6 नवंबर 2008
बचपन में हम लोग अंताक्षरी खेला करते थे। अंताक्षरी आरंभ करने से पहले कहते थे 'शुरु करो अंताक्षरी ले कर हरी का नाम'। कुछ कुछ ऐसी ही अनुभूति इस समय हो रही है जब पहली बार अपने ब्लॉग पर अपना संदेश आप तक भेज रहा हूं। आपके मन में सवाल आ सकता है कि यह ब्लॉग मेरे पास कहां से आया। इस जिज्ञासा को षांत करने से मुझे डबल लाभ होगा। एक तो यह कि आपकी यह बदगुमानी दूर हो जाएगी की यह दुलर्भ काम मैं कर सकता हूं। सत्य भी आपको पता चल जाएगा। दीपावली पर विंग कमांडर ए के कुलश्रेष्ठ एवं उनकी पत्नी और कथाकार मनीषा जी ने मुझ ये इनायत फ़रमाया। दाता सुखा भव।
पहले ही संदेश में मुझे आपसे मराठा मानुस के प्रसंग के बारे में बात करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र इस देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा पन्ना है। मुझे सबसे पहले 1857 याद आता है। नाना राव पेशवा पूणे से निर्वासित होकर कानपुर के पास गंगा किनारे उस समय के महत्तवपूर्ण नगर बिठूर, अपने पूरे अमले के साथ आकर बस गए थे। तात्या टोपे उनके मित्र और सलाहाकार थे। लेकिन आरंभ के कुछ दिनों को छोड़कर नाना साहब की गोरी हुकूमत से बिल्कुल नहीं पटी। यहां तक कि अंग्रेज़ों ने उनके प्रीविपर्स तक पर हमला किया। उस समय अज़ीमुल्ला ख़ां उनके वज़ीर थे। वे अंग्रेज़ों के दोस्त थे। उनकी परवरिश भी एक पादरी के घर में हुई थी। लेकिन अज़ीमुल्ला ने उनका साथ दिया और उनका मुक़दमा प्रीवि काउंसिल तक लड़ा। बाद में उनका बिठूर का महल तोप से उड़ा दिया गया। उत्तर भारत के लोग उस महल के बचे हुए एक पाखे के श्रध्दा भाव से दर्षन करनें जातें हैं। उनके परिवार के एक सदस्य को रेलमंत्री लालू जी ने बिना किसी परीक्षा और औपचारिक चयन के रेल में नौकरी दी। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में अपने जमाने की मशहूर तवायफ अज़ीज़न बाई ने नाना तात्याटोपे का साथ दिया। वह घोड़े पर चढ़कर एक हाथ में रोटी दूसरे हाथ में कमल लेकर अंग्रजों की छावनी में जाती थी। एक एक भारतीय सिपाही को विद्रोह के लिए प्रेरित करती थी। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की परवरिश बनारस और कानपुर में हुई। अंग्रेज़ों के साथ उनकी लड़ाई में उनके सिपाही सब उत्तर भारतीय थे। झलकारी बाई जो दलित थी उनकी अंग रक्षक और सेनानी थी। मोहम्मद ग़ौस तोपची लड़ते लड़ते मारे गए थे। ग्वालियर और इंदौर में मराठा सम्राज्य रहा। उत्तर भारत ने सदा सम्मान दिया। आज भी देता है।
आज़ादी की लड़ाई के मुख्य सेनानी कौन थे? दादाभाई नौरोजी, सर फ़ीरोज़ षाह, तिलक महाराज, गोखले आदि सब महाराष्ट्र मानुस थे। अगस्त क्रांति कहां से हुई? महाराष्ट्र से। अंग्रेज़ो भारत छोड़ो का नारा और करो या मरो को क्या भूला जा सकता है? जिस आवाज़ पर पूरा देश एक जुट था आज वहीं से यह एक अलग आवाज़ क्यों आ रही है मरो नहीं, मारो? क्या यह महाराष्ट्र से आ रही है? महाराष्ट्र संकीर्णता का नाम नहीं, सागर जैसी विशालता का प्रतीक है। समुद्री हवाएं महाराष्ट्र मानुस को ही शीतल नहीं करती बल्कि वह सागर जहां जहां जाता है चाहे घर हो या बाहर, वह उस अनमोल हवा को वह बांटता जाता है। क्या अकेला मानस महाराष्ट्र को महान बनाए रख सकेगा? वह पहले राष्ट्र तो बने। महाराष्ट्र आज भी हर भारतीय को हिमालय की तरह आकर्षित करता है। महाराष्ट्र के इस विष्व व्यापी तिलिस्म को तोड़ दोगे तो क्या बचेगा? रोटी के साथ कमल भी चाहिए जो एकता का प्रतीक है सात पत्तियां एक ही पराग बिंदू से जुड़ी हैं। यह बात अलग है राजनीति ने उसे भी मैला किया है। पर कमल कमल है।
Thursday, 6 November 2008
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1 comment:
Yes it is indeed a painful turn in Maharashtra's political scene and state and central government has become a mute spectator.
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