Wednesday, 2 December 2009

दिल्ली में 19 नवबर 09

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 22 ज़िलों के गन्ना किसानों का अद्भुत जमावाड़ा था। किसान एकता का यह प्रशंसनीय उदाहारण है। किसान एक होकर अगर खड़े हो गए होते तो जिस प्रकार ज़मीनों का अधिग्रहण होता रहा है वह नहीं होता। न ही रसूमों के ख़रीद फरोख्त के दामों में मनमानी होती। जैसे सरकारी नौकरों का डीए बढ़ाने का फ़ारमूला बना हुआ है उसी प्रकार फ़सलों की रसूमों का बाज़ार भाव के हिसाब से इनडेक्स फ़ारमूला भी निर्धारित होना चाहिए। उसी हिसाब से फ़सल के आने से पहले हर फसल के खरीद के दाम घोषित हो जाने चाहिएं। किसानों को भी मालूम रहे कि अमुक फ़ारमूले से रसूम के दाम निर्धारित होंगें। मैथमैटिकल समाधान सरकार के हित में भी होगा और किसान के हित में भी। अनिश्चितता की गुंजायश कम से कम होना दोनों के लिए ही लाभकारी होगा। सरकार को यह मालूम होना चाहिए कि किस रसूम की कितनी खपत संदर्भित वर्ष में संभावित है। उसी के अनुरूप बुवाई से पहले संभावनाएं घोषित कर दी जाएं तो किसान अपनी रसूम की पैदावार उसी के अनुसार नियोजित कर सकते हैं। किसान की अपनी अस्मिता है। ज़मीन पहले गरिमा और सम्मान की बात होती थी अब व्यवसाय का माध्यम हो गई। जिस प्रकार औद्योगिकरण के लिए ज़मीन की खरीद फ़रोख्त का सिलसिला शुरू हो चुका है वह यह संकेत करता है कि किसान के लिए भी ज़मीन करेंसी या बाज़ार में बेची खरीदी जाने वाली वस्तु में बदल गई है। ऐसा क्यों हुआ? शायद इसलिए कि हर व्यक्ति की तरह किसान के मूल्य बदल गए हैं। ज़मीन उसके लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के ज्ञान को पैकेजों में बदलने की तरह अधिक से अधिक धन में बदलने का माध्यम रह गई है। नई पीढ़ी ख़ासतौर से यह मानने लगी है कि जमीन या किसानी स्टेटस सिंबल न होकर, व्यवसाय या सरकारी नौकरी अधिक सम्मानजनक है। ज़मीन के साथ उसका कोई भावनात्मक संबंध भी नहीं रह गया। प्रेमचंद ने गोदान और अन्य रचनाओं में जैसे पंचपरमेश्वर और भूलिप्सा जैसी कहानियों में गऊ और ज़मीन के प्रति किसानों की जिस भावनात्मकता का दिग्दर्शन कराया है वह अब बीते दिनों की चीज़ हो गई। अब गोदान के गोबर ही बचे हैं जो शहरों में जाकर बसना चाहते हैं या बस गए हैं। होरी विरल हैं। गुड़गांव और नोयडा आदि नगरों में जिस प्रकार बड़े किसानों ने ज़मीन बेच बेचकर ऐशो अशरत की ज़िंदगी बनाई है वह इस बात का प्रमाण है कि ज़मीन उनके लिए भावनात्मक या सम्मान की वस्तु नहीं रह गई। ज़मीन के मुआवज़े को लेकर जिस प्रकार आंदोलन होते हैं उस तरह के आंदोलन ज़मीन के अधिग्रहण के विरुद्ध नहीं होते। लालगढ़ का पूरा जन विरोध टाटा द्वारा दिए जाने वाले अपर्याप्त मुआवज़े को लेकर शुरू हुआ था। बाद में राजनीतिक मुद्दा बन गया। गाज़ियाबाद में भी अनिल अम्बानी को सेज के लिए दी गई ज़मीन को लेकर जो विराध हुआ था वह भी आर्थिक अधिक था बनिस्बत सैंद्धांतिक सवाल के। उसी सवाल पर मुलायम सिंह की सरकार इस चुनाव में चली गई थी। यही क्राइसिस तीस साल पुरानी सी पी एम सरकार के सामने है। अगर बाज़ार भाव पर मुआवज़ा दिला दिया जाता तो किसान किसी की न सुनते। उन्हें ज़मीन देने में आपत्ति नहीं थी बशर्ते के दाम मनोनुकूल मिलते। मज़े की बात है कि पूंजीपति की लड़ाई सरकारों को लड़नी पड़ती है। सरकारें पूंजीपतियों के पाले में खड़ी नज़र आने लगती हैं। लेकिन बड़े किसान भी छोटे किसानों और मज़दूरों के साथ पूंजीपतियों वाला व्यवहार करते हैं। ज़मीन कब्ज़ाने से लेकर हिस्सा बांट और मज़दूरी तक में। किसानों के नेता इस दिशा में पूरी तरह निष्क्रिय रहते हैं। यह उसे किसानों का हक़ मानते हैं। यह परंपरा ज़मीदारी जाने के बाद भी इस देश के लोगों के ख़ून में हैं। जैसे देश में जो अमीर है वह अमीर होता जा रहा है और जो गरीब वह गरीब होता जा रहा है उसी तरह किसानी में भी है।
मुझे सन् तो याद नहीं, संभवतः आज़ादी के बाद छठे दशक में कांग्रेस अधिवेशन में नेहरू जी ने सोवियत यूनियन की तरह कोपरेटिव फ़ार्मिंग लागू करने का प्रस्ताव रखा था। उसका विरोध मुख्यतः दो नेताओं ने किया था चंद्रभानु गुप्ता और चौ चरण सिंह ने। गुप्ता जी ने कहा था आपने गांव नहीं देखा, किसान जान दे देगा पर अपनी ज़मीन नहीं देगा। चौ साहब ने कहा था प्रधानमंत्री भले ही देश के लाभ की बातकर रहे हों पर वे नहीं जानते किसान धरती को अपनी मां समझता है मां से बच्चे को अलग करना क्या संभव है। तब राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र था। प्रधानमंत्री का विरोध अनुशासनहीनता नहीं मानी जाती थी। गोविंदाचार्य जैसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री का मुखौटा कहने मात्र से पार्टी से निकाल दिया गया था। जसवंत सिंह को जिन्ना पर अपनी मान्यता स्पष्ट करने पर पार्टीबदर कर दिया गया जो मात्र एक साहित्यिक कार्य था। ये सवाल संदर्भ जन्य होने के कारण यहां आ गए। तब पार्टी ने नेहरू जी का साथ न देकर इन दोनों नेताओं का समर्थन किया था। लेकिन अब किसानों और धरती के बीच का यह रिश्ता लगभग न्यूनतम हो गया। बहुत कम किसान रह गए जो ज़मीन के साथ पूर्ववत रिश्ता बनाए हैं। वह उनका अंदरूनी रिश्ता भी हो सकता है और मजबूरी का रिश्ता भी। नई पीढ़ी या तो फसल के वक्त हिस्से की रसूम लेने गांव जाती है या अच्छे दाम मिलने पर उसे बेचने का डौल बैठाने। गांधी जी ने गांवों की तरफ़ लौटने की बात चाहे हिंद स्वराज के माध्यम से कही हो या अपने जीवन का गांवों की आमदनी गावों पर ख़र्च करने के फ़लसफ़े के आधार पर, दोनों बातें इसलिए कहीं थीं कि किसान गावों से विमुख होकर शहर की तरफ़ न भागें। वे जानते थे कि अगर ऐसा हुआ तो गांव शहरों के गर्भ में समा जाएंगे। उनका देशपालक का दर्जा ख़त्म हो जाएगा। आत्म निर्भर न रह कर शहरों पर निर्भर हो जाएंगे। होना तो यह चाहिए था कि किसान नगरों का संरक्षण करते। लेकिन गांधी का यह सपना तत्कालीन और संभावित प्रधानमंत्री ने गावों के सशक्तिकरण के उनके 1945 के प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि जो गांव स्वयं सांस्कृतिक अंधकार में हैं वे देश को क्या समृद्ध करेंगे। मेरा इसमें कोई विश्वास नहीं। अगर नेतृत्व जन के विश्वास को इस तरह झिंझोड़ता रहेगा है तो वह भी इस स्टेज पर, जब जन अपने नए विश्वासों और आस्थाओं के निर्माण की आरंभिक प्रक्रिया में हो तो उसके विश्वास कभी मज़बूत आधार ग्रहण नहीं कर पाएंगे। गांधी ने गावों को देश की उस आर्थिक व्यवस्था को जो सदियों से इस देश का आधार रही थी और समय की कसौटी पर खरी उतरी थी अधिक आधुनिक तरह से पुनर्निर्मित करने का सपना देखा था। औद्योगिकरण से यह आगे की बात थी। जिसमें व्यक्ति से लेकर पूरे समाज में आत्म विश्वास प्रतिरोपित करने का दीर्घकालीन सपना निहित था। उस सपने के विरूद्ध नेहरू और देश के तत्लीन नेतृत्व ने स्पात की खेती करने की योजना को क्रियान्वित करने का बीड़ा तथाकथित प्रगतिशीलता और शैतानी आधुनिक सभ्यता के दबाव में उठाया। उसे खेती का पूरक न बनाकर मुख्य आर्थिक व्यवस्था का एंकर बनाया जिसमें देश को दूसरे देशों की विशेषज्ञता और संसाधनों पर निर्भर करना अनिवार्यता बन गई थी। जब अपने संसाधनों और विशेषज्ञता यानी एक्सपर्टाइज़ पर विश्वास खत्म होने लगता है तो एक तरह का भावनात्मक अलगाव भी विकसित होने लगता है जो नई पीढ़ी में नज़र आता है उसने अपनी पीढी दर पीढी से आज़माई हुई कृषि विशेषज्ञता से मुंह मोड़ लिया। उसी का नतीजा है कि खेती जो किसान के गहरे सरोकार और संवेदना का हिस्सा थी व्यवसाय मात्र रह गई। जब रिश्ता व्यवसायिकता पर निर्भर करने लगता है तो पारस्परिकता या बिलांगिगनेस अपने और अपनों से रह जाती हो तो उसकी सामाजिक ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है और समाज का सम्मान भी नहीं रहता। जब किसान का लगाव ज़मीन से नहीं रहेगा तो देश की उस संपत्ति से कैसे रह सकता है जिसे वह समझता है कि वह उसकी न होकर देश की है। जैसे देश उसका न हो। भले ही उसका धन , पसीना , और जीवन उसमें लगा हो। अगर ज़मीन से उसकी और उसके परिवार की रोटी न चलती होती तो वह भी उसके लिए देश की संपत्ति से अधिक कुछ न होती जिसे वह अपने आनंद के लिए जैसे चाहे तोड़ फोड़ सकता है। यह ठीक है कि सरकारें अगर जन की समस्याओं के प्रति असंवेदनशील हों तो जन अपनी ही संपत्ति को सरकार के आधीन होने के कारण समझाता है कि उसकी अपनी संपत्ति उसकी नहीं। उसका यह सोच तर्कसंगत नहीं क्योंकि दूसरों का बदला अपना घर और सामान तोड़ कर नहीं लिया जा सकता। यह हिंसा तो है ही तर्क विहिन नभी है। अपने भाइयों बच्चों की हत्या को कब तक न्यायोचित ठहराया जा सकता है।
अभी दिल्ली में किसान आन्दोलन के दौरान ऐसा ही कुछ देखने को मिला। जंतर मंतर में घुसकर जिस प्रकार हेरिटेज को नुकसान पहुंचाया तथा शराब पीकर बोतलें वहां फेंकी गईं इससे साफ़ पता लगता है भूमि को धारण करने वाले लोग ऐसी विशिष्ठ चीज़ों को नेस्तनाबूद करने से भी नहीं छोड़ते जो सदियों से उस ज़मीन की शोभा बढ़ा रही हैं जिसके वे रहबर हैं। ऐसा इस आंदोलन में पहली बार हुआ।
सवाल यह है कि हमारे किसान नेता उनको यह क्यों नहीं बता पाए कि यह संपत्ति भी हमारे लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी तुम्हारी अपनी काश्त की ज़मीन जिसकी डौल टूट जाने पर भी खून खराबे के लिए तैयार रहते हो। उस दिन एक चैनल पर इसी सवाल को लेकर हम लोग में परिचर्चा हो रही थी उसमें बड़े किसान नेता थे लेकिन किसी ने इस सवाल को नहीं उठाया। शायद इसलिए कि उससे उनके वोट बैंक पर असर पड़ेगा। क्या इस कारण हम बच्चों को एक अच्छा नागरिक भी नहीं बनाएंगे। यह कैसी राजनीति है। मैं जानता हूं यह हर आंदोलन का हश्र होता है। नेता उसे जन आक्रोश कहकर निश्चिन्त हो जाते हैं। जन आक्रोश कह देने मात्र से देश नहीं बचेगा। यह तोड़ फोड़ हिंसा भी है और देश की संपत्ति का संहार भी है। गर्म ख़ून का उपयोग अगर रचनात्मकता के काम में जोश भरने में हो तो शायद हम अघिक सुखी हो पाएं। कब तक तोड़ तोड़ कर बनाएंगें। चौरी चौरा में शांतिप्रिय आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने भारतीय सिपाहियों की हत्या कर दी थी। गांधी ने सफल होते आंदोलन को वापिस ले लिया था उसके लिए उन पर आरोप दर आरोप लगाए गए थे। वे इसिलिए नहीं झुके थे कि हर अहिंसात्मक आंदोलन की नियति हिंसा होगी। अब हमारे सामने आर्थिक लाभ मुख्य है, साधनों की पवित्रता गौण है । सत्यागृह और आंदोलन तो हमने ले लिया लेकिन उसकी निष्ठा और साधनों की पवित्रता को कलुषित कर दिया। हमारे देश का नेतृत्व चाहे वह किसी भी पार्टी का हो अपने क्षणिक और अस्थायी लाभों के लिए देश की अस्मिता और संवेदना का खुला सौदा अराजकता के साथ कर रहे हैं, देखिए इन हालात में देश कब तक सही सलामत रहता है।

Tuesday, 10 November 2009

कहां है संविधान और कहां है जनतंत्र?

मैं संविधान और जनतंत्र की बात क्यों कर रहा हूं? फिर सोचता हूं सब ही कर रहे हैं तो मैं भी कर रहा हूं तो क्या गुनाह कर रहा हूं? जब संज्ञाएं और शब्द अर्थ खो देते हैं तो उनका कोई महत्त्व नहीं रहता। ऐसे में अर्थहीन शब्द बोलना गुनाह नहीं रहता। जब किसी भाषा का कोई महत्त्व नहीं रहता तो शब्दों का ही क्या मतलब रह जाता है। भाषा से भले ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी न बनें पर साहित्य, इतिहास, समाजविज्ञान के मूल में भाषा ही होती है। संविधान की भी भाषा ही है। उसमें सब भारतीय भाषाओं को समान माना। हिंदी और अंग्रेज़ी को संपर्क भाषाएं मान लिया गया। एक साज़िश की गई कि हिंदी राज भाषा बना दी गई। दोनों भाषाएं, एक विदेशी भाषा और वह भाषा जिसमें आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी एक नाव में सवार हो गई। हिंदी राजभाषा बनाकर दूसरी भाषाओं की आंख की किरकिरी बना दी गई। यह भाषाओं को बांटने की सोची समझी राजनीतिक साज़िश थी। उसका विकृत नतीजा 9 नवंबर 09 को महाराष्ट्र की विधान सभा में देखने को मिला। यह संविधान का सम्मान है या विधान सभा का या आदमियत का? अब इस सवाल को राजनीतिज्ञ ही सुलझाएंगे। इसे न बुद्धीजीवी सुलझा सकते हैं और न साधु संत और न विधिवेत्ता। जिन्होंने यह अवलेह घोटा है उन्हें ही चखना पड़ेगा। तीन क्या चार भाषाओं में शपथ ली गई। मराठी में, संस्कृत में, हिंदी में और अंग्रजी में। मराठी में तो ली जानी थी। एक तो मनसा के अध्यक्ष राज ठाकरे का तानाशाही हुक्मनामा, दूसरे राज्य की भाषा। हुक्म डराने वाला था कि मराठी में शपथ न लेने पर दंडित किया जाएगा। तुम कौन, जन प्रतिनिधियों के नाम संविधान विरोधी हुक्मनामा जारी करने वाले? आप अपील करते तो भी एक बात थी। ऐसा करना भी अधिकार के बाहर की बात थी। एक बाहरी आदमी का सदन के चुने गए सदस्यों को हुक्म जारी करना सदन और अध्यक्ष की अवमानना है। दुसरे संविधान में किसी भी भाषा में शपथ लेने की दी गई छूट और संवैधानिक अधिकार में ख़लअंदाज़ी है। यह नया तानाशाह पिछले सप्ताह भर से संविधान विरोधी आदेशों की बरसात कर रहा था लेकिन न तो सरकार ने इसका वरोध किया और न इस असंवैधिनक स्वयंभू तानाशाह के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही की गई। दो ही बातें हो सकती हैं या तो सरकार डरती है या फिर तरह दे रही थी। गैरकानूनी काम के खिलाफ़ तत्काल कार्यवाही न करना उसे वैधता देना है। अराजकता पैदा करना है। सपा के चुने हुए सदस्य अबु आज़मी का यह अधिकार था कि वह किसी भी भाषा में शपथ ले। उन्होंने इस अधिकार का उपयोग किया। वैसे भी अपने को लोहिया जी का अनुयायी मानने वाला व्यक्ति अपने नेता का भाषा वाले निर्देश का पालन उसी पकार कर रहा था जिस प्रकार मनसा के आततायी सदस्यों ने राज ठाकरे के निराधार और असंवैधानिक आदेश का पालन किया।
आप यानी ठाकरे परिवार हिंदी से क्यों नाराज़ है? राज ठाकरे तो ज़हर घोले बैठा है,हिंदी के खिलाफ़ भी और हिंदी वालों के खिलाफ़ भी। जबकि देवनागरी यानी लिपि को बहुत अच्छी तरह मराठी ने अपनाई है। शायद इसीलिए कि मराठी और हिंदी भाषियों की डोर दोनों को बांधे रहेगी। पराडकर जी ने हिंदी पत्रकारिता को परवान चढ़ाया। दरअसल हिंदी के समर्थक अहिंदी भाषी ही रहे, गांधी, तिलक, और स्वामी दयानंद से लेकर पराडकर जी तक। इस बार अंग्रेज़ी में शपथ ली गई तो मनसा के गुंडे कहूं या महान प्रदेश भक्त क्यों नहीं बोले, क्या वह मराठी की सगी थी? संस्कृत में ली गई। वह मराठी नहीं थी। सिर्फ हिंदी से ऐसी क्या दुश्मनी थी कि मनसा के सदस्यों ने सम्मानित राजनीति पार्टी के सम्मानित सदस्य को पीटा। राज ठाकरे जी , मैं आपके नाम के आगे जी इस लिए लगा रहा हूं कि आप एक पार्टी के नेता हैं। नहीं तो शायद नाम भी न लेता। मराठी गुंडा कहना मुझे गवारा नहीं हुआ। आप आइए उत्तर प्रदेश में देखिए मराठी कितने सम्मान के साथ रखे जाते हैं। शिक्षा संस्थाओं में अध्यापक ही नहीं प्रचार्य भी बड़ी संख्यां में हैं। इसलिए नहीं के बहुत योग्य हैं बल्कि इसलिए स्थानीय लोगों के साथ वे घुल मिल गए हैं। आई आई टी कानपुर के पहले निदेशक मराठी थे। उन्होंने उन लोगों के अधिकार को नज़रअंदाज़ करके जिनकी ज़मीने आई आई टी बसाने के लिए ली गई थीं, मराठियों का नौकरियांदीं। लेकिन कभी स्थानीय लोगों ने उफ़ नहीं की। आपके यहां जब टैक्सी चलीं तो उच्च वर्गीय मराठियों को स्वयं चलाना गवारा नहीं हुआ। वे उत्तर भारत से ड्राइवर ले गए। जब उन्होंने स्वयं अपनी बना ली तो मुंबई के मानुस की भृकुटि तन गई। आजकल आई आई टी कानपुर के निदेशक भी मराठी हैं। यही नहीं दूसरी बार हुए हैं। रजिस्ट्रार भी मराठी मानुस है। लेकिन किसी के ज़ायके में कोई फ़र्क नहीं। अगर आपकी तरह सोचने लगें तो इतने बड़े बड़े पदों पर बैठे लोग कैसा अनुभव करेंगे। यही दूसरे प्रदेशों में भी होगा। हिंदुस्तान मानवीय रिश्तों का सम्मान करना जानता है। उत्तर भारत तो ख़ासतौर से। दक्षिण और देश के अन्य भागों में विज्ञान की पी जी स्तर की शिक्षा की कम संस्थाएं थीं। सब जगह से बच्चे कानपुर लखनऊ आदि बड़े शहरों में पढ़ने आते थे। यही मेडिकल शिक्षा की स्थिति थी। कभी किसी ने न भाषा का सवाल उठाया और न परदेसी होने का, जो आप उठा रहे हैं। श्रीमन्, आप नहीं जानते, जानते हैं तो समझना नहीं चाहते कि देश को अलगाववाद की किस आग में झोंक रहे हैं। राजनीतिज्ञ तो अपनी रोटी सेक लेता है आम आदमी का चूल्हा भी नहीं सुलगता। अब ऐसा लगने लगा है कि राजनीतिज्ञों से बड़े स्वार्थी इन्द्र भी नहीं। क्षमा करें गांधी ने तो संसद को ही वेश्या बताया था हमारे राजनीतिज्ञों ने तो जनतंत्र को भी उसी पैराय पर ला खड़ा किया। जिन्ना ने पूर्वी बंगाल में उनकी भाषा को पशेमान किया था। बंगला-वंगला कुछ नहीं उर्दू सब कुछ है। राज साहब भी उसी रास्ते पर हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा वह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन मनसा ने यह सोचे समझे बिना चिंगारी फेंक दी कि जो तरह देंगे वे तक हाथ जला बैठेंगे। तटस्थ रहेंगे तो मौजे ए तलातुम उनको भी नहीं बक्शेगी।
ईस्ट इंडिया द्वारा पेशवाओं को पुणे से निकाल दिए जाने पर उत्तर भारत ने ही उनकी पेशवाई की इज़्जत बचाई थी। उत्तर भारत के लोगों ने ही उनका साथ दिया था। आज भी बिठुर के खंडहर पेशावाओं पर गोरों के प्रकोप की गवाही दे रहे हैं। वहीं उन सबकी याद को नानाराव पार्क, मैसेकर घाट यानी नानाराव घाट, तात्या टोपे के स्मारक उनका परिवार उन सबकी याद ताज़ा कराते हैं। वे माहराष्ट्र से अधिक उत्तर भारत के पुरखे हैं। कई मराठी धुलेकर जी आदि सम्मानीय जननेता रहे हैं। वे सब मराठी भी बोलते थे हिंदी भी बोलते थे। आज भी उत्तर भात में रहने वाले मराठी दोनों भाषाएं बोलते हैं। कोई नहीं कहता हिन्दी ही बोलिए। वे सम्मान से ही नहीं रह रहे रोज़ीरोटी भी कमा रहे हैं। महाराष्ट्र में रहने वाले उत्तर भारतीयों की तरह उन पर किसी तरह की न बंदिश है न संकट है। न होना चाहिए। बाल ठाकरे का यह इलज़ाम कि अब्बु आज़मी को हिंदी में शपथ लेने से रोका नहीं गया निहायत अपरिपक्व है। लगता है कि वाक़ई खून पानी से अधिक गाढ़ा होता है। भतीजे और भाषा का पक्ष लेना संविधान के सम्मान से अधिक ज़रूरी है। ताज्जुब की बात है कि अंग्रेज़ी में शपथ लेनेवालों के लिए इस वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने कुछ नहीं कहा कि उससे महाराष्ट्र और मराठी की अवमानना नहीं हुई, शायद सम्मान बढ़ा। जिन पेशावाओं को अंग्रेज़ों ने बेइज़्जत किया हिंदी वालों ने उनका साथ दिया वह हिंदी शिवसेना और मनसा की दुश्मन है और अंग्रेज़ी सगी। भाषा कोई गैर नहीं होती न उसके प्रवाह को रोका जा सकता है। ठाकरे साहबान, इंसान से अधिक भाषाएं आपस में लेन देन करती हैं। हम जितने संकुचित और छोटे दिलों के हैं भाषाएं कहीं ज्यादा फ़राख़दिल हैं। एक ज़माना था जब ब्रिटिश संसद में अंग्रेज़ी बोलने वालों पर मनसा की तरह फ्रांसिसी भाषा प्रेमी मनसा की तरह आक्रमण करके हाथ पैर तोड़ देते थे। लेकिन क्या वे अंग्रेज़ी का कुछ बिगाड़ पाए। भाषा अपना रास्ता बनाने के साथ साथ अपने रास्ते के अवरोध भी स्वयं हटाती है। हिंदी भी यही कर रही है अपनी बहनों का सम्मान रखते हुए आगे बढ़ रही है। हिंदी का लिपि के कारण दामन चोली का साथ है। दामन उतारोगे तो बेपर्दगी होगी, चोली उतारोगे तो शर्मज़दा होगे।

Friday, 6 November 2009

प्रभाष जोशी हिंदी के अंतिम समर्पित सेनानी

आज सवेरे हिंदुस्तान दैनिक के पहले पृष्ठ पर सूचना देखी तो सन्न रह गया प्रभाष जी चुपके से निकल गए। मुझसे एक साल छोटे थे। पहले मैं उन्हें अपने से बड़ा ही समझता था। जब यह राज़ खुला कि मैं उनसे एक साल बड़ा हूं तो वे बोले अब मैं तुम्हें प्रणाम किया करूंगा। इस बात को उन्होंने कुछ दिन पहले तक निभाया। हिंद स्वराज पर मेरी पुस्तक सस्ता साहित्य मंडल से आई तो मैंनें उन्हें बताने के लिए फ़ोन किया तो उन्होंने प्रणाम करने वाली रिवायत को निभाया। जब वे प्रणाम कहते थे मुझे संकोच होता था। मैंने बेकार ही बताया कि मैं उनसे एक साल बड़ा हूं। दरअसल पहला गिरिमिटिया पर जनसत्ता में बहुत उन्होंने आत्मीय ढंग से समृद्ध लेख लिखा था। लेकिन दलित विमर्श-संदर्भ गांधी पढ़कर स्पष्ट कहा था दलित विमर्श के लिए गांधी को जस्टिफ़िकेशन की ज़रूरत नहीं है। उनमें साफ़ कहने की अद्भुत शक्ति थी। उन्होंने सोनिया गांधी को हिंद स्वराज पढ़ने की सलाह दी थी।
मेरी उनसे तब मुलाकात हुई थी जब वे अज्ञेय जी के साथ एवरीमेन में काम करते थे। जहां तक मुझे याद है तब वे बुशर्ट पैंट भी पहनते थे। बाद में उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखना पढ़ना लगभग छोड़ दिया। दूसरी बार मैं उनसे राजेन्द्र यादव के साथ इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग में मिला था। उन्होंने लिखी कागद कोरे की प्रति भी भेंट की थी। हालांकि उन दिनों मैं फ्री लेंसिंग कर रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा ‘आप कहानी उपन्यास के सिवाय भी कुछ और लिखते हैं?’
मैंने कहा ‘नाटक भी लिख लेता हूं।‘
‘नहीं, मेरा मतलब है अखबारं के लिए भी लिखते हैं।‘ मैंने गर्दन हिला दी। वे चुप रहकर बोले।
‘आपके मित्र तो बड़े लेखक हैं। इन्हें तो जनरलिस्टिक लेखन छोटा काम लगता है। लेकिन एक लेखक को समसामयिक विषयों पर ज़रूर लिखना चाहिए। इससे एक तो अपने सरोकारों का पता चलता है दूसरे देश की हालत और समस्याओं से दो चार होने का अवसर मिलता है।‘ यह बात मुझे रघुवीर सहाय भी कहते थे। लेकिन जिस तरह उन्होंने कहा उसमें एक तरह की पकड़ थी। हो सकता उसके पीछे यह भी मंशा रही हो कि यह आदमी फ्री लेंसिग कर रहा है अगर यह अखबारों मे लिखेगा तो आर्थिक मदद भी मिल जाएगी। या केवल एक लेखक को जरनेलिस्टिक लेखन की तरफ़ आकर्षित करने का तरीका था। मेरे मामा 1920 में जब आक्सफोर्ड लंदन से एम ए करके आए तो गांधी जी का संदेश मिला। बापू बंबई में ही थे। वे उनसे मिलने गए। बापू ने सीधे सवाल किया ‘तुम आज़ादी से सरोकार रखते हो या गुलामी की सुख सुविधा से?’
वे कुछ देर समझ नहीं पाए सवाल का मर्म क्या है। बापू काम करते रहे। कुछ देर बाद पूछा क्या सोचा। उनके मुहं से अनायास निकला –आज़ादी। हालंकि इन दोनों घटनाओं में कोई साम्य नहीं था। लेकिन एकाएक उस घटना का ध्यान आ गया था, पर मैं बोला नहीं। कुछ महीने बाद जब मैं उनसे मिलने गया तो वे बोले आपने क्या सोचा। मैंने एक लेख निकालकर उनके सामने रख दिया। जहां तक मुझे याद है वह भाषा के संदर्भ में था। उन्होंने अल्टा पल्टा और पी ए को बुलाकर कहा यह जाएगा। किसी काम का इतना जल्दी नतीजा पहली बार मिला था। हो सकता है यह उनका प्रोत्साहित करने का तरीका रहा हो।
प्रभाष जी ने चंद दिनों पहले मुझसे फ़ोन पर कहा था। मैंने कलकत्ता संस्कृति संसद वालों से कहा है कि जब पहला गिरमिटिया जैसे बड़े उपन्यास के लेखक आ रहे हैं तो 15 नवंबर को होने वाले हिंद स्वराज की गोष्ठी की वही अध्यक्षता करेंगे। कुछ ही देर बाद सचिव रत्नशाह जी का फ़ोन आ गया। हम भले ही कम मिलते हों पर उन्हें सदा गांधी के संदर्भ में मेरी याद रहती थी। जब मेरा उपन्यास छपा तो उन्होंने मुझे फ़ोन किया आपको पटना चलना है और गिरमिटिया पर बोलना है। मैं दिल्ली से आऊंगा आप कानपुर अमुक गाड़ी पर मिलें। मैं जाम के कारण वक्त के वक्त स्टेशन पहुंचा। वे इंतज़ार में टहल रहे थे। बिस्तर लगा तैयार था। जैसी आडियंस वहां मिली वैसी कहीं और नहीं मिली। शिवानंद जी तो थे ही। लालू जी से भी पहली बार उन्होंने ही भेंट कराई। मुझे विचित्र अनुभव हो रहा है हिंदी और गांधी के प्रति समर्पित ऐसा जुझारू योद्धा अब कौन मिलेगा। उनके दम से मुझे दम था। कोई पत्रकार आज हिंदी में ऐसा नहीं जो हिंदी के सवाल को जन्म मरण का सवाल समझता हो। अधिकतर हिंदी के पत्रकार हिंग्लिश के पत्रकार हैं। उन्हीं का दम था कि जनसत्ता को उन्होंने हिंदी का शीर्ष पत्र बना दिया था। आज भी हिंदी के अख़बारों में जनसत्ता को ही बौद्धिक सम्मान प्राप्त है। यह ठीक है कि तीसरे नंबर पर वे क्रिकेट के शैदाई थे। उन्होंने जनसत्ता के बाद कोई दूसरा अखबार नहीं पकड़ा। यही खेल के साथ हुआ। खेलों में क्रिकेट ही उनका पहला प्यार बना रहा। जब गए तो अपने प्रिय खेल देख रहे थे। मैं समझ सकता हूं कि सचिन के इतने बड़े स्कोर पर वे कितने ख़ुश होंगे लकिन 3 रन से हारना कितना बड़ा धक्का रहा होगा। शायद अपने प्रिय खेल और देश के लिए इतना बड़ा बलिदान इतने बड़े पत्रकार ने शायद ही कभी दिया हो।
एक घटना मुझे इस समय फिर याद आ रही है। सूरीनाम भारत सरकार का प्रतिनिधि मंडल जाने वाला था। विदेश मंत्रालय से नाम प्रस्तावित होकर पी एम ओ भेजे गए। उसमें जोशी जी का और मेरा भी नाम था। उन्हीं दिनों मैंने जनसत्ता में इस बात का सख्त शब्दों में खंडन किया था कि मैं आचार्य गिरिराज किशोर नहीं हूं। लोग कई बार मुझे वी एच पी का नेता समझकर पत्र लिखते थे। परिचय देते हुए नाम से पहले आचार्य लगा देते थे। सांप्रदायिकता के प्रतीक व्यक्ति से मेरा नाम जोड़ना मेरे लिए अपमानजनक था। शायद प्रधानमंत्री हाऊस में उस बात को पढ़ लिया गया था। फ़ाइल लौटी तो मेरे और जोशी जी के नाम पर फ़ाइल में निशान लगा था। राज्यमंत्री विदेश ने पीएम से जाकर कहा कि जोशी जी इतने बड़े पत्रकार और गिरिराज किशोर ने गांधी जी पर पहला गिरमिटिया जैसा उपन्यास लिखा है। प्रधानमंत्री ने सदाशयता दिखाई और दिग्विजय सिहं जी की बात मान ली। दरअसल जोशी जी ने अपनी राय के साथ कभी धोखा नहीं किया। वे निडर होकर बी जे पी नीतियों के खिलाफ़ बोलते रहे। इतना बड़ा पत्रकार क्या राज्यसभा में जाने योग्य नहीं थे। लेकिन पार्टियां सरकार में रहीं और गिरीं पर किसी को न हिंदी का धयान आया और न जोशी जीजैसे निर्भीक पत्रकार का।
मैंने समाचार पढ़कर उनके सहयोगी रहे प्रताप सोमवंशी को फ़ोन करके पूछा दाह संस्कार कब होगा उन्होंने बताया कि उनका शरीर इंदौर ले जाया जा रहा है। ख़ामोश हो जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। वे अपना काम पूरा करके घर लौट रहे थे। मैंने मन ही मन प्रणाम कर लिया।

Thursday, 5 November 2009

अपणी ढोणी

राजस्थानी के लिए तो समझना कठिन नहीं है कि अपणी ढोणी क्या है। लेकिन बिना देखे और जाने किसी दूसरे प्रदेश वासी के लिए शायद आसान न हो। किसी भी प्रदेश के रहने वाले क्यों न हों, हम लोग अपनी ग्रामीण संस्कृति की न शब्दावली से रले मिले रहे और न जीवन से। बस सुने सुनाए नाम याद रह गए हों तो बात अलग है। लेकिन उनका नाता आम आदमी से क्या है, संवेदना से क्या है, उसकी अर्थवत्ता क्या है यह सब समझना आसान नहीं है। किसी भी शब्द के अर्थ से तब तक समरसता नहीं होती जब तक जीवन में उसका उपयोग न हो और संवेदना से रिश्ता न बने। यह बात इस बार संगमन के कार्यक्रम मे उदयपुर गए तो समझ में आई। मेरे मेज़बान, संबंधी तथा मेडिकल कालेज के बालरोग विभाग के अध्यक्ष डा ए पी गुप्ता ने अंतिम दिन कहा कि आज बाहर खाना खाया जाए। कहां? वे बोले एक ऐसी जगह जो आपने पहले कभी देखी नहीं होगी। मैंने कहा इस बात का ध्यान रखिएगा मैं और मेरी पत्नी पूरी तरह निरामिष हैं। वे दोनों स्वयं भी निरामिष हैं। इसीलिए अपणी ढोणी ले चल रहे हैं। वहां प्याज़ और लहसुन का प्रयोग भी कम प्रयोग होता है। यह नाम एकाएक समझ में नहीं आया। जब उन्होंने बताया इसका मतलब है अपनी झोपड़ी या कुटिया। भोजनालयों के अंगीठी, रसोई, साझाचूल्हा आदि नाम तो हमारी तरफ़ चलते थे। यह नया नाम था। वह ढोणी शहर से दूरी पर एक पहाड़ी पर थी। एकदम ऊबड़ खाबड, गांव का सा वातावरण। कार एक तरफ़ खड़ी की। थोड़ी दूर एक गेट था जिस पर बंदनवारें लटकी थी। ढोल बज रहा था। गेट पर एक आदमी पगड़ी वगड़ी बांधे राजस्थानी धोती पहने अंदर जाने वालों के तिलक लगाकर स्वागत कर रह था। उसकी थाली में लोग रूपये डाल देते थे। चढ़ाई के बाद ऊपर पहुंचे। वहां खाटें बिछीं थी। कुर्सियां भी थीं। राजस्थानी लोकगीत पर एक महिला ग्रामीण नृत्य कर रही थी। छाछ और पापड़ अतिथियों को पेश किया जा रहा था। एक छोटी ढोनी जादूगरी की थी। कहीं कपुतली का नाच हो रहा था। ऊंट की सवारी का इंतज़ाम था। यानी पूरा देहाती मेले का तामझाम था।तभी बारिश होने लगी।जिसको जहां जग मिली घुस गया। जादू की ढोनी जो ठंडी पड़ी थी गर्मा गई। जादूगर ने एक के तीन कबूतर बना दिए। बोला हाथ की सफ़ाई, पेट की कमाई।
असली बात थी जिम्मन की। ज़मीन में पटोरे बिछे थे। सामने चौकियां लगी थीं। हर जाति, धर्म का आदमी उस पंगत में मौजूद था। सब लोग खुशी से सजे बैठे थे। मैं सोच रहा था। हम लोग कितने आधुनिक हो गए। इन रवायतों को भूल गए। इसीलिए उसकी पुनर्प्रस्तुति का आयोजन करके कितने ख़ुश होते हैं। कई राजस्थानी टहलुए खाना परस रहे थे। लग रहा था जैसे किसी ब्याह शादी की पंगत हो। गट्टे की सब्ज़ी, पनीर, आलू, रायता दाल घी, बाटी, ताज़ा निकला मक्खन, गुड़ मक्का बाजरे की रोटी। यानी सब राजस्थानी ठाठ में रचे बसे थे। हालांकि छोटे स्तर पर ऐसा देहाती आयोजन कभी कभार परिवारों में भी किया जा सकता है। लकिन सब क्या, अधिकतर घरों में, डायनिंग टेबिल स्थायी रूप से थिर हो गई। उसे कौन खिसका सकता है। सब से महत्त्वपूर्ण था मनुहार का कार्यक्रम। पहले एक बार गर्म गर्म जलेबी परसी गई। फिर एक आदमी आया। उसके हाथ मेंजलेबी से भरी थाली थी। वह सबको अपनी तरफ़ से नाम देता जा रहा था और सीधे मुहं में जलेबी रखता जा रहा था। एक के बाद एक जब तक वह मुंह ही न फेर ले। वह मुंह में जलेबी रखता जाता था कहता जाता था वाह जी राम नारायण, एक राम के नाम की। महिला हुई तो ज़नाना नाम, मुसलमान हुआ तो कहता हां जी हमीदा बीबी। सब पंगत हंस हंस कर लोटपोट थी। उसके हाथ से जलेबी खाने और अपना नया नामकरण कराने में हर किसी को मज़ा आ रहा था।
सबसे बड़ी बात हिंदू, मुसलमान, ईसाई, ब्राह्मण, और अन्य जाति सब उसके ही हाथ से बिना भेद भाव के खा रहे थे। तबसे मेरे दिमाग में यह सवाल घूम रहा है गांव के एक प्रायोजित वातावरण में इन स्थितियों में हम फूले नहीं समाते लेकिन इस आत्मीयता को ज़िंदगी की वास्तविकता बना लेने में हमें गुरेज़ है। गांव हमारे लिए सपने की चीज़ हो गई। मसनूई गांव बनाकर उसमें कुछ समय जीना हमें तरोताज़ा कर देता है। वाह जी वाह!

Wednesday, 9 September 2009

हिंदी राजभाषा होने का अर्थ

मैं यह कह सकता हूं और कहना भी चाहता हूं कि हिंदी का राजभाषा होना हमारे लिए सम्मान की बात है पर चाह कर भी कह नहीं पाता। ‘राजभाषा’ नेहरू सरकार द्वारा हिंदी के धंधेबाज़ों को दिया गया स्वर्ण खिलौना है। हिंदी के लिए राजभाषा नाम उस वक्त निर्मित यानी कॉयन किया था जब उसे राष्ट्रभाषा बनाने की जद्दोजहद जारी थी। यह काम किसी हिंदी वाले ने ही किया होगा सरकार की नज़रों में चढ़ने के लिए। क्योंकि अंग्रेज़ी पोषित भारतीय विद्वानों के लिए तो यह संभव नहीं था। उन्होंने तो ‘स्टेट लेंग्वेज’ की तरह अधकचरा अंग्रेज़ी पर्याय सूझ रहा होगा, उन सज्जन ने उसे हिंदी में तबदील कर दिया होगा। क्योंकि मेरे अल्पज्ञान के अनुसार तो संसार भर में उस समय हर देश की भाषा को नेशनल लैंग्वेज यानी राष्ट्रभाषा ही कहा जाता था। किसी देश में राज भाषा वाली स्थिति शायद ही रही हो। हमारे देश में हिंदी को राष्ट्र भाषा के नाम से संबोधित करना कुफ़्र तोलने की तरह था। बीच का रास्ता राजभाषा ही हो सकता था। यह ऐसा ही था जैसे पटेल बहुमत के बावजूद प्रधानमंत्री नहीं बन सके तो उन्हें उप-प्रधानमंत्री बना दिया गया। राजभाषा से क्या भाषा का विकास हुआ? भाषा को राजसम्मत नाम देकर उसका गौरव कभी नहीं बढ़ता। भाषा का संवर्धन साहित्य में प्रयुक्त उन ध्वनियों से होता है जो शब्द विभिन्न स्रोतों से आकर समाहित होते हैं। यह तभी संभव है जब किसी भाषा की स्वायत्तता एक ईकाई की तरह अक्षुण्य हो। राजभाषा और हिंदी भाषा का विचित्र समीकरण है। राजाभाषा की सरकारी कार्यालयों में सीमित भूमिका है जैसे 1. हिंदी भाषी राज्यों के अंग्रेज़ी न जानने वाली जनता के लिए अंग्रेज़ी की प्रामाणिक मानी जाने वाली दस्तावेज़ों/ शासनादेशों का अनुवाद करके लोगों तक पहुंचाना। लिखा है कि प्रामाणिक दस्तावेज़ अंग्रेज़ी की ही मानी जाएगी। 2.दफ़तरों में हिंदी उपस्कर यानी टंकनक, शब्द कोषों और टेककों का होना सुनिशचित करना। अब उसमें कंप्यूटर भी जुड़ गया। राष्ट्र स्तर पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में निर्मित राजभाषा सलाहाकार समिति के सदस्य देश भर में सरकारी खर्च पर घूम घूमकर देखेंगे कि राजभाषा का काम सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं। 3. हिंदी निदेशालय हिंदी का प्रचार प्रसार देखेगा। 4. तकनीकी शब्दवली आयोग शब्दकोष बनाएगा जो अधिकतर कार्यालयों के बुकशेल्फ़ों में शोभायमान रहेगा आदि।
गांधी जी ने हिंद स्वराज के 18वें अध्याय में 100 साल पहले एक महत्त्वपूर्ण वाक्य लिखा था ‘सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए , वह हिंदी ही होगी।‘ इस वाक्य का राजभाषा एक फूहड़ मज़ाक है। आज़ादी के बाद बकौल इतिहासकार रामचंद्र गूहा के इस सबसे समझदार आदमी की बातों को रद्दी की टोकरी में, चाहे ग्रामो उत्थान की बात हो या हिंदी की उनके अनुयाइयों की सरकार ने ही फेंका। इस काम में उस समय के हिंदी के अलंबारदार भी अपनी चुप्पी के साथ शरीक थे। हिंद स्वराज के 20वें अध्याय में उन्होंने अंग्रेज़ों को यह कहकर ललकारा था भारत की भाषा अंग्रेज़ी नहीं है, हिंदी है। वह आपको सीखनी पड़ेगी। और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे। हुआ उलटा, ललकार भारतियों पर ही लागू कर दी गई। भारत को सब भाषाएं भूलकर अंग्रेज़ीमय होना होगा। सरकार अंग्रेज़ी में ही काम करेगी। हुकूमत का उद्देश्य पूरा हुआ। जब पंद्रह पंद्रह साल की अवधि बढ़ाकर हिंदी को ही संपर्क भाषा बनाने का मसला टाला जा रहा था तो डा लोहिया ने कहा था ज़िंदा कौमें इंतज़ार नहीं करतीं। गांधी की तरह उनकी बात भी देश ने इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दी। ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे। उल्टे नमाज़ की जगह रोज़े गले पड़ गए। राज भाषा बनाकर, जिस हिंदी को आज़ादी के दौरान पूरा देश प्यार करता था उसी हिंदी के लिए दूसरी भाषाओं के दिलों में साज़िशन ज़हर भर दिया गया। अंग्रेज़ी जीत गई या जिता दी गई। काश हिंदीवालों ने सोचा होता कि राजभाषा का यह टुकड़ा गले मे ऐसा फंसेगा न निकालते बनेगा न सटकते। वही स्थिति हिंदी की हुई कि जैसी सत्ता के लालच में बंटवारा मानकर आज देश चारों तरफ़ से घिर गया। भाई भी दुश्मन हो गए। अब भी वक्त है कह सको तो कह दो राजभाषा का पद जिसको देना हो दे दो हमें हमारा मोहब्बत प्यार लौटा दो।

Monday, 24 August 2009

असहमति सहमति का नाज़ुक फ़ंडा

यह सवाल विचारकों और लेखकों के लिए परेशान करने वाला है। कैंसरवार्ड के लेखक सालझेनित्सिन को इसलिए साइबेरिया भेज दिया गया था कि सोवियतसंघ की सरकार उनके मत से असहमत थी। यह तो मान लिया कि वह सरकार तानाशाहनुमा सरकार थी। लेकिन हिंदुस्तान एक जनतंत्र है। ऐसा जनतंत्र, जहां सामान्य आदमी को भी अपनी राय बिना लाग लपेट के अभिव्यक्त करने की आज़ादी है। इसका लाभ सबसे अधिक रा. स्वं. सं. और बीजेपी उठाते रहें। गांधी जी जीवित थे तो आर एस एस और साम्यवादी सबसे अधिक उन्हें कोसते थे। आर आर एस वाले पागल बुड्ढा कहते थे। हर शहर में उनका सालाना जलसा होता था। उसमें पद संचालन और लाठी संचालन आदि खेल होते थे। मुख्य अतिथि संचालक आदि ओहदेदार होते थे। सबसे अधिक संस्कृत निष्ठ गालियां देने का खेल गांधी जी के माध्यम से खेला जाता था। यहां तक हिंदूवादी समुदायों की साजि़श से ही उन्हें गोली भी मारी गई। यह सब जनतंत्र का फ़ायदा उठाकर किया गया। अगर स्टालिन या हिटलर का निज़ाम होता तो न जाने क्या हुआ होता। अंग्रे़ज़ों ने बहुत ज़्यादतियां कीं लेकिन अभिव्यक्ति की स्वत्रंता को यथासंभव महत्त्व वे भी देने की कोशिश करते थे। कितना दे पाते थे यह अलग है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माडल वहीं से लिया गया है। आज भी गांधी जी को राष्ट्रपिता मानने में सबसे अधिक आपत्ति उन्हें ही है। मुस्लमान वंदेमातरम नहीं गाते उसे वे अपने धर्म के ख़िलाफ़ मानते हैं। लेकिन बी जे पी उनकी मातृ संस्था आर एस एस जो धर्म को सर्वोपरि मानते हैं, इस बात को देशद्रोह करार देने पर आमादा रहते हैं। सवाल उठता है किसकी असहिष्णुता जनतांत्रिक सीमा के अंदर है, किसकी तनाशाही की सीमा में प्रवेश कर जाती है। वह सीमा क्या है? शायद यह किसी को मालूम नहीं हर व्यक्ति, नेता और पार्टीयां विकेटस को दूसरे को आउट करने के लिए, अपने हिसाब से इधर उधर सरकाती रहती हैं।
एक ही घर में स्वत्रंत्रता के कई पैमाने हों तो उस घर की आंतरिक आज़ादी और शांति का ख़तरे में पड़ जाना अवश्यंभावी है। जब तक डंडा है तब तक सब चुप हैं जैसे ही डंडा कमज़ोर हुआ वैसे ही घर सड़क बनी। बी जे पी के अध्यक्ष अडवानी पाकिस्तान एक हाजी की तरह गए थे। ख़ासतौर से जिन्ना साहब के मकबरे की ज़ियारत करने। वैसे तो राजा रंजीतसिंह की समाधि भी पाकिस्तान में ही थी। वहां उन्होंने जो भाखा था उसने तो इतिहास का रुख़ ही बदल दिया था। जिन्ना को विश्व का सबसे चमत्कारी व्यक्ति पुरूष बना दिया जिसने एक नया देश एक टाइपराइटर और टाइपिस्ट के ज़रिए बना दिया। सांप्रदायिकता की बात यह कहते हुए उन्हें ाद नहीं आई। जिन्ना साहब को सेकुलर बताते हुए अडवानी साहब को भी ध्यान नहीं आया कि उनकी पार्टी का बुनियादी सिद्धान्त है एक जन, एक संस्कृति और एक राष्ट्र। उसी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा रही है।
उस पुस्तक में जो लिखा वह तो चिंतन की ऐसी पर्त खोल रही थी उसे पढ़कर लगता है गंगा दास जमुना दास होकर आए हैं। देश में आए तो सबसे ज़्यादा बी जे पी के लोग उनके खिलाफ़ मुखर थे। लेकिन समरथ को नहीं दोस गुसांई। बाद में बी जे पी नेतृत्व ने रास्ता निकाल लिया ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। किसी को बचाना हो तिनका भी पतवार बन जाता है। जब डुबाना हो तो किनारा भी मझधार बन जाता है। दरअसल जिन्ना बटवारे के लिए ज़िम्मेदार हैं या नेहरू और पटेल, सवाल इस बात का नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि बटवारे की नींव तो वीर सावरकर ने डाल दी थी। आर एस एस उनका परम समर्थक था। साथ ही आर एस एस मुस्लिमों के खिलाफ़ था। उनका मुसलमानों के खिलाफ़ होना वीर सावरकर की टू नेशन्स थ्योरी का ही विस्तार था। उसके बाद जिन्ना ने टू नेशन्स थ्योरी की बात उठाई। दरअसल आर एस एस तो अखंड भारत की बात करता था लेकिन मुसलमानों को हिकारत की दृष्टि से देखता था। प्रकारंतर से मुसलमानों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा कर रहा था वे इधर जाएं या उधर। उधर जाएंगे तो उन्हें एक मुल्क चाहिए। यहां रहें तो आर एस एस की शर्तों पर रहें। दोनों ही बातें जोखिम भरी थीं। अखंड भारत तभी संभव था जब देश में एक दूसरे के लिए सहिष्णुता का वातावरण हो। जो 1916 में तिलक जी और जिन्ना के प्रयत्नों से बना था। दिलों में गुंजायश हो तो सब संभव है। गांधी हृदय परिवर्तन की बात कहते थे। लेकिन आर एस एस देश में मुसलमानों के लिए इस तरह का वातावरण बनाने के पक्ष में नहीं थी इसी बात को लेकर उनका गांधीजी से मतभेद था। यह कहना शायद ठीक न लगे कि वे लोग प्रकांतर से बटवारे को प्रोत्साहित कर रहे थे। हिंदू पार्टियों के दबाव में 1857 में अंग्रज़ों के खिलाफ़ जो हिंदू मुस्लिम एकता बनी थी उसमें दरार उन्होंने ही पैदा की।
जहां तक जिन्ना का सवाल है वे एक सेकुलर से कट्टर मुस्लिम नेता कैसे बने इस बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर नज़र डालना ज़रूरी है। उस पीढ़ी के जीवन काल में दो विश्वयुद्ध हो चुके थे। उसका नतीजा हुआ था कि विश्व भर मे नए राष्ट्रों की बाहुलता हुई थी। राजशाही का स्थान सर्वसत्तावाद यानी टोटलिटेरियनिज्म ने लेना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान उन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों की देन भी था। जिन्ना वैसे भी एक बहु-आकांक्षी व्यक्ति होने के साथ साथ समय की चाल को पहचानने में अपना सानी नहीं रखते थे। उन्होंने समय की नब्ज़ को समझा। वे समझ गए थे कि अपनी पहचान के लिए उन्हे विश्व में हो रहे परिवर्तन का लाभ उठाना चाहिए। हिंदूबाहुल देश में सम्मान भले ही पा लें पर एक स्वतंत्र के मुखिया नहीं बन सकते। गांधी ने बटवारे को रोकने के लिए जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था जिसका नेहरू और पटेल ने यह कहकर विरोध किया था कि आप देश की आज़ादी चाहते हैं या सिविल वार। यह ठीक है कि हिंदूवादी शक्तियां और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ सिविल वार की स्थितियां उत्पन्न कर देते। शायद वे बटवारे जितनी भयावह न होतीं। गांधी के इस प्रस्ताव का मर्म सत्ता के आकर्षण से विरक्त होकर ही समझा जा सकता था। इस प्रस्ताव का दूरगामी प्रभाव होता। देश बटने से बच जाता। हिंदूवादी ताकतों का अखंड भारत बनाने का सपना मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बिना भेदभाव के पूरा होने की संभावना हो सकती थी। शायद गांधी की हत्या भी न होती। जहां तक पटेल का सवाल है वे गांधी भक्त थे। गांधी का हत्यारा गोडसे आर एस एस का सदस्य रह चुका था। वीर सावरकर गोडसे उसके मेन्टर, आर एस एस के आईकन थे। पटेल ने उनकी हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया था। अडवानी का यह कहना भ्रामक है कि नेहरू के दबाव में पटेल ने ऐसा किया। यह आश्चर्य की बात है कि अपने को लौहपुरूष कहलाने वाला व्यक्ति वास्तविक लौहपुरूष की यह कह कर अवमानना करता है कि वह दूसरे व्यक्ति के दबाव में अपनी मान्यता के विरुद्ध काम करेगा। यहां मैं दो वामपथीं इतिहासकारों को उद्धृत करना चाहूंगा। विपिनचंद्रा ने 22 अगस्त 09 के द हिंदू में कहा है कि यह कहना कि पटेल ने नेहरू के कहने पर ऐसा किया उनको बदनाम करना है। पटेल अपने मत और अंतरआत्मा के विरुद्ध कुछ भी करने वाले नहीं थे। इसी तरह इरफ़ान हबीब साहब ने द हिंदू में कहा है ‘मैंने गोलवलकर और पटेल के बीच हुई ख़तोकिताबत पढ़ी है। हालांकि उन्होंने आर एस एस को गांधी जी की हत्या के लिए दोषी नहीं माना लेकिन उन्होंने उसे सांप्रदायिक वातावरण बनाने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया जिसके कारण गाधी जी की हत्या हुई। उस पत्रव्यवहार में आर एस एस की हिंसक राजनीति के खिलाफ़ पटेल का रुख़ स्पष्ट है।‘ (उपरोक्त दोनो अंश उन दोनों विद्वानों के कथन का भावार्थ है)।
बाद में उस प्रतिबंध को पटेल ने तभी हटाया जब आर एस एस के नेतृत्व ने लिखित आश्वासन दिया कि वे सांस्कृतिक संस्था के रूप मे कार्य करेंगे राजनीति में भाग नहीं लेंगे। यह पटेल की दूरअंदेश कूटनीति का प्रमाण है। मैं इस विमर्श को यह कहकर यहीं छोड़ता हूं कि आर एस एस एक तरह से मिलिटेंट शक्ति के रूप में उभर रहा था उसको सांस्कृतिक संस्था का रूप देकर उन्होंने हिंदू मुस्लिम संघर्षों की संभावनाओं पर काफ़ी हद तक विराम लगा दिया। जहां तक जसवंत सिहं की पुस्तक का सवाल है उसके खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही सिद्धान्त आधारित इतनी नहीं जितना प्रभावशाली नेताओं का पार्टी के कोर सिद्धान्त की आड़ में व्यक्तिगत हिसाब निबटाने का प्रयास है। लोग जल्दी भूल जाते हैं अडवानी जी ने अपन पुस्तक में लिखा है कि जसवंत सिहं द्वारा आतंकवादियों को काबुल छोड़कर आने के बार में उन्हें मालूम नहीं था। गृहमंत्री की मर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना क्या जसवंत सिहं छापा मारकर आतंकवादियों को ले गए थे। लौहपुरुश चुप रहा। उसी समय जसवंत सिंह ने इस बात का प्रतिवाद किया था। अडवानी जी ने जहां तक मुझे याद है स्वीकार किया था मुझे याद नहीं रहा । बाद में क्या पुस्तक में इस तथ्यात्मक भूल को सुधारा? शायद नहीं। इसका मतलब पुस्तक में लिखा यह तथ्य इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री को तानाशाह और विदेश मंत्री को उनकी साज़िश का हिस्सा मान लिया जाएगा। यह सरकार और पार्टी के ऊपर धब्बा बनकर चमकेगा। मैं तत्कालीन गृहमंत्री का यह इंदराज देश की राजनीति के लिए लांछन मानता हूं। जसवंत सिहं ने जो लिखा उसका ख़मियाज़ा भुगता। लेकिन अपनी बात पर कायम रहे। लेकिन पार्टी का एक बहुत बड़ा नेता लिखने में कुछ और कहने मे कुछ,फिर भी सुरक्षित। सुना है कि पार्टी प्रवाक्ताओं को निर्देश हुए हैं कि वे इस प्रकरण पर चुप रहेंगे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि पुस्तक विमोचन के समय लेखक पार्टी में था। लेकिन कोई नेता विमोचन में उपस्थित नहीं था। पार्टी के लिए यह अच्छा मौक़ा था कि कोई भी प्रतिनिधि उपस्थित होकर पार्टी की स्थिति स्पष्ट कर सकता था। जसवंत सिह को मजबूरन गैरपार्टी लोगों को मंच पर बैठाना पड़ा भले ही प्रगतिशीलता के शीर्ष पुरूष हों। लेकिन उनको उनके समुदाय ने शायद इसलिए आपत्ति मुक्त कर दिया हो कि लेखक और आलोचक के बीच सजातियता होती है।
समाज को ख़ासतौर से पढ़े लिखे जागरूक समुदायों को समानता का व्यवहार सीखना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। यह बात राजनीति पर ही लागू नहीं होती। बौद्धिक क्षेत्रों में भी लागू होनी चाहिए। जसवंत सिहं को तो स्पष्टीकरण का अवसर भी नहीं दिया गया। अडवानी साहब तो पूछे जाने से ऊपर हैं ही। अंत में कहना चाहूंगा समाज संवेदनशील अवयवों से बना है एक भी अटपटा काम समाज में तरंगे पैदा करने के लिए काफ़ी है। चाहे राजनीति हो या साहित्य। राजनीति खुला खेल है उसकी प्रतिक्रिया समाज में तत्काल होती है। साहित्य शब्दों से घिरी दुनिया, जो धीरे धीरे खुलती है। खरोंचे वहां भी पड़ती हैं। एक समाचार पत्र में कवियों की तस्वीरों का कोलाज छपा था। एक छात्र ने मुझसे पूछा अंकल सुमित्रानंदन पंत की छोटी सी तस्वीर एक कोने में क्यों छपी है। पहले तो ये बहुत बड़े कवि माने जाते थे। मेरे पास इसका जवाब कुछ नहीं था। यह सब अनायास भी होता है पर किसी प्रगतिशील शीर्ष पुरुष का हिंदूवादी मंच पर जाकर बैठना भी क्या अनायास हो सकता है? इसका भी मेरे पास कोई उत्तर नहीं। वहां भी लोग चुप हैं।

प्रिय ओ जी,
मैंने गांधी जी के संदर्भ में एक लेख भेजा था।मिला होगा। लेकिन जसवंत सिहं वाले मामले ने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया। साहित्य के शीर्ष पुरुष की उपस्थिति ने इसे साहित्य से भी जोड़ दिया। अगर उपयूक्त समझें तो उपयेग करलें अपने निर्णय से अवगत कराएं धन्वाद। जी के

आज़ादी के संदर्भमें गांधी

यह सवाल विचारकों और लेखकों के लिए परेशान करने वाला है। कैंसरवार्ड के लेखक सालझेनित्सिन को इसलिए साइबेरिया भेज दिया गया था कि सोवियतसंघ की सरकार उनके मत से असहमत थी। यह तो मान लिया कि वह सरकार तानाशाहनुमा सरकार थी। लेकिन हिंदुस्तान एक जनतंत्र है। ऐसा जनतंत्र, जहां सामान्य आदमी को भी अपनी राय बिना लाग लपेट के अभिव्यक्त करने की आज़ादी है। इसका लाभ सबसे अधिक रा. स्वं. सं. और बीजेपी उठाते रहें। गांधी जी जीवित थे तो आर एस एस और साम्यवादी सबसे अधिक उन्हें कोसते थे। आर आर एस वाले पागल बुड्ढा कहते थे। हर शहर में उनका सालाना जलसा होता था। उसमें पद संचालन और लाठी संचालन आदि खेल होते थे। मुख्य अतिथि संचालक आदि ओहदेदार होते थे। सबसे अधिक संस्कृत निष्ठ गालियां देने का खेल गांधी जी के माध्यम से खेला जाता था। यहां तक हिंदूवादी समुदायों की साजि़श से ही उन्हें गोली भी मारी गई। यह सब जनतंत्र का फ़ायदा उठाकर किया गया। अगर स्टालिन या हिटलर का निज़ाम होता तो न जाने क्या हुआ होता। अंग्रे़ज़ों ने बहुत ज़्यादतियां कीं लेकिन अभिव्यक्ति की स्वत्रंता को यथासंभव महत्त्व वे भी देने की कोशिश करते थे। कितना दे पाते थे यह अलग है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माडल वहीं से लिया गया है। आज भी गांधी जी को राष्ट्रपिता मानने में सबसे अधिक आपत्ति उन्हें ही है। मुस्लमान वंदेमातरम नहीं गाते उसे वे अपने धर्म के ख़िलाफ़ मानते हैं। लेकिन बी जे पी उनकी मातृ संस्था आर एस एस जो धर्म को सर्वोपरि मानते हैं, इस बात को देशद्रोह करार देने पर आमादा रहते हैं। सवाल उठता है किसकी असहिष्णुता जनतांत्रिक सीमा के अंदर है, किसकी तनाशाही की सीमा में प्रवेश कर जाती है। वह सीमा क्या है? शायद यह किसी को मालूम नहीं हर व्यक्ति, नेता और पार्टीयां विकेटस को दूसरे को आउट करने के लिए, अपने हिसाब से इधर उधर सरकाती रहती हैं।
एक ही घर में स्वत्रंत्रता के कई पैमाने हों तो उस घर की आंतरिक आज़ादी और शांति का ख़तरे में पड़ जाना अवश्यंभावी है। जब तक डंडा है तब तक सब चुप हैं जैसे ही डंडा कमज़ोर हुआ वैसे ही घर सड़क बनी। बी जे पी के अध्यक्ष अडवानी पाकिस्तान एक हाजी की तरह गए थे। ख़ासतौर से जिन्ना साहब के मकबरे की ज़ियारत करने। वैसे तो राजा रंजीतसिंह की समाधि भी पाकिस्तान में ही थी। वहां उन्होंने जो भाखा था उसने तो इतिहास का रुख़ ही बदल दिया था। जिन्ना को विश्व का सबसे चमत्कारी व्यक्ति पुरूष बना दिया जिसने एक नया देश एक टाइपराइटर और टाइपिस्ट के ज़रिए बना दिया। सांप्रदायिकता की बात यह कहते हुए उन्हें ाद नहीं आई। जिन्ना साहब को सेकुलर बताते हुए अडवानी साहब को भी ध्यान नहीं आया कि उनकी पार्टी का बुनियादी सिद्धान्त है एक जन, एक संस्कृति और एक राष्ट्र। उसी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा रही है।
उस पुस्तक में जो लिखा वह तो चिंतन की ऐसी पर्त खोल रही थी उसे पढ़कर लगता है गंगा दास जमुना दास होकर आए हैं। देश में आए तो सबसे ज़्यादा बी जे पी के लोग उनके खिलाफ़ मुखर थे। लेकिन समरथ को नहीं दोस गुसांई। बाद में बी जे पी नेतृत्व ने रास्ता निकाल लिया ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। किसी को बचाना हो तिनका भी पतवार बन जाता है। जब डुबाना हो तो किनारा भी मझधार बन जाता है। दरअसल जिन्ना बटवारे के लिए ज़िम्मेदार हैं या नेहरू और पटेल, सवाल इस बात का नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि बटवारे की नींव तो वीर सावरकर ने डाल दी थी। आर एस एस उनका परम समर्थक था। साथ ही आर एस एस मुस्लिमों के खिलाफ़ था। उनका मुसलमानों के खिलाफ़ होना वीर सावरकर की टू नेशन्स थ्योरी का ही विस्तार था। उसके बाद जिन्ना ने टू नेशन्स थ्योरी की बात उठाई। दरअसल आर एस एस तो अखंड भारत की बात करता था लेकिन मुसलमानों को हिकारत की दृष्टि से देखता था। प्रकारंतर से मुसलमानों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा कर रहा था वे इधर जाएं या उधर। उधर जाएंगे तो उन्हें एक मुल्क चाहिए। यहां रहें तो आर एस एस की शर्तों पर रहें। दोनों ही बातें जोखिम भरी थीं। अखंड भारत तभी संभव था जब देश में एक दूसरे के लिए सहिष्णुता का वातावरण हो। जो 1916 में तिलक जी और जिन्ना के प्रयत्नों से बना था। दिलों में गुंजायश हो तो सब संभव है। गांधी हृदय परिवर्तन की बात कहते थे। लेकिन आर एस एस देश में मुसलमानों के लिए इस तरह का वातावरण बनाने के पक्ष में नहीं थी इसी बात को लेकर उनका गांधीजी से मतभेद था। यह कहना शायद ठीक न लगे कि वे लोग प्रकांतर से बटवारे को प्रोत्साहित कर रहे थे। हिंदू पार्टियों के दबाव में 1857 में अंग्रज़ों के खिलाफ़ जो हिंदू मुस्लिम एकता बनी थी उसमें दरार उन्होंने ही पैदा की।
जहां तक जिन्ना का सवाल है वे एक सेकुलर से कट्टर मुस्लिम नेता कैसे बने इस बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर नज़र डालना ज़रूरी है। उस पीढ़ी के जीवन काल में दो विश्वयुद्ध हो चुके थे। उसका नतीजा हुआ था कि विश्व भर मे नए राष्ट्रों की बाहुलता हुई थी। राजशाही का स्थान सर्वसत्तावाद यानी टोटलिटेरियनिज्म ने लेना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान उन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों की देन भी था। जिन्ना वैसे भी एक बहु-आकांक्षी व्यक्ति होने के साथ साथ समय की चाल को पहचानने में अपना सानी नहीं रखते थे। उन्होंने समय की नब्ज़ को समझा। वे समझ गए थे कि अपनी पहचान के लिए उन्हे विश्व में हो रहे परिवर्तन का लाभ उठाना चाहिए। हिंदूबाहुल देश में सम्मान भले ही पा लें पर एक स्वतंत्र के मुखिया नहीं बन सकते। गांधी ने बटवारे को रोकने के लिए जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था जिसका नेहरू और पटेल ने यह कहकर विरोध किया था कि आप देश की आज़ादी चाहते हैं या सिविल वार। यह ठीक है कि हिंदूवादी शक्तियां और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ सिविल वार की स्थितियां उत्पन्न कर देते। शायद वे बटवारे जितनी भयावह न होतीं। गांधी के इस प्रस्ताव का मर्म सत्ता के आकर्षण से विरक्त होकर ही समझा जा सकता था। इस प्रस्ताव का दूरगामी प्रभाव होता। देश बटने से बच जाता। हिंदूवादी ताकतों का अखंड भारत बनाने का सपना मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बिना भेदभाव के पूरा होने की संभावना हो सकती थी। शायद गांधी की हत्या भी न होती। जहां तक पटेल का सवाल है वे गांधी भक्त थे। गांधी का हत्यारा गोडसे आर एस एस का सदस्य रह चुका था। वीर सावरकर गोडसे उसके मेन्टर, आर एस एस के आईकन थे। पटेल ने उनकी हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया था। अडवानी का यह कहना भ्रामक है कि नेहरू के दबाव में पटेल ने ऐसा किया। यह आश्चर्य की बात है कि अपने को लौहपुरूष कहलाने वाला व्यक्ति वास्तविक लौहपुरूष की यह कह कर अवमानना करता है कि वह दूसरे व्यक्ति के दबाव में अपनी मान्यता के विरुद्ध काम करेगा। यहां मैं दो वामपथीं इतिहासकारों को उद्धृत करना चाहूंगा। विपिनचंद्रा ने 22 अगस्त 09 के द हिंदू में कहा है कि यह कहना कि पटेल ने नेहरू के कहने पर ऐसा किया उनको बदनाम करना है। पटेल अपने मत और अंतरआत्मा के विरुद्ध कुछ भी करने वाले नहीं थे। इसी तरह इरफ़ान हबीब साहब ने द हिंदू में कहा है ‘मैंने गोलवलकर और पटेल के बीच हुई ख़तोकिताबत पढ़ी है। हालांकि उन्होंने आर एस एस को गांधी जी की हत्या के लिए दोषी नहीं माना लेकिन उन्होंने उसे सांप्रदायिक वातावरण बनाने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया जिसके कारण गाधी जी की हत्या हुई। उस पत्रव्यवहार में आर एस एस की हिंसक राजनीति के खिलाफ़ पटेल का रुख़ स्पष्ट है।‘ (उपरोक्त दोनो अंश उन दोनों विद्वानों के कथन का भावार्थ है)।
बाद में उस प्रतिबंध को पटेल ने तभी हटाया जब आर एस एस के नेतृत्व ने लिखित आश्वासन दिया कि वे सांस्कृतिक संस्था के रूप मे कार्य करेंगे राजनीति में भाग नहीं लेंगे। यह पटेल की दूरअंदेश कूटनीति का प्रमाण है। मैं इस विमर्श को यह कहकर यहीं छोड़ता हूं कि आर एस एस एक तरह से मिलिटेंट शक्ति के रूप में उभर रहा था उसको सांस्कृतिक संस्था का रूप देकर उन्होंने हिंदू मुस्लिम संघर्षों की संभावनाओं पर काफ़ी हद तक विराम लगा दिया। जहां तक जसवंत सिहं की पुस्तक का सवाल है उसके खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही सिद्धान्त आधारित इतनी नहीं जितना प्रभावशाली नेताओं का पार्टी के कोर सिद्धान्त की आड़ में व्यक्तिगत हिसाब निबटाने का प्रयास है। लोग जल्दी भूल जाते हैं अडवानी जी ने अपन पुस्तक में लिखा है कि जसवंत सिहं द्वारा आतंकवादियों को काबुल छोड़कर आने के बार में उन्हें मालूम नहीं था। गृहमंत्री की मर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना क्या जसवंत सिहं छापा मारकर आतंकवादियों को ले गए थे। लौहपुरुश चुप रहा। उसी समय जसवंत सिंह ने इस बात का प्रतिवाद किया था। अडवानी जी ने जहां तक मुझे याद है स्वीकार किया था मुझे याद नहीं रहा । बाद में क्या पुस्तक में इस तथ्यात्मक भूल को सुधारा? शायद नहीं। इसका मतलब पुस्तक में लिखा यह तथ्य इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री को तानाशाह और विदेश मंत्री को उनकी साज़िश का हिस्सा मान लिया जाएगा। यह सरकार और पार्टी के ऊपर धब्बा बनकर चमकेगा। मैं तत्कालीन गृहमंत्री का यह इंदराज देश की राजनीति के लिए लांछन मानता हूं। जसवंत सिहं ने जो लिखा उसका ख़मियाज़ा भुगता। लेकिन अपनी बात पर कायम रहे। लेकिन पार्टी का एक बहुत बड़ा नेता लिखने में कुछ और कहने मे कुछ,फिर भी सुरक्षित। सुना है कि पार्टी प्रवाक्ताओं को निर्देश हुए हैं कि वे इस प्रकरण पर चुप रहेंगे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि पुस्तक विमोचन के समय लेखक पार्टी में था। लेकिन कोई नेता विमोचन में उपस्थित नहीं था। पार्टी के लिए यह अच्छा मौक़ा था कि कोई भी प्रतिनिधि उपस्थित होकर पार्टी की स्थिति स्पष्ट कर सकता था। जसवंत सिह को मजबूरन गैरपार्टी लोगों को मंच पर बैठाना पड़ा भले ही प्रगतिशीलता के शीर्ष पुरूष हों। लेकिन उनको उनके समुदाय ने शायद इसलिए आपत्ति मुक्त कर दिया हो कि लेखक और आलोचक के बीच सजातियता होती है।
समाज को ख़ासतौर से पढ़े लिखे जागरूक समुदायों को समानता का व्यवहार सीखना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। यह बात राजनीति पर ही लागू नहीं होती। बौद्धिक क्षेत्रों में भी लागू होनी चाहिए। जसवंत सिहं को तो स्पष्टीकरण का अवसर भी नहीं दिया गया। अडवानी साहब तो पूछे जाने से ऊपर हैं ही। अंत में कहना चाहूंगा समाज संवेदनशील अवयवों से बना है एक भी अटपटा काम समाज में तरंगे पैदा करने के लिए काफ़ी है। चाहे राजनीति हो या साहित्य। राजनीति खुला खेल है उसकी प्रतिक्रिया समाज में तत्काल होती है। साहित्य शब्दों से घिरी दुनिया, जो धीरे धीरे खुलती है। खरोंचे वहां भी पड़ती हैं। एक समाचार पत्र में कवियों की तस्वीरों का कोलाज छपा था। एक छात्र ने मुझसे पूछा अंकल सुमित्रानंदन पंत की छोटी सी तस्वीर एक कोने में क्यों छपी है। पहले तो ये बहुत बड़े कवि माने जाते थे। मेरे पास इसका जवाब कुछ नहीं था। यह सब अनायास भी होता है पर किसी प्रगतिशील शीर्ष पुरुष का हिंदूवादी मंच पर जाकर बैठना भी क्या अनायास हो सकता है? इसका भी मेरे पास कोई उत्तर नहीं। वहां भी लोग चुप हैं।

Saturday, 25 July 2009

सामान्य आदमी और ज़मीदोज़ कलाकृतियां

7 जून 09 के हिंदू में ‘A grocer with an eye for antiques, archaeological sites’ पढ़ा तो मुझे राहुल जी के साथ हुई एक घटना याद आई। वे इलाहाबाद आए हुए थे। सवेरे महात्मा गांधी रोड़ पर टहलने जा रहे थे। साथ में स्व. व्यास जी और कोई और एक सज्जन थे। व्यासजी स्वयं एन्टीक्स का ज्ञान रखते थे और इलाहाबाद संग्राहालय के शायद पहले डायरेक्टर थे। राहुल जी एकाएक सी पी एम कालिज के सामने लगे पीपल के एक पेड़ के सामने रुक गए। कुछ देर खड़े उसकी जड़ों की तरफ़ टकटकी लगाकर देखते रहे। व्यास जी ने पूछा ‘क्या देख रहे हैं राहुल जी’। वे बोले अभी बताता हूं। दूसरे आदमी से कहा आप ज़रा दो तीन रिक्शा वालों को बुला लें। किसी के पास बेलचा हो तो लेता आए। नहीं तो हाथों से ही काम चलाएंगे। तीन चार आदमी आ गए बेलचा भी आ गया। उन्होंने स्वयं बेलचे से धीरे धीरे मिट्टी हटाई। एक मूर्ति दिखाई पड़ी। थोड़ी मिट्टी और हटाई। फिर जिन आदमियों को बुलाया था उनसे कहा इसे धीरे धीरे हिलाकर निकालना शुरू करो। झटका न लगे। लगभग घंटे भर की मशक्कत के बाद लगभग डेढ़ दो फ़िट की किसी देवी की प्राचीन मुर्ति बाहर निकल आई। वहीं उसे धुलवाई। राहूल जी इस बीच चुप रहे। व्यास जी कह रहे थे कि शायद इसे मूर्तिचोर दबा गए। राहुल जी ने कहा ‘जब ज़मीन के अंदर से दबाव बनना शुरू होता है तो मिट्टी फूलने लगती है। धरती के अंदर दबी वस्तु ऊपर आने लगती है। यह मूर्ति दसवीं शताब्दी की मालूम पड़ती है।‘ बाद में उन्होंने व्यास जी के ज़रिए म्यूज़ियम में भिजवा दी।
‘ग्रोशर्स आई’ पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना का ध्यान आ गया। राजस्थान के ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की बूंदी में पड़चूनिए की दुकान करते हैं। हड़ौती क्षेत्र में दबी कलाकृतियों को उन्होंने निकाला है। हालांकि वे आठवी क्लास तक पढ़े हैं लेकिन उनकी नज़र कलाकृतियों को उसी तरह पहचानते हैं जैसे राहुल जी की नज़र ने ज़मीन में दबी मूर्ति को पहचान लिया था। कुक्की ने हड़ौती की मिट्टी में दबी संस्कृति को उन कलाकृतियों के रूप में एक तरह से ईजाद किया है। सारी ज़िंदगी इसी काम में लगा दी। किसी लालच में नहीं बल्कि कलाकृति और प्राचीन संस्कृति के प्यार में । अगर कुक्की चाहते तो वे भी अनेक स्मग्लरों की तरह अपने परिवार को एक सम्मानजनक जीवन दे सकते थे। विंध्याचल पर्वत श्रेणी में नमना स्थान में उन्होंने हरप्पापूर्व संस्कृति की तांबे और पत्थर की कलाकृतियों का भंडार खोजा है। प्राचीन राक पेंटिंग्स उनके संग्रह में हैं।
ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की मानते हैं कि मैं जानता था कि कि बूंदी प्राचीन सभ्यता की कलाकृतियों से भरा पड़ा है। मेरा मानना है कि गराडा नदी के किनारे 35 किलो मीटर लंबी पट्टी में सैंकड़ों चट्टानी गुफाएं है। इतनी लंबी आरकियोलाजिकल कलाकृतियां की पट्टी शायद ही दुनिया में कहीं हो। उनके पास 400 बी सी का सबसे पुराना सिक्का है। हालांकि वह समान्य पढ़ा लिखा है लेकिन उसने सब आर्कीयोलियोजिकल उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया है, जहां जहां इस क्षेत्र में दुनिया में काम हुआ है, उसका इल्म है। उस व्यक्ति को इस बात का दुख है उसका काम दुनिया में किसी से कम नहीं। पश्चिम देशों में इस क्षेत्र में काम करने वाले तत्काल प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं। मैं दो दशक से अपने परिश्रम की स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
राहुल जी ने भी शिक्षा की दृष्टि से बड़ी बड़ी डिग्रियां प्राप्त नहीं थे। लेकिन उन्होंने गुना था। उसी ने उन्हें अनेक विषयों का उद्भट विद्वान बनाया। कुक्की में समर्पण है। अपने काम के प्रति लगाव है। इस तरह के बहुत से लोग मुफ्फ़सिल जगहों मे अभी भी मिल जाएंगे जिनके पास प्राचीन कलाकृतियां हैं लेकिन वे सरकार और पुलिस के डर के मारे निकालने में डरते हैं। दरअसल लोगों की नियमों के प्रति अनभिज्ञता भी इसका कारण है। बहुत से लोगों को वे लोकेशन्स मालूम हैं जहां प्राचीन कलाकृतियां दबी पड़ी हैं। वे दो कारणों से नहीं बताते 1. स्थानीयता का मोह, 2. पुलिस का भय। कुछ साल पहले कानपुर में नीव खुदाई के समय ज़मीन से काफ़ी सोने के सिक्के निकले थे वहां लूट मच गई थी। बाद में पुलिस ने बरामदी भी की, पर सब नहीं कर पाई। प्रसिद्ध कवि स्व. डा. जगदीश गुप्त हरदोई के शायद बिलग्राम के पास किसी गांव के रहने वाले थे। उनको तांबे के बने हथियार टेराकेटाज़ भांडे आदि प्राचीन कलाकृतियों का ज़खीरा मिल गया था। उस ज़माने में विभिन्न संग्राहलयों में महीने में एक बार बाज़ार लगता था। उसमें कलक्टर्स अपनी अपनी कलाकृतियों के साथ एकत्रित होते थे संग्राहालय उन कलाकृतियों को अच्छे दामों पर खरीदते थे। जगदीश जी ने नागवासुकी पर पहला मकान बनवाया तब बताया था धरती का पैसा धरती मे लगा दिया। लेकिन शायद बूंदी के इस अमच्योर आरक्योलिजिस्ट को इस बात का इंतज़ार है कि उसके काम को अंतर्राष्ट्रीय एकेडेमिक दुनिया में स्वीकृति मिले। कम से कम भारत सरकार तो उसके काम का संज्ञान ले। अफ़सरान कलाविद् बनकर देश विदेश का दौरे करते हैं और उस अल्प ज्ञान के आधार पर विशिष्टता प्राप्त करते हैं।
हमारा देश प्राचीन देश है। अनेक संस्कृतियां पली बढ़ी हैं। उनका इतिहास सदियों में फैला हुआ है। हर संस्कृति के साथ कला, संस्कृति और भाषा का विकास जुड़ा होता है। क्योंकि उसका रिकार्ड सुरक्षित नहीं रखा गया इसलिए सब काम अंदाज़ और प्रयोगशालाओं से चलता है। बीच बीच में अनेक दैवी संकट आए गए उसका नतीजा हुआ कि वे सब कला व संस्कृति के प्रतीक या चिन्ह पृथ्वी ने अपने गर्भ मे सुरक्षित कर लिए। पृथ्वी आसानी से नहीं देती। उसके लिए पहचान, ज्ञान और साधना ज़रूरी है। कुक्की में ज़रूर ये बाते हैं। लेकिन सामान्य आदमी इन गुणों से संपन्न नहीं होता। वह इस तरह की घटनाओं को इतिहास से जोड़कर नहीं देखता। शायद उसे पता भी न हो कि इतिहास क्या है और उसका महत्व क्या है। ज़मीन से निकली मूर्तियां धर्म के खाते में चल जाती हैं। वस्तुएं बाज़ार के घाट उतर जाती हैं। सिक्के आदि लूट में शामिल होकर भट्टी की भेट चढ़ जाते हैं। इसके लिए किसी को दोष देना उचित नहीं। यह हमारी अल्पज्ञता है। कानपुर में जो सोने के सिक्कों की लूट मची थी उनमें जो बरामद नहीं हुए वे बिक गए होंगे और हो सकता है गला दिए गए हों। ऐसा करने वालों को यह पता नहीं कि उन्होंने देश का कितना नुकसान कर दिया। मुझे स्मरण है कि कई वर्ष पूर्व एक आई ए एस अफसर पर चार्ज लगा था कि कुछ प्रचीन मूर्तियां अपनी कार में रखवाकर रफ़ुचक्कर हो गए थे। मेरे कहने का मतलब है कि पढ़े लिखे और जानकार लोग भी इस लालच से अपने को बचा नहीं पाते। एन्टीक्स एकत्रित करना फ़ैशान भी है सम्मान सूचक भी है। लेकिन यह भी ज़रूरी है कि इस बात का ध्यान रखें कि अपने इस शौक से हम देश के इतिहास को तो नुकसान नहीं पहुंच रहे हैं। पृथ्वी हमारे बहुत से ऐसे रहस्यों को बचाए और छिपाए हुए है जो हमारे बारे में अनेक ऐसी सूचनाएं दे सकती है जिसे जानकर हम अपना और बीते समय का मूल्यांकन कर सकते हैं और अपने जड़ों का पता लगा सकते हैं। अनेक ऐसे टीले और ढूह पड़े हैं, पहाड़ों में गुफाएं हैं जो हमें हमारी जडों का पता ही नहीं बतातीं बल्कि हमारा सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास भी बताती हैं। आज जनजातियां हाशिए पर हैं। उनके अधिकारों पर आधुनिकता ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया है अमेरिका में रेड इंडिन्स के साथ भी ऐसा ही हुआ और आज तीसरी दुनिया के देश भी इस बीमारी के शिकार हैं। ये गुफाएं जहां भित्ति चित्र हज़ारों साल पहले उकेरे गए थे आज हमारे कला वैशिष्ठ्य के प्रमाण बन कर सामने आते हैं। हम उनकी कला पारंगतता के श्रेय लेने से नहीं चूकते। यह सवाल हमेशा परेशान करता है हम उनके जंगल, उनकी गुफाएं सब लिए ले रहे हैं उन्हें दे क्या रहे हैं। जब तक कला मानकों पर मनु्ष्य को तोलना नहीं सीखेंगे सभ्य होने पर गर्व नहीं कर सकते। प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की के बारे में पढ़कर मुझे लगा कि तथाकथित सभ्य कहलाने वाला समाज कुक्की जैसे कलाविदों को सम्मान नहीं देता तो जनजातियों के उन कला साधकों को क्या सम्मान देंगे जो इतनी समृद्ध कला परंपरा बिना नाम गाम के छोड़ गए।

Saturday, 27 June 2009

मुख्यमंत्री जी बधाई, घनश्याम मारा गया

घनश्याम केवट डाकू था, अच्छा हुआ मारा गया। जिस तरह वह मारा गया उससे तो लगता है कि वह किसी को भी मार सकता था। कितना बहादुर है आपकी पुलिस उस अकेले पर 51 घंटों के बाद 500 जवान भारी पड़े। ऐसे में उसे क्या हक़ था जीने का। अगर वह जीता रहता तो वह उत्तर प्रदेश की दो लाख जवानों की सबसे बड़ी वाहिनी की बेइज़्ज़ती का कारण बनता। आपकी भी। मै तो सवेरे से मना रहा था कि चाहे जो हो आपके डी जी पी साहब का बड़बोलेपन पर आंच न आए। आप भी उस आंच की झांव से न बचतीं। 51 घंटे आपके शेर उससे जूझते रहे। वह बेशर्म नंग अकेला उनके कपड़े उतारने पर लगा रहा। ऐसा लगता था कि वह अपनी रिश्तेदारी में छकड़ों में गोलबारूद भर कर लाया था। इसिलए डी जी पी साहब कह रहे थे कि हमारे पास गोली बारूद की कमी नहीं है और न मैन पावर की। पावर में तो डी जी पी साहब, वही 21 पड़ रहा था। उस अकेले की पावर और आप सबकी पावर। बुरा मत मानिए ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होता है। यह बहादुरी नहीं बेशर्मी है। 500 जवान गोलियां दाग रहे हैं आपको यही पता नहीं कि वह कहां बैठा है। बीच वीच में ऐसे चुप हो जाता था जैसे टैं बोल गया। जब मरने की तसदीक करने आई जी, डी आई जी या अन्य कोई आगे बढ़ा पता नहीं कहां से जी उठा और टिका दी गोली। यह तो तमीज़ से गिरी हुई बात हुई ना। एक आई जी ज़ख्मी, एक डी आई जी मरते मरते बचे। चार जवान तो मारे ही गए। आपके ए डी जी भी गोली खाते खाते बचे। वे तो चढ़ ही गए थे खपरैल पर, वह तो किस्मत ने बचा लिया। उस के खरोच भी नहीं आई।
पूर्व डी जी पी प्रकाश सिंह कह रहे थे मुठभेड़ तो पांच पांच दिन तक चल सकती है। आश्चर्य तो इस बात का है वह अकेला आदमी और दूसरी तरफ़ आदमी दर आदमी। एक से एक ज़हीन और प्रशिक्षित अफ़सर, वह अकेला। यह कहना कि पुलिस के पास मौरटर वगैरह आधुनिक हथियार नहीं थे कोई मायने नहीं रखता एक आदमी एक हथियार के सामने इतने हथियार नाकाफ़ी कैसे हो सकते हैं। मुख्यमंत्री जी, उसने दस हज़ार गोली या एक लाख गोलियां चलाई होंगी आपके पांच सौ अफ़सरों और जवानों ने लाखों लाख गोलियां झोंक दी होंगी, मानो किसी राजे महाराजा के यहां हर्ष फ़ायरिंग हो रहा हो। न हमारे पास मुख़बिर की सूचना और न हमारी सी आई डी किसी काम की। बिना टारगेट के फ़ायरिंग का मतलब अलल टप्प निशाना लगाना। आपकी सेना की तीन सर्किल्स में तैनाती थी। सब व्यर्थ जबकि वह बिना सोए खाए लगातार मोर्चा ले रहा था। आपकी फोर्स खाना भी खा रही थी, सिलसिलेवार आराम भी फरमा रही थी। जब घनश्याम भागा बकौल अखबारों के पी ए सी के कुछ लोग लेटे बैठे थे कुछ खाने में मुबतिला थे। 51 घंटे लगातार डटे रहने के बाद उसे वही मौक़ा मिला उसने भरपूर फ़ायदा उठाया। साहरा के फ़ोटोग्रफरों ने देख लिया लेकिन हमारे जवानों और अफसरों की आंख नहीं देख पाई। यह कैसी विडंबना है। दो किलो मीटर तक उस हालत में भी दौड़ता चला गया। आख़री सांस तक उसने लोहा लिया। वैसे तो लोहे से ही लोहा लिया जाता है। अगर नाले में न छुपता तो शायद ए डी जी ब्रजलाल जी अपनी पीठ थपथपाने के मौक़े से महरूम रह जाते।
मैं कई बार सोचता हूं कि कि चीन के साथ हुई लड़ाई में जनरल कौल चीन के आक्रमण की बात सुनकर सोते सोते अपने उन्हीं कपड़ों में भाग खड़े हुए थे जो पहने थे। सेना क्या करती, जनरल ही नहीं तो हुक्म कौन दे। कहते हैं बहादुरशाह को जब अंग्रज़ो ने गिरफ़तार किया तो उन्हें आधा घंटा मिला जिसमें चाहते तो भाग सकते थे। जब उनसे पूछा गया कि आपको आधा घंटा मिला था आप भाग सकते थे। उन्होंने कहा वहां जूते पहनाने वाला कोई नहीं था। हो सकता है यह बनाया हुआ चुटकुला हो। लेकिन परंपरा की बात है। यह डाकू तो पुलिस को 51 घंटे हलकान करने के बाद देश के सुरक्षा के ठेकेदारों की आंखों के सामने खुले किवाड़ों भागा था। जिस तरह व कूदकर भाग रहा था कोई भी दक्ष शूटर उसे मार सकता था। ताज्जुब है कि इतनी बड़ी फ़ोर्स में से किसी की नज़र भी उस पर नहीं पड़ी और पड़ी तो निशाना चूक गया। बल्कि भागने की ख़बर सुनते ही रिलेक्स पी ए सी के जवानों ने पहले पोजीशन ली फिर बंदूकें दीवार से टिका कर रख दी। कहीं यह तो नहीं सोचा भाग गया, जान बची सो लाखों पाए।
मुझे एक सवाल बराबर परेशान कर रहा है यह ठीक है कि वह दुर्दांत डाकू था उसे मार कर पुलिस ने ठीक किया। लेकिन क्या वह कायर था? यह सवाल क्या आप अपने आप से पूछेंगी? सारा गांव ख़ाली करा लिया गया था। उसकी मदद के लिए वहां कोई नहीं थे सिवाय उसकी अपनी गन के। गोली बारूद भी असीमित नहीं था। वह पुलिस वालों की तरह ज़रेबख्तर भी नहीं पहने था। गोलियों को अपव्यय करने की स्थिति में तो क़तई नहीं था। वह पुलिस के 500 जवानों से तरकीब और किफ़ायत से लड़ा। लेकिन उसने यह पता नहीं चलने दिया कि वह अकेला है और और एक गन और सीमित कारतूस के साथ इतनी बड़ी संख्या में आई गारद से लड़ रहा है। उसने अपनी रणनीति सोच समझ कर बनाई। हर एक गोली का उसके हिसाब से सदुपयोग हो। वह उनके दबाव में न आए उल्टे उन्हें अपने दबाव में ले ले। एक आदमी के लिए इतने बड़े अमले को दबाव में लेना असंभव काम था। 51 घंटे तक उसकी रणनीति पूरी तरह कारगर रही। मुझे नहीं लगता कि इन बड़े बड़े प्रशिक्षित अफ़सरों की कोई रणनीति थी। वे तो यह सोचकर फ़ायरिंग कर कर रहे थे किसी न किसी गोली पर तो उसका नाम लिखा होगा। 51 घंटे जो गालियां दागीं उनमें से किसी पर उसका नाम नहीं मिला। बल्कि उनके चार जवानों का नाम उसकी गोलियों पर जा खुदा। 11 घायल हुए। एक साहब कह रहे थे गोली चलाता था और छुप जाता था। जब कोई यह समझकर बढ़ता था वह मारा गया वह तपाक से गोली टिका देता था। मेरे सामने एक दूसरा सवाल है क्या ऐसे हिम्मती और रणनीतिकार को मारना ठीक हुआ या पकड़ना ठीक होता? इस सवाल का जवाब पुलिस वालों के पास एक ही था मार गिराना। जब वह भाग निकला तो ए डी जी से लेकर सिपही तक सबके हाथ पांव फूल गए। क्योंकि उनका उद्देश्य तो एनकाउंटर था। वह इस बात को समझ रहा था। हो सकता था वह समर्पण कर देता। लेकिन वह जान की लड़ाई लड़ रहा था। हो सकता है उसने ज़िंदगी में एक आध लोगों को बख्श भी दिया हो पर पुलिस किसी को नहीं बख्शती। जब तक उसका हित न हो। दूसरा पक्ष भी था एक नज़र उसके बेमिसाल साहस के बारे में सोचना। रणनीति प्रवरता पर ध्यान देना। उसके डकैत होने से ऊपर उठकर उसके हिम्मती होने और रणनीतिकार होने का देश और समाज के हित में लाभ उठाने की संभावना के बारे में सोचना। वहां केवल सिपाही नहीं ए डी जी रैंक के अफ़सर उस आपरेशन का सचालन कर रहे थे। वे उच्च अधिकारियों यहां तक मुखुयमंत्री तक को समझा सकते थे कि वे उससे यह कहने क अनुमति दें कि वे उससे बात करना चाहते हैं मारना नहीं चाहते। बेगुनाह से बेगुनाह आदमी पुलिस की छवि में यही देखता है कि वे आए हैं तो कुछ न कुछ करने आए हैं। अगर पुलिस दूसरे पैराए पर भी सोचना शुरू कर दे। हो सकता है मुनाहगार भी उनकी कही बात पर सोचने लगें। सिपाही दरोगा की बात पर विश्वास करे न करे लेकिन वरिष्ठतम अधिकारी और मंत्री तक विश्वसनीय नहीं रह गए। जयप्रकाश नारायण की बात पर वे लोग विश्वास कर सकते है जिनके पास न क्षमा करने का अधिकार था, न दंड देना का। जिनके पास ये सब अधिकार हैं उनकी बात तो विश्वनीय होनी चाहिए। लेकिन नहीं है। अधिकार का सकारात्मक उपयोग न हमने सीखा और न सिखाया गया। घनश्याम एक भटका हुआ बहादुर था जिसने प्रतिशोध और सताने के जवाब में मौत देना सीखा थे। अगर उसे गिरफ़्तार करके सुधारने का प्रयत्न किया जाता तो उसकी क्षमताओं का सदुपयोग क्या संभव नहीं था? वी शांता राम की दो आंखें बारह हाथ फिल्म देखकर संपूर्णानन्द जी ने सुधार गृह नाम से खुली जेलें बनाई थीं। गुरमा मिर्ज़ापुर की जेल देखने का मौक़ा मिला है। वहां कैदी खुले रहते थे। उन्हें काम करना, उनकी ग़लतियों को सुधारना, नमाज़, कीर्तन आदि सिखाया जाता था। लेकिन अब राजनीति से किसी को फुर्सत नहीं। गांधी जी को नाटक करने वाला कहकर अपनी भड़ास निकालने वाले इन सब बातों के बारे में शायद जानते भी न हों कि कै़दियों के संदर्भ में इतना महत्त्वपूर्ण प्रयोग गांधी जी का अनुसरण करके हो चुका है। दरअसल डाकुओं को मारना या बिना सुनवाई के गरीब और बेसहारा अंडरट्रायल्स का जेलों में जीवन काट देना जनतंत्र के लिए लज्जाजनक है। गांधी में बुराई खोजकर और अपनी ख़ूबियों का ढिंढोरा पीटकर आप कहीं नहीं पहुंच सकते। यह मनोविज्ञानिक वास्तविकता है कि जब आप अपनी तारीफ़ करते हैं लोगों की नज़र तत्काल आपकी कमज़रियों पर जाता है। ख़ैर, जब समाज और सरकार के स्तर पर जरायमपेशा लोगों के पुनर्वास की योजना नहीं बनायी जाएगी और उसके पीछे ईमानदारी होगी तब तक पुलिस और तथाकथित दबंग उनकी हत्याओं को ही सबसे आसान तरीक़ा मानकर हत्यओं में संलग्न रहेंगे। अगर कापुरूषों की सेना में ऐसे हिम्मती लोगों का मन परिवर्तन करके, भर्ती किया जा सकेगा तो उनके टेलेंट का सही इस्तेमाल हो सकेगा। वैसे भी एक आदमी पर भले ही वह डकैत हो 500 शस्त्र लोगों द्वारा आक्रमण मानवाअधिकार का सवाल उठाता है। इन सवालों पर हुकूमत के नज़रिए से न ोचकर अब मानवीय दृष्टिकोण से सोचना शुरू करना ज़ररी है।

Monday, 22 June 2009

कहां आ रहे हैं हिंदी-चानी

जून 09 के सभी समाचर पत्रों में एक ख़बर छपी है ‘सावधान, आ रहे हैं हिंदी-चीनी’। हिंदी चीनी जब साथ छपा देखता हूं तो मैं चौंक जाता हूं । चाऊ एन लाइ और नेहरू ने हिंदी चीनी भाई भाई का नारा लगाया था उसका नतीजा जो हुआ उसने सबसे पहले नेहरू की ही बलि ली। ईश्वर के लिए दोनों को साथ साथ न रखो। कुछ पता नहीं कब क्या हो जाए। अभी तक तो यही देखने में आया कि चीनी हिंदी न साथ रहे, न आए, न गए। भारत एक दिशा चलता है चीन दूसरी दिशा। चीन और चीन के गुर्गे भारत पर मौक़ा मिलते ही झपटते हैं और हर काम के लिए उसे दोषी करार दे देते हैं। यह तो हिंदुस्तान की सहनशीलता है कि हर हाल ख़ुशी हर हाल अमीरी है बाबा, जब आशिक मस्त फ़कीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा। जब पोरस हारा तो उसने न अपना आपा खोया और न दूसरों को खोने दिया। लेकिन यह समाचार बिल्कुल भिन्न था। दरअसल अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा साहब ने अपने देश के लोगों को आगाह करने के लिए विंस्कानसन में हुई एक बैठक में यह कहा थी। अपने देश के बच्चों की शिक्षा को लेकर वे चिंतित हैं। उनका मानना है कि हिंदी चीनी अधिक मेहनती और मेधावी हैं। अमेरिका के बच्चे फिसड्डी होते जा रहे हैं। इस तरह की चिंता व्यक्त करने वाले वे पहले राष्ट्रपति हैं। उनकी यह चेतावनी कि अब कमर कसकर सावधान होने की ज़रूरत है क्योंकि हिंदी और चीनी अमेरिका आ रहे हैं। अमेरिकन बच्चों को डराने के लिए कि हव्वा आ रहा है। यह ओबामा के मन का डर है। मेरे विचार से ओबामा ने शपथ लेने के दो तीन महीने में अपने देश की शिक्षा का जायज़ा ले लिया और अपने देश को आगाह कर दिया कि देश की शिक्षा पद्धति में सुधार लाने की ज़रूरत है। इस तरह की चिंता हमारे देश के किसी नेता ने कभी व्यक्त नहीं की। जिस देश में शिक्षा शिक्षाविदों की जगह दोयम दर्जे के नौकरशाह चलाएं वहां कौन कह सकता है कि नेता शिक्षा के प्रति चिंतित हैं। हमारे नेता गाहे बगाहे ज़िक्र कर दिया करते हैं। अमेरिका आज भी सबसे शक्तिशाली और अमीर देश है। उसके बावजूद ओबामा चिंतित है कि अमेरिका 100 वर्ष तक समृद्धिशाली और शक्तिशाली देश रहा अगर छात्र वीडियो गेम और टी वी में समय बिताएंगे तो हिंदी चीनी आ धमकेंगे। हिंदी चीनी बच्चे वीडियो गेम्स कम खेलते हैं और टी वी भी कम देखते हैं वे मेधावी और परिश्रमी भी हैं। अमेरिका पी एच डी़ ग्रेजुएट्स, इंजिनियर्स, वैज्ञानिक सबसे अधिक पैदा करता था अब उसमें गिरावट आई है। जब शिक्षा की बात आती है तो वह दूसरे देशों से ऊपर नहीं है। दुनिया के देश प्रतिस्पर्धाधर्मी होते जा रहे हैं हमें भी अपनी गति बढ़ानी होगी। संदेश के साथ साथ यह चुनौती भी है।
हिंदुस्तान में चीन और अमेरिका से अधिक विश्विद्यालय हैं। इसके बावजूद बेरोज़गारी का प्रतिशत भारत में इन दोनों से अधिक है। नए विश्विवद्यालय और आई आई टी खुल गए हैं या खुलने की प्रक्रिया में हैं। प्राइवेट मेडिकल कालिज, बिज़नेस मैनेजमेंट संस्थान भी खुल रहे हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे संस्थान हैं जिनका उद्देश्य शिक्षा हो। अधिकतर प्राइवेट संस्थाएं उन्हें आमदनी का ज़रिया बनाए हुए हैं। 14 जून के अखबारों में निकला था कि कानपुर विश्विद्यालय के स्वपोषित बी एड कालिजों ने एक अरब सत्तर लाख रुपया निर्धारित फ़ीस के अलावा इकट्ठा किया। यह कैसी विडंबना है। स्वपोषित इंजिनियरिंग बिजनेस-मैनेजमेंट कालिज तो लाखों में केपिटेशन फीस वसूल करते हैं। अभी उत्तर प्रदेश में 18 हज़ार सिपाहियों की भरती हुई थी। सरकार बदलते ही उन नियुक्तियों को निरस्त कर दिया गया। लोग एक से तीन लाख रुपया देकर भर्ती हुए थे। उसके लिए लोगों ने घर ज़मीन ज़ेवर बेचकर रिश्वत देने के लिए धन जमा किया था। ज्वायन कराने के बाद नई सरकार ने उनको बर्खास्त कर दिया। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्टे के आदेश ने उन्हें बहाल कर दिया। इस बीच 100 से अधिक लोगो ने इस सदमे के कारण आत्महत्याऐं कर लीं कि सब कुछ बिक गया अब गुज़ारा कैसे होगा। सरकारों में लगता है मनुष्य नहीं रहते केवल कुर्सियां होती हैं। कुर्सियों में संवेदना नहीं होती। सवाल है कि ओबामा साहब को ऐसा लगना कि हिंदी या चीनी आ रहे हैं अपने देश में बढ़ती बेरोज़गारी की दृष्टि से भले ही ठीक है पर भारत के नज़रिए से चिंताजनक है। वे लोग जो यहां से वहां जा रहे हैं उनको संस्थाएं उनकी ज़रूरत के हिसाब से तैयार करती हैं। इस देश की ज़रूरत के हिसाब से उन्हें न तैयार किया जाता है और न वे उन्हें जानते समझते हैं। जिन प्रोबलम्स से वे जूझते हैं अधिकतर बाहरी देशों की होती हैं जो प्रोजेक्ट के रूप में वहां से आती हैं। इसलिए वे खपते भी वहीं हैं। वे मारे जाएं या पीटे जाएं रहंगे वहीं। इसका कारण मां बाप भी हैं वे होश संभालते नहीं उन्हें ठूस ठूस कर यह समझाना शुरू कर दिया जाता है कि उन्हें मैनेमेंट या इंजिनियरिंग या दूसरे विषय जिनकी वहां मांग है पढ़कर अमेरिका या जर्मनी आदि देशों में जाना है। इसलिए नहीं कि इससे देश का गौरव बढ़ेगा बल्कि इसलिए कि डालर मिलेंगे। उसके लिए बच्चों को बचपन से तैयार किया जाता है। मातृभाषा से विमुख करके पब्लिक स्कूलों में पढ़ाना, उनकी साहित्य संस्कृति और संवेदना की रीढ़ तोड़ना सबसे पहला काम होता है। मैकोले का यही गुरूमंत्र था। मां बाप यह तक जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके बच्चे स्कूलों में क्या सीख रहे हैं। वे केवल टेस्ट कापियों में दिए गए नंबर देखकर उनकी गिटपिट सुनकर आश्वस्त हो जाते हैं कि बच्चा उनकी मनचाही दिशा में जा रहा है। उन्हें तब पता चलता है जब बच्चों का मानवीय संवेदना कोश ख़ाली हो चुका होता है। जब वे उनके सुख दुख पैसे से तोलने लगते हैं। दरअसल, ओबामा साहब हम टैक्नीकलाजी में प्रशिक्षित गुलाम बेचते हैं। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं कि वे कितनी अवधि के बाद अपने वतन लौट आएंगे। लौटेंगे भी या नहीं। या तभी लौटेंगे जब निकाले जाएंगे। वे ग्रीन कार्ड ले लें या नागरिकता ले लें मुझे नहीं मालूम कि उनके पितृ देश से पूछा भी जाता है या नहीं। न इस तरह के अनुबंध का कोई प्रावधान ही है कि अगर उनके यहां कोई हादसा हो जाए तो उसका कोई मुआवज़ा मूल देश या घरवालों को देंगे। देंगे तो किस हिसाब से। आस्ट्रेलिया में भारतीयों के साथ जो नृशंस व्यवहार हो रहा है, मां बाप की बुढ़ापे की लकड़ी तोड़ी जा रही है उसकी चिंता न वहां की सरकार को है और न हमारी सरकार को। हुज़ूर, आपके महान देश में भारतीय छात्रों की कैंपसों में हत्याएं हुई हैं। किसने क्या किया। ओबामा साहब इससे सस्ता सौदा और क्या होगा? दरअसल अंतर्राष्ट्रीय कानून या परंपराएं योरोपिय और पश्चिमी देशों की जरूरतों के नज़रिए से बनाए गए हैं। अब जब मंदी के फेर में विकसित दुनिया पड़ी तो आपको इसका गणित समझ में आया कि अगर हमारे देश का युवा वर्ग चीनी और हिंदी जैसा मेधावी और मेहनती होता तो इतना धन बाहर न जाता। आप तो बेहतर समझते हैं गरीब का बच्चा चाहे देश हो विदेश, आसायश में वक्त बरबाद नहीं करता अपनी हालत सुधारने के लिए पहले हाथ पैर मारता है। आपने तो स्वयं सहा है। अमीर और साधन संपन्न मग़रूर भी हो जाता है और अपने शौकों की परवरिश बच्चे की तरह करता है। हमारे देश के अधिकतर मेधावी बच्चे उसी गरीब वर्ग के होते हैं। लेकिन उनको संवेदनाहीन बना के दूसरे देशों में भेजा जाता है। इसे आप संवेदना का वन्ध्याकरण भी कह सकते हैं। जिससे वे आपके लिए समस्या न बने। इतना उत्साह भर दिया जाता है कि देशज दुख सुख उन्हें सालते नहीं।
आपका यह कथन भले ही हमें अपने बच्चों की फिलहाल प्रशंसा महसूस हो। हम कुछ समय हर्षित भी हो लें पर वह आपके बच्चों को ईर्ष्या से भरने के लिए काफ़ी हैं। नतीजा वही होगा जो आस्ट्रेलिया में हो रहा है। उन्हें बचाने के लिए बहुत कुछ कहा और किया जाएगा पर अंततः यही होगा उनका न शहीदों में नाम रहेगा न देश भक्तों में। जो लौटेंगे वे सपनों का मलबा लादे। आपका यह भाषण हमारे पक्ष में न होकर विरुद्ध है। ईर्ष्या ऐसी आग है जो नज़र नहीं आती पर धीरे धीरे आधार को ख़ाक कर देती है।

Monday, 15 June 2009

साहित्य, संवेदना भाषा परंपरा

साहित्य यानी भाषाई साहित्य हमारी पहचान है। लेकिन माना जाता है कि जो साहित्य अंग्रज़ी में लिखा जा रहा है वह देश की पहचान है। ज़िंदगी से हम जूझते हैं उसके साथ दो दो दो हाथ हम भाषाई लोग करते हैं, भूख और तिरस्कार हम ओटते हैं। लेकिन वे लोग जो अपनी भाषा की जगह बाहरी भाषा में उसका रूपांतरण कर देते हैं, और जिसको विदेशी भाषा भाषी स्वाद बदलने के लिए या अपनी ज्ञान वृद्धि के लिए सोर्स सामग्री मानकर, अपना गवेषणा का आधार उस आयातित ज्ञान मंजुषा को सजा कर ख़ुश होते हैं, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं। मैं इस बात के खिलाफ़ नहीं कि हमारा अनुभव बाहर न जाए। ज़रूर जाए पर उसकी दो शर्तें होनी चाहिएं एक तो ज़मीनी अनुभव यानी लेखक जिसे ज़मीन से जु़ड़कर अर्जित करता है और उसे अपने अनुभव की भाषा में अभिव्यक्त करता है उस प्रक्रिया के साथ संलग्नता। दूसरी जातिय पहचान। अनुभव की भाषा ही अनुभवों को बिंब और जीवंतता देती है। मैं य़ह नहीं कहता कि अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं में संवेदनात्मक बिंब और जीवन के जीवंत चित्र संभव नहीं होते। ख़ूब होते हैं। शेक्सपियर मे मिलने वाली भाषाई चित्रात्मकता कालीदास से सर्वथा भिन्न है। चाहे प्रकृति हो या मानव मन की स्थितियां हों। कोई भी बड़े से बड़ा विदेशी कलाकार या लेखक मेघों को विरहिणी प्रेमिका का दूत बनाकर पर्वत पर्वत, जंगल जंगल, मौसम मौसम प्रीयतम के पास संदेश लेकर भेजने की कल्पना नहीं कर सकता। अगर करेगा तो परिवेश के साथ उसकी अंतरंगता कालीदास जितनी गहरी शायद न हो। इसी तरह शेक्सपियर की तरह ‘कमज़ोरी का नाम ही औरत है’ कहने में भारतीय लेखक को बहुत कसरत करनी पड़ेगी। दुर्गा काली सरस्वती सब सामने आ खड़ी होंगी। वातावरण और प्रकृति, संवेदना और भाषाई अभिव्यक्ति का अंतरंग स्त्रोत होती है। हम अपनी मातृ भाषा में ही जीते हैं। वही हमारे अनुभव और अभिव्यक्ति की कमलनाल है।
सवाल उठता है कि इस कमलनाल को हम दूसरी भाषाओं में कैसे प्रत्यारोपित करते हैं। क्या क़लम बांधते हैं? क़लम परिवर्धन नहीं करती। वह अपने स्टेम पर ही अपने रंग का प्रस्फुटन करती है। इसीलिए कलम के नीचे फूटने वाली देसी कल्लों को तोड़ते रहते हैं। वैसे कलम बांधकर उसे सुरक्षित रखना भी एक कला है। दूसरा विकल्प है विदेशी संस्कार या सभ्यता के लिए हम अपने साहित्य को पनीर की तरह उपयोग में लाते हैं। यानी जिस देसी पौध पर कलम बांध रहे हैं वह मूल रूप में मौजूद रहता है लेकिन रंग वही होते हैं जो आयातित संस्कार उसमें कलमबंद किए गए हैं। हिंद स्वराज में विदेशी सभ्यता को शैतान की सभ्यता कहा गया है। साहित्य चाहे वह किसी भी देश या सभ्यता से ताल्लुक रखता हो वह केवल समाज का ही नहीं अपनी संस्कृति और सभ्यता का भी संवाहक होता है। हमारा साहित्य हमारे जातिय संस्कारों और चिंतन को अभिव्यक्त करता है। भाषा, अनुभव, अनुभूति और चिंतन सब कुछ उसे अपनी जड़ों से मिलता है। लेकिन हमारे अनेक लेखक जो अंग्रेज़ी में लिखते हैं अधिकतर की विषय वस्तु विदेशी पाठकों को ख़ुश करने वाली होती है। सेक्स एक ऐसा माल है जो विदेशी बाज़ार में ख़ूब खपता है। जब ‘व्हाइट टाइगर’ को बुकर सम्मान मिला तब बुकर संस्था के पूर्व अध्यक्ष ने कहा था कि भारतीय अंग्रेज़ी लेखक अधिकतर सेक्स ओरियन्टेड उपन्यास लिखते हैं। अपने देश के बारे में क्यों नहीं लिखते? अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय लेखकों पर इस तरह के विदेशी विद्वान आलोचकों की बात का कोई असर होता है या नहीं यह तो कह सकना किठन है हालांकि देश के अनेक विद्वानों को सेक्स के प्रति उनका अतिरिक्त आग्रह अखरता है। क्या उनके ऊपर बाज़ार का दबाव है। जब टाल्सटाय का उपन्यास ‘वार एण्ड पीस’ आया था तो सामान्य पाठक रूस के बारे में कम जानते थे। लेकिन संवेदना और जीवनाअनुभव की व्यापकता के कारण भारत के ही नहीं संसार भर के पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया था। स्व. रोडारमल द्वारा किया अनुवाद गोदान का अंग्रेज़ी अनुवाद अमेरिका में उसके व्यापक सामाजिक संदर्भों के कारण शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है।
इन सब बातों के पीछे मेरे कहने का तात्पर्य केवल यह है भले ही राजनीतिक कारणों या अंग्रज़ी की चकाचौंध से हिंदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य हाशिए पर है लेकिन भारत के जीवन की विविधता भारतीय भाषाओं के साहित्य में है। उदाहारण के लिए संसार के 19वीं सदी के सबसे ऐतिहासिक और त्रासद भारत विभाजन पर उपन्यास अंग्रज़ी में नहीं लिखा गया जबकि बड़े बड़े अंग्रेज़ीदां प्रशासक और विचारक विभाजन से जुड़े थे। उन्होंने जीवनियां लिखीं लेकिन साहित्य ओर उस समय की बनते बिगड़ते सांस्कृतिक परिवेश की तरफ़ न्यूनतम नज़र गई। अलबत्ता हिंदी उर्दू में ज़रूर लिखे गए। यशपाल का झूठा सच, उदास नस्लें भीष्म जी का तमस इसके उदाहारण हैं। जब मैं मारक्वेस की रचनाऐ़ं पढ़ता हूं, ख़ासतौर से हंड्रेड ईयर्स आफ सालिट्यूड पढ़ते हुए तो मैं चकित रह जाता हूं कि अपने सीमित देशज परिवेश में विश्व की संस्कृति को अपने अंदाज़ में समेट लेते हैं। चाहे नियोग हो या उन ख़ित्तों में होने वाली लड़ाईयां हों या अंधविश्वास हों। लोक कथाएं हों या परास्वप्न हों और हज़ारो मील दूर भारत से आने वाली कथा परंपरा और भविष्यवाणियों के संदर्भ और भोजपत्र पर संस्कृत में लिखा इतिहास हो। संवेदना और कथा संदर्भों का ऐसा विलक्षण जुगाड़ और ऊनको आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता ही उसे महान बनाती है। एक समानान्तर महाभारत की संकल्पना अपनी धरती और परिवेश में रोपित करना इस बात का द्योतक है कि लेखक इस ख़तरे को उठाने के लिए तत्पर है कि अस्वीकृति उसकी रचनातमकता को किसी हालत मे छोटा नहीं कर पाएगी। वह भी अपनी भाषा में। शायद ज़मीन से जुड़कर रेंगने की अदम्य शक्ति ही लेखक को ऊपर और ऊपर उठाती है। मैं अंग्रेज़ी काम भर की जानता हूं। लेकिन जब भारतीय अंग्रेज़ी लेखकों की रचनाएं पढ़ता हूं तो मुझे अकसर महसूस होता कि जिस तरह वे स्लैंग का इस्तेमाल करते हैं वह मूल विदेशी लेखकों के स्लैंग प्रयोग से भिन्न होता है सच कहूं तो कमज़ोर होता है। कई बार तो नक़ल लगता है। अंग्रेज़ी के एक भारतीय उपन्यास में भाई बहिन के प्रेम संबंध को काफ़ी खुलेपन से प्रदर्शित किया गया है। उसके बारे में संभवतः टाइम मैगज़ीन में राइटअप पढ़कर काफ़ी आतंकित हुआ था। बोल्ड तो था। नग्नता शायद किसी शक्तिशाली तानाशाह के विरोध से भी अधिक बोल्ड होती है। लेकिन संलग्नता और समरसता की दृष्टि से वह कमज़ोर था। दरअसल वह लेखक की ख़ता नहीं। जिस पृष्ट भूमि से कोई भी भारतीय लेखक आता है उसमें उन स्थितियों के लिए जिन्हें वह गढ़ रहा है अगर उसमें उनके अनुसार न सटीक बिंब हों और न भाषा संसार तो वह गढ़ा हुआ कहा जाएगा। स्थितियों से अपरिचितता रचनात्मक संवेदना को क्षति पहुंचाती है। भाषा उधार ली हुई हो तो लुहार की तरह ढांचा खड़ा करके बढईगिरी करके सजाना अनिवार्य हो जाता है। यह तब तक करना होता जब तक वह संवेदना समाज पर आरोपित न कर दी जाय। क्या यह संभव है कि आयातित माल को अपना उत्पाद मानकर हम हम आत्मसात कर लें? यह किसी भी संवेदनशील साहित्यिक समाज के लिए कठिन परीक्षा होगी।

Thursday, 11 June 2009

सामान्य आदमी और ज़मीदोज़ कलाकृतियां
7 जून 09 के हिंदू में ‘A grocer with an eye for antiques, archaeological sites’ पढ़ा तो मुझे राहुल जी के साथ हुई एक घटना याद आई। वे इलाहाबाद आए हुए थे। सवेरे महात्मा गांधी रोड़ पर टहलने जा रहे थे। साथ में व्यास जी और कोई और एक सज्जन थे। व्यासजी स्वयं एन्टीक्स का ज्ञान रखते थे और इलाहाबाद संग्राहालय के शायद डायरेक्टर थे। राहुल जी एकाएक सी पी एम कालिज के सामने लगे पीपल के एक पेड़ के सामने रुक गए। कुछ देर खड़े उसकी जड़ों की तरफ़ टकटकी लगाकर देखते रहे। व्यास जी ने पूछा ‘क्या देख रहे हैं राहुल जी’। वे बोले अभी बताता हूं। दूसरे आदमी से कहा आप ज़रा दो तीन रिक्शा वालों को बुला लें। किसी के पास बेलचा हो तो लेता आए। नहीं तो हाथों से ही काम चलाएंगे। तीन चार आदमी आ गए बेलचा भी आ गया। उन्होंने स्वयं बेलचे से धीरे धीरे मिट्टी हटाई। एक मूर्ति दिखाई पड़ी। थोड़ी मिट्टी और हटाई। फिर जिन आदमियों को बुलाया उनसे कहा इसे धीरे धीरे हिलाकर निकालना शुरू करो। झटका न लगे। लगभग घंटे भर की मशक्कत के बाद लगभग डेढ़ दो फ़िट की किसी देवी की प्राचीन मुर्ति बाहर निकल आई। वहीं उसे धुलवाई। राहूल जी इस बीच चुप रहे। व्यास जी कह रहे थे कि शायद इसे मूर्तिचोर दबा गए। राहुल जी ने कहा ‘जब ज़मीन के अंदर से दबाव बनना शुरू होता है तो मिट्टी फूलने लगती है। धरती के अंदर दबी वस्तु ऊपर आने लगती है। यह मूर्ति दसवीं शताब्दी की मालूम पड़ती है।‘ बाद में उन्होंने व्यास जी के ज़रिए म्यूज़ियम में भिजवा दी।
‘ग्रोशर्स आई’ पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना का ध्यान आ गया। राजस्थान के ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की बूंदी में पड़चूनिए की दुकान करते हैं। हड़ौती क्षेत्र में दबी कलाकृतियों को उन्होंने निकाला है। हालांकि वे आठवी क्लास तक पढ़े हैं लेकिन उनकी नज़र कलाकृतियों को उसी तरह पहचानती है जैसे राहुल जी की नज़र ने ज़मीन में दबी मूर्ति को पहचान लिया था। कुक्की ने हड़ौती की मिट्टी में दबी संस्कृति को उन कलाकृतियों के रूप में एक तरह से ईजाद किया है। सारी ज़िंदगी इसी काम में लगा दी। किसी लालच में नहीं बल्कि कलाकृति और प्रचीन संस्कृति के प्यार में । अगर कुक्की चाहते तो वे भी अनेक स्मग्लरों की तरह अपने परिवार को एक सम्मानजनक जीवन दे सकते थे। विंध्याचल पर्वत श्रेणी में नमना स्थान में उन्होंने हरप्पापूर्व संस्कृति की तांबे और पत्थर की कलाकृतियों का भंडार खोजा है। प्राचीन राक पेंटिंग्स उनके संग्रह में हैं।
ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की मानते हैं कि मैं जानता था कि कि बूंदी प्रचीन सभ्यता की कलाकृतियों से भरा पड़ा है। मेरा मानना है कि गराडा नदी के किनारे 35 किलो मीटर लंबी पट्टी में सैंकड़ों चट्टानी गुफाएं है। इतनी लंबी आरकियोलाजिकल कलाकृतियां की पट्टी शायद ही दुनिया में कहीं हो। उसके पास 400 बी सी का ,सबसे पुराना सिक्का है। हालांकि वह समान्य पढ़ा लिखा है लेकिन उसने सब आर्कीयोलियोजिकल उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया है, जहां जहां इस क्षेत्र में दुनिया में काम हुआ है, उसका इल्म है। उसे इस बात का दुख है उसका काम दुनिया में किसी से कम नहीं। पश्चिम देशों में इस क्षेत्र में काम करने वाले तत्काल प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं। मैं दो दशक से अपने परिश्रम की स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
राहुल जी ने भी शिक्षा की दृष्टि से बड़ी बड़ी डिग्रियां प्राप्त नही थे। लेकिन उन्होंने गुना था। उसी ने उन्हें अनेक विषयों का उद्भट विद्वान बनाया। कुक्की में समर्पण है। अपने काम के प्रति लगाव है। इस तरह के बहुत से लोग मुफ्फ़सिल जगहों मे अभी भी मिल जाएंगे जिनके पास प्राचीन कलाकृतियां हैं लेकिन वे सरकार और पुलिस के डर के मारे निकालने में डरते हैं। दरअसल लोगों की नियमों के प्रति अनभिज्ञता भी इसका कारण है। बहुत से लोगों को वे लोकेशन्स मालूम हैं जहां प्राचीन कलाकृतियां दबी पड़ी हैं। वे दो कारणों से नहीं बताते 1. स्थानीयता का मोह, 2. पुलिस का भय। कानपुर में मकान बनवाते समय ज़मीन से काफ़ी सोने के सिक्के निकले थे वहां लूट मच गई थी। बाद में पुलिस ने बरामदी भी की, पर सब नहीं कर पाई। डा. जगदीश गुप्त हरदोई के शायद बिलग्राम के पास किसी गांव के रहने वाले थे। उनको तांबे के बने हथियार टेराकेटाज़ भांडे आदि प्रचीन कलाकृतियों का ज़खीरा मिल गया था। उस ज़माने में विभिन्न संग्रहलयों में महीने में एक बार वाज़ार लगता था। उसमें कलक्टर्स अपनी अपनी कलाकृतियों के साथ एकत्रित होते थे संग्रहालय उन कलाकृतियों को अच्छे दामों पर खरीदते थे। जगदीश जी ने नागवासुकी पर पहला मकान बनवाया तब बताया था धरती का पैसा धरती मे लगा दिया। लेकिन शायद बूंदी के इस अम्यचोर आरक्योलिजिस्ट को इस बात का इंतज़ार है कि उसके काम को अंतर्राष्ट्रीय एकेडेमिक दुनिया मे स्वीकृति मिले। कम से कम भारत सरकार तो उसके काम का संज्ञान ले।

Sunday, 24 May 2009

Lohia aur sahitya

लोहिया और साहित्य

23 मार्च 09 को डा. राममनोहर लोहिया की जन्म शताब्दी का आरंभ हुआ। दिल्ली के मावलंकर हॉल में उसकी शूरूआत खांटी लोहियावादी नेता और साथी जनेश्वर मिश्रा ने की। मुझे भी उसमें शिरकत ranकरने के लिए बृजभूषण जी और आनन्द भाई ने बुलाया था। एक गोष्ठी की अध्यक्षता भी कराई। इलाहाबाद प्रवास के दौरान डा लोहिया से संपर्क हो गया था। जब 1962 में आ. चंद्रभानु गुप्ता जी ने चुनाव लड़ने के लिए कहा तो मैंने माफ़ मांग ली थी। जब मुझे अध्यक्षीय भाषण देने के लिए कहा गया तो लेखक होने के नाते मैंने साहित्यिक संस्मरण सुनाने का निश्चय किया। मैं जानता था कि वहां पर उपस्थित लोहियावादी शायद ही इस तरह की बातें सुनने न आए हों। लेकिन चंद घटनाएं सुनाई।
जब लोहिया जी अपने काफ़ले के साथ आते थे तो सबसे पहले उनकी नज़र काफ़ी हाउस का नज़ारा करती थीं। हम नए लेखक बैठे होते थे ज़रूर पूछते कुछ लिखते पढ.ते भी हो या नहीं। देश की उन्नित के साहित्य ज़रूरी है। वही देश की पहचान बनता है।
एक बार स्व विजयदेव नारायण साही ने बताया कि लोहिया जी ने निराला जी से मिलने की इच्छा प्रकट की। साही जी ने कहा कि उनके मूड पर निर्भर करता है वे कैसा व्यवहार करें। उल्टा सीधा कुछ कह दिया तो बर्दाश्त कर सकेंगे।
चलो देखते हैं। उम्र में बड़े ही होंगे। वे दोनों दोपहर बाद पहुंचे निराला जी सोकर उठे थे। उन्होंने जाते ही पूछा कहो साही कैसे आए।
साही जी ने कहा आप से लोहिया जी मिलना चाहते थे। उन्हें आपसे मिलाने लाया हूं। उन्होंने उनकी तरफ़ देखा। जवाहरलाल तो इलाहाबाद के होकर कभी नहीं मिले, आप कैसे आ गए। लगता है वे लोहिया जी को उनके बराबर रखते थे।
आप देश के बड़े कवि हैं आप से नहीं मिलेंगे तो किससे मिलेंगे। निराला जी ने लंबा सा हूं किया जैसे उनकी हां में हां मिला रहे हों। निराला जी ने अपने आप ही बड़बड़ाया जवारलालआते तो उन्हें भी चाय पिलाता। उनके पास लुटिया थी बाल्टी में से पानी भरकर अंगीठी पर रख दिया। और पूछा –तुम भी कविता लिखते हो?
जी नहीं पढ़ता हूं?
क्या पढ़ा?
उन्होंने कहा आपकी राम की शक्तिपूजा। उन्होंने लंबा सा हूं किया। लोहिया जी बोले उसने मुझे प्रेरणा दी है। तब तक चाय बन गई थी।
मैं सोचता हूं कि क्या आज शायद ही ऐसा कोई राजनेता होगा जिसने राम की शक्ति पूजा पढ़ी हो प्रेरणा लेना तो दूर की बात है। चाय पीकर जब लोहिया जी निकले तो निराला जी बुदबुदा रहे थे फिर आना।

कई बातें लोहिया जी के संदर्भ में ध्यान आती हैं मुझे अंग्रज़ी हटाओ आंदोलन में जनेश्वर जी के साथ काम करने का अवसर मिला था। इस कार्यक्रम के अगले दिन मैंने सब हिंदी और अंग्रेज़ी अखबार देखे। इतने बड़े व्यक्ति के जन्म शताब्दी के आरंभ के बारे में अखबारों ने क्या रपट छापी। अंग्रेज़ी का तो उन्होंने विरोध किया था। उन्होंने रपट नहीं छापी तो बात समझ में आती है लेकिन मेरे लिए आश्चर्य की बात थी कि जनसत्ता को छोड़कर किसी भी हिंदी अखबार ने उस कार्यक्रम का नोटिस नहीं लिया था।अगर गांधी और लोहिया न होते तो इन हिंदी अखबारों का पता नहीं क्या स्थिति हुई होती।

Friday, 1 May 2009

Prathmikta se door

शिक्षा जान का जंजाल
आज संसार के सबसे बड़े जनतंत्र का चुनाव हो रहा है। मुद्दे क्या हैं? कुछ नहीं। विदेशों मे जमा धन 100 दिन में ले आऐंगे जनता को क्या मिलेंगा? ऐसा लगता है अडवानी जी प्रधानमंत्री बनते ही आर्डर देंगे और स्वीटज़रलैंड के बैंक दरवाज़े खोल देंगे देश का सारा धन साइफ़न होकर देश में आ जाएगा। क्यों बेवकूफ़ बनाते हैं? आपके ज़माने में ही तो दाउद के चेले का प्रत्यार्पण का किस्सा चालू हुआ था। पुर्तगाल से लाने में कितना पैसा फुंका और कितना वक्त लगा। लिखकर देना पड़ा कुछ भी हो जाए फांसी नहीं देंगे। क़बुल की तरह फिर समर्पण। जो सरकारों को करना चाहिए और कर सकती हैं वह तो करती नहीं आसमान से तारे तोड़कर लाने की बात करती हैं। सबसे पहली प्राथमिकता तो थी बच्चों की शिक्षा की। साठ साल में कितना और क्या हुआ? वही नंगा ढाक। उस पर तीन पात भी नहीं आए। बच्चों की शिक्षा, भाषा और जन सुरक्षा। कभी सोचा कि क्यों नही आए? आपको एक दूसरे पर दोषारोपण से फ़ुर्सत मिले तो कुछ हो। बच्चे आपके मतदाता थोड़े ही हैं जो आप उनके लिए कुछ करेंगे। बड़े लोगों के बच्चों के लिए तो विदेश हैं ही। आप कहेंगे उनके मां बाप तो हैं मतदाता। मां बाप कई तरह के हैं, उनकी आवश्यकताऐं और प्राथमिकताऐं भी उतने ही तरह की हैं जितने तरह के वे स्वयं हैं। उसका फ़ायदा सरकारें उठाती हैं। जैसे जात बिरादरी ने देश को बांटा उसी तरह सरकारें जन को उनकी ज़रूरतों और प्राथिमकताओं के हिसाब से फेंट रही हैं। भाषाओं को बांटा, शिक्षा को बांटा सुरक्षा को बांटा। नेहरू जी ने तो 1945 में ही गांधी के इस प्रस्ताव को धुर से ठुकरा दिया था कि देश का संचालन हिंद स्वराज के हिसाब से हो। तीन बातें तो उनके मन माफ़िक थी ही नहीं बाकी भी नहीं थीं। गांधी ने उसमें साफ़ कहा आपको हमसे बात करनी है तो हिंदी में करनी होगी। नहीं तो जाइए अपने गांव। यह बात को नेहरू कैसे बर्दाशत करते। लेकिन संस्कृति और भाषा की बात करने वाली पार्टियां भी जब सत्ता में आई इन बातों को वे भी भूल गईं। शिक्षा तो किसी के एजेंडे में था ही नहीं। था तो बंदर बांट के साथ। पिछली सरकारों ने शिक्षा को खाने कमाने के लिए प्राइवेट सेक्टर में डाल दिया। खाओ कमाओ और बिगाड़ो। भाषा बिगाड़ो, पाठ्यक्रम बिगाड़ो और उनके ज़रिए सभ्यता संस्कृति बिगाड़ो। जहां तक सुरक्षा का सवाल है, सरकारी सुरक्षा हमारे यानी नेताओं के लिए, प्राइवेट औरों के लिए। सरकारी सुरक्षा के लिए अलग अलग वर्ग हैं। जैसे हत्याएं भी पद के हिसाब से होती हैं। जैसे जैसे भयक्रांत लोग पदासीन होते गए वैसे वैसे सुरक्षा बरीक होती गई। कई बार तो आम आदमी इन लोगों को सुरक्षा में ही मारा जात है। बेइज़्जत तो हो ही जाता है।
ख़ैर, मैं बात कर रहा था शिक्षा की। हम लोगों की शिक्षा बुनियादी शिक्षा में हुई थी। सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते थे। सब काम अपने हाथों से करते थे। एक रूपया फ़ीस जाती थी। देश आज़ाद होने के बाद श्रमदान और हाथ का काम उसका हिस्सा हो गया था। मूज़्फ्फ़रनगर के गांधीनगर की सड़क बनाने में हम बच्चों ने श्रमदान किया था। जब वहां जाता था तो सड़क देखऩे भी जाता था। अगर देश बनाने में भी बाद के लोगों ने श्रमदान किया होता तो शायद देश के प्रति ऐसी ही ललक उनमें भी होती। हैलीकाप्टरों से झांकते हुए ऊपर ऊपर से न उड़ जाते। आज शिक्षा, मेरा मतलब आरंभिक शिक्षा, सबसे अधिक अधिक रट में है। उसके बारे में कोई एक मत नहीं। पब्लिक स्कूल अपना पाठ्यक्रम चलाते हैं। अधिकतर नए स्कूलों के पास खेल के मैदान तक नहीं। किताबें इतनी की बच्चे कुबड़े हो जाएं। अधिक किताबें बच्चों के हित में नहीं रखी जातीं। इसलिए रखी जाती हैं कि मैनेजमेंट स्कूल ड्रेसेज़ और कोर्स की किताबों पर कमीशन लेकर धन कमाता है। फ़ीस इतनी कि मां बाप की कमर टेढ़ी हो जाती है। छठे पे कमीशन के नाम पर दो दो चार चार हज़ार फ़ीस बढ़ाई जा रही है। यह कोई नहीं जानना चाहता कि कितने स्कूलों ने पिछले पे कमीशन्स अपने यहां लागू किए हैं। किए भी हैं या दस्तख़त कराकर आधी पौनी तनख्वाह देकर छुट्टी पा लेते हैं। दरअसल पहले ही इतने आगे से दौड़ना शुरू किया कि अब फ़ीस बढ़ाया जाना मां बाप और बच्चों के जी का जंजाल हो गया। सारे देश में फ़ीस बढ़ाई जा रही है। उत्तर भारत में तो यह महामारी बुरी तरह फैली है। जहां तक मैं जानता हूं ब्रिटिश सरकार के जमाने में कान्वेंटस को छोड़कर लगभग सब स्कूलों में कोर्स समान थे। मेयो वगैरह तो हाई फाई थे ही। लेकिन गवर्मेंट स्कूल और म्यूनिसपेलिटी के स्कूल, मास्टरों के नाम से चलने वाले प्राइवेट स्कूलों में समानता थी। बच्चों को टार्चर किया जाता है इस हद तक कि वे मर जाते हैं।मारा पीटा पहले भी जाता था लेकिन उन्हें जान से मारने के लिए नहीं। कानपुर के जिला अदालत ने गार्जियन्स की फ़ीस बढ़ाने के खिलाफ अपील ख़ारिज कर दी। कहा नहीं जा सकता जज साहब मामले के अंदर कितनी गहराई तक गए। किन बिंदुओं पर जांच की। यह देश भर के बच्चों का मामला है। हाई कोर्ट को फ़ाइल मंगाकर जांच करनी चाहिए।
अगर इसका कोई रास्ता नहीं निकलता यह असमानता बच्चों के स्तर पर बढ़ती जाती है तो निरक्षरता फ़ीस के कारण बढ़ेगी। इस महामारी को रोकने का सत्याग्रह ही एक तरीक है। स्कूलों में नाम लिखा होने के बावजूद बच्चों को न स्कूल भेजें और न फ़ीस जमा करें।
दूसरे मां बाप अपने आराम में से कटौती करके घरों पर बीस बीस पच्चीस पच्चीस बच्चों के स्कूल चलाएं। आपस में विषय बांट कर पढ़ाएं। यह एक बड़ा आंदोलन बन सकता है। यह मानव अधिकार का मामला है। आप मां बाप पर एक सीमा तक दबाव डाल सकते हैं बच्चों के पाठ्क्रम में समान बनाएं। मातृ भाषा को प्रमुखता देना इसलिए भी ज़रूरी है कि गरीब और पिछड़े बच्चों में कुंठाएं न बढ़ें। इस समय देश की तकनीकी शिक्षा चाहे जितनी आगे हो पर आरंभिक शिक्षा बड़े भारी संकट से गुज़र रही है। अगर राष्ट्र स्तर पर इसका समाधान नहीं निकला गया तो भविष्य की पीढ़ी भारतीय कम और तकनीकी ज़्यादा होगी। तकनीक भी विदेशी। हम दूसरे देशों को थैंक्यू थैंक्यू कहते घूमेंगे।

Tuesday, 28 April 2009

चुनाव और जनतंत्र
हर पांच साल मे ﴾यदि मिड टर्म न हो﴿ राजनीतिक पार्टियां अपने गिरहबान में झाकने के बजाय जनता को वोटर का दर्जा देकर उसका जायज़ा लेती हैं कि वह पांच साल में मूर्ख से कितना अक्लमंद हुई। वे चाहती हैं कि वोटर बैल ही बना हमारी गाड़ी खींचता रहे। उसे हर तरह से पटाते हैं कि वे उसके आससमान से तारे तोड़कर लाएंगे। एक पार्टी लगभग छः साल शासन में रही। वह पार्टी धर्म की पाबंद।गंगा गोदावरी और गऊ की गले तक भक्त। दूसरी ऐसी मज़दूरों और किसानों की तानाशाही कायम करने के लिए प्रतिबद्ध, अपने हिव्ज़ सिद्धांतों को बार बार दोहराने वाली, देश में बेरोजगाररों के ग्राफ़ को रटकर वोटर को बिना अपने घर की दुर्दशा बताए रिझाने वाली। तीसरी पार्टी के उस आश्वासान की प्रतीक्षा करते करते लोग थक गए कि वह दिन कब आएगा जब गरीबी हटेगी और अच्छे दिन आएंगे। पर वोटर इन आश्वासनों की धुंध के बीच से यथासामर्थ्य रास्ता बनाने की कोशिश करते हैं। मौक़ा मिलते ही पलट देते हैं। पार्टियें भी कम चालाक नहीं। वे अपना जाति का दाव फेंकती हैं। कुछ उसमें फंसते हैं। कुछ फंसने की कीमत चाहते हैं। वोटर जनतंत्र में भी परतंत्र है। धर्म का जाति का व्यवसाय का अंकुश उस पर रखा रहात है। वह वोट अवनी मर्ज़ी से नहीं दे सकता। चुनाव जनतंत्र में देश के लिए एक संस्कार की तरह होता जा रहा है। इसको प्रदूषित करना या होते देखना अपने में एक अपराध है।
गंगा को पवित्र मानते मानते मानते हमने उसे प्रदूषित कर दिया। आज पुष्पों की जगह उसमें मृत शरीर तैरते रहते हैं। उसी प्रकार चुनाव की इस वैतरणी में जिसे सामान्य मतदाता अपने मौलिक अधिकारों की संरक्षिका मानता है मरी हुई आत्मा वाले बाहूबलि अवरोध बने शिलाखंड बनकर अड़ जाते हैं। सब पार्टियां उनका और एक्टरों का सहारा लेती है। उस वैतरणी को प्रदूषित करते जाते हैं। इनकी संख्या हर बार बढ़ जाती है। प्रदूषण कम होने के बजाए कई गुना बढ जाता है। राजनीतिक पार्टियां इसके लिए ज़िम्म्दार हैं।कुछ कम कुछ ज़्यादा। दरअसल ये पार्टियां उनके माध्यम से मतदाताओं पर आतंक जमाती हैं। ठीक उसी तरह जैसे जल में पड़ा मगरमच्छ जलचरों पर ही नहीं तट पर पानी पीनेवाला राहगीर तक उसके आतंक का शिकार हो जाता है।
मतदता भी इसके लिए उत्तरदायी हैं। जब ये मगरमच्छ उनकी तरफ़ उनके अधिकारों का अधिग्रहण करने के लिए लपकते हैं तो उन्हें पछतावा होता कि हमने तो अपनी सुरक्षा के लिए इन्हें मेड़ समझा था ये तो फ़सल को रौंधने वाले वहशी जानवर हैं। अब क्या होता है जब चिड़ियन चुग गई खेत। खेत चुगवाने वाली वही पार्टियां हैं जो घोसल में भली बनी बैठी रहती हैं मौका मिलते ही उन दरिंदों के साथ हिस्सा बांटने फुर्र से उड़कर आ जाती हैं। मतदाता उन ठगों के बहकावे में आकर सब कुछ लुटा बैठता है। अगर पार्टियां उनकी ठेकेदार हैं तो मतदाता जो चुनाव के समय सबसे बड़ी शक्ति होता हैं अपने अधिकारों की दुर्गति करने के लिए क्यों तत्पर रहता हैं। अगर पार्टियों का दिया ज़हर खाना और दूसरों को खिलाना बंद कर दें तो पार्टियों को नसीहत मिलेगी और वे इस पाप से बचेंगे।
उनमें से कितने किस वर्ग से आते हैं। उनकी तकलीफ़ों और ज़रूरियात से कितना ताल्लुक है। जो पार्टियां जिस आधार को बनाकर चल रही थीं वे उनसे जुड़े मूल्यों तक से बेपरवाह हो जाती हैं। एक पार्टी राम गंगा और गऊ की बात करते करते 6 साल राज कर गई लेकिन सत्ता में रहते तीनों में से कोई भी याद नहीं आया। यहां तक कि उसने गंगा को न राष्ट्र नदी घोषित किया न विदेशों से करोड़ों रुपया लेने के बावजूद प्रदूषण में कोई अंतर किया। पिछली सरकार ने केवल इतना किया कि उसे राष्ट्र नदी घोषित कर दिया। वह भी कानपुर के गृहराज्य मंत्री के प्रयत्न से। चुनाव ऐसी शै है कि जिसने जो किया उसे भी नकार कर जीत का सुख पा लेते हैं। बाद में भले कुछ भी हो। चाहे तीसरी दुनिया के देश हों या पूंजीपति और साम्यवादी सब गरीबी को दूसरे देशों से मदद लेनी की सीढ़ी बनाए रहते हैं । कहीं कम या ज्यादा, कुंडली जमाए बैठी है। गरीबी किसी एक की बपौती नहीं लेकिन बंगाल में तीस साल एक सरकार रही वहां भी टस से मस नहीं हुई। उ प्र में सरकारें रहीं नेता करोड़पति होते गए। जनता का पैर ढका न पेट और न सिर। सवाल यह है कि जनता जागती क्यों नहीं। जनता को अपना दुख नहीं सालता तो न साले। पर दूसरे का काला धन भी नहीं सालता। हमारे नेता नया नया फारमूला ढूंढते रहते हैं किसी तरह सत्ता मिले। बाद की बाद में देखी जाएगी।
काले धन का शगूफ़ा छोड़ा गया है। विदेशों में भारतीयों का धन जमा है उसे ले आया जाय तो गरीबी का काल कट जाएगा। इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। प्रधानमंत्री इऩ वेटिंग का वादा उनकी प्रतीक्षा ख़त्म करा दो तो वे सारा रुपया 100 दिन में छकड़ों में नहीं तो जहाज़ों में भर लाएंगे। वुड बी साहब थोड़ी अवधि तो बढ़ा ही दीजिए। पहले भी एक प्रधानमंत्री ऐसा ही दाव लगा चुके हैं। कुछ तथ्य पर नज़र करने की इजाज़त चाहता हूं। देखिए आपसे ज़्यादा कौन जानता है कि पुर्तगाल से दाउद के चेले को भारत लाने में कितने पापड़ बेलने पड़े थे वहां भी आपकी सरकार को पुर्तगाल की सरकार को आश्वासन देना पड़ था कि उसे सज़ा ए मौत नहीं दी जाएगी। अब वही चुनाव लड़ रहा है। अब आपही बताएं स्वीटज़रलैंड के बैंकों में आपके देश का पैसा नहीं दूसरे देशों के लोग भी हैं वे भी पैसा रखे हैं वे क्या लाने देंगें। माननीय वे आपसे यह पूछेंगे अपने देश में आपने ब्लैक औरे बेनामी धन निकलवा लिया। 22 अप्रेल के हिंदू में दो मार्क्सवादी नेताओं के वक्तव्य छपे हैं कि एन डी ए सरकार के ज़माने में मारीशस रूट से भारत का मारमुलक का धन बाहर जाता था जब संसद में हवाला धन के संदर्भ में सवाल उठाया गया तो तत्कालीन अर्थ मंत्री के पास कोई जवाब नहीं था। वैसे भी उनके इस प्रयास के जवाब में स्वीटज़रलैंड के बैंकों के अध्यक्ष का जवाब छपा था कि 1-हम ईमानदार लोगों का धन रखते हैं। 2-हमारी सरकार का कोई ऐसा आदेश नहीं, हम अपने नियम से काम करेंगे। क्या किसी सरकार का क़ानून बदलवाना इतना आसान है। इस तरह के सवाल उठाना और झूठे आश्वासन दे कर जनता को बहकाना किसी भी पार्टी के लिए जनतंत्र को अपमानित करना है। सरकारें चाहे किसी की भी हों अपने कार्यकाल में जिन कामों को पीछे सरका देती हैं उन्हीं कामों के न करने का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ती हैं।
गांधी जी ने कहा था यह आज़ादी कांग्रेस के लिए नहीं आई देश के लिए है। लेकिन दुर्भाग्य है कि नेता लोग आज़ादी अपने लिए रखना चाहते हैं गुलामी दूसरों को बांट रहे हैं।

Monday, 13 April 2009

भारतीय पत्रकार का जूता और गृहमंत्री की क्षमा
7 अप्रेल 09 को गृहमंत्री पी चिदंबरं की प्रेस कान्फ़्रेंस देख रहा थी, एकाएक एक जूता उछला और उनके दाहिने कान के पास से होता हुआ निकल गया। यह इतना अचानक हुआ कि शायद ही वहां बैठे पत्रकारों को भी समझ में देर लगी होगी। लेकिन चिदंबरंम काफ़ी चौकन्ने थे। वे बचे भी और बेसाख्ता उनके मुहं से निकाला। इन्हें बाहर ले जाइए मैं इऩहें माफ़ करता हूं। आप यानी रानीतिक दल शायद यह सोचें कि चुनाव के चलते उऩ्होंने यह घोषणा की होगी। लेकिन उनकी वह तात्कालिक प्रतिक्रिया थी। जब ले जाया जारहा था तब उन्होंने दो बार अंग्रेज़ी में कहा आराम से ले जाएं। यानी ज़बरस्ती न करें। यहां एक सवाल तो यह उठता है कि वहां इंटेलिजेंस का पूरा अमला होगा। उनकी नज़र एक आदमी पर रहती है। पत्रकार अगली पंक्ति में बैठा था। जूता खोलने और फेंकने मे 5 नहीं तो 3 या 4मिनट तो लगे होंगे। अगर वे चौकस होते तो जूता फेंकने से पहले ही पकड़ सकते थे कम से कम घेर तो सकते ही थे। जब गृहमंत्री इतने असुरक्षित हैं तो आम आदमी तो किस्मत से ही जी रहा है। पत्रकार बुश पर जूता फेंकने वाले पत्रकार की तरह चर्चित होना चाहता होगा। लेकिन मीडिया के द्वारा इस बात की भर्त्सना करना एक सकारात्मक प्रतिक्रिया है। उनका कहना है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।
बी जे पी के प्रवक्ता का कहना था ठीक तो नहीं हुआ पर 84 के हत्याकांड में टाइटलर को सी बी आइ द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के कारण उसने भावना में ऐसा किया। एक तो यह उस मसले पर मीटींग नहीं थी, न समुदाय विशेष की बैठक थी गृहमंत्री ने कहा था कि सी बी आइ की रपट कोर्ट के विचाराधीन है वह स्वीकार भी हो सकती है अस्वीकृत भी। प्रतीक्षा करना उचित होगा। पत्रकार के पास दो विकल्प थे। प्रोटेस्ट करने के साथ ही वह उठकर जा सकता था। सबसे बड़ी ताकत कलम की थी। जिसके सामने जूते की क्या वक़त। उसने जूते को बड़ा बना दिया। वैसे भी देश इस समय पीड़ित वर्ग के साथ है। पहले भी था। ऐसा करके देश की उस भावना को नकार। उसी वक्त तो तय होने नहीं जा रहा था। एक पत्रकार जो कलम की काम जूते से ले उसे क्या स्वयं पत्रकारिता को अलविदा नहीं कह देना चाहिए। यह तो उसका और मैनेजमेंट का मामला है। साथ ही पत्रकारिता और मीडिया की इतनी मज़बूत साख़ पर प्रश्न चिन्ह लगा है। वह भी पत्रकारिता पर ख़ासतौर से। हिंदी पत्रकारिता संयम की पर्याय रही है। उछृंखलता उसके मिजाज़ में नहीं है। इस मैं दुभाग्य पूर्ण मानता हूं। जहां तक व्यक्तीगत भावुकता का सवाल है उसमें तो कुछ भी संभव है। चिदंबरम की तत्कालिक प्रतिक्रिया को मैं गांधियन सोच मानता हूं। मुझे खुशी है पुलिस ने बिना किसी ज्यादती के पत्रकार महोदय को छोड़ दिया। इसी तरह समाज में संतुलन रह सकता है।

गिरिराज किशोर, 11/210 सूटरगंज कानपुर 28001

Monday, 6 April 2009

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सरकार समाज और देहदान
कानपुर में हरिद्वार से संचालित गायत्री केंद्र, शांति कुंज के एक कर्मठ कार्यकर्ता श्री सेंगर ने देहदान की योजना इस दृष्टि से चलाई की मेडिकल कालिजों के छात्रों को डिसेक्शन के लिए मानव देह नहीं मिलती इसलिए देहदान के लिए लोगों को तैयार किया जाए। आरंभ में कुछ कठिनाई अवश्य हुई लेकिन बाद में लोगों के सहयोग से देहदान के लिए लोग सहमति देने लगे। नगर के कुछ महत्तवपूर्ण लोगों के सामने शपथ पत्र भरवाते थे देहदानियों को सर्टिफ़िकेट वितरित करते थे। शहर के अनेक लोगों ने शपथ ली है अभी यह प्रक्रिया जारी है। अब तक जहां तक मुझे बताया गया गणेश शंकर मेडिकल कालिज, कानपुर को जो यू पी सरकार द्वरा संचालित है, 9 मृतदेह दान में मिल चुकी हैं।
किसी भी धर्म में इस प्रकार देहदान करना वर्जित है। वैसे भी देह के साथ अनेक अंधविश्वास और मोह माया जुड़े होते हैं। मनुष्य अपनी देह को जितना प्यार करता है वह किसी को नहीं करता। वह जिस तरह उसे पालता पोसता है वैसे शायद ही अपने बच्चों को पालता हो। उसके बावजूद जीते जी निस्पृह भाव से देहदान पत्र पर जीते जी हस्ताक्षर कर देना संत मानसिकता का प्रमाण है। एक दो ऐसे मामले भी सामने आए हैं कि मृत्यू के बाद पंडितों या परंपरावादी लोगों ने अपने संबंधियों की देह वापिस मांगी। दरअसल हम सबसे अधिक मृत्यु के अंधकार के पीछ क्या है इससे डरते हैं। सबसे बड़ा सवाल होता है सद्गति होगी नहीं। ख़ैर, यह जानना नहीं चाहते कि मृत्यु क्या है। ओशो जन्म और मृत्यु को उत्सव मानते थे। उनके शव को गा बजाकर समाधि दी गई थी।
कानपुर के डी ए वी कालिज हिंदी विभाग के वरिष्ठ सदस्य और हिंदी के नामी ग्रमी कवि डा. प्रतीक मिश्र का अभी दो सप्ताह पूर्व सहारनपुर एक साहित्यिक कार्यक्रम में जाते हुए शाहजहां पुर में संभवतः हृदय गति रुक जाने से रेल में देहावसान हो गया। उन्होंने अपनी देह पहले ही दान कर दी थी। उसके बारे में अपने परिवार को भी पहले से हिदायत दे दी थी। अतः परिवारों और इष्ट मित्रों नें देह लाकर कानपुर मेडिकल कालिज को दे दी। मैं भी उस समय वहां उपस्थित था। यह दुखद क्षण था। साहित्य जगत के काफ़ी लोग थे। हिंदी के अध्यापक चार छः थे, जबकि नगर में ही कम से कम बीस डिग्री कालिज होंगे।राजनीती के लोग तो ऐसे मामलों अनजान रहते हैं। जहां तक मुझे मालूम है देहदान का आरंभ सबसे पहले आई एन ए में रहीं लेफ्टिनेन्ट श्रीमती मानवती आर्या ने अपने पति की देह मेडिकल कालिज को दे कर की थी। उनके पति कानपुर के सम्मानित पत्रकार थे। वे अपने पति की इच्छा अनुसार अकेले ही उनकी देह एनाटॉनामी विभाग को सुपुर्द कर आई थीं। स्वयं भी जब कभी बाहर जाती हैं तो अपने गले में लिखकर लटका लेती हैं कि यदि उन्हें यात्रा में कुछ हो जाए तो उनकी देह निकटतम मेडिकल कालिज में बच्चों के अध्ययन हेतु देकर अमुक पते पर मेरे बेटों को सूचित कर दिया जाए। महिलाओं के संदर्भ में ऐसा करना और भी कठिन है।
देहदाता का परिवार तो अपना दायित्व बख़ूबी निबाह देता है। सरकार और समाज का भी दायित्व है कि वह उसके लिए अपने कालिजों संस्थाओं को निर्देश दे कि मृत देहों का उचित सम्मान हो। उनको प्राप्त करने का समुचित प्रबंध हो। मेडिकल के छात्र और उनके माता पिता लाखों रुपया शिक्षा पर खर्च करते हैं। मानवदेह के डिसेक्शन से ही पहले साल की शिक्षा आरंभ होती है। देह प्राप्त होना सबसे मुश्किल कार्य है। कीमती से कीमती एपरेटस बाज़ार से खरीदा जा सकता है पर मानवदेह मिलना मुश्किल होता जा रहा है। पहले लावारिस देह मेडिकल कालिजों को दे दी जाती थी। अब बेच लेते हैं जिससे उनके शरीर के हिस्से अधिक पैसे में बिक सकें और अच्छी कमाई हो जाय। सरकार को देहदानियों की देह के सम्मान का पूरा प्रबंध करना चाहिए। उनके कफ़न आदि का, उन्हें लाने ले जाने का। देह दानियों के नाम बाहर बोर्ड पर लिखे जाएं जिससे पता चले कि बच्चों की शिक्षा के लिए अमुक सन् में इन दानियों ने देह दान की। विभागाध्यक्ष या प्रचार्य स्वयं देह प्रप्त करें। जब तक देह का डिसेक्शन न हो देह को शीशे के केज में रखी जाए संबंधी आकर देखना चाहें तो देख सकें। हाल साफ़ सुथरे रखे जाएँ। जिस मेडिकल कालिज में प्रतीक जी की देह दी गई थी वहां चारों तरफ़ गंदगी थी। एक मेज़ पर ले जाकर रख दी गई थी। लोग चारों तरफ़ खड़े होकर कुछ देर तक अपनी श्रद्धांजलि देते रहे थे। अगर परिवार के सदस्यों के सामने उनकी देह को किसी उचित व्यवस्था के साथ संजो दिया जाए तो वे संतुष्टी के साथ विदा हों।
जो लोग अपने संस्कारों के खिलाफ़ जाकर ऐसा करते हैं वे देश सेवक और सेनानी हैं। वे अपने मानसिक बंधनों को तोड़ कर देह देश को अच्छे डाक्टर बनाने के लिए अपनी सबसे प्यारी निधि का जनहित में उत्सर्ग करते हैं। डाक्टरों को भी यह पता हो कि किस व्यक्ति की देह पर चाकू चलाकर उन्होंने मेडिकल के पाठ की पहली शिक्षा ली। जब कभी वे लालच में किसी मरीज़ की उपेक्षा करें तो उन्हें इस बात का स्मरण रहे। हो सकता है मरीज़ भी उसी देहदानी की श्रेणी का हो जिसकी देह के माध्यम से उन्होंने पहला पाठ पढ़ा।

गिरिराज किशोर, 11/210 सूटरगंज कानपुर, 208001
शब्द875

Sunday, 5 April 2009

लोहिया और साहित्य

23 मार्च 09 को डा. राममनोहर लोहिया की जन्म शताब्दी का आरंभ हुआ। दिल्ली के मावलंकर हॉल में उसकी शूरूआत खांटी लोहियावादी नेता और साथी जनेश्वर मिश्रा ने की। मुझे भी उसमें शिरकत करने के लिए बृजभूषण जी और आनन्द भाई ने बुलाया था। एक गोष्ठी की अध्यक्षता भी कराई। इलाहाबाद प्रवास के दौरान डा लोहिया से संपर्क हो गया था। जब 1962 में आ. चंद्रभानु गुप्ता जी ने चुनाव लड़ने के लिए कहा तो मैंने माफ़ मांग ली थी। जब मुझे अध्यक्षीय भाषण देने के लिए कहा गया तो लेखक होने के नाते मैंने साहित्यिक संस्मरण सुनाने का निश्चय किया। मैं जानता था कि वहां पर उपस्थित लोहियावादी शायद ही इस तरह की बातें सुनने न आए हों। लेकिन चंद घटनाएं सुनाई।
जब लोहिया जी अपने काफ़ले के साथ आते थे तो सबसे पहले उनकी नज़र काफ़ी हाउस का नज़ारा करती थीं। हम नए लेखक बैठे होते थे ज़रूर पूछते कुछ लिखते पढ.ते भी हो या नहीं। देश की उन्नित के साहित्य ज़रूरी है। वही देश की पहचान बनता है।
एक बार स्व विजयदेव नारायण साही ने बताया कि लोहिया जी ने निराला जी से मिलने की इच्छा प्रकट की। साही जी ने कहा कि उनके मूड पर निर्भर करता है वे कैसा व्यवहार करें। उल्टा सीधा कुछ कह दिया तो बर्दाश्त कर सकेंगे।
चलो देखते हैं। उम्र में बड़े ही होंगे। वे दोनों दोपहर बाद पहुंचे निराला जी सोकर उठे थे। उन्होंने जाते ही पूछा कहो साही कैसे आए।
साही जी ने कहा आप से लोहिया जी मिलना चाहते थे। उन्हें आपसे मिलाने लाया हूं। उन्होंने उनकी तरफ़ देखा। जवाहरलाल तो इलाहाबाद के होकर कभी नहीं मिले, आप कैसे आ गए। लगता है वे लोहिया जी को उनके बराबर रखते थे।
आप देश के बड़े कवि हैं आप से नहीं मिलेंगे तो किससे मिलेंगे। निराला जी ने लंबा सा हूं किया जैसे उनकी हां में हां मिला रहे हों। निराला जी ने अपने आप ही बड़बड़ाया जवारलालआते तो उन्हें भी चाय पिलाता। उनके पास लुटिया थी बाल्टी में से पानी भरकर अंगीठी पर रख दिया। और पूछा –तुम भी कविता लिखते हो?
जी नहीं पढ़ता हूं?
क्या पढ़ा?
उन्होंने कहा आपकी राम की शक्तिपूजा। उन्होंने लंबा सा हूं किया। लोहिया जी बोले उसने मुझे प्रेरणा दी है। तब तक चाय बन गई थी।
मैं सोचता हूं कि क्या आज शायद ही ऐसा कोई राजनेता होगा जिसने राम की शक्ति पूजा पढ़ी हो प्रेरणा लेना तो दूर की बात है। चाय पीकर जब लोहिया जी निकले तो निराला जी बुदबुदा रहे थे फिर आना।

कई बातें लोहिया जी के संदर्भ में ध्यान आती हैं मुझे अंग्रज़ी हटाओ आंदोलन में जनेश्वर जी के साथ काम करने का अवसर मिला था। इस कार्यक्रम के अगले दिन मैंने सब हिंदी और अंग्रेज़ी अखबार देखे। इतने बड़े व्यक्ति के जन्म शताब्दी के आरंभ के बारे में अखबारों ने क्या रपट छापी। अंग्रेज़ी का तो उन्होंने विरोध किया था। उन्होंने रपट नहीं छापी तो बात समझ में आती है लेकिन मेरे लिए आश्चर्य की बात थी कि जनसत्ता को छोड़कर किसी भी हिंदी अखबार ने उस कार्यक्रम का नोटिस नहीं लिया था।अगर गांधी और लोहिया न होते तो इन हिंदी अखबारों का पता नहीं क्या स्थिति हुई होती।