Tuesday 10 November, 2009

कहां है संविधान और कहां है जनतंत्र?

मैं संविधान और जनतंत्र की बात क्यों कर रहा हूं? फिर सोचता हूं सब ही कर रहे हैं तो मैं भी कर रहा हूं तो क्या गुनाह कर रहा हूं? जब संज्ञाएं और शब्द अर्थ खो देते हैं तो उनका कोई महत्त्व नहीं रहता। ऐसे में अर्थहीन शब्द बोलना गुनाह नहीं रहता। जब किसी भाषा का कोई महत्त्व नहीं रहता तो शब्दों का ही क्या मतलब रह जाता है। भाषा से भले ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी न बनें पर साहित्य, इतिहास, समाजविज्ञान के मूल में भाषा ही होती है। संविधान की भी भाषा ही है। उसमें सब भारतीय भाषाओं को समान माना। हिंदी और अंग्रेज़ी को संपर्क भाषाएं मान लिया गया। एक साज़िश की गई कि हिंदी राज भाषा बना दी गई। दोनों भाषाएं, एक विदेशी भाषा और वह भाषा जिसमें आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी एक नाव में सवार हो गई। हिंदी राजभाषा बनाकर दूसरी भाषाओं की आंख की किरकिरी बना दी गई। यह भाषाओं को बांटने की सोची समझी राजनीतिक साज़िश थी। उसका विकृत नतीजा 9 नवंबर 09 को महाराष्ट्र की विधान सभा में देखने को मिला। यह संविधान का सम्मान है या विधान सभा का या आदमियत का? अब इस सवाल को राजनीतिज्ञ ही सुलझाएंगे। इसे न बुद्धीजीवी सुलझा सकते हैं और न साधु संत और न विधिवेत्ता। जिन्होंने यह अवलेह घोटा है उन्हें ही चखना पड़ेगा। तीन क्या चार भाषाओं में शपथ ली गई। मराठी में, संस्कृत में, हिंदी में और अंग्रजी में। मराठी में तो ली जानी थी। एक तो मनसा के अध्यक्ष राज ठाकरे का तानाशाही हुक्मनामा, दूसरे राज्य की भाषा। हुक्म डराने वाला था कि मराठी में शपथ न लेने पर दंडित किया जाएगा। तुम कौन, जन प्रतिनिधियों के नाम संविधान विरोधी हुक्मनामा जारी करने वाले? आप अपील करते तो भी एक बात थी। ऐसा करना भी अधिकार के बाहर की बात थी। एक बाहरी आदमी का सदन के चुने गए सदस्यों को हुक्म जारी करना सदन और अध्यक्ष की अवमानना है। दुसरे संविधान में किसी भी भाषा में शपथ लेने की दी गई छूट और संवैधानिक अधिकार में ख़लअंदाज़ी है। यह नया तानाशाह पिछले सप्ताह भर से संविधान विरोधी आदेशों की बरसात कर रहा था लेकिन न तो सरकार ने इसका वरोध किया और न इस असंवैधिनक स्वयंभू तानाशाह के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही की गई। दो ही बातें हो सकती हैं या तो सरकार डरती है या फिर तरह दे रही थी। गैरकानूनी काम के खिलाफ़ तत्काल कार्यवाही न करना उसे वैधता देना है। अराजकता पैदा करना है। सपा के चुने हुए सदस्य अबु आज़मी का यह अधिकार था कि वह किसी भी भाषा में शपथ ले। उन्होंने इस अधिकार का उपयोग किया। वैसे भी अपने को लोहिया जी का अनुयायी मानने वाला व्यक्ति अपने नेता का भाषा वाले निर्देश का पालन उसी पकार कर रहा था जिस प्रकार मनसा के आततायी सदस्यों ने राज ठाकरे के निराधार और असंवैधानिक आदेश का पालन किया।
आप यानी ठाकरे परिवार हिंदी से क्यों नाराज़ है? राज ठाकरे तो ज़हर घोले बैठा है,हिंदी के खिलाफ़ भी और हिंदी वालों के खिलाफ़ भी। जबकि देवनागरी यानी लिपि को बहुत अच्छी तरह मराठी ने अपनाई है। शायद इसीलिए कि मराठी और हिंदी भाषियों की डोर दोनों को बांधे रहेगी। पराडकर जी ने हिंदी पत्रकारिता को परवान चढ़ाया। दरअसल हिंदी के समर्थक अहिंदी भाषी ही रहे, गांधी, तिलक, और स्वामी दयानंद से लेकर पराडकर जी तक। इस बार अंग्रेज़ी में शपथ ली गई तो मनसा के गुंडे कहूं या महान प्रदेश भक्त क्यों नहीं बोले, क्या वह मराठी की सगी थी? संस्कृत में ली गई। वह मराठी नहीं थी। सिर्फ हिंदी से ऐसी क्या दुश्मनी थी कि मनसा के सदस्यों ने सम्मानित राजनीति पार्टी के सम्मानित सदस्य को पीटा। राज ठाकरे जी , मैं आपके नाम के आगे जी इस लिए लगा रहा हूं कि आप एक पार्टी के नेता हैं। नहीं तो शायद नाम भी न लेता। मराठी गुंडा कहना मुझे गवारा नहीं हुआ। आप आइए उत्तर प्रदेश में देखिए मराठी कितने सम्मान के साथ रखे जाते हैं। शिक्षा संस्थाओं में अध्यापक ही नहीं प्रचार्य भी बड़ी संख्यां में हैं। इसलिए नहीं के बहुत योग्य हैं बल्कि इसलिए स्थानीय लोगों के साथ वे घुल मिल गए हैं। आई आई टी कानपुर के पहले निदेशक मराठी थे। उन्होंने उन लोगों के अधिकार को नज़रअंदाज़ करके जिनकी ज़मीने आई आई टी बसाने के लिए ली गई थीं, मराठियों का नौकरियांदीं। लेकिन कभी स्थानीय लोगों ने उफ़ नहीं की। आपके यहां जब टैक्सी चलीं तो उच्च वर्गीय मराठियों को स्वयं चलाना गवारा नहीं हुआ। वे उत्तर भारत से ड्राइवर ले गए। जब उन्होंने स्वयं अपनी बना ली तो मुंबई के मानुस की भृकुटि तन गई। आजकल आई आई टी कानपुर के निदेशक भी मराठी हैं। यही नहीं दूसरी बार हुए हैं। रजिस्ट्रार भी मराठी मानुस है। लेकिन किसी के ज़ायके में कोई फ़र्क नहीं। अगर आपकी तरह सोचने लगें तो इतने बड़े बड़े पदों पर बैठे लोग कैसा अनुभव करेंगे। यही दूसरे प्रदेशों में भी होगा। हिंदुस्तान मानवीय रिश्तों का सम्मान करना जानता है। उत्तर भारत तो ख़ासतौर से। दक्षिण और देश के अन्य भागों में विज्ञान की पी जी स्तर की शिक्षा की कम संस्थाएं थीं। सब जगह से बच्चे कानपुर लखनऊ आदि बड़े शहरों में पढ़ने आते थे। यही मेडिकल शिक्षा की स्थिति थी। कभी किसी ने न भाषा का सवाल उठाया और न परदेसी होने का, जो आप उठा रहे हैं। श्रीमन्, आप नहीं जानते, जानते हैं तो समझना नहीं चाहते कि देश को अलगाववाद की किस आग में झोंक रहे हैं। राजनीतिज्ञ तो अपनी रोटी सेक लेता है आम आदमी का चूल्हा भी नहीं सुलगता। अब ऐसा लगने लगा है कि राजनीतिज्ञों से बड़े स्वार्थी इन्द्र भी नहीं। क्षमा करें गांधी ने तो संसद को ही वेश्या बताया था हमारे राजनीतिज्ञों ने तो जनतंत्र को भी उसी पैराय पर ला खड़ा किया। जिन्ना ने पूर्वी बंगाल में उनकी भाषा को पशेमान किया था। बंगला-वंगला कुछ नहीं उर्दू सब कुछ है। राज साहब भी उसी रास्ते पर हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा वह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन मनसा ने यह सोचे समझे बिना चिंगारी फेंक दी कि जो तरह देंगे वे तक हाथ जला बैठेंगे। तटस्थ रहेंगे तो मौजे ए तलातुम उनको भी नहीं बक्शेगी।
ईस्ट इंडिया द्वारा पेशवाओं को पुणे से निकाल दिए जाने पर उत्तर भारत ने ही उनकी पेशवाई की इज़्जत बचाई थी। उत्तर भारत के लोगों ने ही उनका साथ दिया था। आज भी बिठुर के खंडहर पेशावाओं पर गोरों के प्रकोप की गवाही दे रहे हैं। वहीं उन सबकी याद को नानाराव पार्क, मैसेकर घाट यानी नानाराव घाट, तात्या टोपे के स्मारक उनका परिवार उन सबकी याद ताज़ा कराते हैं। वे माहराष्ट्र से अधिक उत्तर भारत के पुरखे हैं। कई मराठी धुलेकर जी आदि सम्मानीय जननेता रहे हैं। वे सब मराठी भी बोलते थे हिंदी भी बोलते थे। आज भी उत्तर भात में रहने वाले मराठी दोनों भाषाएं बोलते हैं। कोई नहीं कहता हिन्दी ही बोलिए। वे सम्मान से ही नहीं रह रहे रोज़ीरोटी भी कमा रहे हैं। महाराष्ट्र में रहने वाले उत्तर भारतीयों की तरह उन पर किसी तरह की न बंदिश है न संकट है। न होना चाहिए। बाल ठाकरे का यह इलज़ाम कि अब्बु आज़मी को हिंदी में शपथ लेने से रोका नहीं गया निहायत अपरिपक्व है। लगता है कि वाक़ई खून पानी से अधिक गाढ़ा होता है। भतीजे और भाषा का पक्ष लेना संविधान के सम्मान से अधिक ज़रूरी है। ताज्जुब की बात है कि अंग्रेज़ी में शपथ लेनेवालों के लिए इस वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने कुछ नहीं कहा कि उससे महाराष्ट्र और मराठी की अवमानना नहीं हुई, शायद सम्मान बढ़ा। जिन पेशावाओं को अंग्रेज़ों ने बेइज़्जत किया हिंदी वालों ने उनका साथ दिया वह हिंदी शिवसेना और मनसा की दुश्मन है और अंग्रेज़ी सगी। भाषा कोई गैर नहीं होती न उसके प्रवाह को रोका जा सकता है। ठाकरे साहबान, इंसान से अधिक भाषाएं आपस में लेन देन करती हैं। हम जितने संकुचित और छोटे दिलों के हैं भाषाएं कहीं ज्यादा फ़राख़दिल हैं। एक ज़माना था जब ब्रिटिश संसद में अंग्रेज़ी बोलने वालों पर मनसा की तरह फ्रांसिसी भाषा प्रेमी मनसा की तरह आक्रमण करके हाथ पैर तोड़ देते थे। लेकिन क्या वे अंग्रेज़ी का कुछ बिगाड़ पाए। भाषा अपना रास्ता बनाने के साथ साथ अपने रास्ते के अवरोध भी स्वयं हटाती है। हिंदी भी यही कर रही है अपनी बहनों का सम्मान रखते हुए आगे बढ़ रही है। हिंदी का लिपि के कारण दामन चोली का साथ है। दामन उतारोगे तो बेपर्दगी होगी, चोली उतारोगे तो शर्मज़दा होगे।

7 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने सही लिखा है, सहमत हूँ।
ब्लाग के टिप्पणी बक्से पर से वर्डवेरीफिकेशन की आगळ हटा लें तो हम जैसे टिप्पणीकर्ताओं को सुविधा हो जाएगी। हिन्दी लिखते हुए अंग्रेजी पर जाना पड़ता है।

अर्कजेश said...

मस्‍त लिखा है आपने । सतर्क और उदाहरण सहित ।

दिगम्बर नासवा said...

Aapne sach likha hai ...... par itihaas ko koun dehta hai .... aaj swaarth itna haavi ho gaya hai ki Raashtr hit ki baat koi nahi karta ...... samvidhan banane vaale, uske rakhwaale hi roz uski dhajiyaan udaate hain ........

Anonymous said...

संविधान के बारे में जज और जनतंत्र के बारे में नेता कहीं ज्यादा बेहतर बता पाएंगे।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

असल में कमज़ोर और डरपोक सरकार का ही तो नतीजा है कि अंदरूनी और बाहरी ताकते इस देश की औकात बता रही है। वर्ना कोई कारण नहीं कि भाषावाद, जातिवाद जैसे विषयों पर खूनखराबे हों॥

Anonymous said...

बहुत अच्छा लेख है राज थके जैसे लोग न मराठी हैं न ही भारतीय हैं वे तो अपने मतलब और वोटों के लिए लोगों को आपस में लड़ा कर राज करना चाह रहे हैं. सरकार ने पहली बार कुछ करने की हिम्मत दिखाई है इन देसी तालिबानों के विरूद्व. अगर फिर ढील दी तो भारत का भी पाकिस्तान जैसा हश्र होनें से कोई रोक नहीं सकता.

प्रदीप कांत said...

Achcha aalekh