Tuesday 7 September, 2010

5,6 सितंबर 10
प्रिय अखिलेश जी,
मैंने आपको इसी बीते रविवार को यह जानने के लिए ईमेल किया था कि इतना सब होने और आपके लिखित आश्वासन के बाद कि आप ज्ञानपीठ के सम्मान की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं क्या निर्णय हुआ, उसकी अधिकारिक सूचना नहीं मिली। मैं आशा करता था कि मेरे पहले पत्र के संदर्भ में आप हमारे ज्ञानपीठ के साथ सरोकारों का इतना तो सम्मान करेंगे कि न्यासी मंडल में, एक नौकरशाह कुलपति और अपने निदेशक/संपादक की मिली भगत के फल स्वरूप आधी महिला आबादी की प्रतिनिधि लेखिकाओं के बारे में छिनाल और कुतिया जैसे अपशब्दों का साज़िशन प्रयोग करने और उन्हें और संपादक द्वारा बेबाक कहे जाने का नोटिस लिया जाएगा और निर्णय से अवगत किया जाएगा। अधिकारिक सूचना न प्राप्त होने के कारण मुझे अखबारों और आपके एक न्यासी और कर्मचारी द्वारा फोन के ज़रिए अपने पक्ष में वातावरण बनाने के लिए दबाव डालने, से सूचनाएं मिल रहीं हैं वे ही हमारे इस पत्र का आधार है।
न्यासी मंडल ने हिंदी साहित्य में महिलाओं की प्रतिनिधि लेखिकाओं का ज्ञानपीठ से प्रकाशित पत्रिका नया ज्ञानोदय में आपकी ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रवर समिति के सदस्य, पूर्व आई पी एस एवं म.गां.अं.हिं वि वि के कुलपति और आपके निदेशक /संपादक ने साज़िशन पुलिसिया गालियों का प्रयोग करके अपमान किया। जिसका विरोध ज्ञानपीठ विजेता कुंवर नारायण, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, बलदेव कृष्ण वैद, अशोक वाजपेयी, मृणाल पांडे आदि तथा अनेक अंचलों के प्रमुख साहित्यकारों ने किया है। अंग्रेज़ी, हिंदी अखबारों ने खबरें तो छापीं ही संपादकीय भी लिखे। हो सकता है वे सब आपकी और आपके न्यासियों की नज़र से न गुज़रे हों। अनेक ब्लाग्स में इस घटना से क्षुब्ध होकर टिप्पणियां भी पोस्ट की गईं हैं।
आपके एक आजावीन न्यासी ने उन्हीं दिनों फ़ोन पर सूचित किया कि म. गांधी अं. हिं वि वि वर्धा के आई पी एस कुलपति को, जो अपशब्दों के जनक हैं, प्रवर सिमति से हटाकर उनकी जगह डा नामवर सिंह को सदस्य बना दिया गया है जो नितांत भ्रामक था। नामवर सिंह जी जैसे आलोचक के लिए अपमानजनक था जबकि ऐसा करना संभव ही नहीं था। पूर्व राज्यपाल, मंडल के सदस्य श्री टी एन चतुर्वेदी ने तकनीकी आधार पर इस प्रचार का विरोध भी किया। न्यासी महोदय ने यह भी कहा कि संपादक/निदेशक को नहीं हटाया जा सकता क्योंकि स्व. लक्षमी चंद जैन के बाद उन महोदय ने ज्ञानपीठ को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। यह बराबरी भी भ्रामक होने के साथ अनुचित थी। एक तरह स्व जैन का अपमान था। इससे पता चलता है कि इस दुर्भाग्य पूर्ण घटना को मैनेजमेंट समर्थन दे रहा था और वह इस निर्णय पहुंच चुका था महिला लेखकों का अपमान करने वालों को वे बिना जांच के संरक्षण देंगे।
आश्चर्य होता है कि स्व. रमा जैन जैसी विदूषी और हिंदी के प्रति समर्पित महिला जिन्होंने ज्ञानपीठ संस्था की परिकल्पना को साकार किया, उसी संस्था के मंच पर हिंदी लेखकाओं को इतने घृणित व अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया गया है। (करने वाले सज्जन अभी तक प्रवर समिति पर बनें हैं क्योंकि संपादक/निदेशक, सुना जाता है दोनों हर काम में एक दूसरे के हर तरह पूरक हैं।) उसकी प्रशंसा संपादक ने अपने संपादकीय में की है। मज़े की बात है उक्त संपादक को आपके न्यासी स्व. लक्षमी चंद के समकक्ष रख रहे हैं। क्या इससे यह नहीं लगता कि एक व्यक्तिगत संबंधो के संरक्षण के लिए रमा जी की परंपरा, वर्तमान प्रबंधन, दरकिनार करने के लिए तैयार है? किसी भी दोषी का क्षमा मांग लेना क्या सब दोषों को नज़र अंदाज़ करने के लिए इतना काफी हो सकता है कि कोई संस्था अपनी सालों से चली आ रही परंपराओं को बेदखल कर दे। पुलिस मे तो क्षमा का कोई महत्त्व ही नहीं। सड़क पर रोज देखते हैं लोग पुलिस से पिटते और माफी की गुहार करते रहते हैं। यह लोमड़ी की चालाकी मानी जा रही है। प्रबंधन भी लीपा पोती करके मुक्त होने की जल्दी में है। यही बात सरकार भी लागी होती है। पता नहीं वि वि के कुलाधिपति ने कुलपति के इस व्यवहार के बारे में अपनी रपट विज़िटर को भेजी या नहीं।
जो सुनने और देखने में आ रहा है उससे पता चलता है कि प्रबंधन कुछ कार्यालयी रद्दोबदल करके, उसे इतने बड़े हिंदी साहित्य में पनप रहे असंतोष और उसके अपमान की भरपायी मान रहा है। सीटों के रद्दोबदल और अधिकारों की कतरब्योंत का कार्यक्रम दफ्तरों में स्वभाविक रूप में भी हुआ करता है और कमोफ्लेज के रूप में भी होता है। हिंदी लेखकों का इतना बड़ा सामुहिक विरोध पहली बार हुआ है। यह दूर तक जाएगा। कुछ लेखक तटस्थ हैं कुछ निहित स्वार्थों के चलते इस लहर की अनदेखी करके अपशब्दों का प्रयोग भी कर रहे हैं। लेकिन यह एकजुटती निरअर्थक नहीं जायगी।
मुझे नहीं मालूम आपके संपादक द्वारा, आपही के दो ज्ञानपीठ विजेताओं अज्ञेय और नरेश मेहता तथा देश के वरिष्ठ कवियों की कविताओं को सुपर बेवफ़ाई अंक में छापने के उनके निर्णय के बारे में प्रबंधन की राय क्या है। उसमें किससे कितनी बेवफाई है।
साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जहां किसी का आधिपत्य नहीं चलता, न लेखक का, नआलोचक का, न प्रकाशक का, न संपादक का। प्रतिरोध अधिकार अक्षुण्य है। प्रतिराध धीरे धीरे प्रभावी होता है। मझे दुख है कि ज्ञानपीठ जैसी प्रतिष्ठित संस्था का विरोध वर्तमान प्रबंधन के समय में आपके कुछेक लोगों की अहमन्यता कारण शुरू हुआ। काश वे इसकी गंभीरता और नज़ाकत को समझते।।
फिर भी मैं सब वर्गों के लिए मंगलकामना करता हूं। इस मनमानी के प्रतिरोध में मैं अपनी पुस्तकों की वापसी के बारे में लिख चुका हूं।
श्री अखिलेश जैन, प्रबंधन न्यासी, ज्ञानपीठ
नई –दिल्ली।
आपका

गिरिराज किशोर

4 comments:

राजेश उत्‍साही said...

आपका क्षोभ जायज है।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

पर..... कब तक हम लकीर पीटते रहेंगे??

सुधा अरोड़ा said...

आदरणीय गिरिराज जी ,
आप लगातार इस मुद्दे पर गंभीरता से लिख रहे हैं , यह बात आश्वस्त करती है .
किसी संस्थान की उन्नति की कसौटी क्या सिर्फ बिक्री में बढ़ोतरी होना है ?
सन 2005 में वरिष्ठ कवि विजयकुमार और बाद में वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा के आलेख और साक्षात्कार के साथ जिस तरह मजाक किया गया , जैसे युवा रचनाकारों के परिचय में चुटकुलेबाजी की गयी , वह भी बेहद अशोभनीय था . वही मजाहिया प्रवृत्ति अब सारी हदें लांघ गयी है .
और अब 2010 में सम्पादक महोदय हस्ताक्षर के लिए विजयकुमार जी को फोन करते हैं कि वे उनके पक्ष में अपना नाम दे दें .
पांच साल बाद उन्हें भूले बिसरों की सुध आयी . ज़ाहिर है , विजयकुमार ने अपना नाम देने से इनकार कर दिया .
मृदुला गर्ग , राजी सेठ , उषा किरण खान ने अपने नाम वापस लिए पर उनके नामों को सूची से हटाया नहीं गया . पूरे मसविदे की एक दो लाइनें पढ़ कर सुना दी गयीं और नामों की एक भ्रामक सूची अपने पक्ष में तैयार की क्योंकि अपनी कुर्सी का खतरा दिखाई दे रहा था . माफ़ी सिर्फ कुर्सी बचाने की माफ़ी थी . इस मामले ने तूल न पकड़ा होता तो संपादक अगली बार इससे भी ज्यादा घिनौनी हरकत करते .
इतने सालों तक ज्ञानोदय के संपादन में संपादक ने अपने सम्पादकीय में ( जो किसी भी पत्रिका की रीढ़ होता है ) सिर्फ अनुक्रम को दोहराने के अलावा कौन से महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस की है ? अपने समाज और देश के किस मुद्दे पर कोई एक अविस्मरनीय विशेषांक दिया है ?
ज्ञानपीठ की गरिमा और साख को भुला कर जैन समूह ने बिक्री का साथ दिया और दे रहे हैं . ज्ञानपीठ के मालिकों को समझाना चाहिए कि विरोध करने वाले लेखक
ज्ञानपीठ संस्थान को सम्मान की निगाह से देखते हैं और उसे असंयमित और अमर्यादित जुमलों का मंच नहीं बनने देना चाहते .
ऐसी स्थिति में लेखकों को ज्ञानपीठ और वि वि वर्धा से सम्पूर्ण असहयोग करना चाहिए और आपकी तरह अपने कड़े रुख पर कायम रहना चाहिए .
ज्ञानपीठ के इतिहास में रवीन्द्र कालिया का यह काला अध्याय हमेशा दर्ज रहेगा .

सुधा अरोड़ा .

गिरिराज किशोर said...

Dhanyavad, apna kam karte rahen yahi ek tarika hai jab apni bat aap keh sakte hain. ar jaghe apne hit mehtvapurn hote ja rahe hain.Duniya aurat ki ho ya mard ki anyaye anyaye hai viridh zaroori hai