भारतीय पत्रकार का जूता और गृहमंत्री की क्षमा
7 अप्रेल 09 को गृहमंत्री पी चिदंबरं की प्रेस कान्फ़्रेंस देख रहा थी, एकाएक एक जूता उछला और उनके दाहिने कान के पास से होता हुआ निकल गया। यह इतना अचानक हुआ कि शायद ही वहां बैठे पत्रकारों को भी समझ में देर लगी होगी। लेकिन चिदंबरंम काफ़ी चौकन्ने थे। वे बचे भी और बेसाख्ता उनके मुहं से निकाला। इन्हें बाहर ले जाइए मैं इऩहें माफ़ करता हूं। आप यानी रानीतिक दल शायद यह सोचें कि चुनाव के चलते उऩ्होंने यह घोषणा की होगी। लेकिन उनकी वह तात्कालिक प्रतिक्रिया थी। जब ले जाया जारहा था तब उन्होंने दो बार अंग्रेज़ी में कहा आराम से ले जाएं। यानी ज़बरस्ती न करें। यहां एक सवाल तो यह उठता है कि वहां इंटेलिजेंस का पूरा अमला होगा। उनकी नज़र एक आदमी पर रहती है। पत्रकार अगली पंक्ति में बैठा था। जूता खोलने और फेंकने मे 5 नहीं तो 3 या 4मिनट तो लगे होंगे। अगर वे चौकस होते तो जूता फेंकने से पहले ही पकड़ सकते थे कम से कम घेर तो सकते ही थे। जब गृहमंत्री इतने असुरक्षित हैं तो आम आदमी तो किस्मत से ही जी रहा है। पत्रकार बुश पर जूता फेंकने वाले पत्रकार की तरह चर्चित होना चाहता होगा। लेकिन मीडिया के द्वारा इस बात की भर्त्सना करना एक सकारात्मक प्रतिक्रिया है। उनका कहना है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।
बी जे पी के प्रवक्ता का कहना था ठीक तो नहीं हुआ पर 84 के हत्याकांड में टाइटलर को सी बी आइ द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के कारण उसने भावना में ऐसा किया। एक तो यह उस मसले पर मीटींग नहीं थी, न समुदाय विशेष की बैठक थी गृहमंत्री ने कहा था कि सी बी आइ की रपट कोर्ट के विचाराधीन है वह स्वीकार भी हो सकती है अस्वीकृत भी। प्रतीक्षा करना उचित होगा। पत्रकार के पास दो विकल्प थे। प्रोटेस्ट करने के साथ ही वह उठकर जा सकता था। सबसे बड़ी ताकत कलम की थी। जिसके सामने जूते की क्या वक़त। उसने जूते को बड़ा बना दिया। वैसे भी देश इस समय पीड़ित वर्ग के साथ है। पहले भी था। ऐसा करके देश की उस भावना को नकार। उसी वक्त तो तय होने नहीं जा रहा था। एक पत्रकार जो कलम की काम जूते से ले उसे क्या स्वयं पत्रकारिता को अलविदा नहीं कह देना चाहिए। यह तो उसका और मैनेजमेंट का मामला है। साथ ही पत्रकारिता और मीडिया की इतनी मज़बूत साख़ पर प्रश्न चिन्ह लगा है। वह भी पत्रकारिता पर ख़ासतौर से। हिंदी पत्रकारिता संयम की पर्याय रही है। उछृंखलता उसके मिजाज़ में नहीं है। इस मैं दुभाग्य पूर्ण मानता हूं। जहां तक व्यक्तीगत भावुकता का सवाल है उसमें तो कुछ भी संभव है। चिदंबरम की तत्कालिक प्रतिक्रिया को मैं गांधियन सोच मानता हूं। मुझे खुशी है पुलिस ने बिना किसी ज्यादती के पत्रकार महोदय को छोड़ दिया। इसी तरह समाज में संतुलन रह सकता है।
गिरिराज किशोर, 11/210 सूटरगंज कानपुर 28001
Monday, 13 April 2009
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8 comments:
कौन सी कलम की बात कर रहे हैं महाराज? कौन सा अखबार छापेगा? अगर छापेगा तो सरकारी कोप का भाजन कौन बनेगा? सारे के सारे तो बिके बिकाये हुये हैं.
जब जनता जूते हाथ में लेकर खड़ी हो जाती है अच्छे से अच्छे दद्दन पहलवान भी गांधियन सोच अख्तयार कर लेते हैं, जो क्षमा वमा का लबादा ओढ़ने की नौटंकी की है यदि चुनाव न होते तो आप भी देख लेते.
चिदम्बरम जैसे घुटे घुटाये नेता की गांधी से तुलना करके आपने गांधी को गाली दी, मैं भी इसके लिये आपको माफ करता हूं:).
"जूता खोलने और फेंकने मे 5 नहीं तो 3 या 4मिनट तो लगे होंगे। "
इसका मतलब तो यही हुआ कि वह पहले से ही तैयार था जूता पैर से निकाल कर! क्या उस पत्रकार की हरकत से सरकार में आई हरकत से यह साबित नहीं होता कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते??????
बहुत बढिया..ये तो सब जानते हैं कि राजनीति या राजनेता आमजनता के लिये नहीं है,उन से जनता हमेशा नाखुश ही रहती है, खुश होने का कोई कारण भी नहीं है, लेकिन बुद्धिजीवियों से जूता फेंकने जैसी हरकत की उम्मीद नहीं की जाती.विरोध के अन्य तरीके भी हैं.
लाचारी होती जहाँ जूते होते हाथ।
कलम मीडिया ने दिया जूते का ही साथ।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
तात्कालिक लोकप्रियता के लिए ही उठाया गया कदम है यह, भावावेश में नहीं. क्या तथाकथित बाहुबलियों पर भी उठता जूता इनका! चिदंबरम जैसे व्यक्ति से भय नहीं था तभी तो...
bahut badhiya likha hai aapane.anonymous bhai jin logon ki kalam me taqat hai ve aaj bhi achchha likh rahe hain.aur chhap rahe hain.logon tak unaki baat bhi ja rahi hai.bhai aap apane nam sahit tippani likhate to bhi koi harj nahin tha.aakhir janata ko jute hath me lekar khade hone ki baat itani bujdili se.aapane jo likha hai yah likhane ke aap haqdaar nahin hai.
चिदंबरम की तत्कालिक प्रतिक्रिया को मैं गांधियन सोच मानता हूं। in panktiyon ko padhe isame gandhi se tulana nahin hai.isame soch ki baat kahi hai.amal ki baat hai.
aap apana nam chhupakar jo surveer bane hain .
chalo chhodo aap ko bhi maaf kiya.
पत्रकार बुश पर जूता फेंकने वाले पत्रकार की तरह चर्चित होना चाहता होगा। लेकिन मीडिया के द्वारा इस बात की भर्त्सना करना एक सकारात्मक प्रतिक्रिया है। उनका कहना है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। sir, aapaka kahana bilkul sahi hai.ab ham soche ki sab aur is tarah ki ghatnayen hone lage to kitani buri halat hogi.
vandana ji ne sahi kaha ki virodh ka yah sahi tarika nahin hai.
aapane chhote se lekh me bahut achchhe se sari isthitiyon ko samjhaya.
girarajji,
jab bush par joota chala tha to maine apne samooh mein iska virodh vyakt kiya tha.joota bush par chala, yadi vah saddam par chala hota to bhi main virodh karta.lekin jab chidambaram par joota unhen marne ki neeyat se alag yah kahte hur fenka gaya ki i protest to maine yah socha ki virodh prakat karna uchit hai lekin tareeka anuchit.kintu jaise hi congres party ne sajjan kumar aur titler ke ticket kate to mujhe laga ki ab apne desh mein joote chalne hi chahiye. na keval chalne chahiye balki bhigo bhigokar padne bhi chahiye.jis aadmi ki railway mein sudharon ke liye tareef hone lagi thee jisase milne dunia ke medhavi bacche aane lage the, uski bhasha aur ahankaar, saath hi uski jabaran mukhyamantri banwayee gayee bivi ke veebahats vichar sunkar laga ki jyada din door nahin jab koi inpar bhi joota hi chalayega.indian beurocracy mein koi kursi nahin bachi jo latiye jane ke layak na ho gayee ho.kabhi kabhi padhe likhe aadmi ka sayam bhi toot jata hai.
krishnabihari
mera arth hai juta to aap kisi ko mar den kya farak padta hai.ek sipahi ne shrilanka mai rajieev gandhi ko rifal ki bat mari thi kisi ne viridh is tarha nahi kia lekin kalam ke patrakar ne kalam ko jute se chota kar dia. karya karta ne neta ko juta mara to veh neta aur suppporter ke beech ki bat hai. halanki galat hai.
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