Friday, 1 October 2010

Akhilesh ji ko patr

27. 9. 10
प्रिय अखिलेश जी,
आपका पत्र संख्या 2, दिनांक 21. 9 10 का पत्र मिला। धन्यवाद। आपने पुस्तकें वापिस करने वाले प्रश्न पर जवाब सोच समझकर ही दिया होगा तभी इतना समय लगा। आप इस बात से तो सहमत ही होंगे कि पुस्तक वाला यह मामला कोई लेखक और प्रकाशक के बीच किसी व्यावसायिक गतिरोध (डिस्प्यूट) का मामला नहीं है। यह लेखकों के सम्मान से जुड़ा प्रश्न हो गया है। खासतौर से महिला लेखकों के सम्मान से, जो लेखक वर्ग का अभिन्न हिस्सा हैं। चाहे पुरुष हों या महिलाएं किसी के सम्मान पर भी आंच आए वह सबके सम्मान पर आंच होती है। हो सकता है कुछ लोग निहित कारणों से इस बात से सहमत न हों। या जान-बूझकर ऐसा करते हों और समझते हों वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग कर रहे हैं। भले ही वह नकारात्मक हो।
जब मैंनें किताब दी थी तब ज्ञानपीठ एक प्रकाशन से अधिक साहित्यिक संस्थान था जिसे लोग एक लीजेंड (रवायत) की तरह मानते थे। यहां छपना सम्मान की बात थी। लेखक को इसके संस्थापक देवो भव का दर्जा देते थे। स्टाफ को भी ही यही बताया जाता था। अब जब ज्ञानपीठ की साख केवल दो या तीन लोगों के कारण सामान्य प्रकाशन से भी नीचले पायदान पर आ गई तो स्वाभाविक है कि केवल पूर्व प्रतिष्ठा पर आने का अवसर देने के लिए कुछ लोग ज्ञानपीठ से किताबें वापिस ले रहे हैं। ज्ञानपीठ के मंच से जिस प्रकार की असांस्कृतिक और आपत्तिजनक बातें कही गईं हैं आपके निदेशक/संपादक और न्यासी द्वारा उसका समर्थन किया गया है, अफवाहें फैलाई गई हैं, उसके बाद किसी भी आत्मसम्मान वाले लेखक के लिए यह सोचना बाध्यता हो गई कि यह कोकस किसी के साथ किसी भी सीमा तक जाकर असभ्यता कर सकता है। आपके आजीवन न्यासी, इस गुमान में कि वे ज्ञानपीठ के मालिक हैं, आपकी पत्रिका में मेरे नए उपन्यास इक आग का दरिया है का ईर्ष्यावश सम्यक विज्ञापन न देने के सवाल पर, आपको पत्र लिखकर विरोध करने पर, किताब वापिस ले लेने की धमकी दे चुके थे। उस अव्यवसायिक व्यवहार को मैं ज्ञानपीठ की समृद्ध परंपरा तथा रमेश जी और अन्य सभ्य लोगों के व्यवहार को ध्यान में रखकर सहन कर गया था। इस बार तो सीमा का अतिक्रमण हुआ है। अपने असम्मान की घूंट तो पी जा सकती है जब पूरे समाज और खासतौर पर अपने बीच की महिलाओं का अपमान हो तो लेखकों की संवेदना प्रतिक्रियायित नहीं होगी तो किसकी होगी। प्रबंधन का व्यक्ति इस बात को न समझे यह बात चकित करने वाली है। मैनेजमेंट का ऐसे लोगों को संरक्षण देना असभ्य व्यवहार को बढ़ावा देना है। यह प्रबंधन को देखना है कि वह इस लीजेंडरी संस्था को कैसा प्रशासन देना चाहता है। मेरा कहने का तात्पर्य है कि इसे लेखक और प्रकाशक के बीच का गतिरोध न समझकर संस्था को, अशिष्ट कहना तो अनुचित होगा, कुछ असहज लोगों के हाथों में सौंप दिए जाने का, सद्भावना पूर्ण विरोध है। इसलिए इस प्रकरण को उसी रूप में सुलझाना चाहिए। बेहतर हो कि उसी नज़रिए से सुलझाएं। बची हुई किताबों के बारें में आपका क्या प्रस्ताव है बताएंगे तो आभारी हूंगा। तभी विचार करना संभव होगा।
आप ने लिखा है कि कि मेरे और प्रियंवद की तरह की शर्तें किसी दूसरे लेखक ने नहीं लगाईं। श्री अशोक वाजपेयी ने बताया उन्होंने भी इसी तरह की शर्त लगाई थी। अन्य लोगों का मुझे मालूम नहीं। यह तो प्रबंधन भी महसूस करता है कि अनुचित हुआ है। शायद आपके एक न्यासी जिनको संस्था के मालिक होने का अहसास है कई कारणों से ऐसा अनुभव नहीं करते। उसके पीछे अनेक कारणों के साथ उनका व्यक्तिमोह भी हो सकता है जिसे बार बार व्यक्त करते रहे हैं। किसी भी संस्था से बड़ा मैंनें सुना है कि व्यक्ति नहीं होता। व्यक्ति के संस्था से बड़ा होते ही बड़े बड़े राज्य खत्म हो गए या उनकी गरिमा नष्ट हो गई। मैंने केवल उदाहारण दिया है। आक्षेप न समझें।
मुझे इस और आपका ध्यान आकर्षित करते हुए हार्दिक दुख हो रहा है कि अभी देश का सर्वोच्च साहित्यिक ज्ञानपीठ सम्मान घोषित हुआ है। पहले जब सम्मान घोषित होने का अवसर आता था तो लगता था कि कोई बड़ी साहित्यक घटना होने जा रही है। इस बार एक प्राइवेट चैनल ने जब नाम घोषित किया तो उसे हाई लाइट करने के लिए उमराव जान अदा में रेखा के द्वारा पुरस्कृत लेखक द्रारा लिखा गाना और उस पर किया गया न्रत्य कई सैंकेड तक दिखाया जाता रहा। मेरे पास फोन आया आपने सुना ज्ञानपीठ का पुरस्कार घोषित हो गया। मुझे तब तक नहीं मालूम था। मैनें पूछा किसको मिला है। वे सज्जन बोले श्री शहरयार को मिला है। मैंने सुना था कि उनके लिए उर्दू के एक नक्काद जो जुरी के सदस्य हैं कोशिश कर रहे हैं। मैंनें कहा वे बड़े शायर हैं। कमलेश्वर के दोस्त रहे हैं। अरे नहीं साहब वह तो उमरावजान अदा में रेखा के गाए गाने पर मिला है। आप अमुक चेनल खोल कर देखिए। मैंने खोला तो रेखा लाल जोड़े में गा रही थी। फिर उनकी फ़ोन पर बात सुनवाई गई। उनसे पूछा गया कि इतनी देर से आपको यह सम्मान क्यों मिला। जवाब था पहले मैं जुरी का मेंबर था। मेंबर नहीं रहा तो मिल गया। पहले लेखक के जीवन के मुख्य अंश दिखाए जाते थे। पुस्तकें डिस्प्ले की जाती थीं। शायर या कवि हुआ तो उसके मुंह से पंक्ति सुनवाई जाती थी, या भाषण का अंश। उन सज्जन ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह यहां कहने से शायर की शान को चोट लगेगी। अगर आप गहराई से सोचें तो शायद आप भी महसुस करेंगे जो इंसानियत के साथ पिछले दिनों ‘बेवफाई’ हुई है, शायद यही कारण है देश कि इतने बड़े सम्मान को चैनल्स ने गैरजिम्मेदारी से लिया है। किसे मिलना चाहिए था किसे नहीं, यह सवाल बेमानी है पर मुख्य बात है कि लोग ज्ञानपीठ की बड़ी से बड़ी कारगुज़ारी को भी कैसे ले रहे हैं।
आपने अपने उपरोक्त पत्र में लिखा है कि गिरमिटिया गांधी की संपादिका डा. निर्मला जैन ने सूचित किया है बगैर उनकी अनुमति के पुस्तक को लौटाने का कोई निर्णय न लिया जाए। वे एक विदूषी महिला हैं मैं उन्हें पारिवरिक व परांगत संबंधो के कारण बड़ी बहन का सम्मान देता रहा हूं। वे आपको लिखने से पहले मुझसे अवश्य बात करतीं। ऐसा मैं मानता हूं। उन्होंने नहीं की कोई बात नहीं। वाणी प्रकाशन के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। वह कहानी लंबी है। जब ज्ञानपीठ, निर्मला जी और वाणी प्रकाशन के बीच इस उपन्यास को लेने के बारे में समझौता हुआ तो मैं उसका हिस्सा नहीं था। चूंकि संस्था और संक्षिप्तकर्ता पर मुझे विश्वास था, मैं चुप रहा। आपका उपरोक्त वाक्य अजीब लगा। शायद आपने पुस्तक नहीं देखी उस पर कापीराइट मूल लेखक का है संक्षिप्तकर्ता का नहीं। लगता आपके निदेशालय ने इस तथ्य़ को छिपाकर पत्र पर आपके हस्ताक्षर करा लिए। आप तय करें कि आप क्या चाहते हैं। ज्ञानपीठ पुस्तक पर छपे लेखक के उन अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं करना चाहेगी जो अब तक आपके यहां सबसे सुरक्षित माने जाते रहे हैं।
रमेश जी के सुपुत्र होने के नाते मैं आपको अपने अजीज़ की तरह बेमांगी राय दे रहा हूं कि आप निहत स्वार्थों के जंग को या तो सधे प्रशासक की तरह डील करें या इसकी प्रतिष्ठा को नष्ट करने की जंग से बचें। शुभकामनाओं सहित,
श्री अखिलेश जैन, प्रबंध न्यासी
ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
आपका

गिरिराज किशोर

3 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

‘ अरे नहीं साहब वह तो उमरावजान अदा में रेखा के गाए गाने पर मिला है। आप अमुक चेनल खोल कर देखिए’

यह तो जलन की हद है भई :)

sanjay said...

bahut sahi hai

अजय कुमार झा said...

आदरणीय श्रीमान |
सादर अभिवादन | यकायक ही अपनी पोस्ट पर आई इस टिप्पणी का किंचित मात्र आशय यह है कि ये ब्लॉग जगत में आपकी पोस्टों का आपके अनुभवों का , आपकी लेखनी का , कुल मिला कर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है , हिंदी के हम जैसे पाठकों के लिए .........कृपया , हमारे अनुरोध पर ..हमारे मनुहार पर ..ब्लोग्स पर लिखना शुरू करें ...ब्लॉगजगत को आपकी जरूरत है ......आपकी अगली पोस्ट की प्रतीक्षा में ...और यही आग्रह मैं अन्य सभी ब्लॉग पोस्टों पर भी करने जा रहा हूँ .....सादर