साहित्य का आविष्कार
भाषा एक चमत्कार की तरह मनुष्य के सामने आई। साहित्य भाषा का परिष्कार है। जब भाषा सामने होती है तो भाषा को भाषा के रूप में तो हम पहचानते हैं कि यह हमारी भाषा है हम इसी तरह जानते पहचाने हैं जैसे शक्लें पहचानी जाती हैं। वह भाषा के साथ प्रतिति मात्र होती है। हम जानते रहते हैं कि इस आदमी क साथ हमारा इससे कोई संबंध है, हम इसे पहचानते हैं। जिसे हम पहचानते हैं क्या जानते भी हैं, लेकिन उन जाने पहचाने, आप कह सकते हैं परखी शक्लों को, कितनी अंतरंगता से जानते बूझते हैं, शायद आंशिक रूप से। भाषा का संबंध भी मनुष्य के साथ लगभग इसी तरह का है। हम भाषा को केवल इतना ही समझते हैं जितना दैनंदनि व्यवहार में उससे संबंघ रहता है। यानी बोल चाल में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली से संपर्क रहता है। जैसे संपर्क मात्र मनुष्य को जानना नहीं होता ऐसे ही भाषा का संवाद या अभिव्यक्ति के स्तर प्रयोग भाषा को जानना नहीं होता।
आप पूछेंगे मनुष्य का भाषा से रिश्ता क्या है। इसका जवाब आसान नहीं। भाषा इंसान की मूलभूत ज़रूरत है। वह चाहे लिपी विकिसत कर पाऐ या नहीं संवाद की भाषा विकसित करने में कभी चूक नहीं करता। भले ही सीमित उपयोग की हो। कबीलाई भाषा भले ही बोली तक ही सीमित हो। कबीलाई भाषा प्राकृतिक ध्वनियों का परिष्कृत समुच्य है। आऱंभ में तो सभी भाषाओं के साथ कमोबेश यही हुआ होगा। लेकिन जैसे बोलियों ने भाषा का रूप ग्रहण करना शुरू किया मनुष्य की आंतरिक प्रतिक्रियाओं या कहिए अहसासों का समावेष होता गया। पशुओं और पक्षियों की ध्वनियों में भी उनकी संवेदनाओं का समिश्रण रहता है तभी वे कभी करुण कभी कर्कश समयानुकूल ध्वनियां निकालते हैं। पपिहे की करूण ध्वनि हमारे साहित्य का सर्वाधिक करुण आर्त स्वर माना जाता है। डहगल नाम के पक्षी के बारे में कहा जाता है कि वह सवेरे इस तरह मनोहारी सीटी बजाता है जैसे बांस के दरख्तों के बीच से हवा गुजरते हुए बोलती है। जैसे जैसे दिन च़ढ़ता है वैसे वैसे कर्कशता बढ़ती जाती है। मेरे कहने का मतलब है कि भाषा बाह्य वस्तु नहीं है जिसे हम एक उपकरण या यंत्र के रूप में इस्तेमाल कर सकें या पुराना समझ कर फेंक या बदल सकें। भले ही पशु पक्षियों की भाषा हमारी भाषा से बिल्कुल भिन्न हो लेकिन उसे छोड़कर क्या वे जी सकते हैं। शायद नहीं। आदमी भले ही जीले। उस स्थिति में उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम दैहिक हो जाएगा जो उसे अव्यक्त औऱ अपूर्ण्र बना देगा। भाषा का मूल आधार संवेदना है और उद्येश्य अभिव्यक्ति का विकास, विस्तार, संप्रेषण और परिमार्जन। दैहिक भाषा यानी बॉडी लेंग्वेज जिसका ऊपर जि़क्र किया, हाथ, पैर, मुखाकृतियां तो उसके माध्यम हैं ही लेकिन आँखे सबसे अधिक मुखर होती हैं। उनकी सीमित पर सटीक भाषा है। इस सबके बावजूद वे सब अभिव्यक्तियाँ न भाषा प्रमाण बन सकती हैं और न संवेदना का विस्तार करके उसमें कुछ जोड़ती हैं। भाषा का अर्थ है अक्षऱ समुच्य और अर्थ-समीकरण उनका विभिन्न रूपों में संप्रेषण तथा प्रक्षेपण। हर अक्षर-समुच्य की संवेदना उसी तरह उससे जुड़ी़ होती है जैसे प्रत्येक जाति के आम के साथ उसका स्वाद या रस। वह दूसरे अक्षऱ-समुच्य यानी शब्द के साथ मिलकर नए नए रूप धरती रहती है। घटती बढ़ती है। लड़की का विधवा होना औऱ पुरूष का विधुर होना, पिता का न रहना और माँ का न रहना संबंधित व्यक्ति से लेकर समाज तक अलग संदर्भों मे संप्रेषित होगा। पिता ने बेटी को प्यार किया, माँ ने किया, प्रेमी ने प्रेमिका को किया। प्यार एक ही शब्द है, संवेदना की अभिव्यक्ति के स्तर भी वज़न में समान है लेकिन हर रिश्ते के साथ प्रक्षेपण और प्रतिक्रिया अलग अलग होते हैं। भाषा एक ऐसा पिटारा है जो नए नए शब्द और नए नए अर्थ जादूगर की तरह निकालता जाता है। वे शब्द मात्र शब्द ही नहीं हैं ऊनके साथ संवेदना भी आती है। वह स्थिर नहीं होती घटती बढ़ती भी रहती है। जब घटने लगती है तो आयु की तरह वह भी समाप्त हो जाती है। यानी संवेदना विहीन शब्द विलु्प्त होते जाते हैं। माँ, जब तक जनन प्रक्रिया रहेगी यह शब्द रहेगा। ताज्जुब की बात है कि लगभग सभी भाषाओं में म से ही मातृत्व संबोधक संज्ञा मां, माता,मदर आदि बने हैं। म ही वह मूल धातू है जिसमें मां बसती है निकलती भी उसी में से है। यह बात अलग है कि गुजराती में मां बा हो गई लेकिन बा के पीछे अवधारणा मां की है। बड़ा आश्चर्य होता है जब आदमी का बच्चा भी पहला उच्चारण मा या म करता है और बकरी का बच्चा भी म या मैं.. करता है। बच्चा माता या माम नहीं कहता। ये शब्द कल्चर्ड संस्करण हैं। यानी संवेदना संबंध, ममत्व और संस्कार का संचयन माम माता मदर के मुकाबले म और फिर माँ में होता गया है। पिता के साथ शायद ऐसा नहीं।
यहां मैं गालियां का ज़िक्र भी करना चाहता हूं। गालियां भी मनुष्य के गुस्से या घृणा को जिसे आप भले संवेदना न कहें पर है वह संवेदना का ही विलोम उतनी ही या उससे भी अधिक कन्सनटरेटेड आक्रोश भाव की अभिव्यक्ति। उस भाव को अभिव्यक्त करने वाला मंत्र। मंत्र साधे जाते हैं। इन्हें क्रोध के मनोभाव की शाब्दिक सिद्धी भी कही जा सकती है जो तात्कलिक प्रतिक्रिया के रूप में आंतिरक विस्फोट की तरह अभिव्यक्त होती है। मेरा कहने का तात्पर्य है कि भाषा केवल शब्द संचयन नहीं है और न संभाषण का कोई मानव निर्मित उपकरण है। संवेदना उसकी आत्मा है। साहित्य उसे जानने पहचानने और बढ़ाने की जुस्तजू में रात दिन लगा रहता है। अनुभव के स्तर पर भी और अभिव्यिक्त के स्तर भी। भाषा और संवेदना साहित्य का सामुहिक आविष्कार है जो पता नहीं कब से चल रहा है और कब तक चलता रहेगा। शायद यह अनन्त प्रक्रिया है।
Thursday, 18 December 2008
Tuesday, 2 December 2008
अरदास
2 दिसंबर 08
मैं 1979 से स्वाध्याय और ध्यान से पूर्व कानपुर में रहते आठ दस लाइन लिखकर 'उसे' समर्पित कर रहा हूं। वह ज़माना आई आई टी के साथ संघर्ष का था। तब आप बीती अधिक होती थी। अब जैसा भाव आए उसे उसी तरह उतार देता हूं। मैं नहीं चाहता कि जब कभी मिलूं तो 'वह यह कह सके कि 'अरे तू ऐसा सोचता था, या इतना खुश या दुखी था, तूने मुझे बताया ही नहीं।' लिखता हूं जिससे रसीद तो रहे। तब हो सकता है उससे यहीं कहते बने इतनी अरदास आती हैं क्या करूं। पर मेरी तो लिखित थी कभी तो नज़र आशनाई करते। हालांकि मैं नहीं जानता 'वह' कौन है कहां है। वह सुनता है या केवल देखता है या कुछ भी नहीं करता। केवल तरंगों से ही काम चलाता है। या सब मेरे अपने दिमाग़ का सिर्फ़ फ़ितूर है? जो भी हो पर है। मैं अपनी तरफ़ से उसे लिख पढ़ कर बांधे रखना चाहता हूं। पर कहते है वह बंधता नहीं, उसे बांधा ही नहीं जा सकता। लेकिन सुना है इश्क उसे बांध लेता है। पर आम इंसान इश्क की उतनी मोटी रस्सी बट नहीं पाता। जन्म लग जाएं तो भी मुश्किल होता है। इसी लिए लिखता हूं। क़यामत के रोज कह सकूं 'तुझे ग़ैरों से कब फ़ुर्सत, हम अपने गम से कब ख़ाली, बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली।' उलट भी हो सकता है। मैं दो चार बंदिशें पेश करदूं जिससे वक्त आने पर आपसे भी पूछ सकूं कि मैं झूठ बोल्यां? मैं जानता हूं कई बार पुख्ता से पुख्ता गवाह भी पलट जाते हैं। कितना भी बापर्दा रह ले, मैं जानता हूं तू नहीं पलटेगा। चुप्पी भले ही साध ले। पेश ए ख़िदमत है-
23 11 08
अब तो हम कहीं नहीं, जहां हैं वह स्थान भी धीरे धीरे बेगाना होता जा रहा है। जिस स्थान को अपना बनाना चाहता हूं वह बहुत बहुत दूर है। उसे देखा भी नहीं। शायद देख भी नहीं सकते। हालांकि यहां के बाद वही मंज़िल है। लेकिन कौन कह सकता है पहुंचेगे भी या नहीं। कई बार सीढ़ियां इतनी चिकनी और खड़ी होती हैं कि पता नहीं चलता कब पांव फिसल जाए और फिर उसी खड्ड में जा गिरें जहां से निकलकर इन सीढ़ियों तक पहुंचे थे, उन सीढ़ियों तक फिर से पहुंचनें में उतना या उससे ज्यादा समय लग जाए। फिर महारनी शुरू करनी होगी। एक ही संभावना है अगर तुमने मेरी अंधी लकड़ पकड़ ली तो हो सकता है मैं ही मंज़िल बन जाऊं।
24.' 11. 08
प्रभों, हम बच्चों को केवल फूलों की तरह न निहारकर उन्हें सींचकर ऐसा पुष्पवृक्ष बनाना चाहते हैं कि उस पर फल फूल हमेशा खिलें। महकें। राहगीर को छाया दें। भूखे को फल दें। लेकिन हम ऐसा नहीं करते। उन्हें दुखी करते हैं। उनकी भावनाओं और भाषा से खेलते हैं। उन्हें रुलाते हैं। प्रताड़ित करते हैं। उनमें अपने स्वार्थों के प्रतिबिंब देखते हैं और उन्हीं से उन्हें लाद देते हैं। गलत रास्ते पर डाल देते हैं। कैसे माता पिता हैं? कैसे शिक्षक और समाज सुधारक हैं। बच्चे ख़ुश नहीं तो जग केसे ख़ुश रहेगा। वे हमारे लिए कांटे बन जाएंगे हम उनके लिए बबूल।
28. 11. 08
संसार में कितने साधनहीन और असहाय लोग हैं। बस एकटक तेरी ओर देखते हैं। जैसे पपीहा स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा में निर्जल रहकर पीऊ पीऊ की रट लगाए रहता है वे भी...। भले ही कवि की कल्पना हो पर इंसानों के बारे में सही है। बेसहारापन मनुष्य को पपीहे से बदतर कर देता है। मैं अपने ही संबंधों में कुछ को देखता हूं, बच्चे तक स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा में आकाश की तरफ़ देखा करते हैं। कब बरसे कब उनके सपने पूरे हों। क्या उनके लिए स्वाति के आने को समय निर्धारित नहीं? तेरा यह कालचक्र कैसा है? कहीं साल में एक बार आता है कहीं आता ही नहीं।
2. 12 08
मंगल भवन अमंगलहारी, द्रवहू सो दशरथ अजिर बिहारी।
हम अमंगल को जीवित नहीं रहने देना चाहते। कैसी विडंबना है! दोनों एक दूसरे के कारक हैं। दषरथ के अजिर बिहारी से कह रहे हैं। अजिर में विचरण करने वाला किसी के अमगल को क्या समझेगा? कह रहे हैं हमारा अमंगल हर ले। यह ठीक है कि आस्था के स्तर पर वह सब जानता हो। वह क्या उनके दुख भी जानता है जो धरती पर चलते है? अगर वन बिहारी दषरथ पुत्र से कहते तो शायद हमारे दुखों को अच्छी तरह जानता। उनके प्रति संवेदनशील होता। अजिर बिहारी, राम होकर भी बच्चा है। वह अपने सुख दुख के बारे में ही अनजान है। हम उससे यह क्यों न कहें कि तुम हमारे दुख के साथी बनो। हम तुम्हरे दुख के साथी हैं। दुखों को बना रहने दो वे तुमसे अधिक सच्चे साथी हैं।
2 दिसंबर 08
मैं 1979 से स्वाध्याय और ध्यान से पूर्व कानपुर में रहते आठ दस लाइन लिखकर 'उसे' समर्पित कर रहा हूं। वह ज़माना आई आई टी के साथ संघर्ष का था। तब आप बीती अधिक होती थी। अब जैसा भाव आए उसे उसी तरह उतार देता हूं। मैं नहीं चाहता कि जब कभी मिलूं तो 'वह यह कह सके कि 'अरे तू ऐसा सोचता था, या इतना खुश या दुखी था, तूने मुझे बताया ही नहीं।' लिखता हूं जिससे रसीद तो रहे। तब हो सकता है उससे यहीं कहते बने इतनी अरदास आती हैं क्या करूं। पर मेरी तो लिखित थी कभी तो नज़र आशनाई करते। हालांकि मैं नहीं जानता 'वह' कौन है कहां है। वह सुनता है या केवल देखता है या कुछ भी नहीं करता। केवल तरंगों से ही काम चलाता है। या सब मेरे अपने दिमाग़ का सिर्फ़ फ़ितूर है? जो भी हो पर है। मैं अपनी तरफ़ से उसे लिख पढ़ कर बांधे रखना चाहता हूं। पर कहते है वह बंधता नहीं, उसे बांधा ही नहीं जा सकता। लेकिन सुना है इश्क उसे बांध लेता है। पर आम इंसान इश्क की उतनी मोटी रस्सी बट नहीं पाता। जन्म लग जाएं तो भी मुश्किल होता है। इसी लिए लिखता हूं। क़यामत के रोज कह सकूं 'तुझे ग़ैरों से कब फ़ुर्सत, हम अपने गम से कब ख़ाली, बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली।' उलट भी हो सकता है। मैं दो चार बंदिशें पेश करदूं जिससे वक्त आने पर आपसे भी पूछ सकूं कि मैं झूठ बोल्यां? मैं जानता हूं कई बार पुख्ता से पुख्ता गवाह भी पलट जाते हैं। कितना भी बापर्दा रह ले, मैं जानता हूं तू नहीं पलटेगा। चुप्पी भले ही साध ले। पेश ए ख़िदमत है-
23 11 08
अब तो हम कहीं नहीं, जहां हैं वह स्थान भी धीरे धीरे बेगाना होता जा रहा है। जिस स्थान को अपना बनाना चाहता हूं वह बहुत बहुत दूर है। उसे देखा भी नहीं। शायद देख भी नहीं सकते। हालांकि यहां के बाद वही मंज़िल है। लेकिन कौन कह सकता है पहुंचेगे भी या नहीं। कई बार सीढ़ियां इतनी चिकनी और खड़ी होती हैं कि पता नहीं चलता कब पांव फिसल जाए और फिर उसी खड्ड में जा गिरें जहां से निकलकर इन सीढ़ियों तक पहुंचे थे, उन सीढ़ियों तक फिर से पहुंचनें में उतना या उससे ज्यादा समय लग जाए। फिर महारनी शुरू करनी होगी। एक ही संभावना है अगर तुमने मेरी अंधी लकड़ पकड़ ली तो हो सकता है मैं ही मंज़िल बन जाऊं।
24.' 11. 08
प्रभों, हम बच्चों को केवल फूलों की तरह न निहारकर उन्हें सींचकर ऐसा पुष्पवृक्ष बनाना चाहते हैं कि उस पर फल फूल हमेशा खिलें। महकें। राहगीर को छाया दें। भूखे को फल दें। लेकिन हम ऐसा नहीं करते। उन्हें दुखी करते हैं। उनकी भावनाओं और भाषा से खेलते हैं। उन्हें रुलाते हैं। प्रताड़ित करते हैं। उनमें अपने स्वार्थों के प्रतिबिंब देखते हैं और उन्हीं से उन्हें लाद देते हैं। गलत रास्ते पर डाल देते हैं। कैसे माता पिता हैं? कैसे शिक्षक और समाज सुधारक हैं। बच्चे ख़ुश नहीं तो जग केसे ख़ुश रहेगा। वे हमारे लिए कांटे बन जाएंगे हम उनके लिए बबूल।
28. 11. 08
संसार में कितने साधनहीन और असहाय लोग हैं। बस एकटक तेरी ओर देखते हैं। जैसे पपीहा स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा में निर्जल रहकर पीऊ पीऊ की रट लगाए रहता है वे भी...। भले ही कवि की कल्पना हो पर इंसानों के बारे में सही है। बेसहारापन मनुष्य को पपीहे से बदतर कर देता है। मैं अपने ही संबंधों में कुछ को देखता हूं, बच्चे तक स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा में आकाश की तरफ़ देखा करते हैं। कब बरसे कब उनके सपने पूरे हों। क्या उनके लिए स्वाति के आने को समय निर्धारित नहीं? तेरा यह कालचक्र कैसा है? कहीं साल में एक बार आता है कहीं आता ही नहीं।
2. 12 08
मंगल भवन अमंगलहारी, द्रवहू सो दशरथ अजिर बिहारी।
हम अमंगल को जीवित नहीं रहने देना चाहते। कैसी विडंबना है! दोनों एक दूसरे के कारक हैं। दषरथ के अजिर बिहारी से कह रहे हैं। अजिर में विचरण करने वाला किसी के अमगल को क्या समझेगा? कह रहे हैं हमारा अमंगल हर ले। यह ठीक है कि आस्था के स्तर पर वह सब जानता हो। वह क्या उनके दुख भी जानता है जो धरती पर चलते है? अगर वन बिहारी दषरथ पुत्र से कहते तो शायद हमारे दुखों को अच्छी तरह जानता। उनके प्रति संवेदनशील होता। अजिर बिहारी, राम होकर भी बच्चा है। वह अपने सुख दुख के बारे में ही अनजान है। हम उससे यह क्यों न कहें कि तुम हमारे दुख के साथी बनो। हम तुम्हरे दुख के साथी हैं। दुखों को बना रहने दो वे तुमसे अधिक सच्चे साथी हैं।
Friday, 28 November 2008
janta desh ko banaye, netao per na chode
जनता देश को बनाए नताओं पर न छोड़े
28 नवंबर 08
26 नवंबर 08 की रात 9.15 बज के लगभग रात मुंबई पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला एक भयावह घटना है। इससे पहले सबसे खतरनाक हमला संसद पर उस समय हआ था जब देश के अधिकतर सांसद सदन में थे। मुंबई जो किसी समय सबसे अधिक सुरक्षित था अब संभवत: सबसे ज्यादा असुरक्षित है। विचित्र बात है कि जैसे समुद्र के रास्ते से पहले समुद्र पार से विदेशी शत्रु आते थे उसी तरह समुद्र से मछली पकड़ने वाली चोरी की गई दो मछली पकड़ने वाली नावों से पोरबंदर से मुंबई गेट वे आफ़ इंडिया के रास्ते पाकिस्तानी आतंकवादी आए हैं। एक चैनल पर बताया जा रहा था 1993 में भी समुद्री रास्ते से आतकवादियों के आने की घटना घट चुकी है। दो सवाल उठते हैं-एक सवाल है कि पोरबंदर से मुंबई तक राफ्ट नावों से इतने हथियार बारूद, आर डी एक्स लेकर बेखौफ़ चलते चले आने का नोटिस न ता गुजरात सरकार ने लिया और न नेवी के तट रक्षकों ने और न इंटैलिजेंस ने। दूसरा सवाल है उनके आदमी पहले से ताज होटल में ठहरे थे तो केंद्र और राज्य सरकार की ख़ुफ़िया ने क्या किया? यानी कोई भी कहीं से आ सकता है और मनमानी करके आराम से लौट सकता है? इसकी सूचना पुलिस को मछुआरों द्वारा पहले दी जा गई थी। उन आतंकवादियो को रोकने की तैयारी राज्य सरकार के पास थी या नहीं यह कहना मुश्किल है। उन्हें नेवी और सेना से सहायता लेनी पड़ी। एन डी टी वी का कहना है कि कुल 26 आतंकवादी आकर सारी मुंबई मे फैल गए थे। कह नहीं सकते उनकी संख्या वास्तव में कितनी है। ग्यारह हमले किए गए थे। उनमें ताज महल होटल, नरीमन हाऊस, विक्टोरिया टर्मिनस और ओबेराय होटल अदि हैं। बड़े होटल निशाने पर क्यों थे? शायद इसलिए कि टूरिस्ट इस देश में न आएं।
यह स्पष्ट है कि उन लोगों की पहले से तैयारी थी। ये आतंकवादी इतना बारूद और हथियार कैसे और कहां से लाए कि वे 45 घंटे से नेशनल सिक्योरिटी कमांडो से लड़ रहें हैं। हमारे मीडिया या हुक्मरानों को यह पता नहीं चल सका कि अंदर कितने आतंकवादी है? जिस तरह अंधाधुंध गोलाबारी हो रही है उससे लगता है यह ख़बर उपलब्ध न होने के कारण वे कमांडोज़ पर भारी पड़ रहे हैं। कभी आतंकवादी किसी मंजिल पर होते हैं कभी किसी मंजिल पर। बंगला देश को आज़ाद कराने के समय पाकिस्तान की इतनी बड़ी सेना को चंद घंटों में समर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया गया था। अब तक हम यह पता नहीं लगा पाए कि आतंकवादी किस मंज़िल पर कितनी संख्या में हैं। कब तक लड़ेंगे कहना मुश्किल है। हमारे कमांडोज़ अपने घर में हैं उनकी सप्लाई लाइन खुली है। जब कि विदेशी कमांडोज़ की अपनी हर तरह की सीमाएं हैं फिर भी वे लड़ पा रहे हैं। हमारी जल सेना ने दो जहाज अरब सागर में पकड़े हैं। मछली पकड़ने वाली दो नावों में से एक नाव भी पकड़ी है। कहा जाता है उसमें एक लाश थी। उन लोगों ने अपने सरगना को वहां से चलते समय हलाक कर दिया था। क्यों? इसकी तफ़सील तो बाद में पता चलेगी। ये दोनों जहाज़ कराची से आए थे। कहा जा रहा है कि इन जहाज़ों में ही पाकिस्तान से आतंकवादी, अपने लिए पर्याप्त भोजन पानी शराब आदि लाए थे। आर्मस एम्यूनीशन तो आया ही था। लंबी लड़ाई का इंतज़ाम था। पोरबंदर से सब कुछ नावों द्वारा मुंबई लाया गया था। विचित्र बात है कि बार बार कहा गया कि ताज में कोई बंधक नहीं रहा। अभी पता चला कि बॉलरूम में आतंकवादी और बंधक अभी भी है। उनके बीच गोलीबारी बार बार चालू हो जाती है उसी से पता चलता कि अभी वे लोग अपनी लडाई लड़ रहे हैं। मीडिया पर भी ग्रेनेड फेंके गए और फ़ायरिंग की गई। एक आदमी को चोट भी आई है। वे लोग ज़मीन पर लेटकर जान बचा रहे हैं और अपना काम कर रहे हैं। मीडिया बराबर कवरेज दे रहा है इस बात का आतंकियों को अंदाज़ है। लगता है यह मात्र आतंकवाद ही नहीं बल्कि यह आक्रमण है। इसे आप गुरीला लड़ाई जैसी वस्तु कह सकते है। कहीं यह किसी बड़ी लड़ाई की तैयारी तो नहीं?
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों के साथ दौरे पर ओबेराय होटल पहुंचे। उससे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री आकर कह गए कि उन्होंने एक साल पहले बताया था कि अरब सागर से देश पर हमला हो सकता है। वही हुआ। सवाल हैं कि ये मुख्यमंत्री लोग राजनीति क्यों कर रहे हैं। महाराष्ट्र में मनसा के आंतरिक आतंकवाद को वहां की सरकार रोक नहीं पाई यह तो बाहरी आक्रमण है। इस तरह के आंतरिक मतभेद बाहरी ताक़तों को निमंत्रण देते हैं। बी जे पी ने 28 ता. को एक विज्ञापन दिया कि आतंकवाद की चौतरफ़ा मार लगातार, सरकार कमज़ोर और लाचार। ख़ून का लाल धब्बा बैकग्राउंड में है। नीचे लिखा है कि बी जे पी को वोट दें। नादिरशाह और दूसरे आक्रमणकारी इसी तरह के निमत्रंण पर देश में आए थे। आज जब कमांडो अपनी जान जोखिम में डालकर लड़ रहें है, बंधक और उनके बच्चे तीन दिन से भूखे प्यासे है पर वे अपने लिए वोट मांग रहे हैं। यह शर्म नाक स्थिति है। क्या इस अमानवीय गैस्चर से प्रभावित होकर जनता ऐसे लोगों को वोट देगी? अभी नौसेना कमांडो ने बताया कि वे लोग ताज के बारे में सब कुछ जानते थे। उन्होंने अंदर की स्थिति का विवरण दिया कि अंदर लड़ना कितना कठिन था। वे सब रास्ते पहले से जानते थे। हमें विषम हालत में लड़ना पड़ रहा था। बाहर राजनीति हो रही थी। ओबेराय होटल से 1 बजे के क़रीब ख़बर आई है कि वहां बहुत ज्यादा ख़ूनखराबा हुआ है। ओबेराय के टिफ़िन रेस्ट्रां में कोई नहीं बचा। जो लोग खा रहे थे सब मार दिए गए। बच्चों तक को नहीं छोड़ा। सी एस टी में भी फ़ायरिंग की गई। सवाल है कि आतंक की लड़ाई कौन लड़ रहा है? क्या ये वोट के लालची? या कमांडो और बध्दिजीवी। जान का खतरा उठाकर हालत जनता के सामने पेश करने वाले पत्रकार और मीडिया। करकरे जैसे सिपाही और साथियों की हत्या के बारे में जांच ज़रूरी है कि उनको किसने और कैसे मारा? वे काफ़ी दिनों से लोगों की नज़र में थे। उनकी हत्या आरंभ में ही हो जाना कम चकित नहीं करता है। यह एक ऐसी चेतावनी है अगर इस बार नज़रअंदाज़ कर दिया गया तो फिर कोई पुरसाहाल नहीं। अब देश के लोगों को यह लड़ाई ख़ुद लड़नी पड़ेगी। नेताओं के फेर से बचना अब जरूरी है। उन्हें नेता ख़ुदा न बनाया। आपने बनाया है।
गिरिराज किशोर, 11/210 सूटरगंज कानपुर 208001
28 नवंबर 08
26 नवंबर 08 की रात 9.15 बज के लगभग रात मुंबई पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला एक भयावह घटना है। इससे पहले सबसे खतरनाक हमला संसद पर उस समय हआ था जब देश के अधिकतर सांसद सदन में थे। मुंबई जो किसी समय सबसे अधिक सुरक्षित था अब संभवत: सबसे ज्यादा असुरक्षित है। विचित्र बात है कि जैसे समुद्र के रास्ते से पहले समुद्र पार से विदेशी शत्रु आते थे उसी तरह समुद्र से मछली पकड़ने वाली चोरी की गई दो मछली पकड़ने वाली नावों से पोरबंदर से मुंबई गेट वे आफ़ इंडिया के रास्ते पाकिस्तानी आतंकवादी आए हैं। एक चैनल पर बताया जा रहा था 1993 में भी समुद्री रास्ते से आतकवादियों के आने की घटना घट चुकी है। दो सवाल उठते हैं-एक सवाल है कि पोरबंदर से मुंबई तक राफ्ट नावों से इतने हथियार बारूद, आर डी एक्स लेकर बेखौफ़ चलते चले आने का नोटिस न ता गुजरात सरकार ने लिया और न नेवी के तट रक्षकों ने और न इंटैलिजेंस ने। दूसरा सवाल है उनके आदमी पहले से ताज होटल में ठहरे थे तो केंद्र और राज्य सरकार की ख़ुफ़िया ने क्या किया? यानी कोई भी कहीं से आ सकता है और मनमानी करके आराम से लौट सकता है? इसकी सूचना पुलिस को मछुआरों द्वारा पहले दी जा गई थी। उन आतंकवादियो को रोकने की तैयारी राज्य सरकार के पास थी या नहीं यह कहना मुश्किल है। उन्हें नेवी और सेना से सहायता लेनी पड़ी। एन डी टी वी का कहना है कि कुल 26 आतंकवादी आकर सारी मुंबई मे फैल गए थे। कह नहीं सकते उनकी संख्या वास्तव में कितनी है। ग्यारह हमले किए गए थे। उनमें ताज महल होटल, नरीमन हाऊस, विक्टोरिया टर्मिनस और ओबेराय होटल अदि हैं। बड़े होटल निशाने पर क्यों थे? शायद इसलिए कि टूरिस्ट इस देश में न आएं।
यह स्पष्ट है कि उन लोगों की पहले से तैयारी थी। ये आतंकवादी इतना बारूद और हथियार कैसे और कहां से लाए कि वे 45 घंटे से नेशनल सिक्योरिटी कमांडो से लड़ रहें हैं। हमारे मीडिया या हुक्मरानों को यह पता नहीं चल सका कि अंदर कितने आतंकवादी है? जिस तरह अंधाधुंध गोलाबारी हो रही है उससे लगता है यह ख़बर उपलब्ध न होने के कारण वे कमांडोज़ पर भारी पड़ रहे हैं। कभी आतंकवादी किसी मंजिल पर होते हैं कभी किसी मंजिल पर। बंगला देश को आज़ाद कराने के समय पाकिस्तान की इतनी बड़ी सेना को चंद घंटों में समर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया गया था। अब तक हम यह पता नहीं लगा पाए कि आतंकवादी किस मंज़िल पर कितनी संख्या में हैं। कब तक लड़ेंगे कहना मुश्किल है। हमारे कमांडोज़ अपने घर में हैं उनकी सप्लाई लाइन खुली है। जब कि विदेशी कमांडोज़ की अपनी हर तरह की सीमाएं हैं फिर भी वे लड़ पा रहे हैं। हमारी जल सेना ने दो जहाज अरब सागर में पकड़े हैं। मछली पकड़ने वाली दो नावों में से एक नाव भी पकड़ी है। कहा जाता है उसमें एक लाश थी। उन लोगों ने अपने सरगना को वहां से चलते समय हलाक कर दिया था। क्यों? इसकी तफ़सील तो बाद में पता चलेगी। ये दोनों जहाज़ कराची से आए थे। कहा जा रहा है कि इन जहाज़ों में ही पाकिस्तान से आतंकवादी, अपने लिए पर्याप्त भोजन पानी शराब आदि लाए थे। आर्मस एम्यूनीशन तो आया ही था। लंबी लड़ाई का इंतज़ाम था। पोरबंदर से सब कुछ नावों द्वारा मुंबई लाया गया था। विचित्र बात है कि बार बार कहा गया कि ताज में कोई बंधक नहीं रहा। अभी पता चला कि बॉलरूम में आतंकवादी और बंधक अभी भी है। उनके बीच गोलीबारी बार बार चालू हो जाती है उसी से पता चलता कि अभी वे लोग अपनी लडाई लड़ रहे हैं। मीडिया पर भी ग्रेनेड फेंके गए और फ़ायरिंग की गई। एक आदमी को चोट भी आई है। वे लोग ज़मीन पर लेटकर जान बचा रहे हैं और अपना काम कर रहे हैं। मीडिया बराबर कवरेज दे रहा है इस बात का आतंकियों को अंदाज़ है। लगता है यह मात्र आतंकवाद ही नहीं बल्कि यह आक्रमण है। इसे आप गुरीला लड़ाई जैसी वस्तु कह सकते है। कहीं यह किसी बड़ी लड़ाई की तैयारी तो नहीं?
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों के साथ दौरे पर ओबेराय होटल पहुंचे। उससे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री आकर कह गए कि उन्होंने एक साल पहले बताया था कि अरब सागर से देश पर हमला हो सकता है। वही हुआ। सवाल हैं कि ये मुख्यमंत्री लोग राजनीति क्यों कर रहे हैं। महाराष्ट्र में मनसा के आंतरिक आतंकवाद को वहां की सरकार रोक नहीं पाई यह तो बाहरी आक्रमण है। इस तरह के आंतरिक मतभेद बाहरी ताक़तों को निमंत्रण देते हैं। बी जे पी ने 28 ता. को एक विज्ञापन दिया कि आतंकवाद की चौतरफ़ा मार लगातार, सरकार कमज़ोर और लाचार। ख़ून का लाल धब्बा बैकग्राउंड में है। नीचे लिखा है कि बी जे पी को वोट दें। नादिरशाह और दूसरे आक्रमणकारी इसी तरह के निमत्रंण पर देश में आए थे। आज जब कमांडो अपनी जान जोखिम में डालकर लड़ रहें है, बंधक और उनके बच्चे तीन दिन से भूखे प्यासे है पर वे अपने लिए वोट मांग रहे हैं। यह शर्म नाक स्थिति है। क्या इस अमानवीय गैस्चर से प्रभावित होकर जनता ऐसे लोगों को वोट देगी? अभी नौसेना कमांडो ने बताया कि वे लोग ताज के बारे में सब कुछ जानते थे। उन्होंने अंदर की स्थिति का विवरण दिया कि अंदर लड़ना कितना कठिन था। वे सब रास्ते पहले से जानते थे। हमें विषम हालत में लड़ना पड़ रहा था। बाहर राजनीति हो रही थी। ओबेराय होटल से 1 बजे के क़रीब ख़बर आई है कि वहां बहुत ज्यादा ख़ूनखराबा हुआ है। ओबेराय के टिफ़िन रेस्ट्रां में कोई नहीं बचा। जो लोग खा रहे थे सब मार दिए गए। बच्चों तक को नहीं छोड़ा। सी एस टी में भी फ़ायरिंग की गई। सवाल है कि आतंक की लड़ाई कौन लड़ रहा है? क्या ये वोट के लालची? या कमांडो और बध्दिजीवी। जान का खतरा उठाकर हालत जनता के सामने पेश करने वाले पत्रकार और मीडिया। करकरे जैसे सिपाही और साथियों की हत्या के बारे में जांच ज़रूरी है कि उनको किसने और कैसे मारा? वे काफ़ी दिनों से लोगों की नज़र में थे। उनकी हत्या आरंभ में ही हो जाना कम चकित नहीं करता है। यह एक ऐसी चेतावनी है अगर इस बार नज़रअंदाज़ कर दिया गया तो फिर कोई पुरसाहाल नहीं। अब देश के लोगों को यह लड़ाई ख़ुद लड़नी पड़ेगी। नेताओं के फेर से बचना अब जरूरी है। उन्हें नेता ख़ुदा न बनाया। आपने बनाया है।
गिरिराज किशोर, 11/210 सूटरगंज कानपुर 208001
Saturday, 22 November 2008
Sahitya Acadamy needs attention, will you give?
23 November 08
No Institution can servive with out following sound traditions laid down by its founders. Changes are possible but cannot be discarded all together. CREATIVE iNSTITUTIONS particularly, depend on such traditions as already laid down that had ushered the way to march forward all along. Unfortunately, the new era of the office bearers in AKADEMY care a liitle for all this. They are interested in collecting the benefits for themselves with out caring for the future of the Akdemy. Sahitya Akademy 's founder fathers were the stalwards like Pt.Jawaharlal Nehru, Maulana Abul kalam Azad, Dr. Zakir Hussain etc. They had dreamed that a day will come when Sahitya Akademy will shine like a star on the horizon of litrary world and contribute its best to the wealth of world literature through writings in Indian Languages. They were committed to the development of Indian Languages and making trible languages,and dailects richer and richer so that there may be cultural uniformity in creative field. Alas, during last five to six years, the set up that took over the Sahitya Akademy concentrated on every thing except litereture and its creative part. Their tours abroad, making personal bridges and gethering maximum facilities for themselves remained their main object. For instance the past President's priority was to arrange a seperate regular car for hiself on exceptionally high rates and decorate his room with wooden work spending there upon say around 27 laks of rupees. It was unlike any other past President. It is said that the smaller room in which Jawaharlal ji used to sit as President was changed in his personal bathroom. It can only be ascertained from the old timers who have been associted with the Akadamy during that period. Whenever he used to go on tours with deputations of writers he generally preferred to stay in seven or five star hotels seperate from other members distinguishing himself as superoir to them. Holding drink parties with his lackies at the cost of the Akademy. The manuplation of bills was left to his trusted officers. How a writer holding President's position distiguish himself higher than other writers.
If a comperative statement of expenditure of the ex. President in comparision to his predecessors is prepared the difference will be one and half times more then the past ptesident's expenditure. He always travelled in bussiness class where as other writers travelled in economy class.It is obviously undemocratic pattern of behaviour. He alwayes forced himself on the Finnance committee as an invitee with a view to get his figures adjusted in the budget. A President as chair person of the EX Board, alwayes enjoyes the power to get the budget figures adjusted in the Board meeting according to needs of the Institution.I doubt he had this much patience and courage to face the Board this way.
The secretary appointed in his regime was a person who was under investigation of CBI, overlooking merit, seniority and sincierity of his other colleages towards the institution. It is generally seen in Govt. set up but in academic and litereary set up obvisiously it mars the intrigity and dignity of the Institution.
Strangly enough that the said ex president was desirous to contest election for the next session but due to internal opposition and the interference of the Ministry he was forced to withdraw in the last general meeting. Actually there are two precedents when the President was elected twice once in case Of Pt. Nehru and the other was renowned educationist philologist Dr . Suniti Kumar Chaterjee . He wanted put his foot in their shoes. Though he had manuplated the names of members for new General council with the help of one Hinduvadi political party. Finnaly he succeeded in influencing his vice president to contest for the post of President.Though the later had alredy declared that he will not contest for the Presidentship and he will support his friend who had declared to contest against the sitting President before he withdrew under the pressure of the Ministry. Surprisingly, and as has been reported, the present President is following his predecessor and is generally away either to America or Bangladesh. The Secretary is obtaining verbal instructions from the ex President.On his instructions the Dy. Secretary who was loking after Hindi, Maithily and Nepali has been made Editor of Hindi Journal Samkaleen Bharatya Sahitya. Understandably ,the President was away to America. The editor Samkaleen Bhatrtiye Sahitya is working since last few years as joint editor of A Hindi magazine being published by a private publisher without permission of the Akademy.He was already confirmed against his post of Dy Secretary. With out advertising the post of Editor of Hindi Journal the incubment working as Dy Secretary has been appointed as Editor. Post of Dy Secretary instead of Editor's post which had fallen vaccant, was advertised and non Hindi man has been appointed as Dy secretary who is looking after the Hindi section. No post is, of course earmarked for a particular language but traditionally renowned writers of Hindi like Prabhakar Machwe, Bharatbhushan Agrwal. Vishnu Khre, Ranjeet saha were there as dy Secretary to look after the Hindi section. The largest number of people read and write Hindi, largest number of writers are also from Hindi. Now there is no person of Hindi in the Akademy who is able to look after the interest of Hindi writing and writers. The present and past Presidents talk about Hindi but with the help of Secretary they are cutting down the roots of Hindi in a very calculative manner. IF THE INTELLECTULEs AND WRITERS OF THE COUNTRY DO NOT COME FORWARD TO PROTECT tHE AKADEMY FROM VESTED INTERESTS THIS GREAT INSTITUTION WILL FACE A DEEP CRISIS IN NEAR FUTURE.
No Institution can servive with out following sound traditions laid down by its founders. Changes are possible but cannot be discarded all together. CREATIVE iNSTITUTIONS particularly, depend on such traditions as already laid down that had ushered the way to march forward all along. Unfortunately, the new era of the office bearers in AKADEMY care a liitle for all this. They are interested in collecting the benefits for themselves with out caring for the future of the Akdemy. Sahitya Akademy 's founder fathers were the stalwards like Pt.Jawaharlal Nehru, Maulana Abul kalam Azad, Dr. Zakir Hussain etc. They had dreamed that a day will come when Sahitya Akademy will shine like a star on the horizon of litrary world and contribute its best to the wealth of world literature through writings in Indian Languages. They were committed to the development of Indian Languages and making trible languages,and dailects richer and richer so that there may be cultural uniformity in creative field. Alas, during last five to six years, the set up that took over the Sahitya Akademy concentrated on every thing except litereture and its creative part. Their tours abroad, making personal bridges and gethering maximum facilities for themselves remained their main object. For instance the past President's priority was to arrange a seperate regular car for hiself on exceptionally high rates and decorate his room with wooden work spending there upon say around 27 laks of rupees. It was unlike any other past President. It is said that the smaller room in which Jawaharlal ji used to sit as President was changed in his personal bathroom. It can only be ascertained from the old timers who have been associted with the Akadamy during that period. Whenever he used to go on tours with deputations of writers he generally preferred to stay in seven or five star hotels seperate from other members distinguishing himself as superoir to them. Holding drink parties with his lackies at the cost of the Akademy. The manuplation of bills was left to his trusted officers. How a writer holding President's position distiguish himself higher than other writers.
If a comperative statement of expenditure of the ex. President in comparision to his predecessors is prepared the difference will be one and half times more then the past ptesident's expenditure. He always travelled in bussiness class where as other writers travelled in economy class.It is obviously undemocratic pattern of behaviour. He alwayes forced himself on the Finnance committee as an invitee with a view to get his figures adjusted in the budget. A President as chair person of the EX Board, alwayes enjoyes the power to get the budget figures adjusted in the Board meeting according to needs of the Institution.I doubt he had this much patience and courage to face the Board this way.
The secretary appointed in his regime was a person who was under investigation of CBI, overlooking merit, seniority and sincierity of his other colleages towards the institution. It is generally seen in Govt. set up but in academic and litereary set up obvisiously it mars the intrigity and dignity of the Institution.
Strangly enough that the said ex president was desirous to contest election for the next session but due to internal opposition and the interference of the Ministry he was forced to withdraw in the last general meeting. Actually there are two precedents when the President was elected twice once in case Of Pt. Nehru and the other was renowned educationist philologist Dr . Suniti Kumar Chaterjee . He wanted put his foot in their shoes. Though he had manuplated the names of members for new General council with the help of one Hinduvadi political party. Finnaly he succeeded in influencing his vice president to contest for the post of President.Though the later had alredy declared that he will not contest for the Presidentship and he will support his friend who had declared to contest against the sitting President before he withdrew under the pressure of the Ministry. Surprisingly, and as has been reported, the present President is following his predecessor and is generally away either to America or Bangladesh. The Secretary is obtaining verbal instructions from the ex President.On his instructions the Dy. Secretary who was loking after Hindi, Maithily and Nepali has been made Editor of Hindi Journal Samkaleen Bharatya Sahitya. Understandably ,the President was away to America. The editor Samkaleen Bhatrtiye Sahitya is working since last few years as joint editor of A Hindi magazine being published by a private publisher without permission of the Akademy.He was already confirmed against his post of Dy Secretary. With out advertising the post of Editor of Hindi Journal the incubment working as Dy Secretary has been appointed as Editor. Post of Dy Secretary instead of Editor's post which had fallen vaccant, was advertised and non Hindi man has been appointed as Dy secretary who is looking after the Hindi section. No post is, of course earmarked for a particular language but traditionally renowned writers of Hindi like Prabhakar Machwe, Bharatbhushan Agrwal. Vishnu Khre, Ranjeet saha were there as dy Secretary to look after the Hindi section. The largest number of people read and write Hindi, largest number of writers are also from Hindi. Now there is no person of Hindi in the Akademy who is able to look after the interest of Hindi writing and writers. The present and past Presidents talk about Hindi but with the help of Secretary they are cutting down the roots of Hindi in a very calculative manner. IF THE INTELLECTULEs AND WRITERS OF THE COUNTRY DO NOT COME FORWARD TO PROTECT tHE AKADEMY FROM VESTED INTERESTS THIS GREAT INSTITUTION WILL FACE A DEEP CRISIS IN NEAR FUTURE.
Thursday, 20 November 2008
Khudi ko kar buland
ख़ुदी को कर बुलंद इतना......
बिग बॉस का घर तीन महीने से ज्यादा एक भूलभुलैया या कहिए मानवों का आरक्षित और संक्षिप्त अजायब घर रहा। 22 नवंबर को बिग बॉस इसका समापन कर देंगे। कल रात राहुल महाजन के चले जाने से एक करोड़ रूपए का इनाम जीतने वाले तीन मेहमान बचे हैं। उनमें कौन जीतेगा यह तो वक्त बताएगा। जुल्फ़ी ज्यादा सभ्य वक्त को पहचानने वाला और अक्लमंद इंसान है। आशू भी हो सकता उनमें वह ही पब्लिक है। बक़ौल राजा फ़ॉलोवर। नेता राहुल ही था उसने अंदर रहकर भी चमनो गुल का आनंद लिया। बिग बास ने उसे कृष्ण बनने का अवसर देकर उसके आनंद का श्रीगणेश कर दिया था। बाक़ी सबका मनोरंजन भी किया यह अलग बात है। सबको हैंडिल भी चाबुकदस्ती से किया। कभी हंसी मजाक से कभी पायल के साथ निरामिष रंगरेलियों और जलक्रीड़ा द्वारा। इसके बावजूद वह मुझे आरंभ से ही एक ढुलमुल और 'गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुना दास' लगा। हो सकता है यह उसका ऊपरी आवरण हो। आज यानी 19 नवंबर को एक चैनल में खबरों में कहा जा रहा था कि राहुल न जाता तो एक करोड़ क दावेदार वही होता। वह और जुल्फ़ी ही थे जो बिना किसी व्यवधान के अपनी पारी खेलते रहे। एक चुप रहकर संजीदगी के साथ दूसरा हँस बोल कर। अंतं में उस नस्ल का व्यक्ति अब जुल्फ़ी हीं बचा है। उसने अंतिम दौर में अपने बिगडे खेल को होशियारी से बचा लिया। उसे ही बिग बॉस ने अपना संकटमोचन बनाया। सबसे पहले उसने ही शुरूआत की उस रात हम लोंगों ने बहुत ब्लंडर की। राजा ने उस पर अपनी बातों से यह कहकर सीमेंट लगा दिया कि पता नहीं उस रात को क्या हो गया था, एक वक्त भूखे रह लेते तो मर नहीं जाते। हमने ऐसा कैसे कर दिया। आशू ने कहा घर में भी हम सादा खाना खाते हैं यहां भी खा सकते थे। राजा का कहना था कि राहुल तो अक्लमंद था वह अगर वह ज़रा भी रोकता तो सब रुक जाते। हालांकि राजा ही सबसे ज्यादा कह रहा था कि अब यहां नहीं रहना है। बिग बास, यहां न प्याज़ है न टमाटर सब्ज़ी कैसे बने। ज़ुल्फ़ी का कहना था कल से भूखे है। सिवाय राहुल के सब अपने किए पर शर्मिन्दा थे और घूम घूमकर क्षमा याचना कर रहे थे।
एक चैनल ने यह सवाल भी उठाया कि मोनिका का चला जाना राहुल की नाराज़गी का कारण था। यह संभव है कि अंतिम नोमिनेशन में किसी को न निकाला जाता तो शायद बात इतनी न बढ़ती। एक महिला में इतनी कुव्वत होती है कि वह सबको बांधे रख सकती है। मोनिका में यह सामर्थ्य थी। बिग बॉस ने शायद इतनी दूर तक न सोचा हो। हालांकि वे स्वयं एक गहरी समझ वाली महिला हैं। स्त्री की ताक़त को बेहतर जानती हैं। हो सकता है सब घर वालों में इसी बात को लेकर गुस्सा हो। बिग बासॅ सोचते हों दो चार रोज़ मर्दाने घरवालों को खाना पकाते हुए देखने का मज़ा लें। कहावत है महिलाएं एक दिन के लिए भी जाती हैं तो नई जगह को भी घर बना लेती हैं, आदमी भरे घर को भी भूत के डेरे में बदल देता है। यही यहां हुआ। लेकिन यह अलग बात है। असल बात राहुल और घर के बाक़ी सदस्यों के बीच समीकरण की है। राहुल का जो रूप 18 नवंबर को नज़र आया। उसने अपनी रसिक, रंगीली और ढुलमुल व्यक्ति की छवि पूरी तरह बदल दी। ऐसा मेटामॉर्फासिस कैसे हो गया? यह उसका मूल गुण है या अन्य घरवालों के बदल जाने की प्रतिक्रिया है? यह सवाल टेढ़ा है। जब प्रमोद महाजन, राहुल के पिताजी का स्वर्गवास हुआ था। इसी तरह की फ़र्मनेस तब भी देखी थी। उसमें ज़िम्मेदारी निहित थी। बाद में जो अन्य बातें सुनने को मिलीं उनसे उसकी इस छवि पर विपरीत असर पड़ा। बिग बॉस के घर में जो उसकी छवि सामने आई उससे वह भिन्न नहीं थी। सबकी सुनना, पायल और मोनिका के साथ रसपूर्ण और बचकाना व्यवहार करना। पायल का हर बार उसके नामिनेशन पर यह कहकर रोना कि वह सीधा सादा आदमी है उसे कहीं निकाल न दिया जाए। साथ में यह भी कहते जाना कि उसकी राहुल से मित्रता है कोई भावानात्मक रिश्ता नहीं। बाद में दोनों का एक दूसरे के प्रति अपना अपना रुख़ बदल लेना यह सब बचकानेपन का सबूत है। लेकिन अंतिम दिन वाले राहुल का पूरा चरित्र एकदम भिन्न था।
उसका ऐसा स्टैंड ले लेना उसके स्वाभाव का हिस्सा है या किन्हीं परिस्थितियों में अचानक परिवर्तित हो गया? उसने ही बिग बॉस के धर का, घर से बाहर जाने वाला दरवाज़ा अकेले तोड़ा। जो दूसरों से कपड़े धुलवाता था, बदन दबवाता था बिस्तर ठीक कराता था वह इतना आक्रमक कैसे हो गया? रसोई में शायद ही कभी एक रोटी बेली हो या सब्ज़ी काटी हो। वह एकदम महाबली कैसे बन गया? जबकि राजा आग का गोला बना रहता था। जुल्फ़ी लाल बुझक्कड़ था। दो बातें संभव हैं। एक, अपने साथियों के यू टर्न लिए जाने के कारण वह आहत हुआ हो। दूसरा, उसका यह तर्क कि वह नहीं चाहता था उसके बाकी तीन दोस्तों में से कोई नोमिनेट हो। उसने उस घटना की सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली। बिग बॉस ने दो बार उन चारों से बात की। राहुल का कहना था बिग बास की भी ज़िम्मेदारी थी कि घर वालों की ज़रूरत का ध्यान रखे। उन्हें भी सॉरी कहना चाहिए। बिग बॉस चाहते थे कि अन्य सदस्यों की तरह वह भी सॉरी कहे। उन्होंने उसे याद दिलाया कि वह एक करोड़ के इनाम पर से अधिकार खो देगा। उसने कहा मुझे इसकी चिंता नहीं लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरे मित्रों को नुकसान न हो। ज़िम्मेदारी मेरी है अत: मैंने जो किया वह उस समय वही सही था। इसलिए मै उसे गलत नहीं मानता। मैं अपनी मर्जी से बाहर जाने के लिए तैयार हूं। मेरे सामने एक सवाल है कि अगर राहूल सॉरी कह देता, जिसके लिए उस पर बिग बॉस से लेकर उसके साथियों का जोर पड रहा था तो क्या उसकी अपनी कोई पहचान बचती? यह क्या ज़रूरी था कि उसे ही एक करोड़ का इनाम मिलता? या केवल इतना ही होता कि राहुल भी लड़ा? एक करोड़ का लालच छोड़कर एक नैतिक स्टैंड लेना शायद अधिक लाभ का सौदा था। यह राहुल का राजनीतिक और नैतिक मिला जुला निर्णय था। अंतत: राजनीति में वह भी अपने पिता की हिंदूवादी पार्टी में जाएगा। एक सवाल और बिग बॉस ने व्यक्तिगत ईमानदारी और मित्र सहयोग की भावना से अधिक गलती करके माफी को वरीयता क्यों दी? क्या पूरा आयोजन परस्पर सहयोग को मज़बूत करने के लिए नहीं था? गलती चारों ने की थी दंड चारों को बराबर मिलना चाहिए था। नियमों के संयुक्त उलंघन की भरपाई एक व्यक्ति के ज़िम्मेदारी लेकर घर से बाहर हो जाने से कैसे हो सकती है? माफ़ी मांगने के मुक़ाबले नैतिक स्टैंड को कमतर करके देखना कहीं न कहीं सामंतवाद और गुलामी को महत्व देने की तरह है। राहुल यदि अंदर से इतना मज़बूत है कि वह मित्रों और सिध्दांत के लिए एक करोड़ का आकर्षण ठुकरा सकता है तथा अपने आत्म सम्मान यानी खुदी को बुलंद रख सकता है तो उसे राजनीति में जाने के बारे में भी सोच समझकर निर्णय लेना चाहिए। वहां तो सबसे पहले आदमी की इस खूं को ही तोड़ा जाता है। गोविंदाचार्य जीते जागते उदाहारण हैं।
गिरिराज किशोर
बिग बॉस का घर तीन महीने से ज्यादा एक भूलभुलैया या कहिए मानवों का आरक्षित और संक्षिप्त अजायब घर रहा। 22 नवंबर को बिग बॉस इसका समापन कर देंगे। कल रात राहुल महाजन के चले जाने से एक करोड़ रूपए का इनाम जीतने वाले तीन मेहमान बचे हैं। उनमें कौन जीतेगा यह तो वक्त बताएगा। जुल्फ़ी ज्यादा सभ्य वक्त को पहचानने वाला और अक्लमंद इंसान है। आशू भी हो सकता उनमें वह ही पब्लिक है। बक़ौल राजा फ़ॉलोवर। नेता राहुल ही था उसने अंदर रहकर भी चमनो गुल का आनंद लिया। बिग बास ने उसे कृष्ण बनने का अवसर देकर उसके आनंद का श्रीगणेश कर दिया था। बाक़ी सबका मनोरंजन भी किया यह अलग बात है। सबको हैंडिल भी चाबुकदस्ती से किया। कभी हंसी मजाक से कभी पायल के साथ निरामिष रंगरेलियों और जलक्रीड़ा द्वारा। इसके बावजूद वह मुझे आरंभ से ही एक ढुलमुल और 'गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुना दास' लगा। हो सकता है यह उसका ऊपरी आवरण हो। आज यानी 19 नवंबर को एक चैनल में खबरों में कहा जा रहा था कि राहुल न जाता तो एक करोड़ क दावेदार वही होता। वह और जुल्फ़ी ही थे जो बिना किसी व्यवधान के अपनी पारी खेलते रहे। एक चुप रहकर संजीदगी के साथ दूसरा हँस बोल कर। अंतं में उस नस्ल का व्यक्ति अब जुल्फ़ी हीं बचा है। उसने अंतिम दौर में अपने बिगडे खेल को होशियारी से बचा लिया। उसे ही बिग बॉस ने अपना संकटमोचन बनाया। सबसे पहले उसने ही शुरूआत की उस रात हम लोंगों ने बहुत ब्लंडर की। राजा ने उस पर अपनी बातों से यह कहकर सीमेंट लगा दिया कि पता नहीं उस रात को क्या हो गया था, एक वक्त भूखे रह लेते तो मर नहीं जाते। हमने ऐसा कैसे कर दिया। आशू ने कहा घर में भी हम सादा खाना खाते हैं यहां भी खा सकते थे। राजा का कहना था कि राहुल तो अक्लमंद था वह अगर वह ज़रा भी रोकता तो सब रुक जाते। हालांकि राजा ही सबसे ज्यादा कह रहा था कि अब यहां नहीं रहना है। बिग बास, यहां न प्याज़ है न टमाटर सब्ज़ी कैसे बने। ज़ुल्फ़ी का कहना था कल से भूखे है। सिवाय राहुल के सब अपने किए पर शर्मिन्दा थे और घूम घूमकर क्षमा याचना कर रहे थे।
एक चैनल ने यह सवाल भी उठाया कि मोनिका का चला जाना राहुल की नाराज़गी का कारण था। यह संभव है कि अंतिम नोमिनेशन में किसी को न निकाला जाता तो शायद बात इतनी न बढ़ती। एक महिला में इतनी कुव्वत होती है कि वह सबको बांधे रख सकती है। मोनिका में यह सामर्थ्य थी। बिग बॉस ने शायद इतनी दूर तक न सोचा हो। हालांकि वे स्वयं एक गहरी समझ वाली महिला हैं। स्त्री की ताक़त को बेहतर जानती हैं। हो सकता है सब घर वालों में इसी बात को लेकर गुस्सा हो। बिग बासॅ सोचते हों दो चार रोज़ मर्दाने घरवालों को खाना पकाते हुए देखने का मज़ा लें। कहावत है महिलाएं एक दिन के लिए भी जाती हैं तो नई जगह को भी घर बना लेती हैं, आदमी भरे घर को भी भूत के डेरे में बदल देता है। यही यहां हुआ। लेकिन यह अलग बात है। असल बात राहुल और घर के बाक़ी सदस्यों के बीच समीकरण की है। राहुल का जो रूप 18 नवंबर को नज़र आया। उसने अपनी रसिक, रंगीली और ढुलमुल व्यक्ति की छवि पूरी तरह बदल दी। ऐसा मेटामॉर्फासिस कैसे हो गया? यह उसका मूल गुण है या अन्य घरवालों के बदल जाने की प्रतिक्रिया है? यह सवाल टेढ़ा है। जब प्रमोद महाजन, राहुल के पिताजी का स्वर्गवास हुआ था। इसी तरह की फ़र्मनेस तब भी देखी थी। उसमें ज़िम्मेदारी निहित थी। बाद में जो अन्य बातें सुनने को मिलीं उनसे उसकी इस छवि पर विपरीत असर पड़ा। बिग बॉस के घर में जो उसकी छवि सामने आई उससे वह भिन्न नहीं थी। सबकी सुनना, पायल और मोनिका के साथ रसपूर्ण और बचकाना व्यवहार करना। पायल का हर बार उसके नामिनेशन पर यह कहकर रोना कि वह सीधा सादा आदमी है उसे कहीं निकाल न दिया जाए। साथ में यह भी कहते जाना कि उसकी राहुल से मित्रता है कोई भावानात्मक रिश्ता नहीं। बाद में दोनों का एक दूसरे के प्रति अपना अपना रुख़ बदल लेना यह सब बचकानेपन का सबूत है। लेकिन अंतिम दिन वाले राहुल का पूरा चरित्र एकदम भिन्न था।
उसका ऐसा स्टैंड ले लेना उसके स्वाभाव का हिस्सा है या किन्हीं परिस्थितियों में अचानक परिवर्तित हो गया? उसने ही बिग बॉस के धर का, घर से बाहर जाने वाला दरवाज़ा अकेले तोड़ा। जो दूसरों से कपड़े धुलवाता था, बदन दबवाता था बिस्तर ठीक कराता था वह इतना आक्रमक कैसे हो गया? रसोई में शायद ही कभी एक रोटी बेली हो या सब्ज़ी काटी हो। वह एकदम महाबली कैसे बन गया? जबकि राजा आग का गोला बना रहता था। जुल्फ़ी लाल बुझक्कड़ था। दो बातें संभव हैं। एक, अपने साथियों के यू टर्न लिए जाने के कारण वह आहत हुआ हो। दूसरा, उसका यह तर्क कि वह नहीं चाहता था उसके बाकी तीन दोस्तों में से कोई नोमिनेट हो। उसने उस घटना की सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली। बिग बॉस ने दो बार उन चारों से बात की। राहुल का कहना था बिग बास की भी ज़िम्मेदारी थी कि घर वालों की ज़रूरत का ध्यान रखे। उन्हें भी सॉरी कहना चाहिए। बिग बॉस चाहते थे कि अन्य सदस्यों की तरह वह भी सॉरी कहे। उन्होंने उसे याद दिलाया कि वह एक करोड़ के इनाम पर से अधिकार खो देगा। उसने कहा मुझे इसकी चिंता नहीं लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरे मित्रों को नुकसान न हो। ज़िम्मेदारी मेरी है अत: मैंने जो किया वह उस समय वही सही था। इसलिए मै उसे गलत नहीं मानता। मैं अपनी मर्जी से बाहर जाने के लिए तैयार हूं। मेरे सामने एक सवाल है कि अगर राहूल सॉरी कह देता, जिसके लिए उस पर बिग बॉस से लेकर उसके साथियों का जोर पड रहा था तो क्या उसकी अपनी कोई पहचान बचती? यह क्या ज़रूरी था कि उसे ही एक करोड़ का इनाम मिलता? या केवल इतना ही होता कि राहुल भी लड़ा? एक करोड़ का लालच छोड़कर एक नैतिक स्टैंड लेना शायद अधिक लाभ का सौदा था। यह राहुल का राजनीतिक और नैतिक मिला जुला निर्णय था। अंतत: राजनीति में वह भी अपने पिता की हिंदूवादी पार्टी में जाएगा। एक सवाल और बिग बॉस ने व्यक्तिगत ईमानदारी और मित्र सहयोग की भावना से अधिक गलती करके माफी को वरीयता क्यों दी? क्या पूरा आयोजन परस्पर सहयोग को मज़बूत करने के लिए नहीं था? गलती चारों ने की थी दंड चारों को बराबर मिलना चाहिए था। नियमों के संयुक्त उलंघन की भरपाई एक व्यक्ति के ज़िम्मेदारी लेकर घर से बाहर हो जाने से कैसे हो सकती है? माफ़ी मांगने के मुक़ाबले नैतिक स्टैंड को कमतर करके देखना कहीं न कहीं सामंतवाद और गुलामी को महत्व देने की तरह है। राहुल यदि अंदर से इतना मज़बूत है कि वह मित्रों और सिध्दांत के लिए एक करोड़ का आकर्षण ठुकरा सकता है तथा अपने आत्म सम्मान यानी खुदी को बुलंद रख सकता है तो उसे राजनीति में जाने के बारे में भी सोच समझकर निर्णय लेना चाहिए। वहां तो सबसे पहले आदमी की इस खूं को ही तोड़ा जाता है। गोविंदाचार्य जीते जागते उदाहारण हैं।
गिरिराज किशोर
Monday, 17 November 2008
संतो, देश के लिए है हिंसा के लिए नहीं
कई बार एक सवाल दिमाग़ में आता है यह देश कैसे चलेगा और कैसे चल रहा है? आप कहेंगे कि देश के चलने में इस आदमी को क्या मुश्किल नज़र आ रही है? बडे मज़े में सब चल रहा है। धर्म परायण देश है। हिंदू हों या मुसलमान या सिक्ख या फिर इसाई, सबके पास धर्म का ऐसा आधार हे कि अपनी अपनी हर समस्या का समाधान उसमें तलाश कर लेते हैं। टी वी देखना एक धर्म में कुफ्र है दूसरे में मुखौटा लगाकर नाचना धर्म विरुध्द है, तीसरे में धर्म बदलने की आज़ादी पाप है। यहां तक कि साहित्यिक कृतियों के बारे मे भी धर्म के ठेकेदार निर्णय ले रहे हैं। क्या हम धर्म को सर्वोपरि मानते हैं? यह अर्ध सत्य है। उसमें क्या श्रेष्ठ है और क्या नहीं इस विषय पर विद्वत्जन सामुहिक विचार करना नहीं चाहते या ऐसा करने से डरते हैं? क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है? अगर ऐसा हुआ तो देश मुश्किल मे पड़ जाएगा। इतने धर्म, तो कितनों की तानाशाही बर्दाष्त करनी होगी? धर्म तानाशाह नहीं होता। कर्मकांड तानाशाही करता है। उसकी व्याख्या यानी इंटरप्रेटेशन में तानाशाही का अंदाज़ होता है, यह उचित यह अनुचित, यह पाप यह पुण्य। वेदों को कितने लोग जानते हैं? क़ुरान पाक के कितने के आलिम फ़ाज़िल हैं? वेदों की तरफ़ से पंडित बोलते हैं और क़ुरान की तरफ़ से मौलवी, गुरूग्रंथ साहब की तरफ़ से ग्रंथी, बाइबिल की तरफ़ से फ़ादर। यह एक दूसरी तरह की अनभिज्ञता है जो धर्म का गुलाम बनाती है। जा हम समझते नहीं और उस पर विश्वास करते हैं तो यह दूसरा गुलामी का दरवाजा है। गुरूओं से कौन पूछे कि आपने यह कैसे फ़तवा दिया। 'ऊपर' वाला तो डंडा चलाएगा नहीं, बाक़ी सब उसका डंडा संभाले हैं। लेकिन लगता है उनका आपस में कुछ अनुबंध है। शंकराचार्य बनने के बारे में वे मनमानी कर सकते हैं। शहर काज़ी के बारे में उनकी राय मुख्तलिफ़ हो जाती है और अपने आपको स्वत: लोग काज़ी घोषित करने में मुज़ायका नहीं समझते।
ये बातें इसलिए ज़हन में आती हैं कि आम आदमी अपनी आदमियत साबित करना चाहे तो उसे इन्हीं मुल्ला मौलवी और पंडितों के पास जाना पड़ेगा। उसकी सनत पर उन्हीं की मोहर लगेगी। इस बीच लगता है कि धर्म ज्यादा ताक़तवर हुए हैं। 15 नवंबर को एक प्राइवेट चैनल पर वाराणसी के धर्मगुओं की सभा के महामंत्री बता रहे थे स्वामी दयानंद पांडे उर्फ़ अमृतानंद को उस सभा ने शंकराचार्य नहीं बनाया। उनमें एक दो लोगों न ज़बरदस्ती पीठ भी बना दी और उन्हें शंकराचार्य भी घोशित कर दिया। यही कहानी ब्ल्यू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में घटित हुई थी। यह क्या है? अधिकारिक प्रवर समिति दयानंद जी को शंकराचार्य मानती नहीं, राजनीति मानती है। उसकी सुविधा और नीति को वे सूट करते हैं। इतने साधू अनाचार में पकड़े जाते हैं लेकिन उनके बारे में बात करना राजनीति के लिए लाभकारी नहीं। दयानंद और प्रज्ञा साध्वी यहां तक कि कर्नल पुरोहित उनके उद्देश्य की सिध्दि में फ़िट बैठ रहे हैं। हिदूवादी संगठन धार दे रहे हैं कि सरकार सेना और साधुओं को अपमानित कर रही है। अपने हित में अपमानित होने वालों का एक युग्म बना लिया। मज़े की बात है कि इस युग्म में एक स्वामी, एक अदद् साध्वी और फ़िलहाल एक कर्नल है। तोग़ड़िया आदि फ़तवा दे रहे हैं पूरा साधू समाज और पूरी सेना अपमानित हो गई। जब कि इन पर क्रिमिनल चार्जेज़ लगे हैं साबित होना बाक़ी है। हो सकता है वे बगुनाह हों, लेकिन जांच तो हो जाने दीजिए फिर कहिए। गेरूए वस्त्र धारण करने से कोई व्यक्ति जुर्म से निरापद नहीं हो जाता, न वर्दी पहन लेने से। अभी पीछे स्टिंग आपरेषन ने दिखाया था कितने बड़े बड़े श्वेतंबरी और भगवा सन्यासी काले धन का व्यवसाय करने में लिप्त पाए गए थे। अब हिंसा में लिप्तनजर आ रहे हैं। हिंसा बोने वाले अन्य देश उसकी आतशी फ़सल से नहीं बचे। अगर आप आग के बीज अपने धर्म और देश मे बोएंगे आप तो अंदर बाहर दोनों तरफ़ से मारे जाएंगे। आप हिंदूवादियों इससे बचने की तदबीर करो। मुझसे एक पत्रकार ने पूछा इस धर्मवाद के बढ़ने का क्या कारण है? मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं। एक सोच है। वह सोच परिस्थितिजन्य अधिक है। मनोवैज्ञानिक भी कह सकते हैं।
देश के सामाजिक ढांचे में इधर मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। एक क्रांतिकारी परिर्वतन तो मंडल कमिशन के लागू होने से हुआ है। दूसरा आरक्षण से। जिसने समाज के परंपरागत ढांचा बदल दिया। जिनकी पहचान नहीं थी उन्हें पहचान मिल गई। नतीजतन पहले जातिगत राजनीतिक पार्टियां बनीं। जातिगत वर्चस्व की ज़ोर आज़मायश सबसे अधिक राजनीति में हुई। फिर माया-मिश्रा समीकरण ने सत्ता के लिए सोशल इंजिनियरिंग के फ़ंडे द्वारा अन्य जातियों को ताश के पत्तों की तरह बांटना षुरू किया। इस प्रक्रिया ने र्सवणों को राजनीतिक ख़ानाबदोश की स्थिति में ला दिया। जो वर्ग सदियों शासक और नियामक रहा हो वह कुछ कहे या न कहे लेकिन आहत तो होगा। मुसलिम्स ने देश पर कई सौ साल राज किया था जब अंग्रेज़ आए तो उनके मन में अपनी प्रजागत स्थिति से वर्षो वर्षो असंतोष रहा। 1857 में उनके बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के पीछे एक यह भी कारण था। देशभक्ति की बात रही होगी या नहीं होगी पर अंग्रेज़ों के प्रति उनका आक्रोश था, वे उन्हें तख्त से तख्ते पर ले आए थे। सवर्ण सदियों की इस पीड़ा को कैसे भूल जाएंगे। हालांकि उनके द्वारा किए गए अत्याचारों का उनके पास कोई रिकार्ड नहीं है। लेकिन अपने वर्चस्व के जाने का मलाल ज़रूर है। उसका प्रतिकार वे राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखकर करना चाहते हैं। उसके लिए धर्म और संतो का वर्चस्व बनाए रखने का तरीक़ा ही शायद उनके पास है। पहले हिंसा फुटकर स्तर पर होती थी। जैसे उडीसा में नन के साथ सामुहिक बलात्कार और जलाना, विदेशी फ़ादर और उसके बच्चों की जलाकर हत्या करना। उस वक्त भी हिंदूवादी वर्ग ने हत्यारों का बचाव किया था। लेकिन जैसे समाचार आ रहे हैं और वे सही हैं, तो लगता है कि तालिबान और पड़ौसी देश के आतंकादियों की तरह अपने देश में भी संगठित आतंकवाद की संभावना की तलाश शुरू हो गई है। क्या इससे धर्म की श्रेष्ठता या सवर्ण-वर्चस्व स्थापित होगा? हिंदू धर्म के देवी देवता भले ही विभिन्न आयुधों से संपन्न नज़र आते हों पर निर्दोषों के लिए नहीं। इसका उदाहारण है कि तुलसी ने मानस में शांबूक प्रकरण को नहीं रखा। वे जानते थे यह प्रकरण समाज के हित में नहीं है। हिंदू धर्म में वर्णव्यवस्था के कारण बहुत ज़हर फैला है अगर धर्मगत संगठित हिंसा का देश में आरंभ हो गया तो इस देश में इतने धर्म हैं कि अगर वे सब इस रास्ते पर उतर आए तो न धर्म बचेंगे धर्म मानने वाले। जो साध्वी या साधू या राजीतिज्ञ ऐसा सोचते हैं वे कभी न समाप्त होने वाली सिविल वार को निमंत्रण दे रहे हैं। जो ऐसा कर रहे हैं साधू संत उनके मन परिवर्तन करके शांति के गोल में ला सकते हैं लेकिन उनसे बदला लेने के लिए देश को आग में झोकने की गलती न करें। राजनीतिज्ञ तो इधर भी आग सेकेंगे उधर भी। संतो, ये देश बेगाना नहीं।
गिरिराज किशोर 11/210 सूटरगंज कानपुर 208001
कई बार एक सवाल दिमाग़ में आता है यह देश कैसे चलेगा और कैसे चल रहा है? आप कहेंगे कि देश के चलने में इस आदमी को क्या मुश्किल नज़र आ रही है? बडे मज़े में सब चल रहा है। धर्म परायण देश है। हिंदू हों या मुसलमान या सिक्ख या फिर इसाई, सबके पास धर्म का ऐसा आधार हे कि अपनी अपनी हर समस्या का समाधान उसमें तलाश कर लेते हैं। टी वी देखना एक धर्म में कुफ्र है दूसरे में मुखौटा लगाकर नाचना धर्म विरुध्द है, तीसरे में धर्म बदलने की आज़ादी पाप है। यहां तक कि साहित्यिक कृतियों के बारे मे भी धर्म के ठेकेदार निर्णय ले रहे हैं। क्या हम धर्म को सर्वोपरि मानते हैं? यह अर्ध सत्य है। उसमें क्या श्रेष्ठ है और क्या नहीं इस विषय पर विद्वत्जन सामुहिक विचार करना नहीं चाहते या ऐसा करने से डरते हैं? क्या धार्मिक तानाशाही का युग फिर लौट रहा है? अगर ऐसा हुआ तो देश मुश्किल मे पड़ जाएगा। इतने धर्म, तो कितनों की तानाशाही बर्दाष्त करनी होगी? धर्म तानाशाह नहीं होता। कर्मकांड तानाशाही करता है। उसकी व्याख्या यानी इंटरप्रेटेशन में तानाशाही का अंदाज़ होता है, यह उचित यह अनुचित, यह पाप यह पुण्य। वेदों को कितने लोग जानते हैं? क़ुरान पाक के कितने के आलिम फ़ाज़िल हैं? वेदों की तरफ़ से पंडित बोलते हैं और क़ुरान की तरफ़ से मौलवी, गुरूग्रंथ साहब की तरफ़ से ग्रंथी, बाइबिल की तरफ़ से फ़ादर। यह एक दूसरी तरह की अनभिज्ञता है जो धर्म का गुलाम बनाती है। जा हम समझते नहीं और उस पर विश्वास करते हैं तो यह दूसरा गुलामी का दरवाजा है। गुरूओं से कौन पूछे कि आपने यह कैसे फ़तवा दिया। 'ऊपर' वाला तो डंडा चलाएगा नहीं, बाक़ी सब उसका डंडा संभाले हैं। लेकिन लगता है उनका आपस में कुछ अनुबंध है। शंकराचार्य बनने के बारे में वे मनमानी कर सकते हैं। शहर काज़ी के बारे में उनकी राय मुख्तलिफ़ हो जाती है और अपने आपको स्वत: लोग काज़ी घोषित करने में मुज़ायका नहीं समझते।
ये बातें इसलिए ज़हन में आती हैं कि आम आदमी अपनी आदमियत साबित करना चाहे तो उसे इन्हीं मुल्ला मौलवी और पंडितों के पास जाना पड़ेगा। उसकी सनत पर उन्हीं की मोहर लगेगी। इस बीच लगता है कि धर्म ज्यादा ताक़तवर हुए हैं। 15 नवंबर को एक प्राइवेट चैनल पर वाराणसी के धर्मगुओं की सभा के महामंत्री बता रहे थे स्वामी दयानंद पांडे उर्फ़ अमृतानंद को उस सभा ने शंकराचार्य नहीं बनाया। उनमें एक दो लोगों न ज़बरदस्ती पीठ भी बना दी और उन्हें शंकराचार्य भी घोशित कर दिया। यही कहानी ब्ल्यू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर में घटित हुई थी। यह क्या है? अधिकारिक प्रवर समिति दयानंद जी को शंकराचार्य मानती नहीं, राजनीति मानती है। उसकी सुविधा और नीति को वे सूट करते हैं। इतने साधू अनाचार में पकड़े जाते हैं लेकिन उनके बारे में बात करना राजनीति के लिए लाभकारी नहीं। दयानंद और प्रज्ञा साध्वी यहां तक कि कर्नल पुरोहित उनके उद्देश्य की सिध्दि में फ़िट बैठ रहे हैं। हिदूवादी संगठन धार दे रहे हैं कि सरकार सेना और साधुओं को अपमानित कर रही है। अपने हित में अपमानित होने वालों का एक युग्म बना लिया। मज़े की बात है कि इस युग्म में एक स्वामी, एक अदद् साध्वी और फ़िलहाल एक कर्नल है। तोग़ड़िया आदि फ़तवा दे रहे हैं पूरा साधू समाज और पूरी सेना अपमानित हो गई। जब कि इन पर क्रिमिनल चार्जेज़ लगे हैं साबित होना बाक़ी है। हो सकता है वे बगुनाह हों, लेकिन जांच तो हो जाने दीजिए फिर कहिए। गेरूए वस्त्र धारण करने से कोई व्यक्ति जुर्म से निरापद नहीं हो जाता, न वर्दी पहन लेने से। अभी पीछे स्टिंग आपरेषन ने दिखाया था कितने बड़े बड़े श्वेतंबरी और भगवा सन्यासी काले धन का व्यवसाय करने में लिप्त पाए गए थे। अब हिंसा में लिप्तनजर आ रहे हैं। हिंसा बोने वाले अन्य देश उसकी आतशी फ़सल से नहीं बचे। अगर आप आग के बीज अपने धर्म और देश मे बोएंगे आप तो अंदर बाहर दोनों तरफ़ से मारे जाएंगे। आप हिंदूवादियों इससे बचने की तदबीर करो। मुझसे एक पत्रकार ने पूछा इस धर्मवाद के बढ़ने का क्या कारण है? मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं। एक सोच है। वह सोच परिस्थितिजन्य अधिक है। मनोवैज्ञानिक भी कह सकते हैं।
देश के सामाजिक ढांचे में इधर मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। एक क्रांतिकारी परिर्वतन तो मंडल कमिशन के लागू होने से हुआ है। दूसरा आरक्षण से। जिसने समाज के परंपरागत ढांचा बदल दिया। जिनकी पहचान नहीं थी उन्हें पहचान मिल गई। नतीजतन पहले जातिगत राजनीतिक पार्टियां बनीं। जातिगत वर्चस्व की ज़ोर आज़मायश सबसे अधिक राजनीति में हुई। फिर माया-मिश्रा समीकरण ने सत्ता के लिए सोशल इंजिनियरिंग के फ़ंडे द्वारा अन्य जातियों को ताश के पत्तों की तरह बांटना षुरू किया। इस प्रक्रिया ने र्सवणों को राजनीतिक ख़ानाबदोश की स्थिति में ला दिया। जो वर्ग सदियों शासक और नियामक रहा हो वह कुछ कहे या न कहे लेकिन आहत तो होगा। मुसलिम्स ने देश पर कई सौ साल राज किया था जब अंग्रेज़ आए तो उनके मन में अपनी प्रजागत स्थिति से वर्षो वर्षो असंतोष रहा। 1857 में उनके बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के पीछे एक यह भी कारण था। देशभक्ति की बात रही होगी या नहीं होगी पर अंग्रेज़ों के प्रति उनका आक्रोश था, वे उन्हें तख्त से तख्ते पर ले आए थे। सवर्ण सदियों की इस पीड़ा को कैसे भूल जाएंगे। हालांकि उनके द्वारा किए गए अत्याचारों का उनके पास कोई रिकार्ड नहीं है। लेकिन अपने वर्चस्व के जाने का मलाल ज़रूर है। उसका प्रतिकार वे राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखकर करना चाहते हैं। उसके लिए धर्म और संतो का वर्चस्व बनाए रखने का तरीक़ा ही शायद उनके पास है। पहले हिंसा फुटकर स्तर पर होती थी। जैसे उडीसा में नन के साथ सामुहिक बलात्कार और जलाना, विदेशी फ़ादर और उसके बच्चों की जलाकर हत्या करना। उस वक्त भी हिंदूवादी वर्ग ने हत्यारों का बचाव किया था। लेकिन जैसे समाचार आ रहे हैं और वे सही हैं, तो लगता है कि तालिबान और पड़ौसी देश के आतंकादियों की तरह अपने देश में भी संगठित आतंकवाद की संभावना की तलाश शुरू हो गई है। क्या इससे धर्म की श्रेष्ठता या सवर्ण-वर्चस्व स्थापित होगा? हिंदू धर्म के देवी देवता भले ही विभिन्न आयुधों से संपन्न नज़र आते हों पर निर्दोषों के लिए नहीं। इसका उदाहारण है कि तुलसी ने मानस में शांबूक प्रकरण को नहीं रखा। वे जानते थे यह प्रकरण समाज के हित में नहीं है। हिंदू धर्म में वर्णव्यवस्था के कारण बहुत ज़हर फैला है अगर धर्मगत संगठित हिंसा का देश में आरंभ हो गया तो इस देश में इतने धर्म हैं कि अगर वे सब इस रास्ते पर उतर आए तो न धर्म बचेंगे धर्म मानने वाले। जो साध्वी या साधू या राजीतिज्ञ ऐसा सोचते हैं वे कभी न समाप्त होने वाली सिविल वार को निमंत्रण दे रहे हैं। जो ऐसा कर रहे हैं साधू संत उनके मन परिवर्तन करके शांति के गोल में ला सकते हैं लेकिन उनसे बदला लेने के लिए देश को आग में झोकने की गलती न करें। राजनीतिज्ञ तो इधर भी आग सेकेंगे उधर भी। संतो, ये देश बेगाना नहीं।
गिरिराज किशोर 11/210 सूटरगंज कानपुर 208001
Friday, 14 November 2008
हैलो मान्य प्रधानमंत्री जी/ सूचना मंत्री जी......
13 नवंबर 08
प्रधान मंत्री जी आपको और हमको भी, बधाई कि मान्य मुंशीजी की अस्वस्थता के दौरान सूचना मंत्रालय आपके जेरे इनायत चलेगा। मैं इस बात से वाबस्ता हूं कि देश के आप जैसे अदीमुलफुर्सत राजनेता का इस मंत्रालय को अपनी देख रेख मे रखना बिलावजह नहीं है। जैसा सामान्य पढ़े लिखे नागरिक को महसूस होता है कि प्राइवेट चैनल्स मनमानी कर रहे हैं आपको भी हो सकता है ऐसा पता चला हो। हो सकता है आपके डर और शराफत के मिले जुले प्रभाव से उनमें कुछ सुधार हो। हालांकि ये दोनों अलग अलग वर्ग के परस्पर विरोधी भाव है।
आप तो सीरियल्स कहां देख पाते होंगे। यह निठल्लों और सेमी निठल्लें की चक्षु परेड है। इन सीरियलों ने महिलाओं के सम्मान को जिस तरह रौंधा है वह इस तथाकथित सांस्कृतिक देश के लिए कितना शर्मनाक है।, सालों चलने वाले एक एक सीरियल में चार चार छ: छ: खल नायिकाएं। यही नहीं बीच बीच में नई नई खलनायिकाएं आती रहती हैं। जैसे सब महिलाएं खलनायिकाएं हों। महिला सशक्तिकरण में सब बातें उठती हैं पर महिलाएं इस सवाल पर दरियादिल हैं। पहले मुद्दों को लेकर अहिंसात्मक आंदोलन होते थे अब स्वार्थों को लेकर होते हैं। इस समस्या के बारे में मैंनें प्रियरंजनदास मुंशी जी को पत्र लिखा था। पावती भेजने के सिवाय शायद ही उस पर कोई कार्यवाही हुई हो। मंत्री का पत्रोत्तर आ जाना ही रेगिस्तान में वर्षा की तरह है। मंत्री कहां जवाब देते हैं।
प्रधानमंत्री जी मैं यह संदेश लिखने की धृष्टता दो वजह से कर रहा हूं। एक तो इन हंसोडों और फ़िल्म वालों ने न्यूज जैसी चीज को हास्यास्पद व नॉनसीरियस बना दिया। आप तो अंग्रेज़ी की खबर सुनते होंगे। वहां यह गुस्ताख़ी नहीं। इस काम में संसद सदस्य तक पैसे के लिए बनावटी हंसी हंसते हैं। बिना यह सोचे कि जनता पर क्या असर पड़ेगा। अच्छा या बुरा। सिर्फ़ एन डी टी वी या जी न्यूज़ बचे हैं।
इस समय सबसे बड़ी गैरदयानतदारी इन चैनलें द्वारा जो की जा रही है वह है जनता को कलाकारों की हड़ताल के कारण नए एपिसोड्स न दिखा पाने की वजह से पुराने एपिसोड्स दिखा दिखा कर बच्चों बूढ़ों, औरत मर्द के समय और धन का अपव्यय करना। आप अगर गणना कराएं तो पता लगेगा कितने क़ीमती मैनअवर और धन प्रति व्यक्ति इस मंदी/महगाई में अपव्यय हो रहा है। सिर्फ़ इस लिए कि नशे का वह स्पेल न टूटे जिसका जाल उन्होंने बुनकर देश को एडिक्ट बनाया है। इस बीच उनका किताबों, खेल आदि की ओर रूझान न हो जाए। सरकार को तो पता होगा कि अभी दिसबर तक कुछ होने वाला नहीं है। वे पैसा नहीं देंगे और हड़ताली कम पर नहीं आएंगे। उनको विज्ञापन मिल रहे हैं। हो सकता है फ्री या कम पैसों में दिखला रहे हों। उनका उद्देश्य है कि नशे के इस संसार को किसी न किसी तरह बनाए रखना है।महामहिम, देश को इस फरेब से बचाइए।
13 नवंबर 08
प्रधान मंत्री जी आपको और हमको भी, बधाई कि मान्य मुंशीजी की अस्वस्थता के दौरान सूचना मंत्रालय आपके जेरे इनायत चलेगा। मैं इस बात से वाबस्ता हूं कि देश के आप जैसे अदीमुलफुर्सत राजनेता का इस मंत्रालय को अपनी देख रेख मे रखना बिलावजह नहीं है। जैसा सामान्य पढ़े लिखे नागरिक को महसूस होता है कि प्राइवेट चैनल्स मनमानी कर रहे हैं आपको भी हो सकता है ऐसा पता चला हो। हो सकता है आपके डर और शराफत के मिले जुले प्रभाव से उनमें कुछ सुधार हो। हालांकि ये दोनों अलग अलग वर्ग के परस्पर विरोधी भाव है।
आप तो सीरियल्स कहां देख पाते होंगे। यह निठल्लों और सेमी निठल्लें की चक्षु परेड है। इन सीरियलों ने महिलाओं के सम्मान को जिस तरह रौंधा है वह इस तथाकथित सांस्कृतिक देश के लिए कितना शर्मनाक है।, सालों चलने वाले एक एक सीरियल में चार चार छ: छ: खल नायिकाएं। यही नहीं बीच बीच में नई नई खलनायिकाएं आती रहती हैं। जैसे सब महिलाएं खलनायिकाएं हों। महिला सशक्तिकरण में सब बातें उठती हैं पर महिलाएं इस सवाल पर दरियादिल हैं। पहले मुद्दों को लेकर अहिंसात्मक आंदोलन होते थे अब स्वार्थों को लेकर होते हैं। इस समस्या के बारे में मैंनें प्रियरंजनदास मुंशी जी को पत्र लिखा था। पावती भेजने के सिवाय शायद ही उस पर कोई कार्यवाही हुई हो। मंत्री का पत्रोत्तर आ जाना ही रेगिस्तान में वर्षा की तरह है। मंत्री कहां जवाब देते हैं।
प्रधानमंत्री जी मैं यह संदेश लिखने की धृष्टता दो वजह से कर रहा हूं। एक तो इन हंसोडों और फ़िल्म वालों ने न्यूज जैसी चीज को हास्यास्पद व नॉनसीरियस बना दिया। आप तो अंग्रेज़ी की खबर सुनते होंगे। वहां यह गुस्ताख़ी नहीं। इस काम में संसद सदस्य तक पैसे के लिए बनावटी हंसी हंसते हैं। बिना यह सोचे कि जनता पर क्या असर पड़ेगा। अच्छा या बुरा। सिर्फ़ एन डी टी वी या जी न्यूज़ बचे हैं।
इस समय सबसे बड़ी गैरदयानतदारी इन चैनलें द्वारा जो की जा रही है वह है जनता को कलाकारों की हड़ताल के कारण नए एपिसोड्स न दिखा पाने की वजह से पुराने एपिसोड्स दिखा दिखा कर बच्चों बूढ़ों, औरत मर्द के समय और धन का अपव्यय करना। आप अगर गणना कराएं तो पता लगेगा कितने क़ीमती मैनअवर और धन प्रति व्यक्ति इस मंदी/महगाई में अपव्यय हो रहा है। सिर्फ़ इस लिए कि नशे का वह स्पेल न टूटे जिसका जाल उन्होंने बुनकर देश को एडिक्ट बनाया है। इस बीच उनका किताबों, खेल आदि की ओर रूझान न हो जाए। सरकार को तो पता होगा कि अभी दिसबर तक कुछ होने वाला नहीं है। वे पैसा नहीं देंगे और हड़ताली कम पर नहीं आएंगे। उनको विज्ञापन मिल रहे हैं। हो सकता है फ्री या कम पैसों में दिखला रहे हों। उनका उद्देश्य है कि नशे के इस संसार को किसी न किसी तरह बनाए रखना है।महामहिम, देश को इस फरेब से बचाइए।
Tuesday, 11 November 2008
VISIT OF HONOURED GUEST IN BIG BOSS'S HOUSE
12 November 08
What a fun!
British 'mems'were used to ascertain first if a visitor offers to flatter her dog or not. It used to assure the Mem that the said visitor will leave no stone unturned to please her in any manner what ever she wants. "Sahib" also felt assured that the bloody native if pays full attention to the tomy(the Visitor) would be faithfull to the Sahib and British Empire. It is still true. Indian Mem sahibs use there pups as touchstone to test the sincerity of the caller towards them and there demands. Sahib only watches and acts. It is amusinmg to see that the big boss has used the same technique to assess who will actually be a right choice to become next BIG BOSS or the winner of the car to be awarded for nobility, amongst the remaining GHARWALAS -Rahul, ZULFI, Monika,Raja, Ashu. One of them either Monika or Zulfi will be out on next Friday.Then four of them will be left. The Dogy, who has been sent as the special guest in the Big Boss's house may become litmus Test for Big boss to reach final decision. All of them were standing in a line to welcome The proud MEHMAN with flower leaves and other things in their hands. When the great visitor or valued guest entered in, with a chain around the neck and all mezbans not only get alerted but started running to sprinkle flowers on Him.Every body was in competetion to prove worthy of His liking. A gteat challenge before them how to address the honoured guest? Probably Monica prayed, O, Big Boss let us know how to address Him. Then the Big Boss was pleased to send an two page report about his needs and timmings of eating and sleep, his bowl too. Meanwhile He pissed RAHUL Wip out His Gestur RUSHED TO CLEAN WITH TISHU PAPER AND GUN FOR IMMUNISING THE PLACE. Was it not insult to the honored guest to imunise the gesture of love? What a great fun. Let us see who gets the favour of that great visitor in the Big Boss's house. At this juncture HE is not less then the Big Boss Himslf. Shall those golden days will return by the grace of Big Boss and this great visitir and will the slavery be back in its purest sense? AMIN!
What a fun!
British 'mems'were used to ascertain first if a visitor offers to flatter her dog or not. It used to assure the Mem that the said visitor will leave no stone unturned to please her in any manner what ever she wants. "Sahib" also felt assured that the bloody native if pays full attention to the tomy(the Visitor) would be faithfull to the Sahib and British Empire. It is still true. Indian Mem sahibs use there pups as touchstone to test the sincerity of the caller towards them and there demands. Sahib only watches and acts. It is amusinmg to see that the big boss has used the same technique to assess who will actually be a right choice to become next BIG BOSS or the winner of the car to be awarded for nobility, amongst the remaining GHARWALAS -Rahul, ZULFI, Monika,Raja, Ashu. One of them either Monika or Zulfi will be out on next Friday.Then four of them will be left. The Dogy, who has been sent as the special guest in the Big Boss's house may become litmus Test for Big boss to reach final decision. All of them were standing in a line to welcome The proud MEHMAN with flower leaves and other things in their hands. When the great visitor or valued guest entered in, with a chain around the neck and all mezbans not only get alerted but started running to sprinkle flowers on Him.Every body was in competetion to prove worthy of His liking. A gteat challenge before them how to address the honoured guest? Probably Monica prayed, O, Big Boss let us know how to address Him. Then the Big Boss was pleased to send an two page report about his needs and timmings of eating and sleep, his bowl too. Meanwhile He pissed RAHUL Wip out His Gestur RUSHED TO CLEAN WITH TISHU PAPER AND GUN FOR IMMUNISING THE PLACE. Was it not insult to the honored guest to imunise the gesture of love? What a great fun. Let us see who gets the favour of that great visitor in the Big Boss's house. At this juncture HE is not less then the Big Boss Himslf. Shall those golden days will return by the grace of Big Boss and this great visitir and will the slavery be back in its purest sense? AMIN!
Thursday, 6 November 2008
Change has come to America-Obama
7 NOVEMBER O8
GANDHI has said in Y M C A i johannaburg that It is dificult to think about Africa without African communities. They are not only strong and intelleligent, they are boon to the British Empire...All the races when mix up will come up with such an extraordinary culture that world can dream of. Obama, I think represents that culture.
Obama was born on August 4 1961, just after two months when Martin Luther KingJr.delivered his famous speech on August 28 1963, in which he said "I have a dream that one day...little black boys and black girls will be able to join hands with little white boys and little white girls as sisters and brothers." We in India also dream that day is not far behind when Dalit and non Dalit may live under one shed as members of one and the same family. Gandhi has also dreamt of that a day will come when a Dalit moman will preside over India's presidency, which has come half way true. The time is not far away when Dalit woman may lead the destiny of our country. American nation has gone against its history and risen above its worst prejudices in electing Obama as the President.Obama's run away victory in the presidential election begins a new political era in the United States. A new genretion of enthusiastic voters thirsting for socio political change powered the Democratic candidate to his famous victory.There is a caution for Obama, he has won the election on the back ofthe economic disaster, in case he is not able to rule the tide, Obama would mean a falling off a much higher cliff. The Impact of obama's win on the sentiments and aspiration of millions of minorities in the world. In India as well the election of Manmohan Singh to the Pm's postion was also a great boost for minority of India. Obama's victory must give encouragement to all the minorities of the world.
Obama's victory has opened a new chater not only to developed nations but it is a boost to the troubled, hungry and suffering magnitued of the world. Let us wish him a great success and extend help for bringing peace and love to each one and every one in the world.
GANDHI has said in Y M C A i johannaburg that It is dificult to think about Africa without African communities. They are not only strong and intelleligent, they are boon to the British Empire...All the races when mix up will come up with such an extraordinary culture that world can dream of. Obama, I think represents that culture.
Obama was born on August 4 1961, just after two months when Martin Luther KingJr.delivered his famous speech on August 28 1963, in which he said "I have a dream that one day...little black boys and black girls will be able to join hands with little white boys and little white girls as sisters and brothers." We in India also dream that day is not far behind when Dalit and non Dalit may live under one shed as members of one and the same family. Gandhi has also dreamt of that a day will come when a Dalit moman will preside over India's presidency, which has come half way true. The time is not far away when Dalit woman may lead the destiny of our country. American nation has gone against its history and risen above its worst prejudices in electing Obama as the President.Obama's run away victory in the presidential election begins a new political era in the United States. A new genretion of enthusiastic voters thirsting for socio political change powered the Democratic candidate to his famous victory.There is a caution for Obama, he has won the election on the back ofthe economic disaster, in case he is not able to rule the tide, Obama would mean a falling off a much higher cliff. The Impact of obama's win on the sentiments and aspiration of millions of minorities in the world. In India as well the election of Manmohan Singh to the Pm's postion was also a great boost for minority of India. Obama's victory must give encouragement to all the minorities of the world.
Obama's victory has opened a new chater not only to developed nations but it is a boost to the troubled, hungry and suffering magnitued of the world. Let us wish him a great success and extend help for bringing peace and love to each one and every one in the world.
6 nov.o8
6 नवंबर 2008
बचपन में हम लोग अंताक्षरी खेला करते थे। अंताक्षरी आरंभ करने से पहले कहते थे 'शुरु करो अंताक्षरी ले कर हरी का नाम'। कुछ कुछ ऐसी ही अनुभूति इस समय हो रही है जब पहली बार अपने ब्लॉग पर अपना संदेश आप तक भेज रहा हूं। आपके मन में सवाल आ सकता है कि यह ब्लॉग मेरे पास कहां से आया। इस जिज्ञासा को षांत करने से मुझे डबल लाभ होगा। एक तो यह कि आपकी यह बदगुमानी दूर हो जाएगी की यह दुलर्भ काम मैं कर सकता हूं। सत्य भी आपको पता चल जाएगा। दीपावली पर विंग कमांडर ए के कुलश्रेष्ठ एवं उनकी पत्नी और कथाकार मनीषा जी ने मुझ ये इनायत फ़रमाया। दाता सुखा भव।
पहले ही संदेश में मुझे आपसे मराठा मानुस के प्रसंग के बारे में बात करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र इस देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा पन्ना है। मुझे सबसे पहले 1857 याद आता है। नाना राव पेशवा पूणे से निर्वासित होकर कानपुर के पास गंगा किनारे उस समय के महत्तवपूर्ण नगर बिठूर, अपने पूरे अमले के साथ आकर बस गए थे। तात्या टोपे उनके मित्र और सलाहाकार थे। लेकिन आरंभ के कुछ दिनों को छोड़कर नाना साहब की गोरी हुकूमत से बिल्कुल नहीं पटी। यहां तक कि अंग्रेज़ों ने उनके प्रीविपर्स तक पर हमला किया। उस समय अज़ीमुल्ला ख़ां उनके वज़ीर थे। वे अंग्रेज़ों के दोस्त थे। उनकी परवरिश भी एक पादरी के घर में हुई थी। लेकिन अज़ीमुल्ला ने उनका साथ दिया और उनका मुक़दमा प्रीवि काउंसिल तक लड़ा। बाद में उनका बिठूर का महल तोप से उड़ा दिया गया। उत्तर भारत के लोग उस महल के बचे हुए एक पाखे के श्रध्दा भाव से दर्षन करनें जातें हैं। उनके परिवार के एक सदस्य को रेलमंत्री लालू जी ने बिना किसी परीक्षा और औपचारिक चयन के रेल में नौकरी दी। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में अपने जमाने की मशहूर तवायफ अज़ीज़न बाई ने नाना तात्याटोपे का साथ दिया। वह घोड़े पर चढ़कर एक हाथ में रोटी दूसरे हाथ में कमल लेकर अंग्रजों की छावनी में जाती थी। एक एक भारतीय सिपाही को विद्रोह के लिए प्रेरित करती थी। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की परवरिश बनारस और कानपुर में हुई। अंग्रेज़ों के साथ उनकी लड़ाई में उनके सिपाही सब उत्तर भारतीय थे। झलकारी बाई जो दलित थी उनकी अंग रक्षक और सेनानी थी। मोहम्मद ग़ौस तोपची लड़ते लड़ते मारे गए थे। ग्वालियर और इंदौर में मराठा सम्राज्य रहा। उत्तर भारत ने सदा सम्मान दिया। आज भी देता है।
आज़ादी की लड़ाई के मुख्य सेनानी कौन थे? दादाभाई नौरोजी, सर फ़ीरोज़ षाह, तिलक महाराज, गोखले आदि सब महाराष्ट्र मानुस थे। अगस्त क्रांति कहां से हुई? महाराष्ट्र से। अंग्रेज़ो भारत छोड़ो का नारा और करो या मरो को क्या भूला जा सकता है? जिस आवाज़ पर पूरा देश एक जुट था आज वहीं से यह एक अलग आवाज़ क्यों आ रही है मरो नहीं, मारो? क्या यह महाराष्ट्र से आ रही है? महाराष्ट्र संकीर्णता का नाम नहीं, सागर जैसी विशालता का प्रतीक है। समुद्री हवाएं महाराष्ट्र मानुस को ही शीतल नहीं करती बल्कि वह सागर जहां जहां जाता है चाहे घर हो या बाहर, वह उस अनमोल हवा को वह बांटता जाता है। क्या अकेला मानस महाराष्ट्र को महान बनाए रख सकेगा? वह पहले राष्ट्र तो बने। महाराष्ट्र आज भी हर भारतीय को हिमालय की तरह आकर्षित करता है। महाराष्ट्र के इस विष्व व्यापी तिलिस्म को तोड़ दोगे तो क्या बचेगा? रोटी के साथ कमल भी चाहिए जो एकता का प्रतीक है सात पत्तियां एक ही पराग बिंदू से जुड़ी हैं। यह बात अलग है राजनीति ने उसे भी मैला किया है। पर कमल कमल है।
बचपन में हम लोग अंताक्षरी खेला करते थे। अंताक्षरी आरंभ करने से पहले कहते थे 'शुरु करो अंताक्षरी ले कर हरी का नाम'। कुछ कुछ ऐसी ही अनुभूति इस समय हो रही है जब पहली बार अपने ब्लॉग पर अपना संदेश आप तक भेज रहा हूं। आपके मन में सवाल आ सकता है कि यह ब्लॉग मेरे पास कहां से आया। इस जिज्ञासा को षांत करने से मुझे डबल लाभ होगा। एक तो यह कि आपकी यह बदगुमानी दूर हो जाएगी की यह दुलर्भ काम मैं कर सकता हूं। सत्य भी आपको पता चल जाएगा। दीपावली पर विंग कमांडर ए के कुलश्रेष्ठ एवं उनकी पत्नी और कथाकार मनीषा जी ने मुझ ये इनायत फ़रमाया। दाता सुखा भव।
पहले ही संदेश में मुझे आपसे मराठा मानुस के प्रसंग के बारे में बात करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र इस देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा पन्ना है। मुझे सबसे पहले 1857 याद आता है। नाना राव पेशवा पूणे से निर्वासित होकर कानपुर के पास गंगा किनारे उस समय के महत्तवपूर्ण नगर बिठूर, अपने पूरे अमले के साथ आकर बस गए थे। तात्या टोपे उनके मित्र और सलाहाकार थे। लेकिन आरंभ के कुछ दिनों को छोड़कर नाना साहब की गोरी हुकूमत से बिल्कुल नहीं पटी। यहां तक कि अंग्रेज़ों ने उनके प्रीविपर्स तक पर हमला किया। उस समय अज़ीमुल्ला ख़ां उनके वज़ीर थे। वे अंग्रेज़ों के दोस्त थे। उनकी परवरिश भी एक पादरी के घर में हुई थी। लेकिन अज़ीमुल्ला ने उनका साथ दिया और उनका मुक़दमा प्रीवि काउंसिल तक लड़ा। बाद में उनका बिठूर का महल तोप से उड़ा दिया गया। उत्तर भारत के लोग उस महल के बचे हुए एक पाखे के श्रध्दा भाव से दर्षन करनें जातें हैं। उनके परिवार के एक सदस्य को रेलमंत्री लालू जी ने बिना किसी परीक्षा और औपचारिक चयन के रेल में नौकरी दी। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में अपने जमाने की मशहूर तवायफ अज़ीज़न बाई ने नाना तात्याटोपे का साथ दिया। वह घोड़े पर चढ़कर एक हाथ में रोटी दूसरे हाथ में कमल लेकर अंग्रजों की छावनी में जाती थी। एक एक भारतीय सिपाही को विद्रोह के लिए प्रेरित करती थी। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की परवरिश बनारस और कानपुर में हुई। अंग्रेज़ों के साथ उनकी लड़ाई में उनके सिपाही सब उत्तर भारतीय थे। झलकारी बाई जो दलित थी उनकी अंग रक्षक और सेनानी थी। मोहम्मद ग़ौस तोपची लड़ते लड़ते मारे गए थे। ग्वालियर और इंदौर में मराठा सम्राज्य रहा। उत्तर भारत ने सदा सम्मान दिया। आज भी देता है।
आज़ादी की लड़ाई के मुख्य सेनानी कौन थे? दादाभाई नौरोजी, सर फ़ीरोज़ षाह, तिलक महाराज, गोखले आदि सब महाराष्ट्र मानुस थे। अगस्त क्रांति कहां से हुई? महाराष्ट्र से। अंग्रेज़ो भारत छोड़ो का नारा और करो या मरो को क्या भूला जा सकता है? जिस आवाज़ पर पूरा देश एक जुट था आज वहीं से यह एक अलग आवाज़ क्यों आ रही है मरो नहीं, मारो? क्या यह महाराष्ट्र से आ रही है? महाराष्ट्र संकीर्णता का नाम नहीं, सागर जैसी विशालता का प्रतीक है। समुद्री हवाएं महाराष्ट्र मानुस को ही शीतल नहीं करती बल्कि वह सागर जहां जहां जाता है चाहे घर हो या बाहर, वह उस अनमोल हवा को वह बांटता जाता है। क्या अकेला मानस महाराष्ट्र को महान बनाए रख सकेगा? वह पहले राष्ट्र तो बने। महाराष्ट्र आज भी हर भारतीय को हिमालय की तरह आकर्षित करता है। महाराष्ट्र के इस विष्व व्यापी तिलिस्म को तोड़ दोगे तो क्या बचेगा? रोटी के साथ कमल भी चाहिए जो एकता का प्रतीक है सात पत्तियां एक ही पराग बिंदू से जुड़ी हैं। यह बात अलग है राजनीति ने उसे भी मैला किया है। पर कमल कमल है।
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