Thursday 24 June, 2010

आदिवासी समस्या का हल माओवाद नहीं राजनीतिक है

6 जून 10 के अमर उजाला(आनंद) में एक नक्सली की डायरी छपी है। वह मई 1973 से लेकर 2010 यानी 37 वर्ष के नक्सली जीवन पर आधारित है। अनेक अंतर्विरोधों से भरी हुई। सरकारें तो अत्याचार और दमन करती ही हैं चाहे कम्यूनिस्ट सरकार हो या अमेरिका व भारत की जनतंत्रात्मक सरकार या माओवादी सरकार। 8 जून के yahoo ईमेल पर न्यूज़फ्लेश था कि व्हाइट हाउस की लीजेंड पत्रकार रिटायर कर दी गई क्योंकि उसने कहा था कि इज़राल ने हदें पार कर दीं। हांलांकि अमेरिका मानव अधिकार का सबसे बड़ा पोषक और संवर्धक होने का दावा करता है परंतु जबसे अमेरिका अस्तित्व में आया तबसे लेकर आज तक उन अधिकारों के उलंघन का पुरोधा बना हुआ है। रेड इंडियन्स से लेकर इराक़ का अन्याय पूर्ण दमन और उत्पीड़न तथा इज़राइल द्वारा फिलिस्तान के मुसीबतज़दा लोगों के लिए राहत सामग्री ले जाने वाले जाहज़ों पर अमानवीय आक्रमण व अधिग्रहण का एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा विरोध करने पर उसका व्हाइट हाउस से निष्काषण, क्या अमेरिका को मानवअधिकारों का संरक्षक कहा जा सकता है? शायद जनतंत्र भी मानवीयता का बाना पहन कर उतना ही तुर्रमखां है जितनी तानाशाही। स्टालिन के मिडनाइट नाक के नाम से आज भी पसीना आजाता है। आपातकाल में हमारे यहां भी यही हुआ। माओ की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन के सब लेखक/बुद्धिजीवी कामगर बना दिए गए थे। रात में मोमबत्ती की रोशनी में कितांबें स्मगल करके पढ़ते थे। पकड़े जाते थे तो लेशिंग होती थे। यानी ठोक पीटकर पोलितेरियत बनाया जाता था। उपरोक्त नक्सली की डायरी में नंबर 1997 को डायरी नवीस ने एक अमनोवैज्ञानिक घटना का जिक्र किया जो शायद उनके अनुशासन का हिस्सा हो। लगता है सब मानवेतर और अमनोवैज्ञानिक निर्णय अनुशासन के नाम पर ही लिए जाते हैं।
1997 ...लक्ष्मी और अशोक। सशस्त्र क्रांति में बंदिशें हैं, लेकिन प्रेम कहां कोई बंधन मानता है। दोनों ने जाने कब एक दूसरे को दिल दे दिया पता नहीं। दोनों मद्देड़ के पास हुई बड़ी कार्यवाही में भी शामिल हुए थे। अब शादी करना चाहते हैं। आज की बैठक इसी मुद्दे पर है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी ने शादी की मंज़ूरी दे दी।...पार्टी ने एक शपथ पत्र तैयार किया है। यही शपथ कामरेड के लिए अग्निकुंड है, सात जन्मों में बंधने का जतन। दोनों ने शपथ ली कि वे शादी के बाद भी पहले की तरह पार्टी का काम करते रहेंगे।...(पहले की तरह का मतलब...?)
अक्तूबर, 1998 ...दोनारपाल से बीजापुर के बीच एक बड़े आपरेशन को हमने अंजाम दिया। हम पर सुरक्षा बलों का दबाव बढ़ गया है। इस बीच खबर आई कि लक्ष्मी और अशोक ने सरंडर कर दिया। दोनों बच्चा चाहते थे। पार्टी में प्रेम की इजाज़त है, बच्चा पैदा करने की नहीं।
2010, सत्तर के दशक में जो सपना देखा था उसका यह हश्र! उस दौर में लोग हमें क्रांतिकारी समझते थे अब आतंकवादी कहने लगे हैं। हमारी विचारधारा में तो कोई खोट नहीं था। फिर हमारे हाथ उसी जन के ख़ून से क्यों सने हैं जिसके नाम पर हमने जनसंघर्ष की शुरूआत की थी?
37 साल के नक्सली जीवन के बाद जब एक सेंट्रल कमेटी का सदस्य अपने आप से यह सवाल करता है कि हमारे हाथ उसी जन के खून से क्यों सने हैं जिसके नाम पर जन संघर्ष की शुरूआत की थी तो यह सवाल पुनर्विचार की गुंजायश पैदा करता है उनके लिए खासतौर से जो इस रक्ताभ आंदोलन के कर्णाधार हैं या समर्थक हैं (कनू बाबू का प्रायश्चित भी शायद यही था)। हम क्या हिंसा या बंदूक के वल पर परिवर्तन ला सकते हैं? कर सकते हैं तो कितने समय के लिए? अगर ला सकते तो स्टालिन और क्रुश्चेव की बिदाई के बाद गोर्बोचोव इतनी जल्दी सफल न होते। माओ के बाद चीन रिविज़निस्ट या क्षमा करें रेनिगेड बनकर पूंजीवादी व्यवस्था को आत्मसात करने को बाध्य न होता। (आज चीन में हर पूंजीपति 12 सीटर व्यक्तिगत एयर क्राफ्ट पर चलता है)। बंदूक से निकलने वाली वह गोली न चीन अपने अशांत प्रदेशों में उनकी आज़ादी के लिए इस्तेमाल कर पा रहा है और न ही पूंजीवादी देशों के दबाव से मुक्ति पाने के लिए। शांतिपूर्ण हल निकालने के लिए बंदर भभकी का सहारा ले रहा है। यही हाल पूंजीपति देशों का है। दरअसल सब देश अपने अपने असलहे चमका रहे हैं पर सब शार्टकट शांति चाहते हैं सीधे शांति की बात नहीं करते। अलबत्ता तीसरी दुनिया के देशों के गरीब और अनपढ़ जन को मारने या धमकाने के लिए जिस जन के लिए जन के नाम पर जनसंघर्ष कर रहे हैं उसी को मार रहे हैं उसी के ख़ून से हाथ सान रहे हैं। चाहे मुख़बिर का नाम देकर उसी आदिवासी को मारें जिसके अधिकार को संरक्षित करने की बात करते हैं या उस सिपाही को मारें जो रोज़ी रोटी के लिए जान जोखिम में डालकर वहां तैनात है। वह लड़ नहीं रहा था, बस से घर जा रहा था। रेल गाडियों को उड़ाकर उन बेगुनाह लोगों को खत्म कर देते हैं कि जो या तो बर्तनभांडे बेचकर नौकरी की तलाश में जा रहे होते है या फिर बीमार संबंधी को देखने किस तरह जुगाड़ करके उस गाड़ी में यात्रा कर रहे होते है। किस लिए? उसका तुम्हारे ऊपर तो असर पड़ना ही नहीं तुम तो जनक्रांति कर रहे हो। उनके ऊपर तो पड़ना ही नहीं जिनका उद्देश्य देश को आतंकवाद से सुरक्षित करना है। जनता को तुम दोनों ने इस तथा कथित दुमूही क्रांति के नशे के बीच जीने की आदत डाल दी है। वह कुछ समय के लिए दुखी होता है फिर सर्द आह भरकर काम में लग जाता है। इन दो कोष्टों ने उस जन से विरोध और समझदारी का अधिकार छीन लिया है।
हमारे बुद्धिजीवी दुमूही बातें करने में पारंगत हैं। वे आसानी से कह देते हैं कि मैं हिंसा का समर्थन नहीं करती या करता जैसे अरुणधति जी। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि एक सशस्त्र आंदोलन होना चाहिए, साथ ही यह भी चुनौती कि सरकार चाहे जेल में बंद कर दे। एक बार जेल यात्रा का मौक़ा आया था तब महीने भर जेल में रहना गवारा नही हुआ था माफ़ी मांगकर चले आना सुखकर लगा था। सशस्त्र आंदोलन किस लिए जब आप हिंसा का समर्थन नहीं करते तो सशस्त्र आंदोलन क्या फैशन परेड है जिसे आप हर्ष फायरिंग की तरह करना चाहते हैं। बुद्धिजीवी हिंसा का विरोध भी करेगा और हिंसा का साज़ो सामान इकट्ठा करने को प्रोत्साहन देकर पेट्रोल को आग के पास भी ले जाएगा। बेहतर यही है वे एक तरफ हो कर साफ़ बात करें। कोई एतराज़ नहीं अगर वे हिंसा के समर्थक बने रहें। संसार में सशस्त्र आंदोलनों के दौरान कहीं ऐसा नहीं हुआ कि शस्त्रों या उनके धारकों ने गुनाहगार और बेगुनाह में भेद किया हो। यह कहना कि मैं हिंसा का या बेगुनाह लोगों की हत्याओं के पक्ष में नहीं हूं महज़ लफ़्फाज़ी ही कही जाएगी। हिंसा तो सामने दिखती है पर गुनाहगार और बेगुनाह छिप जाते हैं। जो मारा गया वह गुनाहगार हो गया। जिसे शासन शहीद या बेगुनाह करार देता है मारे जाने के बाद ‘क्रतिकारी’ गुनाहगार करार दे देते हैं। उसे और उसके घरवालों को भी मौत को दो कोष्ठों के बीच जीना पड़ता है। बकौल अरुणधति जी के सरकार अपने देशवासियों के खिलाफ युद्ध कर रही है यह बात गलत नहीं। लेकिन क्या माओवादी देश के लोगों के खिलाफ हथियार नहीं उठाए हुए हैं। जिन आदिवासियों के पक्ष में वे हथियार थामें हैं क्या उन्हीं को मुखबिर का नाम देकर हत्याऐं नहीं कर रहे हैं? सिपाहियों को तो वे मार ही रहे हैं। जैसा कि ‘एक नक्सली की डायरी’ में लिखा है क्या लक्षमी अशोक को विवाह की अनुमति देकर बच्चा न पैदा करने की बंदिश तालिबाना हुक्म नहीं है। विवाह की इजाज़त देकर बच्चा पैदा न करने देना, स्वाभाविक जीवन जीने की अपेक्षा को अग्निकुंड में झोंक देना तो और भी बड़ी अमानवियता है। उन्होंने सरेंडर करके उन तथाकथित क्रतिकारियों की नज़र में शायद गद्दारी की हो लेकिन अपनी संवेदनाओं को सुरिक्षत करने का संभवतः यही एक तरीक़ बचा था। हो सकता है बाद में एस पी ओ नाम देकर उनकी भी हत्या कर दी गई हो। मानवीय संवेदनाओं के आधार पर उनकी समस्यों को सुलझाना या दिलों को बदलने का दायित्व उन सशस्त्र क्रातिकारियों का नहीं? सेनाएं भी संवेंदनाओं के सहारे चल सकती हैं। बड़ी विचित्र बात है अरुणधति जैसे बुद्धिजीवी अपनी रौ में किसी पर भी किसी तरह का आधारहीन लांछन लगा सकते हैं। मैं इस रिमार्क को कि ‘विरोध के गांधीवादी तरीके को दर्शकों की ज़रूरत होती है जो यहां नहीं हैं’ अपरिपक्व और अनभिज्ञतापूर्ण मानता हूं। इतना ही कहा जा सकता है कि सबसे अधिक आत्मीय हिस्से दारी आज़ादी के उसी आंदोलन में थी जिसमें जन निहत्था संघर्ष करता था। उन्हें मात्र दर्शकों की संज्ञा देकर एक ऐसे प्रयोग को लांछित करना है जो न पहले कभी हुआ, न आगे होगा। जो अपने आप में हथियारों के बल पर लड़ने से अधिक साहसी काम है। क्रांतिकारियों के कैंप का दौरा करना और लेख लिखने हिस्सेदारी नहीं दर्शन करना मात्र है। यहां मैं उस ज़माने के विदेशी पत्रकार की टिप्पणी पेश करना चाहता हूं जो नमक आंदोलन के बारे में अखबार को भेजी गई थी। अंग्रज़ी में ही दे रहा हूं अंग्रेज़ीदां बुद्धजीवी अगर पढ़ना चाहेंगे तो कम से कम वे इसका लाभ ले सकेंगे और अपनी अनभिज्ञता से थोड़ी बहुत मुक्ति पा सकेंगे-
‘This spectacular event was reported around the world; in the striking words of Webb Miller, the united press correspondent: From where I stood I heard the sickening whack of sticks on unprotected skulls…those struck down fell sprawling , unconscious, or writhing with fractured skulls or broken shoulders.’ (Gandhi Naked Ambition P. 191 , Jad Adams)
वे लोग बंदूकों या गोलियों के सहारे हिस्स्दारी नहीं कर रहे थे। हथियार क्रांतिकरियों की अपनी सुरक्षा के माध्यम अधिक होते हैं। वे गांधीवादी तमाशबीन नहीं थे। वे निहत्थे असुरक्षित होने के बावजूद अपने शरीरों पर आक्रमण झेलकर अहिंसक क्रांति कर रहे थे। उन दरिंदो को सचेत कर रहे थे कब तक मारोगे। क्रांति के नाम पर सशस्त्र क्रंतिकारियों के लिए हिंसा के द्वारा हत्याएं करना गुरूमंत्र है वहीं अहिंसक क्रांति में आत्मबलिदान करके परिवर्तन लाना जीवन का उदेश्य है। शायद हमारे मार्क्सवाद बुद्धिजीवियों को हिंसक क्रांति पसंद है। वह आत्मरक्षा के साथ दूसरों की जान लेकर बचे हुए लोगां को समझदार बनाते हैं। हम समझदार हैं हमारे पास हथियार हैं हमारी बात मानो।
कोई उनसे क्यों नहीं पूछता कि पार्टनर तुम्हारी क्या राजनीति है। अगर तुम इस शस्त्र क्रांति में सफल हो गए तो क्या करोगे? क्या तब भी बंदूक की गोलियों से लोगों को ज्ञानी बनाओगे? चंगेज़ खा़, सिकंदर, नादिर शाह, हिटलर, मोसोलोनी, स्टालिन, हिटलर, माओ कोई हिंसा को अमरत्व प्रदान नहीं कर पाया। अमेरिका का अणु बम भी चमत्कार नहीं कर पाया। उसके मालिक को जापान के सामने आज भी याचक का बाना पहनना पड़ता है। गांधी ने कहा था ’l see no difference between the Nazi powers and the allies . All are exploiters, all resort to ruthlessness.’ (पृ 221, वही)
हिटलर की, गांधी ने उसके व्यक्तिगत आचरण के लिए प्रशंसा की थी पर उसके राजनीतिक नज़रिए के बारे मे 1940 में उन्हें ही लिखा ‘Dear Friend, We have no doubt about your bravery or devotion to your father land nor do we believe that you are a monster described by your opponents (though) many of your actions are monstrous and unbecoming of human dignity, specially in estimation of men like me who believe in universal friendliness,’ (पृ एवं पुस्तक वही)
हिटलर की तरफ से भारत के पूर्व गर्वनर जनरल और तत्कालीन विदेश सचिव लार्ड हेलिफेक्स को सलाह दी गई थी कि तुम्हें एक ही काम करना है गांधी को शूट कर दो। अगर ज़रूरत समझो तो कांग्रेस के कुछ और नेताओं को खत्म कर दो। तुम देखना कितनी जल्दी तुम मुसीबत से निजात पा जाते हो। असिहष्णुता तानाशाही की जनक है और जनतंत्र की हत्यारी। अंग्रज़ों के लिए हिटलर की सलाह पर अमल करना मुश्किल नहीं था लेकिन उन्होंने, और चाहे जो किया हो, पर ऐसा नहीं किया। हमारे देश के हिंदूवादी लोगों ने भले ही कर दिखाया।
एक सवाल जो शायद सबके दिमाग में आता हो, अपवादों को छोड़कर। वे सत्ता प्राप्त करने के लिए सशस्त्र क्रांति पर आमादा है या जन कल्याण के लिए? जन कल्याण का माध्यम क्या होगा? उनका नारा है सत्ता बंदूक की नली से निकली गोली से मिलती है। उसे बरकरार रखने के लिए भी शायद उसी की ज़रूर होती है जैसा कि कई देशों में हुआ है। जव उसका भय खत्म हो जाता है या सामने बड़ी शक्ति आ जाती है तो शांति की खोज होने लगती है। गोली की समय सीमा क्या है, सत्ता मिलने तक या उसके बाद भी..? सवाल उठेगा सत्ता मिलने पर उनकी योजना क्या होगी।
नाम भले ही जनता से जुड़ा हो पर उन्हें भी औद्योगिकरण करना है। ज़मीन भी चाहिए, पानी भी चाहिए, खनिज भी चाहिए हर वह चीज़ चाहिए जो कोर्पोरेट जगत को चाहिए। धन तो चाहिए ही। य़ा वे मशीनों के मुकाबले जन शक्ति और अहिंसा को प्राथमिकता देंगे? शहरों में कितनी ज़मीन बची है, जंगलों की तरफ जाना उनकी भी नियति होगी। जो विरोध करेगा उसे जनविरोधी की संज्ञा देकर किनारे लगा दिया जाएगा या उनकी बात सुनी जाएगी? विकास का ऐसा उदाहारण कहीं नहीं है जो यह बताता हो कि उन्होंने बंदूकें छोडकर मेहनतकशों व किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया हो। समाज में समरसता बनाई हो। भय उनका परोक्ष और प्रभावी हथियार रहा। सभ्य बनने के साथ इस हिंसक संस्कृति से आम जन को निजात दिलानी होगी। वे तो कमिसार बने ट्रिगर पर उंगली रखे खड़े रहते हैं। उनकी तरबियत ही ऐसी है। आम आदमी सुरक्षा चाहता है, शांति चाहता है। भय के ज़रिए सुरक्षा देने के आदी आत्मियता और भाईचारे की नीति से अनभिज्ञ रहते हैं। दोनों सवाल अलग हैं सत्ता पाना और आदिवासियों का मित्र बनकर उनका साथ देना। नफ़रत की डाल पकड़कर हिंसा परवन चढ़ती है।
ये दोनों बातें अलग हैं, सशस्त्र क्रांति और आदिवासी सस्याओं का समाधान। ये आधुनिक हथियार उनके मित्र नहीं। ठोक पीटकर भले ही उन्हें हथियारों का मित्र बना दो पर वह उनके नैसर्गिक मित्र नहीं हो सकते। जो लोग कपड़ों को अपने जीवन के लिए अनिवार्य नहीं मानते वे उन आधुनिक हथियारों को अगर स्वीकार करेंगे तो एक कड़वी गोली की तरह ही। उन्होंने 19वी शताब्दी में अपने ही हथियारों से अंग्रज़ो को पानी पिलाया था। मानगढ़ का विद्रोह इसका उदाहारण है। उसी पर आधारित हरिराम मीणा का उपन्यास धुनि तपे तीर है। वे इन हथियारों से सहजता अनुभव कर ही नहीं सकते। न उन्हें उपलब्ध करना उनके बस की बात है। आप ही एक से एक साफेस्टिकेटेड हथियार आभूषणों की तरह प्राप्त करके उन पर वर्चस्व कायम कर रहे हैं। उन्हें परनिर्भर बना रहे हैं। जिनसे आप हथियार ले रहे हैं वे देश जन के अधिकारों की सुरक्षा मं रुचि नहीं रखते बल्कि उनकी रुचि अपने देश के लोगों के माध्म से देश में असंतुलन पैदा करके अपना राजनीतिक हित साधना है। आदिवासियों की समस्या बाहरी हस्तक्षेप से नहीं निबटेगी उसके लिए उनके साथ काम करके उन्हें उनके आत्मबल का अहसास कराना होगा। हथियारों की लड़ाई तो परमुखापेक्षी बनाकर उनकी आज़ादी का अपहरण होगा। वे कमज़ोर नहीं हैं। अपने हथियारों की चकाचौंध में उन्हें भरमाए नहीं। आज़ादी की लड़ाई के दौरान न क्रंतिकारियों ने विदेशों से इस तरह की सहायता ली और न अहिसक राजनीति ने। गांधी का मानना था कि दूसरों के सहारे हिंसा की लड़ाई लड़ना देश को गुलाम दर गुलाम बनाना है इसी संकट से बचने के लिए अपनी तकनीक ईजाद की। जिन्ना भी इस बात को जानते थे कि हर समस्या का राजनीतिक हल निकल सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि मार्क्सवादी सोच के कारण ही दूसरे देशों में इस तरह का हस्तक्षेप बढ़ा है। हम मध्यकाल में और 18वी 19वं सदी में देख चुके हैं कि अपने भेद भावों के चलते हमने बाहर ताकतों को बुलाया और गुलामी दर गुलामी भोगी। वही काम प्रकांतर से अब हो रहा है। आदिवासी समस्या हमारी बिगाड़ी हुई है उसको संवारना हमारी ही जिम्मेदारी होनी चाहिए। इसे वहन करना पड़ेगा और उसका राजनीतिक हल निकालना होगा।
(sankshipt ansh 24.6. 10 ko Jansatta mai chapa hai)



Thursday 3 June, 2010

सुल्ताना डाकू और उसका दोस्त

हिंदुस्तान दैनिक 30 मई 10 में एन सी शाह के शोध के माध्यम से छपे एक समाचार ने मेरा बचपन मुझे याद दिला दिया। सुल्ताना डाकू पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसी आख्यान के नायक की तरह था। स्कूलों में नाटक खेले जाते थे, नौटंकियां और सांग होते थे। वह डाकू कम नायक ज़्यादा था। वह वेष बदलने में माहिर था। अकसर अग्रेज़ अफसरों को मूर्ख बनाकर निकल जाता था। कभी कलक्टर बन जाता था कभी कमिश्नर और कभी एस पी। उसके बारे में अनेक ऐसी किंवदन्तियां प्रचलित थीं कि अमीरों को लूटता था और गरीबों का साथी था। कई बार वह वेष बदलकर ऐसे बेसहारा परिवारों की मदद के लिए पहुंच जाता था जहां बेटी की बारात आने वाली होती थी और घर में भुनी भांग नहीं होती थी। पीछे पुलिस होती थी। वह साधु या साहुकार के वेश में आता जो धन देना होता देकर निकल जाता। पीछे से पुलिस आती देखती जहां कुछ देर पहले पैसा न हाने के कारण मुर्दनी छाई थी वहां शादी की तैयारियां चालू है। तहकीकात करने पर पता चलता कि एक सेठ या महात्मा आया धन देकर चला गया। वे मार पीट करते पर इससे ज़्यादा न वे बता पाते और न वे जान पाते। पुलिस वाले भी समझ जाते कि सुल्ताना फिर हाथ से निकल गया। कई बार तो वह आला अफसरों से बैठकर बात कर जाता, नाई बनकर उनकी हजामत तक बना जाता। उसके जाने के बाद जान पाते कि वह सुल्ताना से बात हो रही थी। वह चाहता तो उन्हें आराम से हलाक कर सकता था। वे रोमांचित हो उठते थे और सीने पर क्रास बनाने लगते थे। ईशू ने बचा लिया।
सुल्ताना कभी धोखे से वार नहीं करता था। अफसरों को मूर्ख बनाने में उसे मज़ा आता था। आम जनता की हमदर्दी के कारण उसे पकड़ना अंग्रेज़ों के लिए टेढी खीर था। अगर कभी हाथ भी आ जाता था तो चकमा देकर निकल जाता था। एक किंवदंति थी कि वह किसी बच्चे को गोद नहीं लेता अपने बच्चे को भी नहीं। बताते हैं उसे शाप था कि जिस दिन बच्चे को गोद में उठाएगा वही उसका अंतिम दिन होगा। पूरा किस्सा तो श्री शाह के शोध में होगा। लेकिन कहते हैं कि स्थिति ऐसी उत्पन्न हुई या की गई कि उसने बच्चा गोद में उठा लिया। उसी दिन वह पकड़ लिया गया। उसे फांसी की सज़ा सुनाई गई। कहा जाता है कि फांसी से पहले उसकी मां मिलने आई तो उसने मिलने से यह कहकर मना कर दिया कि आज यह दिन तेरे कारण देखने को मिला। इससे यही पता चलता है कि उसे वास्तव में डाकू बनने का कितना पछतावा था।
मेरा बचपन आल्हउदल और शाहआलम के आख्यानों की तरह सुल्ताना डाकू के किस्से सुनते बीता। लेकिन डा शाह के शोध के इस हिस्से ने मुझे रोमांचित कर दिया। यह तो सुना था कि फांसी से पहले किसी अंग्रेज़ अफसर ने आश्वासन दिया था कि वह बाद में उसके परिवार की देख भाल करेगा। यह एक बड़ा रहस्योदघाटन है कि जिस पुलिस अफसर फ्रेड्रिक यंग ने उसे फांसी दिलवाई वही उसकी पत्नी और बेटे को अपने साथ लंदन ले गया, उनकी परवरिश की और बेटे को पढ़ा लिखाकर आई सी एस बनाया। डा शाह का शोध हालांकि मैंने नही पढ़ा लेकिन दो परस्पर विरोधी और एक तरह से जानी दुश्मनों की संवेदना भरी कथा है। मि. यंग का सुल्ताना के आख्यानों में प्रमुख भूमिका थी। सुल्ताना यंग को तरह तरह के रूप रखकर बहुत छकाता था। शायद हिंदुस्तानी अधिकारी ऐसे डाकू को कानूनी ज़द में लाकर फांसी दिलाने के बजाए एनकाउंटर करके बार बार होने वाली अपनी बेइज्ज़ती का बदला लेता। उसके परिवार के साथ यह सलूक तो अकल्पनीय है।
मैंने अपने छात्र जीवन में सुल्ताना डाकू नाटक में यंग की भूमिका की थी। यंग का एक संवाद मुझे स्मरण है। सुल्ताना जब नाई बनकर यंग की हजामत बनाते हुए कुछ सुचनाएं इकट्ठी करके निकल जाता है तो यंग को पता चलता है। पहले सिपाहियों को दौड़ाता है फिर स्वगत कहता है सुल्ताना काश पुलिस में होता। इससे लगता है यंग उसकी क्षमता को समझता था। शाह ने लिखा है कि दोनों मज़बूत इरादे और चरित्र के इंसान थे। शाह का शोध यंग के द्वारा अंग्रेज़ हुकूमत को रोज़ाना भेजी जाने वाली रिपोर्टों पर आधारित है। मुझे खुशी है कि मैंने नाटक में एक ऐसे अधिकारी की भूमिका की जिसने इंसानियत की ऐसी मिसाल कायम की जिसका सानी मिलना लगभग असंभव है। डाकू माने जाने वाले जिस इंसान को फांसी दिलाई उसी के बेटे को अंग्रेज़ होते हुए भी ब्रिटिश शासन के सर्वोच्च प्रशासकीय पद के लायक बनाया।