संतो, देश के लिए है हिंसा के लिए नहीं
कई बार एक सवाल दिमाग़ में आता है यह देश कैसे चलेगा और कैसे चल रहा है? आप कहेंगे कि देश के चलने में इस आदमी को क्या मुश्किल नज़र आ रही है? बडे मज़े में सब चल रहा है। धर्म परायण देश है। हिंदू हों या मुसलमान या सिक्ख या फिर इसाई, सबके पास धर्म का ऐसा आधार हे कि अपनी अपनी हर समस्या का समाधान उसमें तलाश कर लेते हैं। टी वी देखना एक धर्म में कुफ्र है दूसरे में मुखौटा लगाकर नाचना धर्म विरुध्द है, तीसरे में धर्म बदलने की आज़ादी पाप है। यहां तक कि साहित्यिक कृतियों के बारे मे भी धर्म के ठेकेदार निर्णय ले रहे हैं। क्या हम धर्म को सर्वोपरि मानते हैं? यह अर्ध सत्य है। उसमें क्या श्रेष्ठ है और क्या नहीं इस विषय पर विद्वत्जन सामुहिक विचार करना नहीं चाहते या ऐसा करने से डरते हैं? क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है? अगर ऐसा हुआ तो देश मुश्किल मे पड़ जाएगा। इतने धर्म, तो कितनों की तानाशाही बर्दाष्त करनी होगी? धर्म तानाशाह नहीं होता। कर्मकांड तानाशाही करता है। उसकी व्याख्या यानी इंटरप्रेटेशन में तानाशाही का अंदाज़ होता है, यह उचित यह अनुचित, यह पाप यह पुण्य। वेदों को कितने लोग जानते हैं? क़ुरान पाक के कितने के आलिम फ़ाज़िल हैं? वेदों की तरफ़ से पंडित बोलते हैं और क़ुरान की तरफ़ से मौलवी, गुरूग्रंथ साहब की तरफ़ से ग्रंथी, बाइबिल की तरफ़ से फ़ादर। यह एक दूसरी तरह की अनभिज्ञता है जो धर्म का गुलाम बनाती है। जा हम समझते नहीं और उस पर विश्वास करते हैं तो यह दूसरा गुलामी का दरवाजा है। गुरूओं से कौन पूछे कि आपने यह कैसे फ़तवा दिया। 'ऊपर' वाला तो डंडा चलाएगा नहीं, बाक़ी सब उसका डंडा संभाले हैं। लेकिन लगता है उनका आपस में कुछ अनुबंध है। शंकराचार्य बनने के बारे में वे मनमानी कर सकते हैं। शहर काज़ी के बारे में उनकी राय मुख्तलिफ़ हो जाती है और अपने आपको स्वत: लोग काज़ी घोषित करने में मुज़ायका नहीं समझते।
ये बातें इसलिए ज़हन में आती हैं कि आम आदमी अपनी आदमियत साबित करना चाहे तो उसे इन्हीं मुल्ला मौलवी और पंडितों के पास जाना पड़ेगा। उसकी सनत पर उन्हीं की मोहर लगेगी। इस बीच लगता है कि धर्म ज्यादा ताक़तवर हुए हैं। 15 नवंबर को एक प्राइवेट चैनल पर वाराणसी के धर्मगुओं की सभा के महामंत्री बता रहे थे स्वामी दयानंद पांडे उर्फ़ अमृतानंद को उस सभा ने शंकराचार्य नहीं बनाया। उनमें एक दो लोगों न ज़बरदस्ती पीठ भी बना दी और उन्हें शंकराचार्य भी घोशित कर दिया। यही कहानी ब्ल्यू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में घटित हुई थी। यह क्या है? अधिकारिक प्रवर समिति दयानंद जी को शंकराचार्य मानती नहीं, राजनीति मानती है। उसकी सुविधा और नीति को वे सूट करते हैं। इतने साधू अनाचार में पकड़े जाते हैं लेकिन उनके बारे में बात करना राजनीति के लिए लाभकारी नहीं। दयानंद और प्रज्ञा साध्वी यहां तक कि कर्नल पुरोहित उनके उद्देश्य की सिध्दि में फ़िट बैठ रहे हैं। हिदूवादी संगठन धार दे रहे हैं कि सरकार सेना और साधुओं को अपमानित कर रही है। अपने हित में अपमानित होने वालों का एक युग्म बना लिया। मज़े की बात है कि इस युग्म में एक स्वामी, एक अदद् साध्वी और फ़िलहाल एक कर्नल है। तोग़ड़िया आदि फ़तवा दे रहे हैं पूरा साधू समाज और पूरी सेना अपमानित हो गई। जब कि इन पर क्रिमिनल चार्जेज़ लगे हैं साबित होना बाक़ी है। हो सकता है वे बगुनाह हों, लेकिन जांच तो हो जाने दीजिए फिर कहिए। गेरूए वस्त्र धारण करने से कोई व्यक्ति जुर्म से निरापद नहीं हो जाता, न वर्दी पहन लेने से। अभी पीछे स्टिंग आपरेषन ने दिखाया था कितने बड़े बड़े श्वेतंबरी और भगवा सन्यासी काले धन का व्यवसाय करने में लिप्त पाए गए थे। अब हिंसा में लिप्तनजर आ रहे हैं। हिंसा बोने वाले अन्य देश उसकी आतशी फ़सल से नहीं बचे। अगर आप आग के बीज अपने धर्म और देश मे बोएंगे आप तो अंदर बाहर दोनों तरफ़ से मारे जाएंगे। आप हिंदूवादियों इससे बचने की तदबीर करो। मुझसे एक पत्रकार ने पूछा इस धर्मवाद के बढ़ने का क्या कारण है? मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं। एक सोच है। वह सोच परिस्थितिजन्य अधिक है। मनोवैज्ञानिक भी कह सकते हैं।
देश के सामाजिक ढांचे में इधर मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। एक क्रांतिकारी परिर्वतन तो मंडल कमिशन के लागू होने से हुआ है। दूसरा आरक्षण से। जिसने समाज के परंपरागत ढांचा बदल दिया। जिनकी पहचान नहीं थी उन्हें पहचान मिल गई। नतीजतन पहले जातिगत राजनीतिक पार्टियां बनीं। जातिगत वर्चस्व की ज़ोर आज़मायश सबसे अधिक राजनीति में हुई। फिर माया-मिश्रा समीकरण ने सत्ता के लिए सोशल इंजिनियरिंग के फ़ंडे द्वारा अन्य जातियों को ताश के पत्तों की तरह बांटना षुरू किया। इस प्रक्रिया ने र्सवणों को राजनीतिक ख़ानाबदोश की स्थिति में ला दिया। जो वर्ग सदियों शासक और नियामक रहा हो वह कुछ कहे या न कहे लेकिन आहत तो होगा। मुसलिम्स ने देश पर कई सौ साल राज किया था जब अंग्रेज़ आए तो उनके मन में अपनी प्रजागत स्थिति से वर्षो वर्षो असंतोष रहा। 1857 में उनके बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के पीछे एक यह भी कारण था। देशभक्ति की बात रही होगी या नहीं होगी पर अंग्रेज़ों के प्रति उनका आक्रोश था, वे उन्हें तख्त से तख्ते पर ले आए थे। सवर्ण सदियों की इस पीड़ा को कैसे भूल जाएंगे। हालांकि उनके द्वारा किए गए अत्याचारों का उनके पास कोई रिकार्ड नहीं है। लेकिन अपने वर्चस्व के जाने का मलाल ज़रूर है। उसका प्रतिकार वे राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखकर करना चाहते हैं। उसके लिए धर्म और संतो का वर्चस्व बनाए रखने का तरीक़ा ही शायद उनके पास है। पहले हिंसा फुटकर स्तर पर होती थी। जैसे उडीसा में नन के साथ सामुहिक बलात्कार और जलाना, विदेशी फ़ादर और उसके बच्चों की जलाकर हत्या करना। उस वक्त भी हिंदूवादी वर्ग ने हत्यारों का बचाव किया था। लेकिन जैसे समाचार आ रहे हैं और वे सही हैं, तो लगता है कि तालिबान और पड़ौसी देश के आतंकादियों की तरह अपने देश में भी संगठित आतंकवाद की संभावना की तलाश शुरू हो गई है। क्या इससे धर्म की श्रेष्ठता या सवर्ण-वर्चस्व स्थापित होगा? हिंदू धर्म के देवी देवता भले ही विभिन्न आयुधों से संपन्न नज़र आते हों पर निर्दोषों के लिए नहीं। इसका उदाहारण है कि तुलसी ने मानस में शांबूक प्रकरण को नहीं रखा। वे जानते थे यह प्रकरण समाज के हित में नहीं है। हिंदू धर्म में वर्णव्यवस्था के कारण बहुत ज़हर फैला है अगर धर्मगत संगठित हिंसा का देश में आरंभ हो गया तो इस देश में इतने धर्म हैं कि अगर वे सब इस रास्ते पर उतर आए तो न धर्म बचेंगे धर्म मानने वाले। जो साध्वी या साधू या राजीतिज्ञ ऐसा सोचते हैं वे कभी न समाप्त होने वाली सिविल वार को निमंत्रण दे रहे हैं। जो ऐसा कर रहे हैं साधू संत उनके मन परिवर्तन करके शांति के गोल में ला सकते हैं लेकिन उनसे बदला लेने के लिए देश को आग में झोकने की गलती न करें। राजनीतिज्ञ तो इधर भी आग सेकेंगे उधर भी। संतो, ये देश बेगाना नहीं।
गिरिराज किशोर 11/210 सूटरगंज कानपुर 208001
Monday, 17 November 2008
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5 comments:
आप को नेट पर देख कर अच्छा लगा। स्वागत है।
feel good to see your Blog . From Tanuja JNU. Email: tanuja_rashmi@yahoo.co.in
feel good to see you and your blog . Thanks With regards ; Tanuja Rashmi JNU.
Dhanyavad, apki WS mai dekhta hoon, badhai. Aap chahen to is blog ke bare mai batayen. mai social problems per hi likhta hoon.
aap ka blog aaj dekha.. aur pahle khudi ko kar buland... padha kafi acha laga.
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