Monday, 9 March 2009

गांधी कितना मंहगा कितना सस्ता

अमेरिका एक मात्र ऐसा बाज़ार है जहां सब कुछ बिकता है। हर चीज़ की बोली लगती है। हीरे जवाहरात से लेकर सोने चांदी की मूर्तियों तक, आधुनिकता से लेकर इतिहास तक, हर वह वस्तु जिसको ईश्वर ने या कलाकार ने कोई शक्ल दी है वह खरीद फ़रोख्त और नीलामी की चीज़ है। मूल्य है तो उसका बाजार भी है। कोई चीज़ सजाने के काम आती है, कोई अजायबघरों में रखी जाती है। कोई पूजने के, कोई नुमायश के यानी जो बिक गया वह सज गया। उस बाज़ार में तानाशाह बिका, देवी देवता बिके, सम्राट और उनकी दसहज़ारी तलवार और ज़िरहबख्तर बिके, फ़कीर की लंगोटी और लकुटिया बिके। उस बाज़ार में हर चीज़ बिकती है और हर चीज़ खरीदी जाती है। फिर भी वह भूखा है। रूखा है। भिखारी है। मंदी का मारा है। जितना सच है उससे ज्यादा झूठ है। जब गांधी जी को गोली लगी थी तब एक शायर ने गाया था। हर चीज़ यहां पर बिकती है, हर चीज़ को बिकते देखा है चांदी के खनकते सिक्कों में...। बाद में पता चला व नज़्म भी चोरी की थी। तब यह किसे पता था गांधी जब यादगार बन जाएंगे तो उनकी भी बोली लगेगी। जिस गांधी ने कहा था कि पहले मैं ईश्वर को सत्य समझता था अब समझ में आया सत्य ही ईश्वर है। सरकार ने इन दोनों बातों को झुठला दिया।
जेम्स ओटिस उनकी उन चप्पलों का जिसके तलवे घिस गए, मैटल के गोल फ्रेम के चश्मे का, थाली और कटोरे का जिसमें अंतिम सपर लिया था, और उस जेबी घड़ी का जिसे वे सूडे में लटकाते थे निलाम पर चढ़ा दिया। क्या वाकई वह निलामी से पैसा कमाना चाहता था? इस सवाल का जवाब ओटिस के पास भले ही हो लेकिन सरकार के पास नहीं है। ओटिस का अगर यह कथन सच है कि वह गांधी की उन स्मृतियों को हिंदुस्तान को वापिस करने को तैयार है बशर्ते वह बीमार और गरीबों की देखभाल का बजट बढ़ाने और अहिंसा को प्रशस्त करने पर राज़ी हो। इतने बड़े देश की सरकार के लिए इतना छोटा सा आश्वासन देने में कौनसी कठिनाई थी। ओटिस इस देश की गरीब जनता और गांधी जी के अहिंसावादी सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए आश्वासन चाहता था। लेकिन हमारे देश की सरकार या कहिए संबंधित मंत्री कहती रहीं कि हम गांधी जी की यादों को निलाम नहीं होने देंगे। अच्छा मज़ाक है। 1995 में मैं पहला गिरमिटिया के सिलसिले में लंदन गया था। तब गांधी जी की चिट्ठयां नीलाम होने वाली थीं। सिंघवी जी तब भारतीय उच्च आयुक्त थे। तब वे रात दिन इसी काम में लगे थे कि गांधी जी के पत्र नीलाम न हों अंत में वे अपने प्रयत्न में सफल भी हो गए थे। लेकिन हमारा अमेरिकन डिप्लोमेटिक विंग अमेरिका में क्या कर रहा था। केवल हमारा सांस्कृतिक मंत्रालय मुखर था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि बावजूद कोर्ट की रोक के नीलामी हुई। क्योंकि वहां के एन आर आइज़ के अनेक आवेदन आ चुके थे। लेकिन क्या वे आवेदन कोर्ट आदेश के ऊपर हैं? या भारतीय संविधान या कानून का उनके मन मे कोई सम्मान नहीं?
जब 1995 गांधी जी के पत्रों की नीलामी की बात उठी थी उस समय किसी तरह नाक बची थी। उसके बाद बी जे पी की सरकार भी आई यू पी ए की सरकार भी आई किसी भी सरकार ने प्रभावी कदम नहीं उठाया। कोई पूछने वाला है? 6 मार्च 09 के द हिंदू ने नवजीवन के मैंनेजिंग ट्रस्टी जीतेन्द्र देसाई का वक्तव्य छापा है “It is through Gandhi’s will prepared on Feb. 20, 1940 the Navjivan Trust can stake the claim to the Father of the Nation’s personal belongings. In his will Gandhi said he did not believe he had any property , but” any thing which by social convention or any law is considered mine, anything movable or immovable books, articles etc. I endow to the Navjivan institution whom I hereby declare as my heirs.”
सवाल है गांधी जी की वसियत के बावजूद उनके द्वारा किसी को भेंट की गई कोई भी चीज़ क्या बेची जा सकती है या उसका ट्रस्ट के अलावा कोई और मालिक हो सकता है जब तक गांधी ने स्वयं लिखित रूप में मिलकियत स्थानान्तरित न की हो? जितेन्द्र भाई ने अपने उक्त साक्षात्कार में कहा है गांधी जी ने अपने जीवनकाल में अपनी बहुत सी चीज़ें अपने निकटतम लोगों को उपहार में दी थीं। उन्होंने या तो बेच दिया होगा या दूसरों को उपहार में दे दिया हो। उन्होंने तारों से बने चश्में को तीसरे दशक में जूनागढ़ के नवाब को भेंट करने की बात कही है। गांधी का परिवार कुतियाना से आया था कुतियाना जूनागढ़ में था। स्वाभाविक है कि न तो नवाब ने चश्मा बेचा होगा न किसी को दिया होगा। गांधी ने वह चश्मा स्मृति के तौर पर नवाब को दिया होगा। वह चश्मा किसी और के द्वारा ओटिस के पास पहुंचा होगा। कहने का मतलब है कि गांधी जी की वसियत के अनुसार गांधी जी की वस्तुओं का मालिकाना अधिकार नवजीवन के पास ही है। गांधी हों या या उस स्तर के अन्य देश के निर्माता भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुख्ता इंतज़ाम करना होगा कि भारत की इस प्रकार की संपदा केलिए कुछ नियम बनाए जाएं। भले ही यू एन ओ से सहायता लेनी पड़े। गांधी जी के संदर्भ में इस तरह की समस्या अकसर आती है फिर सरकार उनकी वसियत की रोशनी में उनकी स्मृतियों और दस्तवेज़ों को संरक्षण का प्रबंध क्यों नहीं करती यह जानते हुए कि उनका लिखा एक एक लव्ज़ लाखों डार्ल्स की हैसियत रखता है।
विजया माल्या अगर न होते तो शायद देश की इतनी कीमती निधि पता नहीं किसके व्यक्तिगत संचयन का हिस्सा होती। यह उनका अपना निर्णय था। इस बात में किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए। माल्या कितने भी विवादास्पद व्यक्ति हों पर उनमें देश की निधि के प्रति कितना सम्मान है उनके इस व्यवहार से यह स्पष्ट है। मुझे चित्रलेखा का बीजगुप्त याद आता है जो व्यस्नों को जितना समझता है उतना ही सत्य को भी समझता है। लेकिन हम तो कुमारगिरियों से घिरे हैं जिनके पास सत्य का ढौंग है पर व्यस्नों का सच है।

Thursday, 5 March 2009

चुनाव और चेतना का समय फिर आ गया।

बंधु नमस्कार,
16 मई 09 तक सारी ताकत अब आपके हाथ में है। स्याह भी आप ही करेंगे और सफ़ेद भी। उसके बाद फिर बाड़े के दरवाज़े बंद। लेकिन घबराएं नहीं। हम जनतंत्र के वासी हैं। सब तरफ़ जो हो रहा वह आपके सामने है। पहले खेल भावना को महत्त्व दिया जाता था और कहा जाता था कि खेल भावना शत्रुता से बचाती है लेकिन पाकिस्तान में जिस प्रकार खिलाड़ियों पर श्रीलंका के क्रिकेटियरों पर गोलियों की ईशान शर्मा या मुरली की सी गति से गेंदबारी की गई उससे महसूस हुआ कि इस कहावत की उम्र भी ‘बातमीज़ बानसीब’ की तरह खत्म होने को है। बल्लों की जगह एके 47 और गेंद की जगह गोलियां ले लेंगी। एम्पायरी करेंगे ओबामा और तालिबान के मुखिया। लेकिन इसे जैसे भी होगा सबको मिलकर रोकना होगा। मज़हब सबसे ऊपर है पर अगर इंसानियत और इंसान को बचाना है तो खेल भावना को तर्जी देनी होगी। बचपन में ध्यान चंद का ज़माना था। तब कई बार हाकियां निकल आती थीं। लेकिन कुछ देर तक खटपट होती थी मैच फिर चालू। मैच खत्म होने पर खिलाड़ी एक दूसरे के गले मिले और शांति। शायद उसी का उदाहारण लेकर दिग्विजय सिंह सपा और कांग्रेस के बीच दोस्ताना मैच यानी चुनाव की बात करते घम रहे हैं। नई पीढ़ी को कहां पता ऐसा भी होता था।
हम अपने अधिकारों को पहचानते हैं। लेकिन उनकी रक्षा के लिए कुछ नारे, कुछ दबंग, कुछ स्वार्थार्थ हड़तालें सत्ता में बैठे या बाहर इंतज़ार में खड़े बाहूबली हमें उन हथियारों की तरह सौंप देते हैं कह देते हैं जब तक हम अंदर नही पहुंचते और अंदर वाले बाहर नहीं निकलते तुम इन हथियारों को भांजते रहो। पर उनकी चालाकी से अपनी दानिशमंदी को बचाना होगा। वरना न खेल बचेंगे और न खेल भावना।
यह देश एशिया क्या विश्व का सबसे बडा जनतंत्र है। भारत ही पहला देश है जिसमें बिना लिंग, जाति, आय धर्म आदि के विचार के सबको समान मताधिकार मिला्। जबकि संसार के सबसे शक्तिशाली और धनी देश अमेरिका में रंगभेद के चलते 1965 में कालों को पहली बार मताधिकार दिया गया उसी का नतीजा है कि ओबामा पहला काला राष्ट्रपति अमेरिका के सिंहासन पर बैठा। हम गरीब देश हैं। उसके बावजूद विश्व भर में आई मंदी की इस आंधी में यूरोप के धनी देशों से बेहतर हालत में हैं। हमारे बैंक फ़ेल नहीं हुए। हमारे 60 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के आस पास बताए जाते हैं शायद हैं भी लेकिन अमरीका से निकाले जाने की हालत का सामना करने से बेहतर स्थिति में है। अपने घर में तो हैं। अपनी इंसानियत को गरीबी के बावजूद बचाए हुए हैं। कम खाते हैं और गम खाते हैं। हमारे गावों में बैंक नहीं पोस्ट आफिस हैं अगर सौ रुपया कमाते हैं तो कोशिश करते हैं वक्त ज़रूरत के लिए पास पासबुक में पचास डाल दें। किसी को दस हज़ार एरियर मिल गया तो वह तब तक नहीं निकालता जब तक जान पर ही न बन आए। यह क्रिकेट है न हाकी यह मात्र चूल्हे का सम्मान है। पहले कहा जाता था कि अगर घर में कुछ नहीं होता था तो चूल्हा जला कर पतीले में पानी चढ़ा दिया जाता था। पड़ौस वाले यह न समझें कि आज घर में कुछ नहीं इसिलए चूल्हा नहीं चढ़ा। आपके देश ने भी अपनी छोटी सी बचत के सहारे इतने बड़े देश की एकोनामी को फ़ेल नहीं होने दिया। मुंबई पर हुए हमले पर भी अपने होश हवास को एकॉनामी की तरह दुरुस्त रखा। आज यही काम चुनावों के घोषित होने पर करना है। जैसे पैसे की बचत करके देश की इज़्जत को बचाया उसी तरह अपनी वोट की इज़्जत को देश की राजनीति को भेड़ा चाल से जात पात और धर्म से बचाना है। पुराने अनुभव को सामने रखकर नई संभावनों को खोजना है। जिसने जनहित देखा उसे आगे बढ़ाना है। जिसकी संभावना कुर्सी पर न होकर जनहित में हो उसे जनता तक ले जाना है। संसद में बैठी महिलाएं अधिकारों की बात करती करती थक गईं, कुछ कर पाईं? बांदा के गुलाबी साड़ी ब्रिगेड ने अपनी आज़ादी का रास्ता स्वयं खोज निकाला। स्वामी रामदेव कानपुर में डेरा डालकर गंगा की शुद्धी का पाठ पढ़ाकर चले गए। अब जूस और फलों के अर्क की कंपनी के सी ओ बन गए। कानपुर बाट जोह रहा है कब गंगा का तारणहार आता है। गंगा को शोधता है। बस कुछ ट्रेनें ज़रूर चली हैं कानपुर से दिल्ली और मुंबई। उन नेताओं को पहचानना है जो कहते हैं तू चल मैं आया। काश हम यह कह सकते-
आख़री बादल हैं, एक गुज़रे
हुए तूँफ़ा के हम....

Sunday, 1 March 2009

उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा हिंदी लेखकों का नुमायशी सम्मान

आज 28 फ़रवरी 09 है। अमर उजाला में आज ही डा केदारनाथ सिह जी का उत्तरप्रदेश के केबिनेट पर वरिष्ठता में जूनियर मंत्री जी के कर कमलों से भारत भारती सम्मान लेते हुए फोटो छपा है। केदार जी हमारी भाषा के सम्मानित कवि हैं। उन्हें नगर विकास मंत्री से भारत भारती सम्मान और अन्य सम्मानित लेखकों द्वारा सम्मान ग्रहण करते देखकर मन बासों उछल गया। लेकिन मंत्री जी को अन्य ज्यादा ज़रूरी कारणों से बीच में ही जाना पड़ा। कुछ हत्भागे लेखक मंत्री के कर कमलों से सम्मान लेने से वंचित रह गए। हमारे लेखक कितने महान हैं ऐसे नए नए मंत्रियों को भी अपनी इज़्जत की परवाह न करके मंत्रियों को महानता का तौक पहनाने में अपनी इज़्जत की चिंता नहीं करते। जब मैं अखबार पढ रहा था तो रविभूषण जी का फोन आया तो मैंने उन्हें इनकी महानता की कहानी सुनाई। वे एक आँख हंसे दूसरी आंख रोए। हंसे इसलिए कि हमने इज़्जत के इस वहम को ही सम्मान और अपने बीच से हटा दिया। कोई सम्मान दे क्या फर्क पड़ता है। रोए शायद इसिलए कि पहले यही सम्मान वे लोग देते थे जिनके नाम से सम्मान में चार चांद लग जाते थे। उनके नाम न ही लें तो लेने वालों के लिए भी अच्छा और देने वालों के लिए भी।
कुछ वर्ष पहले वरिष्ठ आलोचक वैय्याकरण किशोरीदास वाजपेयी को भारत भारती मिलना था। प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई को प्रदान करना था। जब उनका नाम पुकारा गया तो वाजपेयी जी उठे नहीं। मोरार जी भाई स्वयं उतर कर आए। सम्मान प्रदान किया। प्रणाम किया और लौट गए। पहले प्रधानमंत्री भारत भारती देने आते थे..फिर मुख्यमंत्री देने लगे। राष्ट्रपति शासन में मोतीलाल वोहरा राज्यपाल के रूप में मुख्यअतिथि थे। मुलायम सिंह ने शायद ही इस गौरव को हाथ से जाने दिया हो। उत्तर प्रदेश अकेला राज्य है जो पूरे देश के हिंदी लेखकों को सम्मानित करता है। अगर हम स्वयं इसका इस प्रकार हिंदी और उसके लखकों का अवमूल्यन करेंगे तो हिंदी की बात किस मूंह से करेंगे।
हमारे महान लेखको में तो विरोध की ताब बची नहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी
अगर इस नज़रिए से सोचना बंद कर दिया तो वेहतर यही है कि ड्राफ्ट भेज कर छुट्टी पा लें। सम्मान के वहम से तो छुट्टी मिले।