसी संकट से बचने के लिए अपनी तकनीक ईजाद की। जिन्ना भी इस बात को जानते थे कि हर समस्या का राजनीतिक हल निकल सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि मार्क्सवादी सोच के कारण ही दूसरे देशों में इस तरह का हस्तक्षेप बढ़ा है। हम मध्यकाल में और 18वी 19वं सदी में देख चुके हैं कि अपने भेद भावों के चलते हमने बाहर ताकतों को बुलाया और गुलामी दर गुलामी भोगी। वही काम प्रकांतर से अब हो रहा है। आदिवासी समस्या हमारी बिगाड़ी हुई है उसको संवारना हमारी ही जिम्मेदारी होनी चाहिए। इसे वहन करना पड़ेगा और उसका राजनीतिक हल निकालना होगा।<br />(sankshipt ansh 24.6. 10 ko Jansatta mai chapa hai)<br /><br /><br /><br />‘गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-31427629757788863242010-06-03T23:39:00.000-07:002010-06-03T23:41:58.848-07:00सुल्ताना डाकू और उसका दोस्तहिंदुस्तान दैनिक 30 मई 10 में एन सी शाह के शोध के माध्यम से छपे एक समाचार ने मेरा बचपन मुझे याद दिला दिया। सुल्ताना डाकू पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसी आख्यान के नायक की तरह था। स्कूलों में नाटक खेले जाते थे, नौटंकियां और सांग होते थे। वह डाकू कम नायक ज़्यादा था। वह वेष बदलने में माहिर था। अकसर अग्रेज़ अफसरों को मूर्ख बनाकर निकल जाता था। कभी कलक्टर बन जाता था कभी कमिश्नर और कभी एस पी। उसके बारे में अनेक ऐसी किंवदन्तियां प्रचलित थीं कि अमीरों को लूटता था और गरीबों का साथी था। कई बार वह वेष बदलकर ऐसे बेसहारा परिवारों की मदद के लिए पहुंच जाता था जहां बेटी की बारात आने वाली होती थी और घर में भुनी भांग नहीं होती थी। पीछे पुलिस होती थी। वह साधु या साहुकार के वेश में आता जो धन देना होता देकर निकल जाता। पीछे से पुलिस आती देखती जहां कुछ देर पहले पैसा न हाने के कारण मुर्दनी छाई थी वहां शादी की तैयारियां चालू है। तहकीकात करने पर पता चलता कि एक सेठ या महात्मा आया धन देकर चला गया। वे मार पीट करते पर इससे ज़्यादा न वे बता पाते और न वे जान पाते। पुलिस वाले भी समझ जाते कि सुल्ताना फिर हाथ से निकल गया। कई बार तो वह आला अफसरों से बैठकर बात कर जाता, नाई बनकर उनकी हजामत तक बना जाता। उसके जाने के बाद जान पाते कि वह सुल्ताना से बात हो रही थी। वह चाहता तो उन्हें आराम से हलाक कर सकता था। वे रोमांचित हो उठते थे और सीने पर क्रास बनाने लगते थे। ईशू ने बचा लिया।<br />सुल्ताना कभी धोखे से वार नहीं करता था। अफसरों को मूर्ख बनाने में उसे मज़ा आता था। आम जनता की हमदर्दी के कारण उसे पकड़ना अंग्रेज़ों के लिए टेढी खीर था। अगर कभी हाथ भी आ जाता था तो चकमा देकर निकल जाता था। एक किंवदंति थी कि वह किसी बच्चे को गोद नहीं लेता अपने बच्चे को भी नहीं। बताते हैं उसे शाप था कि जिस दिन बच्चे को गोद में उठाएगा वही उसका अंतिम दिन होगा। पूरा किस्सा तो श्री शाह के शोध में होगा। लेकिन कहते हैं कि स्थिति ऐसी उत्पन्न हुई या की गई कि उसने बच्चा गोद में उठा लिया। उसी दिन वह पकड़ लिया गया। उसे फांसी की सज़ा सुनाई गई। कहा जाता है कि फांसी से पहले उसकी मां मिलने आई तो उसने मिलने से यह कहकर मना कर दिया कि आज यह दिन तेरे कारण देखने को मिला। इससे यही पता चलता है कि उसे वास्तव में डाकू बनने का कितना पछतावा था। <br />मेरा बचपन आल्हउदल और शाहआलम के आख्यानों की तरह सुल्ताना डाकू के किस्से सुनते बीता। लेकिन डा शाह के शोध के इस हिस्से ने मुझे रोमांचित कर दिया। यह तो सुना था कि फांसी से पहले किसी अंग्रेज़ अफसर ने आश्वासन दिया था कि वह बाद में उसके परिवार की देख भाल करेगा। यह एक बड़ा रहस्योदघाटन है कि जिस पुलिस अफसर फ्रेड्रिक यंग ने उसे फांसी दिलवाई वही उसकी पत्नी और बेटे को अपने साथ लंदन ले गया, उनकी परवरिश की और बेटे को पढ़ा लिखाकर आई सी एस बनाया। डा शाह का शोध हालांकि मैंने नही पढ़ा लेकिन दो परस्पर विरोधी और एक तरह से जानी दुश्मनों की संवेदना भरी कथा है। मि. यंग का सुल्ताना के आख्यानों में प्रमुख भूमिका थी। सुल्ताना यंग को तरह तरह के रूप रखकर बहुत छकाता था। शायद हिंदुस्तानी अधिकारी ऐसे डाकू को कानूनी ज़द में लाकर फांसी दिलाने के बजाए एनकाउंटर करके बार बार होने वाली अपनी बेइज्ज़ती का बदला लेता। उसके परिवार के साथ यह सलूक तो अकल्पनीय है।<br />मैंने अपने छात्र जीवन में सुल्ताना डाकू नाटक में यंग की भूमिका की थी। यंग का एक संवाद मुझे स्मरण है। सुल्ताना जब नाई बनकर यंग की हजामत बनाते हुए कुछ सुचनाएं इकट्ठी करके निकल जाता है तो यंग को पता चलता है। पहले सिपाहियों को दौड़ाता है फिर स्वगत कहता है सुल्ताना काश पुलिस में होता। इससे लगता है यंग उसकी क्षमता को समझता था। शाह ने लिखा है कि दोनों मज़बूत इरादे और चरित्र के इंसान थे। शाह का शोध यंग के द्वारा अंग्रेज़ हुकूमत को रोज़ाना भेजी जाने वाली रिपोर्टों पर आधारित है। मुझे खुशी है कि मैंने नाटक में एक ऐसे अधिकारी की भूमिका की जिसने इंसानियत की ऐसी मिसाल कायम की जिसका सानी मिलना लगभग असंभव है। डाकू माने जाने वाले जिस इंसान को फांसी दिलाई उसी के बेटे को अंग्रेज़ होते हुए भी ब्रिटिश शासन के सर्वोच्च प्रशासकीय पद के लायक बनाया।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-4279443874721209612010-05-01T00:27:00.000-07:002010-05-01T00:29:26.522-07:00वनवासियों का दर्द23 अप्रेल 2010 को लोकसभा में आदिवासी विकास के बजट पर बहस में झारखंड के पूर्व मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडे को सुन रहा था। अर्जुन मुंडे बी जे पी से संसद सदस्य हैं। बी जे पी से हों या कांग्रेस या किसी साम्यवादी पार्टीँ से अगर बात दिल की गहराई से आती है तो असर करती है। केवल राजनीति, उखाड़ पछाड़ और जुगाड़बाज़ी हो तो बकवास अधिक लगती है। अकसर लोग टी वी बंद कर देते हैं। आई पी एल पर बात हो रही थी तो लग रहा था संभालने की नहीं गिराने उठाने की राजनीति ज्यादा है। मुझे लगा हालांकि मुंडे, सरकार के 9 करोड़ आदिवासियों के लिए केवल 32 हज़ार करोड़ के बजट प्रवधान की आलोचना कर रहे थे जो पूरे बजट का 1 प्रतिशत भी नहीं है। जैसे ऊंट के मुंह में ज़ीरा। सवाल है सरकारें आदिवासियों के विकास का गाना क्यों गाती हैं। छः साल बी जे पी की सरकार रही उसने ही कौनसा आदिवासयों को सिर से खड़ा कर दिया। इसलिए सवाल सरकारों का नहीं यह आदिवासियों के प्रति सामाऩ्य संवेदनहीनता का है। यह बात सही है कि जो भी आता है वह यही कहता है कि आदिवासियों को अंग्रज़ों ने जंगलो में बसाया। मुंडे का सवाल था कि अंग्रेज़ पहले आए या आदिवासी पहले से थे। जंगल किसके थे, किसने उनकी परवरिश की, किसने देख भाल की, किसने जंगल के ख़तरे उठाए। आदिवासियों के बारे में कहना है कि वे गरीब नहीं हैं। उन्होंने एक से एक मूल्यवान खनिज की जान देकर रक्षा की। सम्मानित चोरों की तरह विदेशियों को नहीं बेची। वे लोग जंगल के पेड़ पौधो की भी पूजा करते हैं। फल भी तोड़ना हो तो पहले इजाज़त लेते हैं। धरती की जुताई करने से पूर्व धरती माता से क्षमा मांगते हैं। तुम्हें कष्ट होगा मुझे पेट भरने के लिए खेती करने की आज्ञा दो जिससे मैं पेट भर सकूं। इसका जवाब क्या इन तथाकथित आधुनिक वादियों के पास है। सवाल है कि इन आदिवासयों को जंगलों से क्यों उजाड़ जा रहा है? दांतेवाड़ा के आसपास पता चला है कार्पोरेटस् को जगह देने के लिए आदिवासियों के लगभग 2500 गावों को उजाड़ा गया है। अभी मैंने कनाडा की संस्था संसद की एक ई मेल में देखा कि 30 मार्च को राजस्थान में एक गांव को एक औद्योगिक घराने के गुंडो ने ज़बरदस्ती उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया। लगता है इस देश में या तो सत्ता की नकेल इन व्यवसायिक घरानों के हाथ में है। या औद्योगिक क्षेत्रों की नकेल ट्रेड यूनिनों के हाथ में है। कानपुर में फ़ैक्ट्रियों की कब्रगाह इसका प्रमाण है। सवाल यह है कि गांधी के अंतिम आदमी की चिंता किसको है, क्या सरकार को या तथाकथित मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा करने के नाम पर बेरोज़गारी के गर्त में बेहतरी का झांसा देकर उन्हें उद्योगपतियों की भूख के बायलर में धकेल देनेवाली यूनियनों को। सवाल बहुत असुविधाजनक भी है और अपने अंदर झांकने के लिए गुंजायश भी पैदा करता है। इसका तोड़ जन के पास है। किसी के पास नहीं।<br />डा. बनवारी लाल रायपुर से दंतेवाड़ा तक शांत मार्च कर रहे हैं। इस दुहरी हत्या के विरोध में। सरकार की नीतियां भी गरीब को मारती हैं और माओवादी भी। सवाल है कि माओवादियों को ज़मीन कैसे मिली। इसपर न माओवादियों का अधिकार है न पूंजीपतियों का। वनवासियों की जमीन के अधिकार उन्हें न देकर सरमायेदारों को सेज के लिए दी जा रही है, उनकी नदियों पर मल्टीनेशनल कब्ज़ा कर रहे हैं, उनके द्वारा परवरिश दरख्त ठेकेदार और धनपति काट रहे हैं। खनिज की लड़ाई है जिसे आदिवासियों ने जानकी बाज़ी लगाकर बचाया हुआ है। उन जानवरों को जो उनके द्वारा पालित हैं, उनकी दवादारू के उपयोग में उनके अंगो के हिस्से आते हैं उन्हें व्यवसायिक शिकारी मार रहे हैं। उनके बच्चे हर साल बिमारियों से मर जाते हैं। जो बच जाते हैं वे गरीबी की चक्की में पिसते हैं। जो बच जाते हैं उन्हें आश्चर्य होता है कि वे मौत के पंजे से कैसे बच गए। सवाल है जो माओवादी उनके हमदर्द हैं और जिनके बल पर वे लड़ रहे हैं। उनका उद्देश्य भी औद्योगिकरण ही है। उसी को वे समृद्धि का साधन मानते हैं। अब औद्योगिकरण चीन में भी व्यक्तिगत सरमाए का रूप लेता जा रहा है। आगे उसका क्या रूप होगा कहना मुश्किल है। लेकिन यह निश्चित है कि सर्वहारा का दखल सैद्धांतिक फलसफा रह जाए तो रह जाए। लेकिन उन्हें भी सेज के लिए ज़मीन चाहिए, पानी चाहिए, बिजली चाहिए, जो इन सरकारों को चाहिए वह सब कुछ इन जुझारू माओवादियों को भी चाहिएगा। उनकी सत्ता बंदूक से निकलती है शायद तब भी निकले। यह बात अलग है कि उनका तरीका जनतंत्रात्मक होते हुए भी शब्द तानाशाही से जुड़ा होगा। बंदुक अब ताकत है तो तब भी ताकत होगी। हर सत्ता के अपने पूंजीपति होते हैं। व्यवसायी होते हैं। कुछ शासन के नियम होते हैं और कुछ वे अपने नियम चलाते हैं जिनकी मौन स्वीकृति प्राप्त रहती है। उसका लाभ राज्य को भी मिलता है पार्टी को भी और व्यक्तियों को भी। यह राजनीति की प्रकृति है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है, मुसीबत में जहां से सहनुभूति की बयार आती महसूस होती है सब लोग उधर ही सिमटते चले जाते हैं भले ही उसमें हिंसा की गंध मिली हो। हिंसा अगर दूसरों के लिए संभव हो सकती है तो हमारे लिए क्यों नहीं हो सकती, दरअसल हिंसा किसी को नहीं पहचानत वह साम्यवादी निज़ाम पहचानती। उन देशों में जहां खेती जीवनाधार होता है वहां समग्र औद्योगिकरण उस देश की संस्कृति की हित को हानि पहुंचाता है। खेती को पूर्ण रूप से औद्यौगिकरण में हस्तांरित करना उस देश के सांस्कृतिक़, आर्थिक टिशूज़ के लिए कीमोथरिपी की तरह है। जबकि खेती ही उस देश का स्वास्थ्य होता है वह कोई बीमारी या कमज़ोरी नहीं होती। ये आदिवासी उस पूरी उत्पादन संस्कृति की रक्षा ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उसे संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। अगर माओवादी उनकी सहानुभूति अपनी तथाकथित सहानुभूति की एवज़ में हिंसा के पक्ष में भुना सकते हैं तो हमारी जनतंत्रात्मक सरकारें क्यों नहीं भुना सकती। एक ही कारण हो सकता है कि सरकारों की पक्षधरताएं न्याय और 9 करोड़ लोगों के हितों से बड़ी हैं। सब जानते हैं अगर स्टालिन का अहं और तानाशाही प्रवृत्ति सर्वहारा और जनहित से बड़ा न हुआ होता तो सोवियत यूनियन का निज़ाम इतनी जल्दी न बिखरता। इंसान कितना भी शक्तिशाली बन जाए उसे हिंसा का रास्ता अंततः छोड़ना ही पड़ता। भले ही वह हिटलर हो मसोलोनी हो, स्टालिन हो या चीन में कल्चरल रेव्यूलूशन के प्रणेता हूं सबको अंत में वैचारिक और भौतिक हिंसा को बिना स्थायित्व प्रदान किए उस ज़मीन को छोड़नी पड़ी। समय जितना भी लगा हो। शांति और हिंसा में तो स्थायित्व होता भी है। तालाब के जल की तरह भले ही कुछ समय के लिए हलचल पैदा करने में सफल हो जाएं सब जानते हैं अंततः जल को शांत होना ही है। आप अपनी ज़िद में जल के स्रोत ही बंद करने पर उतारू हो जाएं तो बात अलग। पर यह भी सही कि दूसरे स्रोत खुल जाएंगे।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-72961243277578106882010-04-01T23:59:00.000-07:002010-04-02T00:00:30.840-07:00‘द गिरमिटिया सागा’ का विमोचन<br /> यह ‘द गरिमिटिया सागा’ क्या है यह सवाल दिमाग में आना स्वाभाविक है। मैं शायद इस बारे में न लिखता क्योंकि यह अपने बारे में है। यह पहला और अलग अनुभव है। मेरे मित्र और आई आई टी कानपुर के सहयोगी प्रो. प्रजापति साह ने पहला गिरमिटिया का दो वर्ष लगाकर अंग्रेज़ी में ‘द गिरमिटिया सागा’ नाम से अनुवद किया है। लगभग 1012 पृष्टों में, संक्षिप्त करते भी फैल गया। हालांकि मूल हिंदी उपन्यास 904 पृष्टों में है। इसका विमोचन यानी लांचिंग भी साहित्यिक पुस्तकों की विमोचन परंपरा से थोड़ा अलग ढंग से हुआ। 18 मार्च 10 को, गांधी स्मृति, 30 जनवरी मार्ग नई दिल्ली के हाल में, न किसी राज नेता द्वारा हुआ और न किसी नामी गिरामी साहित्यकार द्वारा, गांधी जी की पौत्री श्रीमती तारा गांधी भट्टाचार्य ने किया। गांधी स्मृति गांधी जी के बलिदान की पुण्य भूमि है। राजेंद्र यादव, बरनवाल जैसे मित्रों को छोड़कर दिल्ली के बड़े़ लेखक कम ही शरीक हुए। किसी ने कहा तुम बाहरी हो। ज़रूरी नहीं यही ए कारण हो। हो सकता है प्रकाशक द्वारा भेजे गए निमंत्रण न मिले हों। लेकिन जिन लोगों को एस एम एस किए या फ़ोन किए, हामी के बावजूद उनमें से भी कम ही लोग पाए। महिला लेखक तो नहीं के बराबर। उनकी अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन फिर भी हाल भरा था। अपने जैसे लोग थे। जहा तक अंग्रेज़ी पत्रकारों की उपस्थिति का सवाल है हिंदी के आयोजनों में उनकी उपस्थिति स्वाति बूंद की सी होती है। एक समाचार पत्र जो हिंदी और साहित्य का पक्षधर माना जाता है उसकी अप्रत्याशित अनुपस्थिति ने चौंकया ज़रूर। वाजिब कारण हो सकते हैं। रुख़ की भी बात होती है।<br />द गिरमिटिया सागा दिल्ली के नियोगी बुक्स(डी 78, ओखला इंडिस्ट्रियल एस्टेटफेज़ 1,नई दिल्ली 20) ने छापा है। एक साल से अधिक लगा। वैसे वे एकेडेमिक पुस्तकें छापते हैं यह पहली पुस्तक है जो उपन्यास की श्रेणी में आती है। व्यवसायी से अधिक एक उत्साही और संवेदनशील प्रकाशक। लोगों का कहना है कि प्रोडेक्शन विश्व स्तरीय हुआ है। ख़ैर इस मामले में पाठकों की राय सर्वोपरि होगी। इस अवसर पर प्रो. इन्द्रनाथ चौधरी एवं श्री निर्मलकांत भट्टाचार्य ने अपने अपने पर्चे पढ़े। मेरे लिए इसके अलावा और कुछ भी कहना संभव नहीं, दो बातें कह सकता हूं कि उनमें आत्मीयता के साथ साहित्य मानकों का निर्वहन था। रचना के प्रति व्यापक दृष्टि थी। दोनों ही एक बात पर एकमत थे कि अनुवाद निर्बाध बहते जल की तरह है। इनके अलावा प्रजापति साह ने अपना वक्तव्य दिया जो अनुवाद और अनुवादकों तथा समाज के परस्पर संबंधों का खुलासा करता था। एक बात और बताई कि उन्होंने अनुवाद के लिए मेरे इस उपन्यास को क्यों चुना। वे चाहते थे यह उपन्यास जो हिंदी पाठकों में आवश्यकता बनता जा रहा है और अहिंदी भाषी लोग भी पढ़ने में रुचि रखते हैं वह अंग्रेज़ी पाठकों तक भी पहुंचे। अभी नवजीवऩ अहमादाबाद द्वारा गुजराती में छपा है। मराठी और उड़िया में प्रकाशाधीन है। साह साह ने उस घटना का भी उल्लेख किया जो मेरे साथ घटी थी। ज्ञानपीठ ने पहला गिरमिटिया की पहली प्रति राष्ट्रपति नारायणन साहब को भेंट की थी। चलते समय उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा था कि मैं इस उपन्यास को कैसे पढ़ूंगा। मैंने कहा था कि जैसे ही अंग्रे़ज़ी में छपेगा मैं लेकर उपस्थित हूंगा। अब जब छपा तो वे नहीं हैं। द गिरमिटिया सागा उनको समर्पित करने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं था। केवल अपने मन की शांति के लिए। साह साहब ने ढ़ाईघर उपन्यास भी साहित्य अकाडेमी के लिए अनुदित किया था। जो वहीं से प्रकाशित है।<br />श्रीमती तारा गांधी का भाषण गांधी जी के बारे में अनेक संस्मरणों से युक्त था। उन्होंने पहला गिरमिटिया और द गिरमिटिया सागा से मार्मिक प्रसंग तक उद्धृत किए थे। चौधरी साहब और निर्मल जी ने भी किए थे। पाठकों को रुचिकर लगे। तारा जी ने एक बात कही कि मैंने तीन सत्याग्रही देखे एक बापू और दो और, गिरिराज किशोर तथा प्रजापति साह। मैं चौंका। फिर सोचा कि शायद इसलिए इस श्रेणी में रख दिया कि हम दोनों बटुकों की तरह चोटी छत से बांधकर इस काम मे सन्नद्ध हो गए थे, गफलत में पड़कर सो न जाएं। वे 14 साल तक अपने दादा के साथ रहीं थीं। वह भी दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद। अगले दिन मुझे फोन करके कहा कि देखो मैंने इस उपन्यास को तीन बार पढ़ा। कस्तूर बा के बारे में भी लिखो। उनके कहने में ममत्व था। मेरी तरह श्री नियोगी का भी यही प्रयत्न है कि गांधी जी के इस अपेक्षाकृत कमतर जाने गए, पर महत्त्व पूर् 20 साल के निर्माण काल को लोग गहराई से जानें।<br /><br />20 मार्च को इस पुस्तक को आई आई टी कानपुर में निदेशक प्रो. संजय गोंविंद ढांढे द्वारा विमोचित कराया गया। श्री नियोगी चाहते थे कि जिस रचनात्मक केंद्र को मैंने आरंभ किया और जहां इस उपन्यास के पहले दो ड्राफ्ट तैयार हुए वहां ज़रूर विमोचन किया जाए। मैं बहुत आशावान नहीं था। क्योंकि आई आई टी के लिए अस्पर्श्य की श्रेणी में आता था। इतने बड़े संस्थान से लड़कर आने वाला सामान्य व्यक्ति चुभन पैदा करता है। ढांढे साहित्य की दृष्टि से संवेदनशील व्यक्ति हैं। अगर कोई निदेशक होता तो शायद इस काम के लिए उत्साहपूर्वक तैयार न होता। उऩ्होंने एक बात कही हम सब गिरमिटिया हैं फर्क इतना ही है कि अपने एग्रीमेंट का पता नहीं है कि कब उसकी तरीख समाप्त होगी। गिरमिट यानी एग्रीमेंट की यह एक दार्शनिक व्याख्या है। प्रो साह ने इतिहास और रचनात्मकता की द गिरमिट सागा से उदाहारण देकर मार्मिक व्याख्या की। इतिहास ने कस्तूरबा से चेंबर पाट उठवा फेंकने की घटना को चार छः पंक्तियों में निबटा दिया उसी को एक रचनाकार कितनी संवेदना और कल्पनाशील ढंग से बयान करता है इस बात को उन्होंने गिरमिटिया सागा प्रभावी ढंग से प्रसतुत किया। लीलावती कृष्णन जो ह्यूमेनिटिज़ और रचनात्मक लेखन केंद्र की अध्यक्षा हैं उन्होंने और उनके साथियों ने तैयारी में व्यक्तिगत रुचि ली। श्री नियोगी ने लंच का आयोजन किया और धन्यवाद देते हुए संकेत किया कि उनका अन्य मेगा सिटिज़ में भी इस पुस्तक की लांचिंग का इरादा है। मुझे खुशी है कि जहां मैंने कठिनाई के दिन देखे वहीं मेरे जीवन का सर्वाधिक रचनात्मक काल बीता है। मैं इसलिए इस संस्था अवदान को याद रखुंगा।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-79208686245860788902010-01-21T02:39:00.000-08:002010-01-21T02:56:56.204-08:00राजनीति की गति जानी न जाए<br /><br /> राजनीति में कुछ लोग अब दो वजह से आते हैं एक, अधिकाधिक सत्ता और पद लाभ उठाने दूसरे अपने अंदर जमा गंदी निसारने। कभी राजनीति सेवा और बलिदान का माध्यम थी। लेकिन अब अरबपतियों की मंडी है। अपने रसूखों से वे पार्टियों को बनाने बिगाड़ने का काम करते हैं। सपा इसका ताज़ा उदाहारण है। मुलायम सिंह कभी जननेता थे। उनके बारे सामान्य मान्यता थी कि वे गरीब के दोस्त हैं, किसान के रहनुमा हैं। मैंने उन्हें बस की छत पर खड़े होकर गांव गांव किसानों से संवाद करते देखा था। तब वे चौ. चरण सिंह के साथ थे। साहित्यकारों के प्रति भी उनका दोस्ताना रुख था। जब मैं पहला गिरमिटिया पर काम कर रहा था तो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका जाने के लिए 75 हज़ार रू.की राशि दी थी। अगर उस समय मदद न मिली होती तो शायद मेरे लिए जाना संभव न हो पाता। लेकिन बाद में उनका नेतृत्व हाई फ़ाई नेतृत्व हो गया। उनके लोग वे लोग हो गए जो सबके नहीं कुछ के हैं। जनेश्वर जी जैसे नेता जो समाजवाद के स्तंभ और लोहिया जी के दाहिने हाथ थे हाशिए पर हो गए। समाजवाद मात्र राजनीति करने का मंच नहीं है। जन सेवा और इबादत है। गांधी और लोहिया ने राजनीति को इसी नज़रिए से देखा था। न ही वह धन अर्जित करने और उच्च श्रेणी के लोगों धन्नासेठों को और लाभ पहुंचाने का माध्यम है। नए समाजवाद में यही सब प्रमुख हो गए। मुझे लगता है समाजवादी दृष्टि की कमी ही इसका कारण रहा होगा। यही बसपा के साथ हुआ। वहां भी अंबेडकर जी और कांशीराम का कोई प्रतिबिंब नज़र नही आता। मेरा डा. अंबेडकर से कोई न संपर्क रहा न परिचय। अलबत्ता कांशीराम जी से ज़रूर एक से अधिक बार मिलने का अवसर मिला। वे रफ़ीअहमद मार्ग पर पटेल हाऊस में एक कमरे में रहते थे। तब उनका संबंध बामसेफ़ से था। उनके पास एक पेंट और बुशर्ट रहती थी। शायद दो लुंगी। पेंट बुशर्ट धोकर डाल देते थे और लुंगी पहनकर सो जाते थे। कहीं जाना होता था न कार की दरकार होती थी और न हवाई जहाज़ की, दुपहिए पर पीछे बैठकर चल देते थे। लेकिन उनकी उत्तराधिकारी सौ सौ कारों के काफले में चलती हैं। धन तो सबसे बड़ी प्राथमिकता है। बड़े लोगों वाली असुरक्षा उनमें भी है। ताम झाम का तो कहना ही क्या। एक बार मैंने दिल्ली में अंबेडकर जी को पटेल जी के बंगले से निकलकर अपने बंगले पैदल जाते देखा था,बस।<br />यह बातें मैं इसलिए लिख रहा हूं कि समाजवाद का जो रूप सामने आ रहा है वह चकित करने वाला है। शायद समाजवाद को समझना अब और भी मुश्किल हो गया। आचार्य नरेंन्द्रदेव अद्वितिय विद्वान थे। लेकिन उन्होंने धन की तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखा। उनकी अंत्येष्टि का प्रबंध जहां तक मुझे मालूम है उनके मित्र और साथी चंद्रभानु गुप्त ने किया था। चंद्रभानु गुप्त की मृत्यु हुई उनके बैंक में चंद हज़ार रुपए थे। जिसका बटवारा अपनी वसियत में कर गए थे। बाक़ी जो कुछ था कार तक ,मोती लाल नेहरू ट्रस्ट के नाम कर दिया था। उन्हें पूंजीपतियों का आदमी कहा जाता था लेकिन उन्होंने कभी किसानों से ज़मीनें छीनकर उन्हें नहीं दी। अलबत्ता शिक्षा के काम के लिए ज़मीन घेरी। किसान को पूरा मुआवज़ा दिया पर 1400 एकड़ ज़मीन एक रुपए में आई आई टी कानपुर को दे दी। टाटा और अंबानी को पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश सरकार ने जिस तरह दी, जितनी हायतोबा हुई उसका ज़िक्र करना बेकार है। मुलायम सिंह जैसे गरीब परस्त नेता अपने महामंत्री के दबाव में अपने विवेक का सही इस्तेमाल नहीं कर पाए। सपा के पूर्व महामंत्री कहते हैं कि अब मैं मुलायमवादी की जगह, समाजवादी नेता जनेश्वर जी की राय मान कर समाजवादी बनूंगी। समाजवादी क्या किसी की राय मानकर या अनुयाई बनकर बन जा सकता है। यह अंदर की चिंगारी है जो समाजवादी बना देती है। सरवेश्वर दयाल सक्सेना की कहानी है लड़ाई है जो इंसान की ज़िंदगी में होने वाले सतत् संघर्ष को चित्रित करती है। लहू लुहान आदमी डा. लोहिया हैं और कोई नहीं। अब मेरे सामने कुछ सवाल हैं। अमिताभ बच्चन और उनका पूरा परिवार कहां जाएगा? बच्चन परिवार के सदस्यों को कला और संस्कृति के समस्त पुरस्कारों से लाद दिया गया था। महामंत्री जो साथ जीने की कसम खाते रहे थे अब कहा हैं। रामपुर से सपा की सीट से जीती तारिका जयाप्रदा सपा के पूर्व महमंत्री के बराबर में खड़ी नज़र आईं। छोटी सरकार अनिल अंबवानी का पता चल जाएगा, अंदाज़ तो है, वे कहां जाएंगे। सबसे बड़ी बात तो संजय दत्त की है। फिल्म से उठाया और महासचिव बना दिया। इतना विवेक तो बनाने वालो में होना चाहिए कि समाजवाद तमग़ा नहीं है सेवा और समर्पण है। उनके पिता ने शांति यात्रा निकाल कर आतंकवाद का विरोध किया था। वे ही सबसे पहले कूदकर भागे। आए भी वो गए भी वो, खत्म फसाना हो गया। समाजवाद क्या ऐसा ही होता है। समाजवादी क्या अपने साथियों की सहायता करके उसको इस तरह गाते हैं जिस तरह पूर्व महा सचिव अमर सिहं उसका महानाद कर रहे हैं। ख़ासतौर से समाजवाद के प्रति समर्पित नेता जनेश्वर जी के संदर्भ में। उनकी बीमारी में उन्होंने पैसा दिया। मैं जानता हूं उत्तर प्रदेश में ऐसे कई नेता हुए जो मदद करते थे पर ज़बान पर नहीं लाते थे। <br />चंद्रभानु गुप्त तो राजनारायण जैसे बड़े नेताओं तक की सहायता करते थे। जब कांग्रेस टूटी और उनके साथ रहे मंत्री दूसरी कांग्रेस में चले गए तब भी वे उनकी मदद करते रहे। किदवई साहब के घर से तो शायद कोई खाली लौटता हो। गुप्ता जी के बारे में तो लखनऊ में, जिन्हें न दे मौला उसे दे आसफ़ुद्दौला के वज़न पर एक कहावत चलती थी जिसे न दे मौला उसे दे सी बी गुप्ता। जनेश्वर जी को मैं 1960 के पहले से जानता हूं । वे इलाहाबाद का चक्कर पैदल लगाते थे। सरकार में रहते हुए भी वे निर्मल छवि वाले रहे। लोहिया और समाजवाद यही दो ध्यये थे। मुझे नहीं मालूम उन्होंने ऐसी कितनी मदद कर दी कि टाइम्स आफ इंडिया के माध्यम से उदघोष करने की ज़रूरत पड़ गई।राजनीति हो या और दूसरे सेवा के क्षेत्र यह छिछोरापन ही माना जाएगा। शायद नेताओं को अपनी नेताई के संरक्षण की ज़रूर पड़ती है। खुदा ख़ैर करे।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-3791188144981547682010-01-18T22:15:00.000-08:002010-01-18T22:32:38.456-08:00ज्योति बाबू चले गए।(1914-2010)<br /><br /> ज्योति बाबू का निधन राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से एक दुखद घटना है। सी पी एम में वे हरिकृष्ण सुरजीत के जाने के बाद अकेले कद्दारवर नेता बचे थे जिनके पास देश की बढ़ोत्तरी क ब्ल्यू प्रिंट था। वे समर्पित कम्यूनिस्ट होने के बावजूद समन्व्य की अनवार्यता को भी महत्त्व देते थे। ज़रूरत पड़ती थी कट्टरपन से ऊपर उठकर मानवीय पक्ष का समर्थन करने से पीछे नहीं हटते थे। यह ठीक है कि उन्होंने बंगाल का मुख्यमंत्री रहते हुए सी पी एम की नीतियों को धार दी। लेकिन नानकम्यूनिस्ट वर्ग के साथ अन्याय भी नहीं हुआ। पर वे संभवतः कम्यूनिस्ट कैडर की तरह स्वतंत्र नहीं था। कैडर का वर्चस्व रहता था। उन लोगों को लगता था कि वे कैडर की बात को ही महत्त्व देते थे। बंगाल की आर्थिक उन्नति उनके लिए सर्वोपरि थी। उसके लिए पूंजी निवेश के प्रति दुराग्रही नहीं थे। सबसे बड़ा काम उन्होंने ज़मीन के पुनर्प्रबंधन का किया जिसके कारण किसानों को लाभ पहुंचा। उसी के दम पर सी पी एम आज तक गद्दीनशीन है। पंचायतों का जनतंत्रीकरण उन्हीं के काल में हुआ। सांप्रदायिक सदभाव को मज़बूत किया। लेकिन आज जिस प्रकार की राजनीति सी पी एम नेतृत्व कर रहा है वह ज्योतिबाबू की राजनीति से काफ़ी भिन्न है। यह ठीक है कि कम्युनिस्ट पार्टीज़ की नीति उनका पालितब्यूरो नियोजित करता है। लेकिन उनका व्यक्तित्व इस तरह का था कि पालितब्यूरो भी नीति निर्धारण के समय उनके दृष्टिकोण की कदर करने के लिए बाध्य हो जाता था। देश और उनके साथ पालितब्यूरो ने उस समय खुला अन्याय किया था जब सब पार्टीज़ उनके प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में थी लेकिन तत्कालीन पार्टी सचिव या कहिए पालितब्यूरो तैयार नहीं हुआ था। सारा देश सकते में आ गया था। उनके स्थान पर एक अनुभवहीन व्यक्ति के नाम छींका छूट गया था। आज भी लोग उस क्षण को कोसते हैं कि अगर ज्योति बाबू प्रधानमंत्री हो जाते देश का इतिहास ही अलग होता।<br />दरअसल कम्यनिस्ट पार्टी कई बार एक ऐसे बच्चे के तरह व्यवहार करतीं हैं कि सिद्धान्त के नाम पर वे अपनी पसंद नापसंद को धीरे से क्रियान्वित करके सुर्ख़ रूह बन जाती हैं। बाद में सोचती हैं कि यह गलत हुआ पर स्वीकार नहीं करतीं। यही पिछले दिनों स्पीकर के सवाल पर यही हुआ। मुखर्जी साहब को पार्टी से निकाल दिया गया सिर्फ इसलिए सब जनतंत्रों में प्रचलित परंपरा के तहत उन्होंने कहा था कि स्पीकर किसी पार्टी का सदस्य नहीं रहता। इसलिए पार्टी के संयुक्त मंच से हट जाने पर स्पीकर का त्यागपत्र देना आवश्यक नहीं। जब ज्योति बाबू को प्रधानमंत्री बनने देना सिद्धान्त विरुद्ध था तो स्पीकर बनने देना कैसे सिद्धांत के अंतरर्गत आ गया। सिद्धांत क्या शक्ल बदलने के साथ बदल जाते हैं। ज्योति बाबू का प्रधानमंत्री बनना देश के लिए तो लाभकर था ही पार्टी का भी कम लाभ नहीं होता। दरअसल मुखर्जी साहब वरिष्ठतम व्यक्ति थे। योग्य भी। उनके पार्टी में बने रहने से हो सकता है कि वर्तमान पार्टी नेतृत्व को खतरा हो जाता। ज्योति बाबू एक वरिष्ठ सदस्य को इस तरह अपमानित करने के पक्ष में नहीं थे। मुखर्जी ने ठीक ही कहा मुझे लगा कि मेरे पिता की दूसरी बार मृत्यु हुई।<br />ज्योति बसु का चला जाना देश की राजनीति से एक अनुशासित, दूरअंदेश, संतुलित और दानिशमंद आदमी का चला जाना है। साहित्य जगत में भी उनकी अनुपस्थिति अनुभव की जाएगी।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-79932218551601124962010-01-13T22:13:00.000-08:002010-01-13T22:16:46.486-08:00साहित्य अकादमी की स्वायत्तता?देश हो या संस्था उसकी स्वायत्तता को खतरा अंदर के लोगों से होता है। या कहिए उन हां-बरदार मित्रों से होता है जो संस्था-हित से अधिक अपने स्वार्थों को ‘चिड़िया की आंख’ की तरह ताकते रहने की कुव्वत पैदा कर लेते हैं। मित्र मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि संस्था का हित चाहने वाला सदा सत्ताधारियों की नज़र में अमित्र और शत्रु ही समझा जाता है। मुझे साहित्य अकादमी में पिछले सत्र में काम करने का मौक़ा मिला था। कुछ समय तक अध्यक्ष और मेरे बीच अच्छे संबंध रहे। हालांकि वामपंथी लाबी उनके ख़िलाफ़ थी। मुझे सलाह भी दी गई कि मैं जीत गया हूं अब त्यागपत्र देकर शहीद बन जाऊं। लेकिन मैं कोशिश करता हूं कि संकटों के बावजूद मैं अपना दायित्व अंत तक निभाऊं। वही मैंने यहां भी किया। यह समस्या मेरे सामने आई आई टी कानपुर में कुलसचिव रहते हुए भी तत्कालीन निदेशक के साथ गहरे मतभेद हो जाने के वक्त भी आई थी। वे कहते थे Administration is a bulldozer. उस समय बोर्ड के चेयरमेन प्रसिद्ध उद्योगपति स्व. ललित मोहन थापर ने थापर हाउस में बुलाकर मेरे सामने नियुक्तिपत्र फेंक कर कहा था तुम एक ईमानदार आदमी हूं तुम्हारी वक़त सरकारी संस्था नहीं कर सकती इसलिए उठाओ नियुक्ति पत्र त्याग पत्र देकर मेरे यहां आ जाओ। जितना वहां पाते हो उससे दुगना मिलेगा। मैंने क्षमा मांगी तो उनकी नज़र बदल गई। आंखे तरेर कर कहा देखता हूं कैसे नौकरी करते हो। वहां बैठे अपने ही बीच के लोग शह दे रहे थे इतना बड़ी बिज़नेस टाइकून तुम्हें स्वयं बुला रहा है। तुम बदकिस्मत हो जो ठुकरा रहे हो। यहां तक कि तत्कालीन शिक्षामंत्री शीला कौल ने समझाया था रिज़ाइन करदो इतने योग्य आदमी हो कोई बड़ी जगह तुम्हारा इंतज़ार कर रही है। मैंने धीरे से कहा योग्य आदमी की तो हर जग ज़रूरत होती है, आप तो मंत्री हैं आपसे मैं न्याय की उम्मीद करता था। त्यागपत्र देना तो कायरता होगी। वे उठकर चली गईं थीं। उधर जब मैं थापर साहब को मनाकर के लौटा तो संभावना के अनुरूप मुझे अगले दिन निलंबन पत्र थमा दिया गया था। खैर, ओखली, सिर और मूसल का गहरा रिश्ता है। न ओखली को डरना चाहिए न सिर को, मूसल डरेगा तो सिर को कूटेगा कैसे, कहावत कैसे चरितार्थ होगी। यही अकादमी के दौराना हुआ। साल भर बाद ही पूर्व अध्यक्ष की मनमाने निर्णयों और भाषा संबंधी भेदभाव के कारण मेरे संबंध तनावपूर्ण होते गए। जब उन्होंने दोबरा चुनाव लड़कर सचिव और बी जे पी नेताओं से मिलकर अध्यक्ष बनने का मैनुप्लेशन चालू किया तो मैंने बोर्ड में विरोध किया। उन्होंने मेरा प्रस्ताव तक रिकार्ड पर नहीं रखे। उसके और भी बहुत से कारण थे जो बाद में मौक़ा मिला तो लिखूंगा। पहले दिन जनरल काउंसिल की बैठक थी। उसमें पहली बार बी जे पी और आर एस एस समर्थकों का बहुमत था। उसमें उनके ही लोग चुने गए थे। उनका जीतना तय था। मैंने तय कर लिया मैं आखरी दम तक विरोध करूंगा। मैंने किसी तरह उच्चतम सर्किल में सब कागाज़त भिजवाए, उसक नतीजा हुआ कि उन्हें बुलाकर हिंदी में समझा दिया गया कि आप अपनी उम्मीदवारी वापिस ले लें, वरना आप जानें। अगले दिन बोर्ड की मीटिंग में उन्होंने सबसे पहले अपनी उम्मीदवारी वापिस ले ली। मैंने उनके खिलाफ़ एक प्रस्ताव अपने तीन मित्रों से समर्थन करने की सहमति लेकर प्रस्तुत किया लेकिन वक्त पर वे चुप रहे। सत्ता का दबदबा हिंसक जानवर की दहाड़ की तरह बाद में भी गूंजता रहता है। अध्यक्ष महोदय आरंभ में ही विड्राल की घोषणा कर चुके थे। स्वाभाविक है मेरा प्रस्ताव अन नोटिस्ड चला गया।<br />लेकिन उस समय कि तानाशाही से अधिक खतरनाक बात अब सामने आ रही है। सामसुंग मल्टीनेशन कंपनी के साथ समझौता हुआ है कि अकादमी 24 भाषाओं में सामसुंग की तरफ़ से भी रवीन्द्र पुरस्कार देगी। सुना है विदेश मंत्रालय के कहने पर अकादमी ने यह निर्णय लिया है। सवाल है कि क्या बोर्ड या जनरल काउंसिल की बाध्यता है कि सरकार का ऐसा प्रस्ताव माने जो उस संस्था की मूल भावना व प्रकृति के विपरीत हो? इस समय साहित्य अकादमी का पुरस्कार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक सम्मानित माना जाता है। किसी भी देश की अकादमी आफ लेटर्स द्वारा दिया जाना वाला सम्मान संसार भर में सम्मान से देखा जाता है। सामसुंग सम्मान की क्या स्थिति होगी? सामसुंग पुरस्कार एक मल्टीनेशल कंपनी द्वारा दिया जाने वाला प्राइवेट पुरस्कार होगा। उस पर ठप्पा साहित्य अकादेमी का लगवाकर उसे अंतर्राष्ट्रीय वेलिडिटी दिलाने की चाल मात्र लगती है। विश्व की साहित्यिक सस्थाओं के बीच आदान प्रदन का तो कोई अर्थ हो सकता है लेकिन मल्टिनेशनल कंपनी का सीधा सा उद्देश्य है इस बात का विज्ञापन कि हम तुम्हारे साहित्य का प्रचार कर रहे हैं, कल दूसरी कंपनियां यही करने को कहेंगी। साहित्य अकादेमी की देखा देखी हिंदी अकादेमी या दूसरी संस्थाएं भी इस होड़ में पड़ सकती हैं। एक और खतरा है हमारे देश में विदेशी वस्तु ज़्यादा चलती है। कल हो सकता है इस बात पर असंतोष या विवाद हो कि हमें सामसुंग सम्मान की जगह साहित्य अकादेमी पुरस्कार देकर अपमानित किया गया। हो सकता है कल सामसुंग अपने इन विजेताओं को अपने देश में काम के लिए या घूमने के लिए आमंत्रित करे तब और सिर फुटव्वल होगा। आखिर बैठे बैठाए साहित्य अकादेमी यह ख़तरा क्यों मोल ले रही है। एक व्यवसायिक मल्टीनेशनल के साहित्यिक मूल्य क्या हो सकते हैं सिवाय इसके अपने व्यवसाय में किसी सम्मानित संस्था का कैसे बाज़ारीय उपयोग किया जा सकता है। एक बार इस तरह की सम्मानित संस्था अगर किसी व्यावसायिक कंपनी के प्रचार का माध्यम बनी फिर उसकी स्वायत्तता और प्रतिष्ठा कानपुर की गंगा की धारा की तरह हो जाती है जिसमें हज़ारों टन टेनरीज़ के क्रोमियम आदि मिश्रित ज़हरीले नाले गिरकर उसकी तासीर और शक्ल बदल देते हें। अलबत्ता नाम तो गंगा ही रहता है पर आदमी आचमन करता भी डरता है। यह भी एक दृष्टिकोण है कि भाषाई लेखक कब तक कड़की में जीता रहेगा। उससे बचने के अनेक तरीके हैं। सामसुंग भी अपने पैसे से नोबेल न्यास की तरह अपनी संस्था विश्व भर की भाषाओं के लिए आरंभ कर सकता है। लेकिन एक कहावत है कि जब दूध खरीदे मिल जाए तो भैंस कौन बांधे।<br />अकादेमी के सचिव ने मुझे पत्र लिखकर इस वर्ष के वार्षिक उत्सव में डा. लोहिया पर आयोजित किए जाने वाले राष्ट्रीय सेमिनार में आमंत्रित किया है। जब सामसुंग को सरपरस्ती दे रहे हैं तो डा लोहिया जैसे अपना काते अपना पहनो वाले ज़मीनी चिंतक पर सेमिनार करने की क्या तुक है। जब मैंने लोहेया जी पर आलेख लिखवाने के प्रसेताव रखा था तो कर्क दिया गया था अगर उन पर लिखवाया गया तो अन्य राजनीतिज्ञों की ओर से भी दबाव पड़ेगा। मैंने ईमेल द्वारा लिखा है कि समाचार पत्रों में पढ़ा है कि अकादमी अपनी स्वायत्तता मल्टीनेशनल कंपनी को बेच रही है क्या सही है। मेरा लोहिया जी से संबंध रहा है इसलिए मैं एक दिन को आ सकता हूं। कोई जवाब नहीं आयी। बाद में फोन आया कि आप एक दिन को ही आइए। मुझे कहना पड़ा पत्र का जवाब मिलने पर निश्चित करूंगा। देश का पानी बिक गया, जंगल बिक रहे हैं, हर चीज़ आन सेल है। क्या साहित्य अकादमी जैसी संवेदनलशील संस्था जो एक ऐसे छतनार दरख्त की तरह है जिस पर देश की 24 भाषाओं के घोसले हैं, उस पर भी मल्टीनेशनल का नाग सरसराता हुआ आकर घोसला बना लेगा? और एक एक करके उन भाषाओं की रचनात्मक स्वायत्तता को चट कर जाएगा जो अपनी रचनात्मकता को निर्विघ्न जी रही हैं। राजनीतिज्ञ और नौकरशाही इस संवेदनशीलता को क्या समझें पर इतने लेखक, बड़े और छोटे, जो वहां बैठे हैं, और स्वायत्तता के कस्टोडियन हैं, वे भी क्या उतने ही असंवेदनशील हो गए हैं? यह सवाल आज सामने नहीं लेकिन जब अन्य कंपनियों का दबाव बढ़ेगा तो पता नहीं भारतीय लेखको का क्या होगा। लाजवंती को बच्चा छुए या बड़ा हर हालत में मुर्झाती है। उसको माली हो या अकादेमी जैसी संस्थाएं उन्हें वातावरण और धरती के अनुसार ध्यान रखना पड़ता है। ज़्यादा केमिकल्स का विपरीत असर हो सकता है। बल्कि होता है। <br />देसी रंग<br />हमारे भाषाई बुद्धिजीवी जिनकी बाज़ारवाद में पैठ है उन्हें केवल विदेश में ही रंग नज़र आते हैं। हमारे देश में तो हर मौसम को अलग अलग रंग सजाते हैं। पलाश जैसे गाढ़े रंग भी है, अमलतास जैसे पीले रंग पत्तों तक को अपने रंग से रंग देते हैं, कचनार के विभिन्न रंग सफेद, बैंजनी, फ़िरोज़ी जब खिलते हैं तो लगता है रंग भरी थाली बिखेर दी गई है। गर्मी में धूप की चुभन को अमलतास के रंग ऐसे राहत देते हैं जैसे आंखों में गुलाबजल डाल दिया गया हो। अमरबेल तक अपनी चुनरी रंग लेती है। चमेली, जूही, गदराया मोगरा, चांदनी सब सफ़ेद होतेगिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-54389296094704365412009-12-02T03:30:00.001-08:002009-12-02T03:37:00.262-08:00दिल्ली में 19 नवबर 09पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 22 ज़िलों के गन्ना किसानों का अद्भुत जमावाड़ा था। किसान एकता का यह प्रशंसनीय उदाहारण है। किसान एक होकर अगर खड़े हो गए होते तो जिस प्रकार ज़मीनों का अधिग्रहण होता रहा है वह नहीं होता। न ही रसूमों के ख़रीद फरोख्त के दामों में मनमानी होती। जैसे सरकारी नौकरों का डीए बढ़ाने का फ़ारमूला बना हुआ है उसी प्रकार फ़सलों की रसूमों का बाज़ार भाव के हिसाब से इनडेक्स फ़ारमूला भी निर्धारित होना चाहिए। उसी हिसाब से फ़सल के आने से पहले हर फसल के खरीद के दाम घोषित हो जाने चाहिएं। किसानों को भी मालूम रहे कि अमुक फ़ारमूले से रसूम के दाम निर्धारित होंगें। मैथमैटिकल समाधान सरकार के हित में भी होगा और किसान के हित में भी। अनिश्चितता की गुंजायश कम से कम होना दोनों के लिए ही लाभकारी होगा। सरकार को यह मालूम होना चाहिए कि किस रसूम की कितनी खपत संदर्भित वर्ष में संभावित है। उसी के अनुरूप बुवाई से पहले संभावनाएं घोषित कर दी जाएं तो किसान अपनी रसूम की पैदावार उसी के अनुसार नियोजित कर सकते हैं। किसान की अपनी अस्मिता है। ज़मीन पहले गरिमा और सम्मान की बात होती थी अब व्यवसाय का माध्यम हो गई। जिस प्रकार औद्योगिकरण के लिए ज़मीन की खरीद फ़रोख्त का सिलसिला शुरू हो चुका है वह यह संकेत करता है कि किसान के लिए भी ज़मीन करेंसी या बाज़ार में बेची खरीदी जाने वाली वस्तु में बदल गई है। ऐसा क्यों हुआ? शायद इसलिए कि हर व्यक्ति की तरह किसान के मूल्य बदल गए हैं। ज़मीन उसके लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के ज्ञान को पैकेजों में बदलने की तरह अधिक से अधिक धन में बदलने का माध्यम रह गई है। नई पीढ़ी ख़ासतौर से यह मानने लगी है कि जमीन या किसानी स्टेटस सिंबल न होकर, व्यवसाय या सरकारी नौकरी अधिक सम्मानजनक है। ज़मीन के साथ उसका कोई भावनात्मक संबंध भी नहीं रह गया। प्रेमचंद ने गोदान और अन्य रचनाओं में जैसे पंचपरमेश्वर और भूलिप्सा जैसी कहानियों में गऊ और ज़मीन के प्रति किसानों की जिस भावनात्मकता का दिग्दर्शन कराया है वह अब बीते दिनों की चीज़ हो गई। अब गोदान के गोबर ही बचे हैं जो शहरों में जाकर बसना चाहते हैं या बस गए हैं। होरी विरल हैं। गुड़गांव और नोयडा आदि नगरों में जिस प्रकार बड़े किसानों ने ज़मीन बेच बेचकर ऐशो अशरत की ज़िंदगी बनाई है वह इस बात का प्रमाण है कि ज़मीन उनके लिए भावनात्मक या सम्मान की वस्तु नहीं रह गई। ज़मीन के मुआवज़े को लेकर जिस प्रकार आंदोलन होते हैं उस तरह के आंदोलन ज़मीन के अधिग्रहण के विरुद्ध नहीं होते। लालगढ़ का पूरा जन विरोध टाटा द्वारा दिए जाने वाले अपर्याप्त मुआवज़े को लेकर शुरू हुआ था। बाद में राजनीतिक मुद्दा बन गया। गाज़ियाबाद में भी अनिल अम्बानी को सेज के लिए दी गई ज़मीन को लेकर जो विराध हुआ था वह भी आर्थिक अधिक था बनिस्बत सैंद्धांतिक सवाल के। उसी सवाल पर मुलायम सिंह की सरकार इस चुनाव में चली गई थी। यही क्राइसिस तीस साल पुरानी सी पी एम सरकार के सामने है। अगर बाज़ार भाव पर मुआवज़ा दिला दिया जाता तो किसान किसी की न सुनते। उन्हें ज़मीन देने में आपत्ति नहीं थी बशर्ते के दाम मनोनुकूल मिलते। मज़े की बात है कि पूंजीपति की लड़ाई सरकारों को लड़नी पड़ती है। सरकारें पूंजीपतियों के पाले में खड़ी नज़र आने लगती हैं। लेकिन बड़े किसान भी छोटे किसानों और मज़दूरों के साथ पूंजीपतियों वाला व्यवहार करते हैं। ज़मीन कब्ज़ाने से लेकर हिस्सा बांट और मज़दूरी तक में। किसानों के नेता इस दिशा में पूरी तरह निष्क्रिय रहते हैं। यह उसे किसानों का हक़ मानते हैं। यह परंपरा ज़मीदारी जाने के बाद भी इस देश के लोगों के ख़ून में हैं। जैसे देश में जो अमीर है वह अमीर होता जा रहा है और जो गरीब वह गरीब होता जा रहा है उसी तरह किसानी में भी है।<br />मुझे सन् तो याद नहीं, संभवतः आज़ादी के बाद छठे दशक में कांग्रेस अधिवेशन में नेहरू जी ने सोवियत यूनियन की तरह कोपरेटिव फ़ार्मिंग लागू करने का प्रस्ताव रखा था। उसका विरोध मुख्यतः दो नेताओं ने किया था चंद्रभानु गुप्ता और चौ चरण सिंह ने। गुप्ता जी ने कहा था आपने गांव नहीं देखा, किसान जान दे देगा पर अपनी ज़मीन नहीं देगा। चौ साहब ने कहा था प्रधानमंत्री भले ही देश के लाभ की बातकर रहे हों पर वे नहीं जानते किसान धरती को अपनी मां समझता है मां से बच्चे को अलग करना क्या संभव है। तब राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र था। प्रधानमंत्री का विरोध अनुशासनहीनता नहीं मानी जाती थी। गोविंदाचार्य जैसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री का मुखौटा कहने मात्र से पार्टी से निकाल दिया गया था। जसवंत सिंह को जिन्ना पर अपनी मान्यता स्पष्ट करने पर पार्टीबदर कर दिया गया जो मात्र एक साहित्यिक कार्य था। ये सवाल संदर्भ जन्य होने के कारण यहां आ गए। तब पार्टी ने नेहरू जी का साथ न देकर इन दोनों नेताओं का समर्थन किया था। लेकिन अब किसानों और धरती के बीच का यह रिश्ता लगभग न्यूनतम हो गया। बहुत कम किसान रह गए जो ज़मीन के साथ पूर्ववत रिश्ता बनाए हैं। वह उनका अंदरूनी रिश्ता भी हो सकता है और मजबूरी का रिश्ता भी। नई पीढ़ी या तो फसल के वक्त हिस्से की रसूम लेने गांव जाती है या अच्छे दाम मिलने पर उसे बेचने का डौल बैठाने। गांधी जी ने गांवों की तरफ़ लौटने की बात चाहे हिंद स्वराज के माध्यम से कही हो या अपने जीवन का गांवों की आमदनी गावों पर ख़र्च करने के फ़लसफ़े के आधार पर, दोनों बातें इसलिए कहीं थीं कि किसान गावों से विमुख होकर शहर की तरफ़ न भागें। वे जानते थे कि अगर ऐसा हुआ तो गांव शहरों के गर्भ में समा जाएंगे। उनका देशपालक का दर्जा ख़त्म हो जाएगा। आत्म निर्भर न रह कर शहरों पर निर्भर हो जाएंगे। होना तो यह चाहिए था कि किसान नगरों का संरक्षण करते। लेकिन गांधी का यह सपना तत्कालीन और संभावित प्रधानमंत्री ने गावों के सशक्तिकरण के उनके 1945 के प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि जो गांव स्वयं सांस्कृतिक अंधकार में हैं वे देश को क्या समृद्ध करेंगे। मेरा इसमें कोई विश्वास नहीं। अगर नेतृत्व जन के विश्वास को इस तरह झिंझोड़ता रहेगा है तो वह भी इस स्टेज पर, जब जन अपने नए विश्वासों और आस्थाओं के निर्माण की आरंभिक प्रक्रिया में हो तो उसके विश्वास कभी मज़बूत आधार ग्रहण नहीं कर पाएंगे। गांधी ने गावों को देश की उस आर्थिक व्यवस्था को जो सदियों से इस देश का आधार रही थी और समय की कसौटी पर खरी उतरी थी अधिक आधुनिक तरह से पुनर्निर्मित करने का सपना देखा था। औद्योगिकरण से यह आगे की बात थी। जिसमें व्यक्ति से लेकर पूरे समाज में आत्म विश्वास प्रतिरोपित करने का दीर्घकालीन सपना निहित था। उस सपने के विरूद्ध नेहरू और देश के तत्लीन नेतृत्व ने स्पात की खेती करने की योजना को क्रियान्वित करने का बीड़ा तथाकथित प्रगतिशीलता और शैतानी आधुनिक सभ्यता के दबाव में उठाया। उसे खेती का पूरक न बनाकर मुख्य आर्थिक व्यवस्था का एंकर बनाया जिसमें देश को दूसरे देशों की विशेषज्ञता और संसाधनों पर निर्भर करना अनिवार्यता बन गई थी। जब अपने संसाधनों और विशेषज्ञता यानी एक्सपर्टाइज़ पर विश्वास खत्म होने लगता है तो एक तरह का भावनात्मक अलगाव भी विकसित होने लगता है जो नई पीढ़ी में नज़र आता है उसने अपनी पीढी दर पीढी से आज़माई हुई कृषि विशेषज्ञता से मुंह मोड़ लिया। उसी का नतीजा है कि खेती जो किसान के गहरे सरोकार और संवेदना का हिस्सा थी व्यवसाय मात्र रह गई। जब रिश्ता व्यवसायिकता पर निर्भर करने लगता है तो पारस्परिकता या बिलांगिगनेस अपने और अपनों से रह जाती हो तो उसकी सामाजिक ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है और समाज का सम्मान भी नहीं रहता। जब किसान का लगाव ज़मीन से नहीं रहेगा तो देश की उस संपत्ति से कैसे रह सकता है जिसे वह समझता है कि वह उसकी न होकर देश की है। जैसे देश उसका न हो। भले ही उसका धन , पसीना , और जीवन उसमें लगा हो। अगर ज़मीन से उसकी और उसके परिवार की रोटी न चलती होती तो वह भी उसके लिए देश की संपत्ति से अधिक कुछ न होती जिसे वह अपने आनंद के लिए जैसे चाहे तोड़ फोड़ सकता है। यह ठीक है कि सरकारें अगर जन की समस्याओं के प्रति असंवेदनशील हों तो जन अपनी ही संपत्ति को सरकार के आधीन होने के कारण समझाता है कि उसकी अपनी संपत्ति उसकी नहीं। उसका यह सोच तर्कसंगत नहीं क्योंकि दूसरों का बदला अपना घर और सामान तोड़ कर नहीं लिया जा सकता। यह हिंसा तो है ही तर्क विहिन नभी है। अपने भाइयों बच्चों की हत्या को कब तक न्यायोचित ठहराया जा सकता है। <br />अभी दिल्ली में किसान आन्दोलन के दौरान ऐसा ही कुछ देखने को मिला। जंतर मंतर में घुसकर जिस प्रकार हेरिटेज को नुकसान पहुंचाया तथा शराब पीकर बोतलें वहां फेंकी गईं इससे साफ़ पता लगता है भूमि को धारण करने वाले लोग ऐसी विशिष्ठ चीज़ों को नेस्तनाबूद करने से भी नहीं छोड़ते जो सदियों से उस ज़मीन की शोभा बढ़ा रही हैं जिसके वे रहबर हैं। ऐसा इस आंदोलन में पहली बार हुआ। <br />सवाल यह है कि हमारे किसान नेता उनको यह क्यों नहीं बता पाए कि यह संपत्ति भी हमारे लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी तुम्हारी अपनी काश्त की ज़मीन जिसकी डौल टूट जाने पर भी खून खराबे के लिए तैयार रहते हो। उस दिन एक चैनल पर इसी सवाल को लेकर हम लोग में परिचर्चा हो रही थी उसमें बड़े किसान नेता थे लेकिन किसी ने इस सवाल को नहीं उठाया। शायद इसलिए कि उससे उनके वोट बैंक पर असर पड़ेगा। क्या इस कारण हम बच्चों को एक अच्छा नागरिक भी नहीं बनाएंगे। यह कैसी राजनीति है। मैं जानता हूं यह हर आंदोलन का हश्र होता है। नेता उसे जन आक्रोश कहकर निश्चिन्त हो जाते हैं। जन आक्रोश कह देने मात्र से देश नहीं बचेगा। यह तोड़ फोड़ हिंसा भी है और देश की संपत्ति का संहार भी है। गर्म ख़ून का उपयोग अगर रचनात्मकता के काम में जोश भरने में हो तो शायद हम अघिक सुखी हो पाएं। कब तक तोड़ तोड़ कर बनाएंगें। चौरी चौरा में शांतिप्रिय आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने भारतीय सिपाहियों की हत्या कर दी थी। गांधी ने सफल होते आंदोलन को वापिस ले लिया था उसके लिए उन पर आरोप दर आरोप लगाए गए थे। वे इसिलिए नहीं झुके थे कि हर अहिंसात्मक आंदोलन की नियति हिंसा होगी। अब हमारे सामने आर्थिक लाभ मुख्य है, साधनों की पवित्रता गौण है । सत्यागृह और आंदोलन तो हमने ले लिया लेकिन उसकी निष्ठा और साधनों की पवित्रता को कलुषित कर दिया। हमारे देश का नेतृत्व चाहे वह किसी भी पार्टी का हो अपने क्षणिक और अस्थायी लाभों के लिए देश की अस्मिता और संवेदना का खुला सौदा अराजकता के साथ कर रहे हैं, देखिए इन हालात में देश कब तक सही सलामत रहता है।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-74468152204722030492009-11-10T22:34:00.000-08:002009-11-10T22:35:37.295-08:00कहां है संविधान और कहां है जनतंत्र?मैं संविधान और जनतंत्र की बात क्यों कर रहा हूं? फिर सोचता हूं सब ही कर रहे हैं तो मैं भी कर रहा हूं तो क्या गुनाह कर रहा हूं? जब संज्ञाएं और शब्द अर्थ खो देते हैं तो उनका कोई महत्त्व नहीं रहता। ऐसे में अर्थहीन शब्द बोलना गुनाह नहीं रहता। जब किसी भाषा का कोई महत्त्व नहीं रहता तो शब्दों का ही क्या मतलब रह जाता है। भाषा से भले ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी न बनें पर साहित्य, इतिहास, समाजविज्ञान के मूल में भाषा ही होती है। संविधान की भी भाषा ही है। उसमें सब भारतीय भाषाओं को समान माना। हिंदी और अंग्रेज़ी को संपर्क भाषाएं मान लिया गया। एक साज़िश की गई कि हिंदी राज भाषा बना दी गई। दोनों भाषाएं, एक विदेशी भाषा और वह भाषा जिसमें आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी एक नाव में सवार हो गई। हिंदी राजभाषा बनाकर दूसरी भाषाओं की आंख की किरकिरी बना दी गई। यह भाषाओं को बांटने की सोची समझी राजनीतिक साज़िश थी। उसका विकृत नतीजा 9 नवंबर 09 को महाराष्ट्र की विधान सभा में देखने को मिला। यह संविधान का सम्मान है या विधान सभा का या आदमियत का? अब इस सवाल को राजनीतिज्ञ ही सुलझाएंगे। इसे न बुद्धीजीवी सुलझा सकते हैं और न साधु संत और न विधिवेत्ता। जिन्होंने यह अवलेह घोटा है उन्हें ही चखना पड़ेगा। तीन क्या चार भाषाओं में शपथ ली गई। मराठी में, संस्कृत में, हिंदी में और अंग्रजी में। मराठी में तो ली जानी थी। एक तो मनसा के अध्यक्ष राज ठाकरे का तानाशाही हुक्मनामा, दूसरे राज्य की भाषा। हुक्म डराने वाला था कि मराठी में शपथ न लेने पर दंडित किया जाएगा। तुम कौन, जन प्रतिनिधियों के नाम संविधान विरोधी हुक्मनामा जारी करने वाले? आप अपील करते तो भी एक बात थी। ऐसा करना भी अधिकार के बाहर की बात थी। एक बाहरी आदमी का सदन के चुने गए सदस्यों को हुक्म जारी करना सदन और अध्यक्ष की अवमानना है। दुसरे संविधान में किसी भी भाषा में शपथ लेने की दी गई छूट और संवैधानिक अधिकार में ख़लअंदाज़ी है। यह नया तानाशाह पिछले सप्ताह भर से संविधान विरोधी आदेशों की बरसात कर रहा था लेकिन न तो सरकार ने इसका वरोध किया और न इस असंवैधिनक स्वयंभू तानाशाह के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही की गई। दो ही बातें हो सकती हैं या तो सरकार डरती है या फिर तरह दे रही थी। गैरकानूनी काम के खिलाफ़ तत्काल कार्यवाही न करना उसे वैधता देना है। अराजकता पैदा करना है। सपा के चुने हुए सदस्य अबु आज़मी का यह अधिकार था कि वह किसी भी भाषा में शपथ ले। उन्होंने इस अधिकार का उपयोग किया। वैसे भी अपने को लोहिया जी का अनुयायी मानने वाला व्यक्ति अपने नेता का भाषा वाले निर्देश का पालन उसी पकार कर रहा था जिस प्रकार मनसा के आततायी सदस्यों ने राज ठाकरे के निराधार और असंवैधानिक आदेश का पालन किया।<br />आप यानी ठाकरे परिवार हिंदी से क्यों नाराज़ है? राज ठाकरे तो ज़हर घोले बैठा है,हिंदी के खिलाफ़ भी और हिंदी वालों के खिलाफ़ भी। जबकि देवनागरी यानी लिपि को बहुत अच्छी तरह मराठी ने अपनाई है। शायद इसीलिए कि मराठी और हिंदी भाषियों की डोर दोनों को बांधे रहेगी। पराडकर जी ने हिंदी पत्रकारिता को परवान चढ़ाया। दरअसल हिंदी के समर्थक अहिंदी भाषी ही रहे, गांधी, तिलक, और स्वामी दयानंद से लेकर पराडकर जी तक। इस बार अंग्रेज़ी में शपथ ली गई तो मनसा के गुंडे कहूं या महान प्रदेश भक्त क्यों नहीं बोले, क्या वह मराठी की सगी थी? संस्कृत में ली गई। वह मराठी नहीं थी। सिर्फ हिंदी से ऐसी क्या दुश्मनी थी कि मनसा के सदस्यों ने सम्मानित राजनीति पार्टी के सम्मानित सदस्य को पीटा। राज ठाकरे जी , मैं आपके नाम के आगे जी इस लिए लगा रहा हूं कि आप एक पार्टी के नेता हैं। नहीं तो शायद नाम भी न लेता। मराठी गुंडा कहना मुझे गवारा नहीं हुआ। आप आइए उत्तर प्रदेश में देखिए मराठी कितने सम्मान के साथ रखे जाते हैं। शिक्षा संस्थाओं में अध्यापक ही नहीं प्रचार्य भी बड़ी संख्यां में हैं। इसलिए नहीं के बहुत योग्य हैं बल्कि इसलिए स्थानीय लोगों के साथ वे घुल मिल गए हैं। आई आई टी कानपुर के पहले निदेशक मराठी थे। उन्होंने उन लोगों के अधिकार को नज़रअंदाज़ करके जिनकी ज़मीने आई आई टी बसाने के लिए ली गई थीं, मराठियों का नौकरियांदीं। लेकिन कभी स्थानीय लोगों ने उफ़ नहीं की। आपके यहां जब टैक्सी चलीं तो उच्च वर्गीय मराठियों को स्वयं चलाना गवारा नहीं हुआ। वे उत्तर भारत से ड्राइवर ले गए। जब उन्होंने स्वयं अपनी बना ली तो मुंबई के मानुस की भृकुटि तन गई। आजकल आई आई टी कानपुर के निदेशक भी मराठी हैं। यही नहीं दूसरी बार हुए हैं। रजिस्ट्रार भी मराठी मानुस है। लेकिन किसी के ज़ायके में कोई फ़र्क नहीं। अगर आपकी तरह सोचने लगें तो इतने बड़े बड़े पदों पर बैठे लोग कैसा अनुभव करेंगे। यही दूसरे प्रदेशों में भी होगा। हिंदुस्तान मानवीय रिश्तों का सम्मान करना जानता है। उत्तर भारत तो ख़ासतौर से। दक्षिण और देश के अन्य भागों में विज्ञान की पी जी स्तर की शिक्षा की कम संस्थाएं थीं। सब जगह से बच्चे कानपुर लखनऊ आदि बड़े शहरों में पढ़ने आते थे। यही मेडिकल शिक्षा की स्थिति थी। कभी किसी ने न भाषा का सवाल उठाया और न परदेसी होने का, जो आप उठा रहे हैं। श्रीमन्, आप नहीं जानते, जानते हैं तो समझना नहीं चाहते कि देश को अलगाववाद की किस आग में झोंक रहे हैं। राजनीतिज्ञ तो अपनी रोटी सेक लेता है आम आदमी का चूल्हा भी नहीं सुलगता। अब ऐसा लगने लगा है कि राजनीतिज्ञों से बड़े स्वार्थी इन्द्र भी नहीं। क्षमा करें गांधी ने तो संसद को ही वेश्या बताया था हमारे राजनीतिज्ञों ने तो जनतंत्र को भी उसी पैराय पर ला खड़ा किया। जिन्ना ने पूर्वी बंगाल में उनकी भाषा को पशेमान किया था। बंगला-वंगला कुछ नहीं उर्दू सब कुछ है। राज साहब भी उसी रास्ते पर हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा वह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन मनसा ने यह सोचे समझे बिना चिंगारी फेंक दी कि जो तरह देंगे वे तक हाथ जला बैठेंगे। तटस्थ रहेंगे तो मौजे ए तलातुम उनको भी नहीं बक्शेगी।<br />ईस्ट इंडिया द्वारा पेशवाओं को पुणे से निकाल दिए जाने पर उत्तर भारत ने ही उनकी पेशवाई की इज़्जत बचाई थी। उत्तर भारत के लोगों ने ही उनका साथ दिया था। आज भी बिठुर के खंडहर पेशावाओं पर गोरों के प्रकोप की गवाही दे रहे हैं। वहीं उन सबकी याद को नानाराव पार्क, मैसेकर घाट यानी नानाराव घाट, तात्या टोपे के स्मारक उनका परिवार उन सबकी याद ताज़ा कराते हैं। वे माहराष्ट्र से अधिक उत्तर भारत के पुरखे हैं। कई मराठी धुलेकर जी आदि सम्मानीय जननेता रहे हैं। वे सब मराठी भी बोलते थे हिंदी भी बोलते थे। आज भी उत्तर भात में रहने वाले मराठी दोनों भाषाएं बोलते हैं। कोई नहीं कहता हिन्दी ही बोलिए। वे सम्मान से ही नहीं रह रहे रोज़ीरोटी भी कमा रहे हैं। महाराष्ट्र में रहने वाले उत्तर भारतीयों की तरह उन पर किसी तरह की न बंदिश है न संकट है। न होना चाहिए। बाल ठाकरे का यह इलज़ाम कि अब्बु आज़मी को हिंदी में शपथ लेने से रोका नहीं गया निहायत अपरिपक्व है। लगता है कि वाक़ई खून पानी से अधिक गाढ़ा होता है। भतीजे और भाषा का पक्ष लेना संविधान के सम्मान से अधिक ज़रूरी है। ताज्जुब की बात है कि अंग्रेज़ी में शपथ लेनेवालों के लिए इस वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने कुछ नहीं कहा कि उससे महाराष्ट्र और मराठी की अवमानना नहीं हुई, शायद सम्मान बढ़ा। जिन पेशावाओं को अंग्रेज़ों ने बेइज़्जत किया हिंदी वालों ने उनका साथ दिया वह हिंदी शिवसेना और मनसा की दुश्मन है और अंग्रेज़ी सगी। भाषा कोई गैर नहीं होती न उसके प्रवाह को रोका जा सकता है। ठाकरे साहबान, इंसान से अधिक भाषाएं आपस में लेन देन करती हैं। हम जितने संकुचित और छोटे दिलों के हैं भाषाएं कहीं ज्यादा फ़राख़दिल हैं। एक ज़माना था जब ब्रिटिश संसद में अंग्रेज़ी बोलने वालों पर मनसा की तरह फ्रांसिसी भाषा प्रेमी मनसा की तरह आक्रमण करके हाथ पैर तोड़ देते थे। लेकिन क्या वे अंग्रेज़ी का कुछ बिगाड़ पाए। भाषा अपना रास्ता बनाने के साथ साथ अपने रास्ते के अवरोध भी स्वयं हटाती है। हिंदी भी यही कर रही है अपनी बहनों का सम्मान रखते हुए आगे बढ़ रही है। हिंदी का लिपि के कारण दामन चोली का साथ है। दामन उतारोगे तो बेपर्दगी होगी, चोली उतारोगे तो शर्मज़दा होगे।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-87162287404011661652009-11-06T06:58:00.000-08:002009-11-06T07:00:53.594-08:00प्रभाष जोशी हिंदी के अंतिम समर्पित सेनानीआज सवेरे हिंदुस्तान दैनिक के पहले पृष्ठ पर सूचना देखी तो सन्न रह गया प्रभाष जी चुपके से निकल गए। मुझसे एक साल छोटे थे। पहले मैं उन्हें अपने से बड़ा ही समझता था। जब यह राज़ खुला कि मैं उनसे एक साल बड़ा हूं तो वे बोले अब मैं तुम्हें प्रणाम किया करूंगा। इस बात को उन्होंने कुछ दिन पहले तक निभाया। हिंद स्वराज पर मेरी पुस्तक सस्ता साहित्य मंडल से आई तो मैंनें उन्हें बताने के लिए फ़ोन किया तो उन्होंने प्रणाम करने वाली रिवायत को निभाया। जब वे प्रणाम कहते थे मुझे संकोच होता था। मैंने बेकार ही बताया कि मैं उनसे एक साल बड़ा हूं। दरअसल पहला गिरिमिटिया पर जनसत्ता में बहुत उन्होंने आत्मीय ढंग से समृद्ध लेख लिखा था। लेकिन दलित विमर्श-संदर्भ गांधी पढ़कर स्पष्ट कहा था दलित विमर्श के लिए गांधी को जस्टिफ़िकेशन की ज़रूरत नहीं है। उनमें साफ़ कहने की अद्भुत शक्ति थी। उन्होंने सोनिया गांधी को हिंद स्वराज पढ़ने की सलाह दी थी। <br />मेरी उनसे तब मुलाकात हुई थी जब वे अज्ञेय जी के साथ एवरीमेन में काम करते थे। जहां तक मुझे याद है तब वे बुशर्ट पैंट भी पहनते थे। बाद में उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखना पढ़ना लगभग छोड़ दिया। दूसरी बार मैं उनसे राजेन्द्र यादव के साथ इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग में मिला था। उन्होंने लिखी कागद कोरे की प्रति भी भेंट की थी। हालांकि उन दिनों मैं फ्री लेंसिंग कर रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा ‘आप कहानी उपन्यास के सिवाय भी कुछ और लिखते हैं?’<br />मैंने कहा ‘नाटक भी लिख लेता हूं।‘<br />‘नहीं, मेरा मतलब है अखबारं के लिए भी लिखते हैं।‘ मैंने गर्दन हिला दी। वे चुप रहकर बोले।<br />‘आपके मित्र तो बड़े लेखक हैं। इन्हें तो जनरलिस्टिक लेखन छोटा काम लगता है। लेकिन एक लेखक को समसामयिक विषयों पर ज़रूर लिखना चाहिए। इससे एक तो अपने सरोकारों का पता चलता है दूसरे देश की हालत और समस्याओं से दो चार होने का अवसर मिलता है।‘ यह बात मुझे रघुवीर सहाय भी कहते थे। लेकिन जिस तरह उन्होंने कहा उसमें एक तरह की पकड़ थी। हो सकता उसके पीछे यह भी मंशा रही हो कि यह आदमी फ्री लेंसिग कर रहा है अगर यह अखबारों मे लिखेगा तो आर्थिक मदद भी मिल जाएगी। या केवल एक लेखक को जरनेलिस्टिक लेखन की तरफ़ आकर्षित करने का तरीका था। मेरे मामा 1920 में जब आक्सफोर्ड लंदन से एम ए करके आए तो गांधी जी का संदेश मिला। बापू बंबई में ही थे। वे उनसे मिलने गए। बापू ने सीधे सवाल किया ‘तुम आज़ादी से सरोकार रखते हो या गुलामी की सुख सुविधा से?’<br />वे कुछ देर समझ नहीं पाए सवाल का मर्म क्या है। बापू काम करते रहे। कुछ देर बाद पूछा क्या सोचा। उनके मुहं से अनायास निकला –आज़ादी। हालंकि इन दोनों घटनाओं में कोई साम्य नहीं था। लेकिन एकाएक उस घटना का ध्यान आ गया था, पर मैं बोला नहीं। कुछ महीने बाद जब मैं उनसे मिलने गया तो वे बोले आपने क्या सोचा। मैंने एक लेख निकालकर उनके सामने रख दिया। जहां तक मुझे याद है वह भाषा के संदर्भ में था। उन्होंने अल्टा पल्टा और पी ए को बुलाकर कहा यह जाएगा। किसी काम का इतना जल्दी नतीजा पहली बार मिला था। हो सकता है यह उनका प्रोत्साहित करने का तरीका रहा हो। <br />प्रभाष जी ने चंद दिनों पहले मुझसे फ़ोन पर कहा था। मैंने कलकत्ता संस्कृति संसद वालों से कहा है कि जब पहला गिरमिटिया जैसे बड़े उपन्यास के लेखक आ रहे हैं तो 15 नवंबर को होने वाले हिंद स्वराज की गोष्ठी की वही अध्यक्षता करेंगे। कुछ ही देर बाद सचिव रत्नशाह जी का फ़ोन आ गया। हम भले ही कम मिलते हों पर उन्हें सदा गांधी के संदर्भ में मेरी याद रहती थी। जब मेरा उपन्यास छपा तो उन्होंने मुझे फ़ोन किया आपको पटना चलना है और गिरमिटिया पर बोलना है। मैं दिल्ली से आऊंगा आप कानपुर अमुक गाड़ी पर मिलें। मैं जाम के कारण वक्त के वक्त स्टेशन पहुंचा। वे इंतज़ार में टहल रहे थे। बिस्तर लगा तैयार था। जैसी आडियंस वहां मिली वैसी कहीं और नहीं मिली। शिवानंद जी तो थे ही। लालू जी से भी पहली बार उन्होंने ही भेंट कराई। मुझे विचित्र अनुभव हो रहा है हिंदी और गांधी के प्रति समर्पित ऐसा जुझारू योद्धा अब कौन मिलेगा। उनके दम से मुझे दम था। कोई पत्रकार आज हिंदी में ऐसा नहीं जो हिंदी के सवाल को जन्म मरण का सवाल समझता हो। अधिकतर हिंदी के पत्रकार हिंग्लिश के पत्रकार हैं। उन्हीं का दम था कि जनसत्ता को उन्होंने हिंदी का शीर्ष पत्र बना दिया था। आज भी हिंदी के अख़बारों में जनसत्ता को ही बौद्धिक सम्मान प्राप्त है। यह ठीक है कि तीसरे नंबर पर वे क्रिकेट के शैदाई थे। उन्होंने जनसत्ता के बाद कोई दूसरा अखबार नहीं पकड़ा। यही खेल के साथ हुआ। खेलों में क्रिकेट ही उनका पहला प्यार बना रहा। जब गए तो अपने प्रिय खेल देख रहे थे। मैं समझ सकता हूं कि सचिन के इतने बड़े स्कोर पर वे कितने ख़ुश होंगे लकिन 3 रन से हारना कितना बड़ा धक्का रहा होगा। शायद अपने प्रिय खेल और देश के लिए इतना बड़ा बलिदान इतने बड़े पत्रकार ने शायद ही कभी दिया हो।<br />एक घटना मुझे इस समय फिर याद आ रही है। सूरीनाम भारत सरकार का प्रतिनिधि मंडल जाने वाला था। विदेश मंत्रालय से नाम प्रस्तावित होकर पी एम ओ भेजे गए। उसमें जोशी जी का और मेरा भी नाम था। उन्हीं दिनों मैंने जनसत्ता में इस बात का सख्त शब्दों में खंडन किया था कि मैं आचार्य गिरिराज किशोर नहीं हूं। लोग कई बार मुझे वी एच पी का नेता समझकर पत्र लिखते थे। परिचय देते हुए नाम से पहले आचार्य लगा देते थे। सांप्रदायिकता के प्रतीक व्यक्ति से मेरा नाम जोड़ना मेरे लिए अपमानजनक था। शायद प्रधानमंत्री हाऊस में उस बात को पढ़ लिया गया था। फ़ाइल लौटी तो मेरे और जोशी जी के नाम पर फ़ाइल में निशान लगा था। राज्यमंत्री विदेश ने पीएम से जाकर कहा कि जोशी जी इतने बड़े पत्रकार और गिरिराज किशोर ने गांधी जी पर पहला गिरमिटिया जैसा उपन्यास लिखा है। प्रधानमंत्री ने सदाशयता दिखाई और दिग्विजय सिहं जी की बात मान ली। दरअसल जोशी जी ने अपनी राय के साथ कभी धोखा नहीं किया। वे निडर होकर बी जे पी नीतियों के खिलाफ़ बोलते रहे। इतना बड़ा पत्रकार क्या राज्यसभा में जाने योग्य नहीं थे। लेकिन पार्टियां सरकार में रहीं और गिरीं पर किसी को न हिंदी का धयान आया और न जोशी जीजैसे निर्भीक पत्रकार का।<br />मैंने समाचार पढ़कर उनके सहयोगी रहे प्रताप सोमवंशी को फ़ोन करके पूछा दाह संस्कार कब होगा उन्होंने बताया कि उनका शरीर इंदौर ले जाया जा रहा है। ख़ामोश हो जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। वे अपना काम पूरा करके घर लौट रहे थे। मैंने मन ही मन प्रणाम कर लिया।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-44846517388146227362009-11-05T03:35:00.000-08:002009-11-05T03:40:02.980-08:00अपणी ढोणीराजस्थानी के लिए तो समझना कठिन नहीं है कि अपणी ढोणी क्या है। लेकिन बिना देखे और जाने किसी दूसरे प्रदेश वासी के लिए शायद आसान न हो। किसी भी प्रदेश के रहने वाले क्यों न हों, हम लोग अपनी ग्रामीण संस्कृति की न शब्दावली से रले मिले रहे और न जीवन से। बस सुने सुनाए नाम याद रह गए हों तो बात अलग है। लेकिन उनका नाता आम आदमी से क्या है, संवेदना से क्या है, उसकी अर्थवत्ता क्या है यह सब समझना आसान नहीं है। किसी भी शब्द के अर्थ से तब तक समरसता नहीं होती जब तक जीवन में उसका उपयोग न हो और संवेदना से रिश्ता न बने। यह बात इस बार संगमन के कार्यक्रम मे उदयपुर गए तो समझ में आई। मेरे मेज़बान, संबंधी तथा मेडिकल कालेज के बालरोग विभाग के अध्यक्ष डा ए पी गुप्ता ने अंतिम दिन कहा कि आज बाहर खाना खाया जाए। कहां? वे बोले एक ऐसी जगह जो आपने पहले कभी देखी नहीं होगी। मैंने कहा इस बात का ध्यान रखिएगा मैं और मेरी पत्नी पूरी तरह निरामिष हैं। वे दोनों स्वयं भी निरामिष हैं। इसीलिए अपणी ढोणी ले चल रहे हैं। वहां प्याज़ और लहसुन का प्रयोग भी कम प्रयोग होता है। यह नाम एकाएक समझ में नहीं आया। जब उन्होंने बताया इसका मतलब है अपनी झोपड़ी या कुटिया। भोजनालयों के अंगीठी, रसोई, साझाचूल्हा आदि नाम तो हमारी तरफ़ चलते थे। यह नया नाम था। वह ढोणी शहर से दूरी पर एक पहाड़ी पर थी। एकदम ऊबड़ खाबड, गांव का सा वातावरण। कार एक तरफ़ खड़ी की। थोड़ी दूर एक गेट था जिस पर बंदनवारें लटकी थी। ढोल बज रहा था। गेट पर एक आदमी पगड़ी वगड़ी बांधे राजस्थानी धोती पहने अंदर जाने वालों के तिलक लगाकर स्वागत कर रह था। उसकी थाली में लोग रूपये डाल देते थे। चढ़ाई के बाद ऊपर पहुंचे। वहां खाटें बिछीं थी। कुर्सियां भी थीं। राजस्थानी लोकगीत पर एक महिला ग्रामीण नृत्य कर रही थी। छाछ और पापड़ अतिथियों को पेश किया जा रहा था। एक छोटी ढोनी जादूगरी की थी। कहीं कपुतली का नाच हो रहा था। ऊंट की सवारी का इंतज़ाम था। यानी पूरा देहाती मेले का तामझाम था।तभी बारिश होने लगी।जिसको जहां जग मिली घुस गया। जादू की ढोनी जो ठंडी पड़ी थी गर्मा गई। जादूगर ने एक के तीन कबूतर बना दिए। बोला हाथ की सफ़ाई, पेट की कमाई।<br />असली बात थी जिम्मन की। ज़मीन में पटोरे बिछे थे। सामने चौकियां लगी थीं। हर जाति, धर्म का आदमी उस पंगत में मौजूद था। सब लोग खुशी से सजे बैठे थे। मैं सोच रहा था। हम लोग कितने आधुनिक हो गए। इन रवायतों को भूल गए। इसीलिए उसकी पुनर्प्रस्तुति का आयोजन करके कितने ख़ुश होते हैं। कई राजस्थानी टहलुए खाना परस रहे थे। लग रहा था जैसे किसी ब्याह शादी की पंगत हो। गट्टे की सब्ज़ी, पनीर, आलू, रायता दाल घी, बाटी, ताज़ा निकला मक्खन, गुड़ मक्का बाजरे की रोटी। यानी सब राजस्थानी ठाठ में रचे बसे थे। हालांकि छोटे स्तर पर ऐसा देहाती आयोजन कभी कभार परिवारों में भी किया जा सकता है। लकिन सब क्या, अधिकतर घरों में, डायनिंग टेबिल स्थायी रूप से थिर हो गई। उसे कौन खिसका सकता है। सब से महत्त्वपूर्ण था मनुहार का कार्यक्रम। पहले एक बार गर्म गर्म जलेबी परसी गई। फिर एक आदमी आया। उसके हाथ मेंजलेबी से भरी थाली थी। वह सबको अपनी तरफ़ से नाम देता जा रहा था और सीधे मुहं में जलेबी रखता जा रहा था। एक के बाद एक जब तक वह मुंह ही न फेर ले। वह मुंह में जलेबी रखता जाता था कहता जाता था वाह जी राम नारायण, एक राम के नाम की। महिला हुई तो ज़नाना नाम, मुसलमान हुआ तो कहता हां जी हमीदा बीबी। सब पंगत हंस हंस कर लोटपोट थी। उसके हाथ से जलेबी खाने और अपना नया नामकरण कराने में हर किसी को मज़ा आ रहा था।<br />सबसे बड़ी बात हिंदू, मुसलमान, ईसाई, ब्राह्मण, और अन्य जाति सब उसके ही हाथ से बिना भेद भाव के खा रहे थे। तबसे मेरे दिमाग में यह सवाल घूम रहा है गांव के एक प्रायोजित वातावरण में इन स्थितियों में हम फूले नहीं समाते लेकिन इस आत्मीयता को ज़िंदगी की वास्तविकता बना लेने में हमें गुरेज़ है। गांव हमारे लिए सपने की चीज़ हो गई। मसनूई गांव बनाकर उसमें कुछ समय जीना हमें तरोताज़ा कर देता है। वाह जी वाह!गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-9433234852334198382009-09-09T23:05:00.000-07:002009-09-09T23:07:15.000-07:00हिंदी राजभाषा होने का अर्थमैं यह कह सकता हूं और कहना भी चाहता हूं कि हिंदी का राजभाषा होना हमारे लिए सम्मान की बात है पर चाह कर भी कह नहीं पाता। ‘राजभाषा’ नेहरू सरकार द्वारा हिंदी के धंधेबाज़ों को दिया गया स्वर्ण खिलौना है। हिंदी के लिए राजभाषा नाम उस वक्त निर्मित यानी कॉयन किया था जब उसे राष्ट्रभाषा बनाने की जद्दोजहद जारी थी। यह काम किसी हिंदी वाले ने ही किया होगा सरकार की नज़रों में चढ़ने के लिए। क्योंकि अंग्रेज़ी पोषित भारतीय विद्वानों के लिए तो यह संभव नहीं था। उन्होंने तो ‘स्टेट लेंग्वेज’ की तरह अधकचरा अंग्रेज़ी पर्याय सूझ रहा होगा, उन सज्जन ने उसे हिंदी में तबदील कर दिया होगा। क्योंकि मेरे अल्पज्ञान के अनुसार तो संसार भर में उस समय हर देश की भाषा को नेशनल लैंग्वेज यानी राष्ट्रभाषा ही कहा जाता था। किसी देश में राज भाषा वाली स्थिति शायद ही रही हो। हमारे देश में हिंदी को राष्ट्र भाषा के नाम से संबोधित करना कुफ़्र तोलने की तरह था। बीच का रास्ता राजभाषा ही हो सकता था। यह ऐसा ही था जैसे पटेल बहुमत के बावजूद प्रधानमंत्री नहीं बन सके तो उन्हें उप-प्रधानमंत्री बना दिया गया। राजभाषा से क्या भाषा का विकास हुआ? भाषा को राजसम्मत नाम देकर उसका गौरव कभी नहीं बढ़ता। भाषा का संवर्धन साहित्य में प्रयुक्त उन ध्वनियों से होता है जो शब्द विभिन्न स्रोतों से आकर समाहित होते हैं। यह तभी संभव है जब किसी भाषा की स्वायत्तता एक ईकाई की तरह अक्षुण्य हो। राजभाषा और हिंदी भाषा का विचित्र समीकरण है। राजाभाषा की सरकारी कार्यालयों में सीमित भूमिका है जैसे 1. हिंदी भाषी राज्यों के अंग्रेज़ी न जानने वाली जनता के लिए अंग्रेज़ी की प्रामाणिक मानी जाने वाली दस्तावेज़ों/ शासनादेशों का अनुवाद करके लोगों तक पहुंचाना। लिखा है कि प्रामाणिक दस्तावेज़ अंग्रेज़ी की ही मानी जाएगी। 2.दफ़तरों में हिंदी उपस्कर यानी टंकनक, शब्द कोषों और टेककों का होना सुनिशचित करना। अब उसमें कंप्यूटर भी जुड़ गया। राष्ट्र स्तर पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में निर्मित राजभाषा सलाहाकार समिति के सदस्य देश भर में सरकारी खर्च पर घूम घूमकर देखेंगे कि राजभाषा का काम सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं। 3. हिंदी निदेशालय हिंदी का प्रचार प्रसार देखेगा। 4. तकनीकी शब्दवली आयोग शब्दकोष बनाएगा जो अधिकतर कार्यालयों के बुकशेल्फ़ों में शोभायमान रहेगा आदि।<br />गांधी जी ने हिंद स्वराज के 18वें अध्याय में 100 साल पहले एक महत्त्वपूर्ण वाक्य लिखा था ‘सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए , वह हिंदी ही होगी।‘ इस वाक्य का राजभाषा एक फूहड़ मज़ाक है। आज़ादी के बाद बकौल इतिहासकार रामचंद्र गूहा के इस सबसे समझदार आदमी की बातों को रद्दी की टोकरी में, चाहे ग्रामो उत्थान की बात हो या हिंदी की उनके अनुयाइयों की सरकार ने ही फेंका। इस काम में उस समय के हिंदी के अलंबारदार भी अपनी चुप्पी के साथ शरीक थे। हिंद स्वराज के 20वें अध्याय में उन्होंने अंग्रेज़ों को यह कहकर ललकारा था भारत की भाषा अंग्रेज़ी नहीं है, हिंदी है। वह आपको सीखनी पड़ेगी। और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे। हुआ उलटा, ललकार भारतियों पर ही लागू कर दी गई। भारत को सब भाषाएं भूलकर अंग्रेज़ीमय होना होगा। सरकार अंग्रेज़ी में ही काम करेगी। हुकूमत का उद्देश्य पूरा हुआ। जब पंद्रह पंद्रह साल की अवधि बढ़ाकर हिंदी को ही संपर्क भाषा बनाने का मसला टाला जा रहा था तो डा लोहिया ने कहा था ज़िंदा कौमें इंतज़ार नहीं करतीं। गांधी की तरह उनकी बात भी देश ने इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दी। ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे। उल्टे नमाज़ की जगह रोज़े गले पड़ गए। राज भाषा बनाकर, जिस हिंदी को आज़ादी के दौरान पूरा देश प्यार करता था उसी हिंदी के लिए दूसरी भाषाओं के दिलों में साज़िशन ज़हर भर दिया गया। अंग्रेज़ी जीत गई या जिता दी गई। काश हिंदीवालों ने सोचा होता कि राजभाषा का यह टुकड़ा गले मे ऐसा फंसेगा न निकालते बनेगा न सटकते। वही स्थिति हिंदी की हुई कि जैसी सत्ता के लालच में बंटवारा मानकर आज देश चारों तरफ़ से घिर गया। भाई भी दुश्मन हो गए। अब भी वक्त है कह सको तो कह दो राजभाषा का पद जिसको देना हो दे दो हमें हमारा मोहब्बत प्यार लौटा दो।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-88007152030759316922009-08-24T04:47:00.001-07:002009-08-24T04:50:50.328-07:00असहमति सहमति का नाज़ुक फ़ंडायह सवाल विचारकों और लेखकों के लिए परेशान करने वाला है। कैंसरवार्ड के लेखक सालझेनित्सिन को इसलिए साइबेरिया भेज दिया गया था कि सोवियतसंघ की सरकार उनके मत से असहमत थी। यह तो मान लिया कि वह सरकार तानाशाहनुमा सरकार थी। लेकिन हिंदुस्तान एक जनतंत्र है। ऐसा जनतंत्र, जहां सामान्य आदमी को भी अपनी राय बिना लाग लपेट के अभिव्यक्त करने की आज़ादी है। इसका लाभ सबसे अधिक रा. स्वं. सं. और बीजेपी उठाते रहें। गांधी जी जीवित थे तो आर एस एस और साम्यवादी सबसे अधिक उन्हें कोसते थे। आर आर एस वाले पागल बुड्ढा कहते थे। हर शहर में उनका सालाना जलसा होता था। उसमें पद संचालन और लाठी संचालन आदि खेल होते थे। मुख्य अतिथि संचालक आदि ओहदेदार होते थे। सबसे अधिक संस्कृत निष्ठ गालियां देने का खेल गांधी जी के माध्यम से खेला जाता था। यहां तक हिंदूवादी समुदायों की साजि़श से ही उन्हें गोली भी मारी गई। यह सब जनतंत्र का फ़ायदा उठाकर किया गया। अगर स्टालिन या हिटलर का निज़ाम होता तो न जाने क्या हुआ होता। अंग्रे़ज़ों ने बहुत ज़्यादतियां कीं लेकिन अभिव्यक्ति की स्वत्रंता को यथासंभव महत्त्व वे भी देने की कोशिश करते थे। कितना दे पाते थे यह अलग है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माडल वहीं से लिया गया है। आज भी गांधी जी को राष्ट्रपिता मानने में सबसे अधिक आपत्ति उन्हें ही है। मुस्लमान वंदेमातरम नहीं गाते उसे वे अपने धर्म के ख़िलाफ़ मानते हैं। लेकिन बी जे पी उनकी मातृ संस्था आर एस एस जो धर्म को सर्वोपरि मानते हैं, इस बात को देशद्रोह करार देने पर आमादा रहते हैं। सवाल उठता है किसकी असहिष्णुता जनतांत्रिक सीमा के अंदर है, किसकी तनाशाही की सीमा में प्रवेश कर जाती है। वह सीमा क्या है? शायद यह किसी को मालूम नहीं हर व्यक्ति, नेता और पार्टीयां विकेटस को दूसरे को आउट करने के लिए, अपने हिसाब से इधर उधर सरकाती रहती हैं।<br />एक ही घर में स्वत्रंत्रता के कई पैमाने हों तो उस घर की आंतरिक आज़ादी और शांति का ख़तरे में पड़ जाना अवश्यंभावी है। जब तक डंडा है तब तक सब चुप हैं जैसे ही डंडा कमज़ोर हुआ वैसे ही घर सड़क बनी। बी जे पी के अध्यक्ष अडवानी पाकिस्तान एक हाजी की तरह गए थे। ख़ासतौर से जिन्ना साहब के मकबरे की ज़ियारत करने। वैसे तो राजा रंजीतसिंह की समाधि भी पाकिस्तान में ही थी। वहां उन्होंने जो भाखा था उसने तो इतिहास का रुख़ ही बदल दिया था। जिन्ना को विश्व का सबसे चमत्कारी व्यक्ति पुरूष बना दिया जिसने एक नया देश एक टाइपराइटर और टाइपिस्ट के ज़रिए बना दिया। सांप्रदायिकता की बात यह कहते हुए उन्हें ाद नहीं आई। जिन्ना साहब को सेकुलर बताते हुए अडवानी साहब को भी ध्यान नहीं आया कि उनकी पार्टी का बुनियादी सिद्धान्त है एक जन, एक संस्कृति और एक राष्ट्र। उसी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा रही है।<br />उस पुस्तक में जो लिखा वह तो चिंतन की ऐसी पर्त खोल रही थी उसे पढ़कर लगता है गंगा दास जमुना दास होकर आए हैं। देश में आए तो सबसे ज़्यादा बी जे पी के लोग उनके खिलाफ़ मुखर थे। लेकिन समरथ को नहीं दोस गुसांई। बाद में बी जे पी नेतृत्व ने रास्ता निकाल लिया ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। किसी को बचाना हो तिनका भी पतवार बन जाता है। जब डुबाना हो तो किनारा भी मझधार बन जाता है। दरअसल जिन्ना बटवारे के लिए ज़िम्मेदार हैं या नेहरू और पटेल, सवाल इस बात का नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि बटवारे की नींव तो वीर सावरकर ने डाल दी थी। आर एस एस उनका परम समर्थक था। साथ ही आर एस एस मुस्लिमों के खिलाफ़ था। उनका मुसलमानों के खिलाफ़ होना वीर सावरकर की टू नेशन्स थ्योरी का ही विस्तार था। उसके बाद जिन्ना ने टू नेशन्स थ्योरी की बात उठाई। दरअसल आर एस एस तो अखंड भारत की बात करता था लेकिन मुसलमानों को हिकारत की दृष्टि से देखता था। प्रकारंतर से मुसलमानों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा कर रहा था वे इधर जाएं या उधर। उधर जाएंगे तो उन्हें एक मुल्क चाहिए। यहां रहें तो आर एस एस की शर्तों पर रहें। दोनों ही बातें जोखिम भरी थीं। अखंड भारत तभी संभव था जब देश में एक दूसरे के लिए सहिष्णुता का वातावरण हो। जो 1916 में तिलक जी और जिन्ना के प्रयत्नों से बना था। दिलों में गुंजायश हो तो सब संभव है। गांधी हृदय परिवर्तन की बात कहते थे। लेकिन आर एस एस देश में मुसलमानों के लिए इस तरह का वातावरण बनाने के पक्ष में नहीं थी इसी बात को लेकर उनका गांधीजी से मतभेद था। यह कहना शायद ठीक न लगे कि वे लोग प्रकांतर से बटवारे को प्रोत्साहित कर रहे थे। हिंदू पार्टियों के दबाव में 1857 में अंग्रज़ों के खिलाफ़ जो हिंदू मुस्लिम एकता बनी थी उसमें दरार उन्होंने ही पैदा की।<br />जहां तक जिन्ना का सवाल है वे एक सेकुलर से कट्टर मुस्लिम नेता कैसे बने इस बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर नज़र डालना ज़रूरी है। उस पीढ़ी के जीवन काल में दो विश्वयुद्ध हो चुके थे। उसका नतीजा हुआ था कि विश्व भर मे नए राष्ट्रों की बाहुलता हुई थी। राजशाही का स्थान सर्वसत्तावाद यानी टोटलिटेरियनिज्म ने लेना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान उन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों की देन भी था। जिन्ना वैसे भी एक बहु-आकांक्षी व्यक्ति होने के साथ साथ समय की चाल को पहचानने में अपना सानी नहीं रखते थे। उन्होंने समय की नब्ज़ को समझा। वे समझ गए थे कि अपनी पहचान के लिए उन्हे विश्व में हो रहे परिवर्तन का लाभ उठाना चाहिए। हिंदूबाहुल देश में सम्मान भले ही पा लें पर एक स्वतंत्र के मुखिया नहीं बन सकते। गांधी ने बटवारे को रोकने के लिए जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था जिसका नेहरू और पटेल ने यह कहकर विरोध किया था कि आप देश की आज़ादी चाहते हैं या सिविल वार। यह ठीक है कि हिंदूवादी शक्तियां और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ सिविल वार की स्थितियां उत्पन्न कर देते। शायद वे बटवारे जितनी भयावह न होतीं। गांधी के इस प्रस्ताव का मर्म सत्ता के आकर्षण से विरक्त होकर ही समझा जा सकता था। इस प्रस्ताव का दूरगामी प्रभाव होता। देश बटने से बच जाता। हिंदूवादी ताकतों का अखंड भारत बनाने का सपना मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बिना भेदभाव के पूरा होने की संभावना हो सकती थी। शायद गांधी की हत्या भी न होती। जहां तक पटेल का सवाल है वे गांधी भक्त थे। गांधी का हत्यारा गोडसे आर एस एस का सदस्य रह चुका था। वीर सावरकर गोडसे उसके मेन्टर, आर एस एस के आईकन थे। पटेल ने उनकी हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया था। अडवानी का यह कहना भ्रामक है कि नेहरू के दबाव में पटेल ने ऐसा किया। यह आश्चर्य की बात है कि अपने को लौहपुरूष कहलाने वाला व्यक्ति वास्तविक लौहपुरूष की यह कह कर अवमानना करता है कि वह दूसरे व्यक्ति के दबाव में अपनी मान्यता के विरुद्ध काम करेगा। यहां मैं दो वामपथीं इतिहासकारों को उद्धृत करना चाहूंगा। विपिनचंद्रा ने 22 अगस्त 09 के द हिंदू में कहा है कि यह कहना कि पटेल ने नेहरू के कहने पर ऐसा किया उनको बदनाम करना है। पटेल अपने मत और अंतरआत्मा के विरुद्ध कुछ भी करने वाले नहीं थे। इसी तरह इरफ़ान हबीब साहब ने द हिंदू में कहा है ‘मैंने गोलवलकर और पटेल के बीच हुई ख़तोकिताबत पढ़ी है। हालांकि उन्होंने आर एस एस को गांधी जी की हत्या के लिए दोषी नहीं माना लेकिन उन्होंने उसे सांप्रदायिक वातावरण बनाने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया जिसके कारण गाधी जी की हत्या हुई। उस पत्रव्यवहार में आर एस एस की हिंसक राजनीति के खिलाफ़ पटेल का रुख़ स्पष्ट है।‘ (उपरोक्त दोनो अंश उन दोनों विद्वानों के कथन का भावार्थ है)।<br /> बाद में उस प्रतिबंध को पटेल ने तभी हटाया जब आर एस एस के नेतृत्व ने लिखित आश्वासन दिया कि वे सांस्कृतिक संस्था के रूप मे कार्य करेंगे राजनीति में भाग नहीं लेंगे। यह पटेल की दूरअंदेश कूटनीति का प्रमाण है। मैं इस विमर्श को यह कहकर यहीं छोड़ता हूं कि आर एस एस एक तरह से मिलिटेंट शक्ति के रूप में उभर रहा था उसको सांस्कृतिक संस्था का रूप देकर उन्होंने हिंदू मुस्लिम संघर्षों की संभावनाओं पर काफ़ी हद तक विराम लगा दिया। जहां तक जसवंत सिहं की पुस्तक का सवाल है उसके खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही सिद्धान्त आधारित इतनी नहीं जितना प्रभावशाली नेताओं का पार्टी के कोर सिद्धान्त की आड़ में व्यक्तिगत हिसाब निबटाने का प्रयास है। लोग जल्दी भूल जाते हैं अडवानी जी ने अपन पुस्तक में लिखा है कि जसवंत सिहं द्वारा आतंकवादियों को काबुल छोड़कर आने के बार में उन्हें मालूम नहीं था। गृहमंत्री की मर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना क्या जसवंत सिहं छापा मारकर आतंकवादियों को ले गए थे। लौहपुरुश चुप रहा। उसी समय जसवंत सिंह ने इस बात का प्रतिवाद किया था। अडवानी जी ने जहां तक मुझे याद है स्वीकार किया था मुझे याद नहीं रहा । बाद में क्या पुस्तक में इस तथ्यात्मक भूल को सुधारा? शायद नहीं। इसका मतलब पुस्तक में लिखा यह तथ्य इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री को तानाशाह और विदेश मंत्री को उनकी साज़िश का हिस्सा मान लिया जाएगा। यह सरकार और पार्टी के ऊपर धब्बा बनकर चमकेगा। मैं तत्कालीन गृहमंत्री का यह इंदराज देश की राजनीति के लिए लांछन मानता हूं। जसवंत सिहं ने जो लिखा उसका ख़मियाज़ा भुगता। लेकिन अपनी बात पर कायम रहे। लेकिन पार्टी का एक बहुत बड़ा नेता लिखने में कुछ और कहने मे कुछ,फिर भी सुरक्षित। सुना है कि पार्टी प्रवाक्ताओं को निर्देश हुए हैं कि वे इस प्रकरण पर चुप रहेंगे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि पुस्तक विमोचन के समय लेखक पार्टी में था। लेकिन कोई नेता विमोचन में उपस्थित नहीं था। पार्टी के लिए यह अच्छा मौक़ा था कि कोई भी प्रतिनिधि उपस्थित होकर पार्टी की स्थिति स्पष्ट कर सकता था। जसवंत सिह को मजबूरन गैरपार्टी लोगों को मंच पर बैठाना पड़ा भले ही प्रगतिशीलता के शीर्ष पुरूष हों। लेकिन उनको उनके समुदाय ने शायद इसलिए आपत्ति मुक्त कर दिया हो कि लेखक और आलोचक के बीच सजातियता होती है।<br />समाज को ख़ासतौर से पढ़े लिखे जागरूक समुदायों को समानता का व्यवहार सीखना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। यह बात राजनीति पर ही लागू नहीं होती। बौद्धिक क्षेत्रों में भी लागू होनी चाहिए। जसवंत सिहं को तो स्पष्टीकरण का अवसर भी नहीं दिया गया। अडवानी साहब तो पूछे जाने से ऊपर हैं ही। अंत में कहना चाहूंगा समाज संवेदनशील अवयवों से बना है एक भी अटपटा काम समाज में तरंगे पैदा करने के लिए काफ़ी है। चाहे राजनीति हो या साहित्य। राजनीति खुला खेल है उसकी प्रतिक्रिया समाज में तत्काल होती है। साहित्य शब्दों से घिरी दुनिया, जो धीरे धीरे खुलती है। खरोंचे वहां भी पड़ती हैं। एक समाचार पत्र में कवियों की तस्वीरों का कोलाज छपा था। एक छात्र ने मुझसे पूछा अंकल सुमित्रानंदन पंत की छोटी सी तस्वीर एक कोने में क्यों छपी है। पहले तो ये बहुत बड़े कवि माने जाते थे। मेरे पास इसका जवाब कुछ नहीं था। यह सब अनायास भी होता है पर किसी प्रगतिशील शीर्ष पुरुष का हिंदूवादी मंच पर जाकर बैठना भी क्या अनायास हो सकता है? इसका भी मेरे पास कोई उत्तर नहीं। वहां भी लोग चुप हैं।<br /><br />प्रिय ओ जी,<br />मैंने गांधी जी के संदर्भ में एक लेख भेजा था।मिला होगा। लेकिन जसवंत सिहं वाले मामले ने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया। साहित्य के शीर्ष पुरुष की उपस्थिति ने इसे साहित्य से भी जोड़ दिया। अगर उपयूक्त समझें तो उपयेग करलें अपने निर्णय से अवगत कराएं धन्वाद। जी केगिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-88561093446581484762009-08-24T04:28:00.000-07:002009-08-24T04:38:13.457-07:00आज़ादी के संदर्भमें गांधीयह सवाल विचारकों और लेखकों के लिए परेशान करने वाला है। कैंसरवार्ड के लेखक सालझेनित्सिन को इसलिए साइबेरिया भेज दिया गया था कि सोवियतसंघ की सरकार उनके मत से असहमत थी। यह तो मान लिया कि वह सरकार तानाशाहनुमा सरकार थी। लेकिन हिंदुस्तान एक जनतंत्र है। ऐसा जनतंत्र, जहां सामान्य आदमी को भी अपनी राय बिना लाग लपेट के अभिव्यक्त करने की आज़ादी है। इसका लाभ सबसे अधिक रा. स्वं. सं. और बीजेपी उठाते रहें। गांधी जी जीवित थे तो आर एस एस और साम्यवादी सबसे अधिक उन्हें कोसते थे। आर आर एस वाले पागल बुड्ढा कहते थे। हर शहर में उनका सालाना जलसा होता था। उसमें पद संचालन और लाठी संचालन आदि खेल होते थे। मुख्य अतिथि संचालक आदि ओहदेदार होते थे। सबसे अधिक संस्कृत निष्ठ गालियां देने का 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और शांति का ख़तरे में पड़ जाना अवश्यंभावी है। जब तक डंडा है तब तक सब चुप हैं जैसे ही डंडा कमज़ोर हुआ वैसे ही घर सड़क बनी। बी जे पी के अध्यक्ष अडवानी पाकिस्तान एक हाजी की तरह गए थे। ख़ासतौर से जिन्ना साहब के मकबरे की ज़ियारत करने। वैसे तो राजा रंजीतसिंह की समाधि भी पाकिस्तान में ही थी। वहां उन्होंने जो भाखा था उसने तो इतिहास का रुख़ ही बदल दिया था। जिन्ना को विश्व का सबसे चमत्कारी व्यक्ति पुरूष बना दिया जिसने एक नया देश एक टाइपराइटर और टाइपिस्ट के ज़रिए बना दिया। सांप्रदायिकता की बात यह कहते हुए उन्हें ाद नहीं आई। जिन्ना साहब को सेकुलर बताते हुए अडवानी साहब को भी ध्यान नहीं आया कि उनकी पार्टी का बुनियादी सिद्धान्त है एक जन, एक संस्कृति और एक राष्ट्र। उसी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा रही है।<br />उस पुस्तक में जो लिखा वह तो चिंतन की ऐसी पर्त खोल रही थी उसे पढ़कर लगता है गंगा दास जमुना दास होकर आए हैं। देश में आए तो सबसे ज़्यादा बी जे पी के लोग उनके खिलाफ़ मुखर थे। लेकिन समरथ को नहीं दोस गुसांई। बाद में बी जे पी नेतृत्व ने रास्ता निकाल लिया ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। किसी को बचाना हो तिनका भी पतवार बन जाता है। जब डुबाना हो तो किनारा भी मझधार बन जाता है। दरअसल जिन्ना बटवारे के लिए ज़िम्मेदार हैं या नेहरू और पटेल, सवाल इस बात का नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि बटवारे की नींव तो वीर सावरकर ने डाल दी थी। आर एस एस उनका परम समर्थक था। साथ ही आर एस एस मुस्लिमों के खिलाफ़ था। उनका मुसलमानों के खिलाफ़ होना वीर सावरकर की टू नेशन्स थ्योरी का ही विस्तार था। उसके बाद जिन्ना ने टू नेशन्स थ्योरी की बात उठाई। दरअसल आर एस एस तो अखंड भारत की बात करता था लेकिन मुसलमानों को हिकारत की दृष्टि से देखता था। प्रकारंतर से मुसलमानों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा कर रहा था वे इधर जाएं या उधर। उधर जाएंगे तो उन्हें एक मुल्क चाहिए। यहां रहें तो आर एस एस की शर्तों पर रहें। दोनों ही बातें जोखिम भरी थीं। अखंड भारत तभी संभव था जब देश में एक दूसरे के लिए सहिष्णुता का वातावरण हो। जो 1916 में तिलक जी और जिन्ना के प्रयत्नों से बना था। दिलों में गुंजायश हो तो सब संभव है। गांधी हृदय परिवर्तन की बात कहते थे। लेकिन आर एस एस देश में मुसलमानों के लिए इस तरह का वातावरण बनाने के पक्ष में नहीं थी इसी बात को लेकर उनका गांधीजी से मतभेद था। यह कहना शायद ठीक न लगे कि वे लोग प्रकांतर से बटवारे को प्रोत्साहित कर रहे थे। हिंदू पार्टियों के दबाव में 1857 में अंग्रज़ों के खिलाफ़ जो हिंदू मुस्लिम एकता बनी थी उसमें दरार उन्होंने ही पैदा की।<br />जहां तक जिन्ना का सवाल है वे एक सेकुलर से कट्टर मुस्लिम नेता कैसे बने इस बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर नज़र डालना ज़रूरी है। उस पीढ़ी के जीवन काल में दो विश्वयुद्ध हो चुके थे। उसका नतीजा हुआ था कि विश्व भर मे नए राष्ट्रों की बाहुलता हुई थी। राजशाही का स्थान सर्वसत्तावाद यानी टोटलिटेरियनिज्म ने लेना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान उन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों की देन भी था। जिन्ना वैसे भी एक बहु-आकांक्षी व्यक्ति होने के साथ साथ समय की चाल को पहचानने में अपना सानी नहीं रखते थे। उन्होंने समय की नब्ज़ को समझा। वे समझ गए थे कि अपनी पहचान के लिए उन्हे विश्व में हो रहे परिवर्तन का लाभ उठाना चाहिए। हिंदूबाहुल देश में सम्मान भले ही पा लें पर एक स्वतंत्र के मुखिया नहीं बन सकते। गांधी ने बटवारे को रोकने के लिए जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था जिसका नेहरू और पटेल ने यह कहकर विरोध किया था कि आप देश की आज़ादी चाहते हैं या सिविल वार। यह ठीक है कि हिंदूवादी शक्तियां और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ सिविल वार की स्थितियां उत्पन्न कर देते। शायद वे बटवारे जितनी भयावह न होतीं। गांधी के इस प्रस्ताव का मर्म सत्ता के आकर्षण से विरक्त होकर ही समझा जा सकता था। इस प्रस्ताव का दूरगामी प्रभाव होता। देश बटने से बच जाता। हिंदूवादी ताकतों का अखंड भारत बनाने का सपना मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बिना भेदभाव के पूरा होने की संभावना हो सकती थी। शायद गांधी की हत्या भी न होती। जहां तक पटेल का सवाल है वे गांधी भक्त थे। गांधी का हत्यारा गोडसे आर एस एस का सदस्य रह चुका था। वीर सावरकर गोडसे उसके मेन्टर, आर एस एस के आईकन थे। पटेल ने उनकी हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया था। अडवानी का यह कहना भ्रामक है कि नेहरू के दबाव में पटेल ने ऐसा किया। यह आश्चर्य की बात है कि अपने को लौहपुरूष कहलाने वाला व्यक्ति वास्तविक लौहपुरूष की यह कह कर अवमानना करता है कि वह दूसरे व्यक्ति के दबाव में अपनी मान्यता के विरुद्ध काम करेगा। यहां मैं दो वामपथीं इतिहासकारों को उद्धृत करना चाहूंगा। विपिनचंद्रा ने 22 अगस्त 09 के द हिंदू में कहा है कि यह कहना कि पटेल ने नेहरू के कहने पर ऐसा किया उनको बदनाम करना है। पटेल अपने मत और अंतरआत्मा के विरुद्ध कुछ भी करने वाले नहीं थे। इसी तरह इरफ़ान हबीब साहब ने द हिंदू में कहा है ‘मैंने गोलवलकर और पटेल के बीच हुई ख़तोकिताबत पढ़ी है। हालांकि उन्होंने आर एस एस को गांधी जी की हत्या के लिए दोषी नहीं माना लेकिन उन्होंने उसे सांप्रदायिक वातावरण बनाने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया जिसके कारण गाधी जी की हत्या हुई। उस पत्रव्यवहार में आर एस एस की हिंसक राजनीति के खिलाफ़ पटेल का रुख़ स्पष्ट है।‘ (उपरोक्त दोनो अंश उन दोनों विद्वानों के कथन का भावार्थ है)।<br />बाद में उस प्रतिबंध को पटेल ने तभी हटाया जब आर एस एस के नेतृत्व ने लिखित आश्वासन दिया कि वे सांस्कृतिक संस्था के रूप मे कार्य करेंगे राजनीति में भाग नहीं लेंगे। यह पटेल की दूरअंदेश कूटनीति का प्रमाण है। मैं इस विमर्श को यह कहकर यहीं छोड़ता हूं कि आर एस एस एक तरह से मिलिटेंट शक्ति के रूप में उभर रहा था उसको सांस्कृतिक संस्था का रूप देकर उन्होंने हिंदू मुस्लिम संघर्षों की संभावनाओं पर काफ़ी हद तक विराम लगा दिया। जहां तक जसवंत सिहं की पुस्तक का सवाल है उसके खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही सिद्धान्त आधारित इतनी नहीं जितना प्रभावशाली नेताओं का पार्टी के कोर सिद्धान्त की आड़ में व्यक्तिगत हिसाब निबटाने का प्रयास है। लोग जल्दी भूल जाते हैं अडवानी जी ने अपन पुस्तक में लिखा है कि जसवंत सिहं द्वारा आतंकवादियों को काबुल छोड़कर आने के बार में उन्हें मालूम नहीं था। गृहमंत्री की मर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना क्या जसवंत सिहं छापा मारकर आतंकवादियों को ले गए थे। लौहपुरुश चुप रहा। उसी समय जसवंत सिंह ने इस बात का प्रतिवाद किया था। अडवानी जी ने जहां तक मुझे याद है स्वीकार किया था मुझे याद नहीं रहा । बाद में क्या पुस्तक में इस तथ्यात्मक भूल को सुधारा? शायद नहीं। इसका मतलब पुस्तक में लिखा यह तथ्य इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री को तानाशाह और विदेश मंत्री को उनकी साज़िश का हिस्सा मान लिया जाएगा। यह सरकार और पार्टी के ऊपर धब्बा बनकर चमकेगा। मैं तत्कालीन गृहमंत्री का यह इंदराज देश की राजनीति के लिए लांछन मानता हूं। जसवंत सिहं ने जो लिखा उसका ख़मियाज़ा भुगता। लेकिन अपनी बात पर कायम रहे। लेकिन पार्टी का एक बहुत बड़ा नेता लिखने में कुछ और कहने मे कुछ,फिर भी सुरक्षित। सुना है कि पार्टी प्रवाक्ताओं को निर्देश हुए हैं कि वे इस प्रकरण पर चुप रहेंगे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि पुस्तक विमोचन के समय लेखक पार्टी में था। लेकिन कोई नेता विमोचन में उपस्थित नहीं था। पार्टी के लिए यह अच्छा मौक़ा था कि कोई भी प्रतिनिधि उपस्थित होकर पार्टी की स्थिति स्पष्ट कर सकता था। जसवंत सिह को मजबूरन गैरपार्टी लोगों को मंच पर बैठाना पड़ा भले ही प्रगतिशीलता के शीर्ष पुरूष हों। लेकिन उनको उनके समुदाय ने शायद इसलिए आपत्ति मुक्त कर दिया हो कि लेखक और आलोचक के बीच सजातियता होती है।<br />समाज को ख़ासतौर से पढ़े लिखे जागरूक समुदायों को समानता का व्यवहार सीखना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। यह बात राजनीति पर ही लागू नहीं होती। बौद्धिक क्षेत्रों में भी लागू होनी चाहिए। जसवंत सिहं को तो स्पष्टीकरण का अवसर भी नहीं दिया गया। अडवानी साहब तो पूछे जाने से ऊपर हैं ही। अंत में कहना चाहूंगा समाज संवेदनशील अवयवों से बना है एक भी अटपटा काम समाज में तरंगे पैदा करने के लिए काफ़ी है। चाहे राजनीति हो या साहित्य। राजनीति खुला खेल है उसकी प्रतिक्रिया समाज में तत्काल होती है। साहित्य शब्दों से घिरी दुनिया, जो धीरे धीरे खुलती है। खरोंचे वहां भी पड़ती हैं। एक समाचार पत्र में कवियों की तस्वीरों का कोलाज छपा था। एक छात्र ने मुझसे पूछा अंकल सुमित्रानंदन पंत की छोटी सी तस्वीर एक कोने में क्यों छपी है। पहले तो ये बहुत बड़े कवि माने जाते थे। मेरे पास इसका जवाब कुछ नहीं था। यह सब अनायास भी होता है पर किसी प्रगतिशील शीर्ष पुरुष का हिंदूवादी मंच पर जाकर बैठना भी क्या अनायास हो सकता है? इसका भी मेरे पास कोई उत्तर नहीं। वहां भी लोग चुप हैं।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-62554516800330013122009-07-25T06:17:00.000-07:002009-07-25T06:20:05.873-07:00सामान्य आदमी और ज़मीदोज़ कलाकृतियां7 जून 09 के हिंदू में ‘A grocer with an eye for antiques, archaeological sites’ पढ़ा तो मुझे राहुल जी के साथ हुई एक घटना याद आई। वे इलाहाबाद आए हुए थे। सवेरे महात्मा गांधी रोड़ पर टहलने जा रहे थे। साथ में स्व. व्यास जी और कोई और एक सज्जन थे। व्यासजी स्वयं एन्टीक्स का ज्ञान रखते थे और इलाहाबाद संग्राहालय के शायद पहले डायरेक्टर थे। राहुल जी एकाएक सी पी एम कालिज के सामने लगे पीपल के एक पेड़ के सामने रुक गए। कुछ देर खड़े उसकी जड़ों की तरफ़ टकटकी लगाकर देखते रहे। व्यास जी ने पूछा ‘क्या देख रहे हैं राहुल जी’। वे बोले अभी बताता हूं। दूसरे आदमी से कहा आप ज़रा दो तीन रिक्शा वालों को बुला लें। किसी के पास बेलचा हो तो लेता आए। नहीं तो हाथों से ही काम चलाएंगे। तीन चार आदमी आ गए बेलचा भी आ गया। उन्होंने स्वयं बेलचे से धीरे धीरे मिट्टी हटाई। एक मूर्ति दिखाई पड़ी। थोड़ी मिट्टी और हटाई। फिर जिन आदमियों को बुलाया था उनसे कहा इसे धीरे धीरे हिलाकर निकालना शुरू करो। झटका न लगे। लगभग घंटे भर की मशक्कत के बाद लगभग डेढ़ दो फ़िट की किसी देवी की प्राचीन मुर्ति बाहर निकल आई। वहीं उसे धुलवाई। राहूल जी इस बीच चुप रहे। व्यास जी कह रहे थे कि शायद इसे मूर्तिचोर दबा गए। राहुल जी ने कहा ‘जब ज़मीन के अंदर से दबाव बनना शुरू होता है तो मिट्टी फूलने लगती है। धरती के अंदर दबी वस्तु ऊपर आने लगती है। यह मूर्ति दसवीं शताब्दी की मालूम पड़ती है।‘ बाद में उन्होंने व्यास जी के ज़रिए म्यूज़ियम में भिजवा दी।<br />‘ग्रोशर्स आई’ पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना का ध्यान आ गया। राजस्थान के ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की बूंदी में पड़चूनिए की दुकान करते हैं। हड़ौती क्षेत्र में दबी कलाकृतियों को उन्होंने निकाला है। हालांकि वे आठवी क्लास तक पढ़े हैं लेकिन उनकी नज़र कलाकृतियों को उसी तरह पहचानते हैं जैसे राहुल जी की नज़र ने ज़मीन में दबी मूर्ति को पहचान लिया था। कुक्की ने हड़ौती की मिट्टी में दबी संस्कृति को उन कलाकृतियों के रूप में एक तरह से ईजाद किया है। सारी ज़िंदगी इसी काम में लगा दी। किसी लालच में नहीं बल्कि कलाकृति और प्राचीन संस्कृति के प्यार में । अगर कुक्की चाहते तो वे भी अनेक स्मग्लरों की तरह अपने परिवार को एक सम्मानजनक जीवन दे सकते थे। विंध्याचल पर्वत श्रेणी में नमना स्थान में उन्होंने हरप्पापूर्व संस्कृति की तांबे और पत्थर की कलाकृतियों का भंडार खोजा है। प्राचीन राक पेंटिंग्स उनके संग्रह में हैं।<br />ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की मानते हैं कि मैं जानता था कि कि बूंदी प्राचीन सभ्यता की कलाकृतियों से भरा पड़ा है। मेरा मानना है कि गराडा नदी के किनारे 35 किलो मीटर लंबी पट्टी में सैंकड़ों चट्टानी गुफाएं है। इतनी लंबी आरकियोलाजिकल कलाकृतियां की पट्टी शायद ही दुनिया में कहीं हो। उनके पास 400 बी सी का सबसे पुराना सिक्का है। हालांकि वह समान्य पढ़ा लिखा है लेकिन उसने सब आर्कीयोलियोजिकल उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया है, जहां जहां इस क्षेत्र में दुनिया में काम हुआ है, उसका इल्म है। उस व्यक्ति को इस बात का दुख है उसका काम दुनिया में किसी से कम नहीं। पश्चिम देशों में इस क्षेत्र में काम करने वाले तत्काल प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं। मैं दो दशक से अपने परिश्रम की स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहा हूं।<br />राहुल जी ने भी शिक्षा की दृष्टि से बड़ी बड़ी डिग्रियां प्राप्त नहीं थे। लेकिन उन्होंने गुना था। उसी ने उन्हें अनेक विषयों का उद्भट विद्वान बनाया। कुक्की में समर्पण है। अपने काम के प्रति लगाव है। इस तरह के बहुत से लोग मुफ्फ़सिल जगहों मे अभी भी मिल जाएंगे जिनके पास प्राचीन कलाकृतियां हैं लेकिन वे सरकार और पुलिस के डर के मारे निकालने में डरते हैं। दरअसल लोगों की नियमों के प्रति अनभिज्ञता भी इसका कारण है। बहुत से लोगों को वे लोकेशन्स मालूम हैं जहां प्राचीन कलाकृतियां दबी पड़ी हैं। वे दो कारणों से नहीं बताते 1. स्थानीयता का मोह, 2. पुलिस का भय। कुछ साल पहले कानपुर में नीव खुदाई के समय ज़मीन से काफ़ी सोने के सिक्के निकले थे वहां लूट मच गई थी। बाद में पुलिस ने बरामदी भी की, पर सब नहीं कर पाई। प्रसिद्ध कवि स्व. डा. जगदीश गुप्त हरदोई के शायद बिलग्राम के पास किसी गांव के रहने वाले थे। उनको तांबे के बने हथियार टेराकेटाज़ भांडे आदि प्राचीन कलाकृतियों का ज़खीरा मिल गया था। उस ज़माने में विभिन्न संग्राहलयों में महीने में एक बार बाज़ार लगता था। उसमें कलक्टर्स अपनी अपनी कलाकृतियों के साथ एकत्रित होते थे संग्राहालय उन कलाकृतियों को अच्छे दामों पर खरीदते थे। जगदीश जी ने नागवासुकी पर पहला मकान बनवाया तब बताया था धरती का पैसा धरती मे लगा दिया। लेकिन शायद बूंदी के इस अमच्योर आरक्योलिजिस्ट को इस बात का इंतज़ार है कि उसके काम को अंतर्राष्ट्रीय एकेडेमिक दुनिया में स्वीकृति मिले। कम से कम भारत सरकार तो उसके काम का संज्ञान ले। अफ़सरान कलाविद् बनकर देश विदेश का दौरे करते हैं और उस अल्प ज्ञान के आधार पर विशिष्टता प्राप्त करते हैं।<br />हमारा देश प्राचीन देश है। अनेक संस्कृतियां पली बढ़ी हैं। उनका इतिहास सदियों में फैला हुआ है। हर संस्कृति के साथ कला, संस्कृति और भाषा का विकास जुड़ा होता है। क्योंकि उसका रिकार्ड सुरक्षित नहीं रखा गया इसलिए सब काम अंदाज़ और प्रयोगशालाओं से चलता है। बीच बीच में अनेक दैवी संकट आए गए उसका नतीजा हुआ कि वे सब कला व संस्कृति के प्रतीक या चिन्ह पृथ्वी ने अपने गर्भ मे सुरक्षित कर लिए। पृथ्वी आसानी से नहीं देती। उसके लिए पहचान, ज्ञान और साधना ज़रूरी है। कुक्की में ज़रूर ये बाते हैं। लेकिन सामान्य आदमी इन गुणों से संपन्न नहीं होता। वह इस तरह की घटनाओं को इतिहास से जोड़कर नहीं देखता। शायद उसे पता भी न हो कि इतिहास क्या है और उसका महत्व क्या है। ज़मीन से निकली मूर्तियां धर्म के खाते में चल जाती हैं। वस्तुएं बाज़ार के घाट उतर जाती हैं। सिक्के आदि लूट में शामिल होकर भट्टी की भेट चढ़ जाते हैं। इसके लिए किसी को दोष देना उचित नहीं। यह हमारी अल्पज्ञता है। कानपुर में जो सोने के सिक्कों की लूट मची थी उनमें जो बरामद नहीं हुए वे बिक गए होंगे और हो सकता है गला दिए गए हों। ऐसा करने वालों को यह पता नहीं कि उन्होंने देश का कितना नुकसान कर दिया। मुझे स्मरण है कि कई वर्ष पूर्व एक आई ए एस अफसर पर चार्ज लगा था कि कुछ प्रचीन मूर्तियां अपनी कार में रखवाकर रफ़ुचक्कर हो गए थे। मेरे कहने का मतलब है कि पढ़े लिखे और जानकार लोग भी इस लालच से अपने को बचा नहीं पाते। एन्टीक्स एकत्रित करना फ़ैशान भी है सम्मान सूचक भी है। लेकिन यह भी ज़रूरी है कि इस बात का ध्यान रखें कि अपने इस शौक से हम देश के इतिहास को तो नुकसान नहीं पहुंच रहे हैं। पृथ्वी हमारे बहुत से ऐसे रहस्यों को बचाए और छिपाए हुए है जो हमारे बारे में अनेक ऐसी सूचनाएं दे सकती है जिसे जानकर हम अपना और बीते समय का मूल्यांकन कर सकते हैं और अपने जड़ों का पता लगा सकते हैं। अनेक ऐसे टीले और ढूह पड़े हैं, पहाड़ों में गुफाएं हैं जो हमें हमारी जडों का पता ही नहीं बतातीं बल्कि हमारा सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास भी बताती हैं। आज जनजातियां हाशिए पर हैं। उनके अधिकारों पर आधुनिकता ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया है अमेरिका में रेड इंडिन्स के साथ भी ऐसा ही हुआ और आज तीसरी दुनिया के देश भी इस बीमारी के शिकार हैं। ये गुफाएं जहां भित्ति चित्र हज़ारों साल पहले उकेरे गए थे आज हमारे कला वैशिष्ठ्य के प्रमाण बन कर सामने आते हैं। हम उनकी कला पारंगतता के श्रेय लेने से नहीं चूकते। यह सवाल हमेशा परेशान करता है हम उनके जंगल, उनकी गुफाएं सब लिए ले रहे हैं उन्हें दे क्या रहे हैं। जब तक कला मानकों पर मनु्ष्य को तोलना नहीं सीखेंगे सभ्य होने पर गर्व नहीं कर सकते। प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की के बारे में पढ़कर मुझे लगा कि तथाकथित सभ्य कहलाने वाला समाज कुक्की जैसे कलाविदों को सम्मान नहीं देता तो जनजातियों के उन कला साधकों को क्या सम्मान देंगे जो इतनी समृद्ध कला परंपरा बिना नाम गाम के छोड़ गए।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-50979789204266056762009-06-27T00:05:00.000-07:002009-06-27T00:09:41.207-07:00मुख्यमंत्री जी बधाई, घनश्याम मारा गयाघनश्याम केवट डाकू था, अच्छा हुआ मारा गया। जिस तरह वह मारा गया उससे तो लगता है कि वह किसी को भी मार सकता था। कितना बहादुर है आपकी पुलिस उस अकेले पर 51 घंटों के बाद 500 जवान भारी पड़े। ऐसे में उसे क्या हक़ था जीने का। अगर वह जीता रहता तो वह उत्तर प्रदेश की दो लाख जवानों की सबसे बड़ी वाहिनी की बेइज़्ज़ती का कारण बनता। आपकी भी। मै तो सवेरे से मना रहा था कि चाहे जो हो आपके डी जी पी साहब का बड़बोलेपन पर आंच न आए। आप भी उस आंच की झांव से न बचतीं। 51 घंटे आपके शेर उससे जूझते रहे। वह बेशर्म नंग अकेला उनके कपड़े उतारने पर लगा रहा। ऐसा लगता था कि वह अपनी रिश्तेदारी में छकड़ों में गोलबारूद भर कर लाया था। इसिलए डी जी पी साहब कह रहे थे कि हमारे पास गोली बारूद की कमी नहीं है और न मैन पावर की। पावर में तो डी जी पी साहब, वही 21 पड़ रहा था। उस अकेले की पावर और आप सबकी पावर। बुरा मत मानिए ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होता है। यह बहादुरी नहीं बेशर्मी है। 500 जवान गोलियां दाग रहे हैं आपको यही पता नहीं कि वह कहां बैठा है। बीच वीच में ऐसे चुप हो जाता था जैसे टैं बोल गया। जब मरने की तसदीक करने आई जी, डी आई जी या अन्य कोई आगे बढ़ा पता नहीं कहां से जी उठा और टिका दी गोली। यह तो तमीज़ से गिरी हुई बात हुई ना। एक आई जी ज़ख्मी, एक डी आई जी मरते मरते बचे। चार जवान तो मारे ही गए। आपके ए डी जी भी गोली खाते खाते बचे। वे तो चढ़ ही गए थे खपरैल पर, वह तो किस्मत ने बचा लिया। उस के खरोच भी नहीं आई।<br />पूर्व डी जी पी प्रकाश सिंह कह रहे थे मुठभेड़ तो पांच पांच दिन तक चल सकती है। आश्चर्य तो इस बात का है वह अकेला आदमी और दूसरी तरफ़ आदमी दर आदमी। एक से एक ज़हीन और प्रशिक्षित अफ़सर, वह अकेला। यह कहना कि पुलिस के पास मौरटर वगैरह आधुनिक हथियार नहीं थे कोई मायने नहीं रखता एक आदमी एक हथियार के सामने इतने हथियार नाकाफ़ी कैसे हो सकते हैं। मुख्यमंत्री जी, उसने दस हज़ार गोली या एक लाख गोलियां चलाई होंगी आपके पांच सौ अफ़सरों और जवानों ने लाखों लाख गोलियां झोंक दी होंगी, मानो किसी राजे महाराजा के यहां हर्ष फ़ायरिंग हो रहा हो। न हमारे पास मुख़बिर की सूचना और न हमारी सी आई डी किसी काम की। बिना टारगेट के फ़ायरिंग का मतलब अलल टप्प निशाना लगाना। आपकी सेना की तीन सर्किल्स में तैनाती थी। सब व्यर्थ जबकि वह बिना सोए खाए लगातार मोर्चा ले रहा था। आपकी फोर्स खाना भी खा रही थी, सिलसिलेवार आराम भी फरमा रही थी। जब घनश्याम भागा बकौल अखबारों के पी ए सी के कुछ लोग लेटे बैठे थे कुछ खाने में मुबतिला थे। 51 घंटे लगातार डटे रहने के बाद उसे वही मौक़ा मिला उसने भरपूर फ़ायदा उठाया। साहरा के फ़ोटोग्रफरों ने देख लिया लेकिन हमारे जवानों और अफसरों की आंख नहीं देख पाई। यह कैसी विडंबना है। दो किलो मीटर तक उस हालत में भी दौड़ता चला गया। आख़री सांस तक उसने लोहा लिया। वैसे तो लोहे से ही लोहा लिया जाता है। अगर नाले में न छुपता तो शायद ए डी जी ब्रजलाल जी अपनी पीठ थपथपाने के मौक़े से महरूम रह जाते।<br />मैं कई बार सोचता हूं कि कि चीन के साथ हुई लड़ाई में जनरल कौल चीन के आक्रमण की बात सुनकर सोते सोते अपने उन्हीं कपड़ों में भाग खड़े हुए थे जो पहने थे। सेना क्या करती, जनरल ही नहीं तो हुक्म कौन दे। कहते हैं बहादुरशाह को जब अंग्रज़ो ने गिरफ़तार किया तो उन्हें आधा घंटा मिला जिसमें चाहते तो भाग सकते थे। जब उनसे पूछा गया कि आपको आधा घंटा मिला था आप भाग सकते थे। उन्होंने कहा वहां जूते पहनाने वाला कोई नहीं था। हो सकता है यह बनाया हुआ चुटकुला हो। लेकिन परंपरा की बात है। यह डाकू तो पुलिस को 51 घंटे हलकान करने के बाद देश के सुरक्षा के ठेकेदारों की आंखों के सामने खुले किवाड़ों भागा था। जिस तरह व कूदकर भाग रहा था कोई भी दक्ष शूटर उसे मार सकता था। ताज्जुब है कि इतनी बड़ी फ़ोर्स में से किसी की नज़र भी उस पर नहीं पड़ी और पड़ी तो निशाना चूक गया। बल्कि भागने की ख़बर सुनते ही रिलेक्स पी ए सी के जवानों ने पहले पोजीशन ली फिर बंदूकें दीवार से टिका कर रख दी। कहीं यह तो नहीं सोचा भाग गया, जान बची सो लाखों पाए।<br />मुझे एक सवाल बराबर परेशान कर रहा है यह ठीक है कि वह दुर्दांत डाकू था उसे मार कर पुलिस ने ठीक किया। लेकिन क्या वह कायर था? यह सवाल क्या आप अपने आप से पूछेंगी? सारा गांव ख़ाली करा लिया गया था। उसकी मदद के लिए वहां कोई नहीं थे सिवाय उसकी अपनी गन के। गोली बारूद भी असीमित नहीं था। वह पुलिस वालों की तरह ज़रेबख्तर भी नहीं पहने था। गोलियों को अपव्यय करने की स्थिति में तो क़तई नहीं था। वह पुलिस के 500 जवानों से तरकीब और किफ़ायत से लड़ा। लेकिन उसने यह पता नहीं चलने दिया कि वह अकेला है और और एक गन और सीमित कारतूस के साथ इतनी बड़ी संख्या में आई गारद से लड़ रहा है। उसने अपनी रणनीति सोच समझ कर बनाई। हर एक गोली का उसके हिसाब से सदुपयोग हो। वह उनके दबाव में न आए उल्टे उन्हें अपने दबाव में ले ले। एक आदमी के लिए इतने बड़े अमले को दबाव में लेना असंभव काम था। 51 घंटे तक उसकी रणनीति पूरी तरह कारगर रही। मुझे नहीं लगता कि इन बड़े बड़े प्रशिक्षित अफ़सरों की कोई रणनीति थी। वे तो यह सोचकर फ़ायरिंग कर कर रहे थे किसी न किसी गोली पर तो उसका नाम लिखा होगा। 51 घंटे जो गालियां दागीं उनमें से किसी पर उसका नाम नहीं मिला। बल्कि उनके चार जवानों का नाम उसकी गोलियों पर जा खुदा। 11 घायल हुए। एक साहब कह रहे थे गोली चलाता था और छुप जाता था। जब कोई यह समझकर बढ़ता था वह मारा गया वह तपाक से गोली टिका देता था। मेरे सामने एक दूसरा सवाल है क्या ऐसे हिम्मती और रणनीतिकार को मारना ठीक हुआ या पकड़ना ठीक होता? इस सवाल का जवाब पुलिस वालों के पास एक ही था मार गिराना। जब वह भाग निकला तो ए डी जी से लेकर सिपही तक सबके हाथ पांव फूल गए। क्योंकि उनका उद्देश्य तो एनकाउंटर था। वह इस बात को समझ रहा था। हो सकता था वह समर्पण कर देता। लेकिन वह जान की लड़ाई लड़ रहा था। हो सकता है उसने ज़िंदगी में एक आध लोगों को बख्श भी दिया हो पर पुलिस किसी को नहीं बख्शती। जब तक उसका हित न हो। दूसरा पक्ष भी था एक नज़र उसके बेमिसाल साहस के बारे में सोचना। रणनीति प्रवरता पर ध्यान देना। उसके डकैत होने से ऊपर उठकर उसके हिम्मती होने और रणनीतिकार होने का देश और समाज के हित में लाभ उठाने की संभावना के बारे में सोचना। वहां केवल सिपाही नहीं ए डी जी रैंक के अफ़सर उस आपरेशन का सचालन कर रहे थे। वे उच्च अधिकारियों यहां तक मुखुयमंत्री तक को समझा सकते थे कि वे उससे यह कहने क अनुमति दें कि वे उससे बात करना चाहते हैं मारना नहीं चाहते। बेगुनाह से बेगुनाह आदमी पुलिस की छवि में यही देखता है कि वे आए हैं तो कुछ न कुछ करने आए हैं। अगर पुलिस दूसरे पैराए पर भी सोचना शुरू कर दे। हो सकता है मुनाहगार भी उनकी कही बात पर सोचने लगें। सिपाही दरोगा की बात पर विश्वास करे न करे लेकिन वरिष्ठतम अधिकारी और मंत्री तक विश्वसनीय नहीं रह गए। जयप्रकाश नारायण की बात पर वे लोग विश्वास कर सकते है जिनके पास न क्षमा करने का अधिकार था, न दंड देना का। जिनके पास ये सब अधिकार हैं उनकी बात तो विश्वनीय होनी चाहिए। लेकिन नहीं है। अधिकार का सकारात्मक उपयोग न हमने सीखा और न सिखाया गया। घनश्याम एक भटका हुआ बहादुर था जिसने प्रतिशोध और सताने के जवाब में मौत देना सीखा थे। अगर उसे गिरफ़्तार करके सुधारने का प्रयत्न किया जाता तो उसकी क्षमताओं का सदुपयोग क्या संभव नहीं था? वी शांता राम की दो आंखें बारह हाथ फिल्म देखकर संपूर्णानन्द जी ने सुधार गृह नाम से खुली जेलें बनाई थीं। गुरमा मिर्ज़ापुर की जेल देखने का मौक़ा मिला है। वहां कैदी खुले रहते थे। उन्हें काम करना, उनकी ग़लतियों को सुधारना, नमाज़, कीर्तन आदि सिखाया जाता था। लेकिन अब राजनीति से किसी को फुर्सत नहीं। गांधी जी को नाटक करने वाला कहकर अपनी भड़ास निकालने वाले इन सब बातों के बारे में शायद जानते भी न हों कि कै़दियों के संदर्भ में इतना महत्त्वपूर्ण प्रयोग गांधी जी का अनुसरण करके हो चुका है। दरअसल डाकुओं को मारना या बिना सुनवाई के गरीब और बेसहारा अंडरट्रायल्स का जेलों में जीवन काट देना जनतंत्र के लिए लज्जाजनक है। गांधी में बुराई खोजकर और अपनी ख़ूबियों का ढिंढोरा पीटकर आप कहीं नहीं पहुंच सकते। यह मनोविज्ञानिक वास्तविकता है कि जब आप अपनी तारीफ़ करते हैं लोगों की नज़र तत्काल आपकी कमज़रियों पर जाता है। ख़ैर, जब समाज और सरकार के स्तर पर जरायमपेशा लोगों के पुनर्वास की योजना नहीं बनायी जाएगी और उसके पीछे ईमानदारी होगी तब तक पुलिस और तथाकथित दबंग उनकी हत्याओं को ही सबसे आसान तरीक़ा मानकर हत्यओं में संलग्न रहेंगे। अगर कापुरूषों की सेना में ऐसे हिम्मती लोगों का मन परिवर्तन करके, भर्ती किया जा सकेगा तो उनके टेलेंट का सही इस्तेमाल हो सकेगा। वैसे भी एक आदमी पर भले ही वह डकैत हो 500 शस्त्र लोगों द्वारा आक्रमण मानवाअधिकार का सवाल उठाता है। इन सवालों पर हुकूमत के नज़रिए से न ोचकर अब मानवीय दृष्टिकोण से सोचना शुरू करना ज़ररी है।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-76134466489830859232009-06-22T22:46:00.000-07:002009-06-22T22:49:31.573-07:00कहां आ रहे हैं हिंदी-चानीजून 09 के सभी समाचर पत्रों में एक ख़बर छपी है ‘सावधान, आ रहे हैं हिंदी-चीनी’। हिंदी चीनी जब साथ छपा देखता हूं तो मैं चौंक जाता हूं । चाऊ एन लाइ और नेहरू ने हिंदी चीनी भाई भाई का नारा लगाया था उसका नतीजा जो हुआ उसने सबसे पहले नेहरू की ही बलि ली। ईश्वर के लिए दोनों को साथ साथ न रखो। कुछ पता नहीं कब क्या हो जाए। अभी तक तो यही देखने में आया कि चीनी हिंदी न साथ रहे, न आए, न गए। भारत एक दिशा चलता है चीन दूसरी दिशा। चीन और चीन के गुर्गे भारत पर मौक़ा मिलते ही झपटते हैं और हर काम के लिए उसे दोषी करार दे देते हैं। यह तो हिंदुस्तान की सहनशीलता है कि हर हाल ख़ुशी हर हाल अमीरी है बाबा, जब आशिक मस्त फ़कीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा। जब पोरस हारा तो उसने न अपना आपा खोया और न दूसरों को खोने दिया। लेकिन यह समाचार बिल्कुल भिन्न था। दरअसल अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा साहब ने अपने देश के लोगों को आगाह करने के लिए विंस्कानसन में हुई एक बैठक में यह कहा थी। अपने देश के बच्चों की शिक्षा को लेकर वे चिंतित हैं। उनका मानना है कि हिंदी चीनी अधिक मेहनती और मेधावी हैं। अमेरिका के बच्चे फिसड्डी होते जा रहे हैं। इस तरह की चिंता व्यक्त करने वाले वे पहले राष्ट्रपति हैं। उनकी यह चेतावनी कि अब कमर कसकर सावधान होने की ज़रूरत है क्योंकि हिंदी और चीनी अमेरिका आ रहे हैं। अमेरिकन बच्चों को डराने के लिए कि हव्वा आ रहा है। यह ओबामा के मन का डर है। मेरे विचार से ओबामा ने शपथ लेने के दो तीन महीने में अपने देश की शिक्षा का जायज़ा ले लिया और अपने देश को आगाह कर दिया कि देश की शिक्षा पद्धति में सुधार लाने की ज़रूरत है। इस तरह की चिंता हमारे देश के किसी नेता ने कभी व्यक्त नहीं की। जिस देश में शिक्षा शिक्षाविदों की जगह दोयम दर्जे के नौकरशाह चलाएं वहां कौन कह सकता है कि नेता शिक्षा के प्रति चिंतित हैं। हमारे नेता गाहे बगाहे ज़िक्र कर दिया करते हैं। अमेरिका आज भी सबसे शक्तिशाली और अमीर देश है। उसके बावजूद ओबामा चिंतित है कि अमेरिका 100 वर्ष तक समृद्धिशाली और शक्तिशाली देश रहा अगर छात्र वीडियो गेम और टी वी में समय बिताएंगे तो हिंदी चीनी आ धमकेंगे। हिंदी चीनी बच्चे वीडियो गेम्स कम खेलते हैं और टी वी भी कम देखते हैं वे मेधावी और परिश्रमी भी हैं। अमेरिका पी एच डी़ ग्रेजुएट्स, इंजिनियर्स, वैज्ञानिक सबसे अधिक पैदा करता था अब उसमें गिरावट आई है। जब शिक्षा की बात आती है तो वह दूसरे देशों से ऊपर नहीं है। दुनिया के देश प्रतिस्पर्धाधर्मी होते जा रहे हैं हमें भी अपनी गति बढ़ानी होगी। संदेश के साथ साथ यह चुनौती भी है।<br />हिंदुस्तान में चीन और अमेरिका से अधिक विश्विद्यालय हैं। इसके बावजूद बेरोज़गारी का प्रतिशत भारत में इन दोनों से अधिक है। नए विश्विवद्यालय और आई आई टी खुल गए हैं या खुलने की प्रक्रिया में हैं। प्राइवेट मेडिकल कालिज, बिज़नेस मैनेजमेंट संस्थान भी खुल रहे हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे संस्थान हैं जिनका उद्देश्य शिक्षा हो। अधिकतर प्राइवेट संस्थाएं उन्हें आमदनी का ज़रिया बनाए हुए हैं। 14 जून के अखबारों में निकला था कि कानपुर विश्विद्यालय के स्वपोषित बी एड कालिजों ने एक अरब सत्तर लाख रुपया निर्धारित फ़ीस के अलावा इकट्ठा किया। यह कैसी विडंबना है। स्वपोषित इंजिनियरिंग बिजनेस-मैनेजमेंट कालिज तो लाखों में केपिटेशन फीस वसूल करते हैं। अभी उत्तर प्रदेश में 18 हज़ार सिपाहियों की भरती हुई थी। सरकार बदलते ही उन नियुक्तियों को निरस्त कर दिया गया। लोग एक से तीन लाख रुपया देकर भर्ती हुए थे। उसके लिए लोगों ने घर ज़मीन ज़ेवर बेचकर रिश्वत देने के लिए धन जमा किया था। ज्वायन कराने के बाद नई सरकार ने उनको बर्खास्त कर दिया। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्टे के आदेश ने उन्हें बहाल कर दिया। इस बीच 100 से अधिक लोगो ने इस सदमे के कारण आत्महत्याऐं कर लीं कि सब कुछ बिक गया अब गुज़ारा कैसे होगा। सरकारों में लगता है मनुष्य नहीं रहते केवल कुर्सियां होती हैं। कुर्सियों में संवेदना नहीं होती। सवाल है कि ओबामा साहब को ऐसा लगना कि हिंदी या चीनी आ रहे हैं अपने देश में बढ़ती बेरोज़गारी की दृष्टि से भले ही ठीक है पर भारत के नज़रिए से चिंताजनक है। वे लोग जो यहां से वहां जा रहे हैं उनको संस्थाएं उनकी ज़रूरत के हिसाब से तैयार करती हैं। इस देश की ज़रूरत के हिसाब से उन्हें न तैयार किया जाता है और न वे उन्हें जानते समझते हैं। जिन प्रोबलम्स से वे जूझते हैं अधिकतर बाहरी देशों की होती हैं जो प्रोजेक्ट के रूप में वहां से आती हैं। इसलिए वे खपते भी वहीं हैं। वे मारे जाएं या पीटे जाएं रहंगे वहीं। इसका कारण मां बाप भी हैं वे होश संभालते नहीं उन्हें ठूस ठूस कर यह समझाना शुरू कर दिया जाता है कि उन्हें मैनेमेंट या इंजिनियरिंग या दूसरे विषय जिनकी वहां मांग है पढ़कर अमेरिका या जर्मनी आदि देशों में जाना है। इसलिए नहीं कि इससे देश का गौरव बढ़ेगा बल्कि इसलिए कि डालर मिलेंगे। उसके लिए बच्चों को बचपन से तैयार किया जाता है। मातृभाषा से विमुख करके पब्लिक स्कूलों में पढ़ाना, उनकी साहित्य संस्कृति और संवेदना की रीढ़ तोड़ना सबसे पहला काम होता है। मैकोले का यही गुरूमंत्र था। मां बाप यह तक जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके बच्चे स्कूलों में क्या सीख रहे हैं। वे केवल टेस्ट कापियों में दिए गए नंबर देखकर उनकी गिटपिट सुनकर आश्वस्त हो जाते हैं कि बच्चा उनकी मनचाही दिशा में जा रहा है। उन्हें तब पता चलता है जब बच्चों का मानवीय संवेदना कोश ख़ाली हो चुका होता है। जब वे उनके सुख दुख पैसे से तोलने लगते हैं। दरअसल, ओबामा साहब हम टैक्नीकलाजी में प्रशिक्षित गुलाम बेचते हैं। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं कि वे कितनी अवधि के बाद अपने वतन लौट आएंगे। लौटेंगे भी या नहीं। या तभी लौटेंगे जब निकाले जाएंगे। वे ग्रीन कार्ड ले लें या नागरिकता ले लें मुझे नहीं मालूम कि उनके पितृ देश से पूछा भी जाता है या नहीं। न इस तरह के अनुबंध का कोई प्रावधान ही है कि अगर उनके यहां कोई हादसा हो जाए तो उसका कोई मुआवज़ा मूल देश या घरवालों को देंगे। देंगे तो किस हिसाब से। आस्ट्रेलिया में भारतीयों के साथ जो नृशंस व्यवहार हो रहा है, मां बाप की बुढ़ापे की लकड़ी तोड़ी जा रही है उसकी चिंता न वहां की सरकार को है और न हमारी सरकार को। हुज़ूर, आपके महान देश में भारतीय छात्रों की कैंपसों में हत्याएं हुई हैं। किसने क्या किया। ओबामा साहब इससे सस्ता सौदा और क्या होगा? दरअसल अंतर्राष्ट्रीय कानून या परंपराएं योरोपिय और पश्चिमी देशों की जरूरतों के नज़रिए से बनाए गए हैं। अब जब मंदी के फेर में विकसित दुनिया पड़ी तो आपको इसका गणित समझ में आया कि अगर हमारे देश का युवा वर्ग चीनी और हिंदी जैसा मेधावी और मेहनती होता तो इतना धन बाहर न जाता। आप तो बेहतर समझते हैं गरीब का बच्चा चाहे देश हो विदेश, आसायश में वक्त बरबाद नहीं करता अपनी हालत सुधारने के लिए पहले हाथ पैर मारता है। आपने तो स्वयं सहा है। अमीर और साधन संपन्न मग़रूर भी हो जाता है और अपने शौकों की परवरिश बच्चे की तरह करता है। हमारे देश के अधिकतर मेधावी बच्चे उसी गरीब वर्ग के होते हैं। लेकिन उनको संवेदनाहीन बना के दूसरे देशों में भेजा जाता है। इसे आप संवेदना का वन्ध्याकरण भी कह सकते हैं। जिससे वे आपके लिए समस्या न बने। इतना उत्साह भर दिया जाता है कि देशज दुख सुख उन्हें सालते नहीं।<br />आपका यह कथन भले ही हमें अपने बच्चों की फिलहाल प्रशंसा महसूस हो। हम कुछ समय हर्षित भी हो लें पर वह आपके बच्चों को ईर्ष्या से भरने के लिए काफ़ी हैं। नतीजा वही होगा जो आस्ट्रेलिया में हो रहा है। उन्हें बचाने के लिए बहुत कुछ कहा और किया जाएगा पर अंततः यही होगा उनका न शहीदों में नाम रहेगा न देश भक्तों में। जो लौटेंगे वे सपनों का मलबा लादे। आपका यह भाषण हमारे पक्ष में न होकर विरुद्ध है। ईर्ष्या ऐसी आग है जो नज़र नहीं आती पर धीरे धीरे आधार को ख़ाक कर देती है।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-64790188323472117562009-06-15T22:44:00.000-07:002009-06-15T22:59:44.765-07:00साहित्य, संवेदना भाषा परंपरा<br /><br />साहित्य यानी भाषाई साहित्य हमारी पहचान है। लेकिन माना जाता है कि जो साहित्य अंग्रज़ी में लिखा जा रहा है वह देश की पहचान है। ज़िंदगी से हम जूझते हैं उसके साथ दो दो दो हाथ हम भाषाई लोग करते हैं, भूख और तिरस्कार हम ओटते हैं। लेकिन वे लोग जो अपनी भाषा की जगह बाहरी भाषा में उसका रूपांतरण कर देते हैं, और जिसको विदेशी भाषा भाषी स्वाद बदलने के लिए या अपनी ज्ञान वृद्धि के लिए सोर्स सामग्री मानकर, अपना गवेषणा का आधार उस आयातित ज्ञान मंजुषा को सजा कर ख़ुश होते हैं, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं। मैं इस बात के खिलाफ़ नहीं कि हमारा अनुभव बाहर न जाए। ज़रूर जाए पर उसकी दो शर्तें होनी चाहिएं एक तो ज़मीनी अनुभव यानी लेखक जिसे ज़मीन से जु़ड़कर अर्जित करता है और उसे अपने अनुभव की भाषा में अभिव्यक्त करता है उस प्रक्रिया के साथ संलग्नता। दूसरी जातिय पहचान। अनुभव की भाषा ही अनुभवों को बिंब और जीवंतता देती है। मैं य़ह नहीं कहता कि अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं में संवेदनात्मक बिंब और जीवन के जीवंत चित्र संभव नहीं होते। ख़ूब होते हैं। शेक्सपियर मे मिलने वाली भाषाई चित्रात्मकता कालीदास से सर्वथा भिन्न है। चाहे प्रकृति हो या मानव मन की स्थितियां हों। कोई भी बड़े से बड़ा विदेशी कलाकार या लेखक मेघों को विरहिणी प्रेमिका का दूत बनाकर पर्वत पर्वत, जंगल जंगल, मौसम मौसम प्रीयतम के पास संदेश लेकर भेजने की कल्पना नहीं कर सकता। अगर करेगा तो परिवेश के साथ उसकी अंतरंगता कालीदास जितनी गहरी शायद न हो। इसी तरह शेक्सपियर की तरह ‘कमज़ोरी का नाम ही औरत है’ कहने में भारतीय लेखक को बहुत कसरत करनी पड़ेगी। दुर्गा काली सरस्वती सब सामने आ खड़ी होंगी। वातावरण और प्रकृति, संवेदना और भाषाई अभिव्यक्ति का अंतरंग स्त्रोत होती है। हम अपनी मातृ भाषा में ही जीते हैं। वही हमारे अनुभव और अभिव्यक्ति की कमलनाल है।<br />सवाल उठता है कि इस कमलनाल को हम दूसरी भाषाओं में कैसे प्रत्यारोपित करते हैं। क्या क़लम बांधते हैं? क़लम परिवर्धन नहीं करती। वह अपने स्टेम पर ही अपने रंग का प्रस्फुटन करती है। इसीलिए कलम के नीचे फूटने वाली देसी कल्लों को तोड़ते रहते हैं। वैसे कलम बांधकर उसे सुरक्षित रखना भी एक कला है। दूसरा विकल्प है विदेशी संस्कार या सभ्यता के लिए हम अपने साहित्य को पनीर की तरह उपयोग में लाते हैं। यानी जिस देसी पौध पर कलम बांध रहे हैं वह मूल रूप में मौजूद रहता है लेकिन रंग वही होते हैं जो आयातित संस्कार उसमें कलमबंद किए गए हैं। हिंद स्वराज में विदेशी सभ्यता को शैतान की सभ्यता कहा गया है। साहित्य चाहे वह किसी भी देश या सभ्यता से ताल्लुक रखता हो वह केवल समाज का ही नहीं अपनी संस्कृति और सभ्यता का भी संवाहक होता है। हमारा साहित्य हमारे जातिय संस्कारों और चिंतन को अभिव्यक्त करता है। भाषा, अनुभव, अनुभूति और चिंतन सब कुछ उसे अपनी जड़ों से मिलता है। लेकिन हमारे अनेक लेखक जो अंग्रेज़ी में लिखते हैं अधिकतर की विषय वस्तु विदेशी पाठकों को ख़ुश करने वाली होती है। सेक्स एक ऐसा माल है जो विदेशी बाज़ार में ख़ूब खपता है। जब ‘व्हाइट टाइगर’ को बुकर सम्मान मिला तब बुकर संस्था के पूर्व अध्यक्ष ने कहा था कि भारतीय अंग्रेज़ी लेखक अधिकतर सेक्स ओरियन्टेड उपन्यास लिखते हैं। अपने देश के बारे में क्यों नहीं लिखते? अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय लेखकों पर इस तरह के विदेशी विद्वान आलोचकों की बात का कोई असर होता है या नहीं यह तो कह सकना किठन है हालांकि देश के अनेक विद्वानों को सेक्स के प्रति उनका अतिरिक्त आग्रह अखरता है। क्या उनके ऊपर बाज़ार का दबाव है। जब टाल्सटाय का उपन्यास ‘वार एण्ड पीस’ आया था तो सामान्य पाठक रूस के बारे में कम जानते थे। लेकिन संवेदना और जीवनाअनुभव की व्यापकता के कारण भारत के ही नहीं संसार भर के पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया था। स्व. रोडारमल द्वारा किया अनुवाद गोदान का अंग्रेज़ी अनुवाद अमेरिका में उसके व्यापक सामाजिक संदर्भों के कारण शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है।<br />इन सब बातों के पीछे मेरे कहने का तात्पर्य केवल यह है भले ही राजनीतिक कारणों या अंग्रज़ी की चकाचौंध से हिंदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य हाशिए पर है लेकिन भारत के जीवन की विविधता भारतीय भाषाओं के साहित्य में है। उदाहारण के लिए संसार के 19वीं सदी के सबसे ऐतिहासिक और त्रासद भारत विभाजन पर उपन्यास अंग्रज़ी में नहीं लिखा गया जबकि बड़े बड़े अंग्रेज़ीदां प्रशासक और विचारक विभाजन से जुड़े थे। उन्होंने जीवनियां लिखीं लेकिन साहित्य ओर उस समय की बनते बिगड़ते सांस्कृतिक परिवेश की तरफ़ न्यूनतम नज़र गई। अलबत्ता हिंदी उर्दू में ज़रूर लिखे गए। यशपाल का झूठा सच, उदास नस्लें भीष्म जी का तमस इसके उदाहारण हैं। जब मैं मारक्वेस की रचनाऐ़ं पढ़ता हूं, ख़ासतौर से हंड्रेड ईयर्स आफ सालिट्यूड पढ़ते हुए तो मैं चकित रह जाता हूं कि अपने सीमित देशज परिवेश में विश्व की संस्कृति को अपने अंदाज़ में समेट लेते हैं। चाहे नियोग हो या उन ख़ित्तों में होने वाली लड़ाईयां हों या अंधविश्वास हों। लोक कथाएं हों या परास्वप्न हों और हज़ारो मील दूर भारत से आने वाली कथा परंपरा और भविष्यवाणियों के संदर्भ और भोजपत्र पर संस्कृत में लिखा इतिहास हो। संवेदना और कथा संदर्भों का ऐसा विलक्षण जुगाड़ और ऊनको आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता ही उसे महान बनाती है। एक समानान्तर महाभारत की संकल्पना अपनी धरती और परिवेश में रोपित करना इस बात का द्योतक है कि लेखक इस ख़तरे को उठाने के लिए तत्पर है कि अस्वीकृति उसकी रचनातमकता को किसी हालत मे छोटा नहीं कर पाएगी। वह भी अपनी भाषा में। शायद ज़मीन से जुड़कर रेंगने की अदम्य शक्ति ही लेखक को ऊपर और ऊपर उठाती है। मैं अंग्रेज़ी काम भर की जानता हूं। लेकिन जब भारतीय अंग्रेज़ी लेखकों की रचनाएं पढ़ता हूं तो मुझे अकसर महसूस होता कि जिस तरह वे स्लैंग का इस्तेमाल करते हैं वह मूल विदेशी लेखकों के स्लैंग प्रयोग से भिन्न होता है सच कहूं तो कमज़ोर होता है। कई बार तो नक़ल लगता है। अंग्रेज़ी के एक भारतीय उपन्यास में भाई बहिन के प्रेम संबंध को काफ़ी खुलेपन से प्रदर्शित किया गया है। उसके बारे में संभवतः टाइम मैगज़ीन में राइटअप पढ़कर काफ़ी आतंकित हुआ था। बोल्ड तो था। नग्नता शायद किसी शक्तिशाली तानाशाह के विरोध से भी अधिक बोल्ड होती है। लेकिन संलग्नता और समरसता की दृष्टि से वह कमज़ोर था। दरअसल वह लेखक की ख़ता नहीं। जिस पृष्ट भूमि से कोई भी भारतीय लेखक आता है उसमें उन स्थितियों के लिए जिन्हें वह गढ़ रहा है अगर उसमें उनके अनुसार न सटीक बिंब हों और न भाषा संसार तो वह गढ़ा हुआ कहा जाएगा। स्थितियों से अपरिचितता रचनात्मक संवेदना को क्षति पहुंचाती है। भाषा उधार ली हुई हो तो लुहार की तरह ढांचा खड़ा करके बढईगिरी करके सजाना अनिवार्य हो जाता है। यह तब तक करना होता जब तक वह संवेदना समाज पर आरोपित न कर दी जाय। क्या यह संभव है कि आयातित माल को अपना उत्पाद मानकर हम हम आत्मसात कर लें? यह किसी भी संवेदनशील साहित्यिक समाज के लिए कठिन परीक्षा होगी।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-25466662593725071022009-06-11T00:22:00.000-07:002009-06-11T00:23:28.762-07:00सामान्य आदमी और ज़मीदोज़ कलाकृतियां<br /> 7 जून 09 के हिंदू में ‘A grocer with an eye for antiques, archaeological sites’ पढ़ा तो मुझे राहुल जी के साथ हुई एक घटना याद आई। वे इलाहाबाद आए हुए थे। सवेरे महात्मा गांधी रोड़ पर टहलने जा रहे थे। साथ में व्यास जी और कोई और एक सज्जन थे। व्यासजी स्वयं एन्टीक्स का ज्ञान रखते थे और इलाहाबाद संग्राहालय के शायद डायरेक्टर थे। राहुल जी एकाएक सी पी एम कालिज के सामने लगे पीपल के एक पेड़ के सामने रुक गए। कुछ देर खड़े उसकी जड़ों की तरफ़ टकटकी लगाकर देखते रहे। व्यास जी ने पूछा ‘क्या देख रहे हैं राहुल जी’। वे बोले अभी बताता हूं। दूसरे आदमी से कहा आप ज़रा दो तीन रिक्शा वालों को बुला लें। किसी के पास बेलचा हो तो लेता आए। नहीं तो हाथों से ही काम चलाएंगे। तीन चार आदमी आ गए बेलचा भी आ गया। उन्होंने स्वयं बेलचे से धीरे धीरे मिट्टी हटाई। एक मूर्ति दिखाई पड़ी। थोड़ी मिट्टी और हटाई। फिर जिन आदमियों को बुलाया उनसे कहा इसे धीरे धीरे हिलाकर निकालना शुरू करो। झटका न लगे। लगभग घंटे भर की मशक्कत के बाद लगभग डेढ़ दो फ़िट की किसी देवी की प्राचीन मुर्ति बाहर निकल आई। वहीं उसे धुलवाई। राहूल जी इस बीच चुप रहे। व्यास जी कह रहे थे कि शायद इसे मूर्तिचोर दबा गए। राहुल जी ने कहा ‘जब ज़मीन के अंदर से दबाव बनना शुरू होता है तो मिट्टी फूलने लगती है। धरती के अंदर दबी वस्तु ऊपर आने लगती है। यह मूर्ति दसवीं शताब्दी की मालूम पड़ती है।‘ बाद में उन्होंने व्यास जी के ज़रिए म्यूज़ियम में भिजवा दी।<br />‘ग्रोशर्स आई’ पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना का ध्यान आ गया। राजस्थान के ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की बूंदी में पड़चूनिए की दुकान करते हैं। हड़ौती क्षेत्र में दबी कलाकृतियों को उन्होंने निकाला है। हालांकि वे आठवी क्लास तक पढ़े हैं लेकिन उनकी नज़र कलाकृतियों को उसी तरह पहचानती है जैसे राहुल जी की नज़र ने ज़मीन में दबी मूर्ति को पहचान लिया था। कुक्की ने हड़ौती की मिट्टी में दबी संस्कृति को उन कलाकृतियों के रूप में एक तरह से ईजाद किया है। सारी ज़िंदगी इसी काम में लगा दी। किसी लालच में नहीं बल्कि कलाकृति और प्रचीन संस्कृति के प्यार में । अगर कुक्की चाहते तो वे भी अनेक स्मग्लरों की तरह अपने परिवार को एक सम्मानजनक जीवन दे सकते थे। विंध्याचल पर्वत श्रेणी में नमना स्थान में उन्होंने हरप्पापूर्व संस्कृति की तांबे और पत्थर की कलाकृतियों का भंडार खोजा है। प्राचीन राक पेंटिंग्स उनके संग्रह में हैं।<br />ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की मानते हैं कि मैं जानता था कि कि बूंदी प्रचीन सभ्यता की कलाकृतियों से भरा पड़ा है। मेरा मानना है कि गराडा नदी के किनारे 35 किलो मीटर लंबी पट्टी में सैंकड़ों चट्टानी गुफाएं है। इतनी लंबी आरकियोलाजिकल कलाकृतियां की पट्टी शायद ही दुनिया में कहीं हो। उसके पास 400 बी सी का ,सबसे पुराना सिक्का है। हालांकि वह समान्य पढ़ा लिखा है लेकिन उसने सब आर्कीयोलियोजिकल उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया है, जहां जहां इस क्षेत्र में दुनिया में काम हुआ है, उसका इल्म है। उसे इस बात का दुख है उसका काम दुनिया में किसी से कम नहीं। पश्चिम देशों में इस क्षेत्र में काम करने वाले तत्काल प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं। मैं दो दशक से अपने परिश्रम की स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहा हूं।<br />राहुल जी ने भी शिक्षा की दृष्टि से बड़ी बड़ी डिग्रियां प्राप्त नही थे। लेकिन उन्होंने गुना था। उसी ने उन्हें अनेक विषयों का उद्भट विद्वान बनाया। कुक्की में समर्पण है। अपने काम के प्रति लगाव है। इस तरह के बहुत से लोग मुफ्फ़सिल जगहों मे अभी भी मिल जाएंगे जिनके पास प्राचीन कलाकृतियां हैं लेकिन वे सरकार और पुलिस के डर के मारे निकालने में डरते हैं। दरअसल लोगों की नियमों के प्रति अनभिज्ञता भी इसका कारण है। बहुत से लोगों को वे लोकेशन्स मालूम हैं जहां प्राचीन कलाकृतियां दबी पड़ी हैं। वे दो कारणों से नहीं बताते 1. स्थानीयता का मोह, 2. पुलिस का भय। कानपुर में मकान बनवाते समय ज़मीन से काफ़ी सोने के सिक्के निकले थे वहां लूट मच गई थी। बाद में पुलिस ने बरामदी भी की, पर सब नहीं कर पाई। डा. जगदीश गुप्त हरदोई के शायद बिलग्राम के पास किसी गांव के रहने वाले थे। उनको तांबे के बने हथियार टेराकेटाज़ भांडे आदि प्रचीन कलाकृतियों का ज़खीरा मिल गया था। उस ज़माने में विभिन्न संग्रहलयों में महीने में एक बार वाज़ार लगता था। उसमें कलक्टर्स अपनी अपनी कलाकृतियों के साथ एकत्रित होते थे संग्रहालय उन कलाकृतियों को अच्छे दामों पर खरीदते थे। जगदीश जी ने नागवासुकी पर पहला मकान बनवाया तब बताया था धरती का पैसा धरती मे लगा दिया। लेकिन शायद बूंदी के इस अम्यचोर आरक्योलिजिस्ट को इस बात का इंतज़ार है कि उसके काम को अंतर्राष्ट्रीय एकेडेमिक दुनिया मे स्वीकृति मिले। कम से कम भारत सरकार तो उसके काम का संज्ञान ले।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4925185596568118507.post-85514358911414074442009-05-24T03:00:00.000-07:002009-05-24T03:03:09.432-07:00Lohia aur sahityaलोहिया और साहित्य<br /><br /> 23 मार्च 09 को डा. राममनोहर लोहिया की जन्म शताब्दी का आरंभ हुआ। दिल्ली के मावलंकर हॉल में उसकी शूरूआत खांटी लोहियावादी नेता और साथी जनेश्वर मिश्रा ने की। मुझे भी उसमें शिरकत ranकरने के लिए बृजभूषण जी और आनन्द भाई ने बुलाया था। एक गोष्ठी की अध्यक्षता भी कराई। इलाहाबाद प्रवास के दौरान डा लोहिया से संपर्क हो गया था। जब 1962 में आ. चंद्रभानु गुप्ता जी ने चुनाव लड़ने के लिए कहा तो मैंने माफ़ मांग ली थी। जब मुझे अध्यक्षीय भाषण देने के लिए कहा गया तो लेखक होने के नाते मैंने साहित्यिक संस्मरण सुनाने का निश्चय किया। मैं जानता था कि वहां पर उपस्थित लोहियावादी शायद ही इस तरह की बातें सुनने न आए हों। लेकिन चंद घटनाएं सुनाई।<br />जब लोहिया जी अपने काफ़ले के साथ आते थे तो सबसे पहले उनकी नज़र काफ़ी हाउस का नज़ारा करती थीं। हम नए लेखक बैठे होते थे ज़रूर पूछते कुछ लिखते पढ.ते भी हो या नहीं। देश की उन्नित के साहित्य ज़रूरी है। वही देश की पहचान बनता है।<br />एक बार स्व विजयदेव नारायण साही ने बताया कि लोहिया जी ने निराला जी से मिलने की इच्छा प्रकट की। साही जी ने कहा कि उनके मूड पर निर्भर करता है वे कैसा व्यवहार करें। उल्टा सीधा कुछ कह दिया तो बर्दाश्त कर सकेंगे।<br />चलो देखते हैं। उम्र में बड़े ही होंगे। वे दोनों दोपहर बाद पहुंचे निराला जी सोकर उठे थे। उन्होंने जाते ही पूछा कहो साही कैसे आए।<br />साही जी ने कहा आप से लोहिया जी मिलना चाहते थे। उन्हें आपसे मिलाने लाया हूं। उन्होंने उनकी तरफ़ देखा। जवाहरलाल तो इलाहाबाद के होकर कभी नहीं मिले, आप कैसे आ गए। लगता है वे लोहिया जी को उनके बराबर रखते थे।<br />आप देश के बड़े कवि हैं आप से नहीं मिलेंगे तो किससे मिलेंगे। निराला जी ने लंबा सा हूं किया जैसे उनकी हां में हां मिला रहे हों। निराला जी ने अपने आप ही बड़बड़ाया जवारलालआते तो उन्हें भी चाय पिलाता। उनके पास लुटिया थी बाल्टी में से पानी भरकर अंगीठी पर रख दिया। और पूछा –तुम भी कविता लिखते हो?<br />जी नहीं पढ़ता हूं?<br />क्या पढ़ा?<br />उन्होंने कहा आपकी राम की शक्तिपूजा। उन्होंने लंबा सा हूं किया। लोहिया जी बोले उसने मुझे प्रेरणा दी है। तब तक चाय बन गई थी।<br />मैं सोचता हूं कि क्या आज शायद ही ऐसा कोई राजनेता होगा जिसने राम की शक्ति पूजा पढ़ी हो प्रेरणा लेना तो दूर की बात है। चाय पीकर जब लोहिया जी निकले तो निराला जी बुदबुदा रहे थे फिर आना।<br /><br />कई बातें लोहिया जी के संदर्भ में ध्यान आती हैं मुझे अंग्रज़ी हटाओ आंदोलन में जनेश्वर जी के साथ काम करने का अवसर मिला था। इस कार्यक्रम के अगले दिन मैंने सब हिंदी और अंग्रेज़ी अखबार देखे। इतने बड़े व्यक्ति के जन्म शताब्दी के आरंभ के बारे में अखबारों ने क्या रपट छापी। अंग्रेज़ी का तो उन्होंने विरोध किया था। उन्होंने रपट नहीं छापी तो बात समझ में आती है लेकिन मेरे लिए आश्चर्य की बात थी कि जनसत्ता को छोड़कर किसी भी हिंदी अखबार ने उस कार्यक्रम का नोटिस नहीं लिया था।अगर गांधी और लोहिया न होते तो इन हिंदी अखबारों का पता नहीं क्या स्थिति हुई होती।गिरिराज किशोरhttp://www.blogger.com/profile/03766307171336096893noreply@blogger.com6