यह सवाल विचारकों और लेखकों के लिए परेशान करने वाला है। कैंसरवार्ड के लेखक सालझेनित्सिन को इसलिए साइबेरिया भेज दिया गया था कि सोवियतसंघ की सरकार उनके मत से असहमत थी। यह तो मान लिया कि वह सरकार तानाशाहनुमा सरकार थी। लेकिन हिंदुस्तान एक जनतंत्र है। ऐसा जनतंत्र, जहां सामान्य आदमी को भी अपनी राय बिना लाग लपेट के अभिव्यक्त करने की आज़ादी है। इसका लाभ सबसे अधिक रा. स्वं. सं. और बीजेपी उठाते रहें। गांधी जी जीवित थे तो आर एस एस और साम्यवादी सबसे अधिक उन्हें कोसते थे। आर आर एस वाले पागल बुड्ढा कहते थे। हर शहर में उनका सालाना जलसा होता था। उसमें पद संचालन और लाठी संचालन आदि खेल होते थे। मुख्य अतिथि संचालक आदि ओहदेदार होते थे। सबसे अधिक संस्कृत निष्ठ गालियां देने का खेल गांधी जी के माध्यम से खेला जाता था। यहां तक हिंदूवादी समुदायों की साजि़श से ही उन्हें गोली भी मारी गई। यह सब जनतंत्र का फ़ायदा उठाकर किया गया। अगर स्टालिन या हिटलर का निज़ाम होता तो न जाने क्या हुआ होता। अंग्रे़ज़ों ने बहुत ज़्यादतियां कीं लेकिन अभिव्यक्ति की स्वत्रंता को यथासंभव महत्त्व वे भी देने की कोशिश करते थे। कितना दे पाते थे यह अलग है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माडल वहीं से लिया गया है। आज भी गांधी जी को राष्ट्रपिता मानने में सबसे अधिक आपत्ति उन्हें ही है। मुस्लमान वंदेमातरम नहीं गाते उसे वे अपने धर्म के ख़िलाफ़ मानते हैं। लेकिन बी जे पी उनकी मातृ संस्था आर एस एस जो धर्म को सर्वोपरि मानते हैं, इस बात को देशद्रोह करार देने पर आमादा रहते हैं। सवाल उठता है किसकी असहिष्णुता जनतांत्रिक सीमा के अंदर है, किसकी तनाशाही की सीमा में प्रवेश कर जाती है। वह सीमा क्या है? शायद यह किसी को मालूम नहीं हर व्यक्ति, नेता और पार्टीयां विकेटस को दूसरे को आउट करने के लिए, अपने हिसाब से इधर उधर सरकाती रहती हैं।
एक ही घर में स्वत्रंत्रता के कई पैमाने हों तो उस घर की आंतरिक आज़ादी और शांति का ख़तरे में पड़ जाना अवश्यंभावी है। जब तक डंडा है तब तक सब चुप हैं जैसे ही डंडा कमज़ोर हुआ वैसे ही घर सड़क बनी। बी जे पी के अध्यक्ष अडवानी पाकिस्तान एक हाजी की तरह गए थे। ख़ासतौर से जिन्ना साहब के मकबरे की ज़ियारत करने। वैसे तो राजा रंजीतसिंह की समाधि भी पाकिस्तान में ही थी। वहां उन्होंने जो भाखा था उसने तो इतिहास का रुख़ ही बदल दिया था। जिन्ना को विश्व का सबसे चमत्कारी व्यक्ति पुरूष बना दिया जिसने एक नया देश एक टाइपराइटर और टाइपिस्ट के ज़रिए बना दिया। सांप्रदायिकता की बात यह कहते हुए उन्हें ाद नहीं आई। जिन्ना साहब को सेकुलर बताते हुए अडवानी साहब को भी ध्यान नहीं आया कि उनकी पार्टी का बुनियादी सिद्धान्त है एक जन, एक संस्कृति और एक राष्ट्र। उसी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा रही है।
उस पुस्तक में जो लिखा वह तो चिंतन की ऐसी पर्त खोल रही थी उसे पढ़कर लगता है गंगा दास जमुना दास होकर आए हैं। देश में आए तो सबसे ज़्यादा बी जे पी के लोग उनके खिलाफ़ मुखर थे। लेकिन समरथ को नहीं दोस गुसांई। बाद में बी जे पी नेतृत्व ने रास्ता निकाल लिया ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। किसी को बचाना हो तिनका भी पतवार बन जाता है। जब डुबाना हो तो किनारा भी मझधार बन जाता है। दरअसल जिन्ना बटवारे के लिए ज़िम्मेदार हैं या नेहरू और पटेल, सवाल इस बात का नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि बटवारे की नींव तो वीर सावरकर ने डाल दी थी। आर एस एस उनका परम समर्थक था। साथ ही आर एस एस मुस्लिमों के खिलाफ़ था। उनका मुसलमानों के खिलाफ़ होना वीर सावरकर की टू नेशन्स थ्योरी का ही विस्तार था। उसके बाद जिन्ना ने टू नेशन्स थ्योरी की बात उठाई। दरअसल आर एस एस तो अखंड भारत की बात करता था लेकिन मुसलमानों को हिकारत की दृष्टि से देखता था। प्रकारंतर से मुसलमानों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा कर रहा था वे इधर जाएं या उधर। उधर जाएंगे तो उन्हें एक मुल्क चाहिए। यहां रहें तो आर एस एस की शर्तों पर रहें। दोनों ही बातें जोखिम भरी थीं। अखंड भारत तभी संभव था जब देश में एक दूसरे के लिए सहिष्णुता का वातावरण हो। जो 1916 में तिलक जी और जिन्ना के प्रयत्नों से बना था। दिलों में गुंजायश हो तो सब संभव है। गांधी हृदय परिवर्तन की बात कहते थे। लेकिन आर एस एस देश में मुसलमानों के लिए इस तरह का वातावरण बनाने के पक्ष में नहीं थी इसी बात को लेकर उनका गांधीजी से मतभेद था। यह कहना शायद ठीक न लगे कि वे लोग प्रकांतर से बटवारे को प्रोत्साहित कर रहे थे। हिंदू पार्टियों के दबाव में 1857 में अंग्रज़ों के खिलाफ़ जो हिंदू मुस्लिम एकता बनी थी उसमें दरार उन्होंने ही पैदा की।
जहां तक जिन्ना का सवाल है वे एक सेकुलर से कट्टर मुस्लिम नेता कैसे बने इस बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर नज़र डालना ज़रूरी है। उस पीढ़ी के जीवन काल में दो विश्वयुद्ध हो चुके थे। उसका नतीजा हुआ था कि विश्व भर मे नए राष्ट्रों की बाहुलता हुई थी। राजशाही का स्थान सर्वसत्तावाद यानी टोटलिटेरियनिज्म ने लेना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान उन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों की देन भी था। जिन्ना वैसे भी एक बहु-आकांक्षी व्यक्ति होने के साथ साथ समय की चाल को पहचानने में अपना सानी नहीं रखते थे। उन्होंने समय की नब्ज़ को समझा। वे समझ गए थे कि अपनी पहचान के लिए उन्हे विश्व में हो रहे परिवर्तन का लाभ उठाना चाहिए। हिंदूबाहुल देश में सम्मान भले ही पा लें पर एक स्वतंत्र के मुखिया नहीं बन सकते। गांधी ने बटवारे को रोकने के लिए जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था जिसका नेहरू और पटेल ने यह कहकर विरोध किया था कि आप देश की आज़ादी चाहते हैं या सिविल वार। यह ठीक है कि हिंदूवादी शक्तियां और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ सिविल वार की स्थितियां उत्पन्न कर देते। शायद वे बटवारे जितनी भयावह न होतीं। गांधी के इस प्रस्ताव का मर्म सत्ता के आकर्षण से विरक्त होकर ही समझा जा सकता था। इस प्रस्ताव का दूरगामी प्रभाव होता। देश बटने से बच जाता। हिंदूवादी ताकतों का अखंड भारत बनाने का सपना मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बिना भेदभाव के पूरा होने की संभावना हो सकती थी। शायद गांधी की हत्या भी न होती। जहां तक पटेल का सवाल है वे गांधी भक्त थे। गांधी का हत्यारा गोडसे आर एस एस का सदस्य रह चुका था। वीर सावरकर गोडसे उसके मेन्टर, आर एस एस के आईकन थे। पटेल ने उनकी हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया था। अडवानी का यह कहना भ्रामक है कि नेहरू के दबाव में पटेल ने ऐसा किया। यह आश्चर्य की बात है कि अपने को लौहपुरूष कहलाने वाला व्यक्ति वास्तविक लौहपुरूष की यह कह कर अवमानना करता है कि वह दूसरे व्यक्ति के दबाव में अपनी मान्यता के विरुद्ध काम करेगा। यहां मैं दो वामपथीं इतिहासकारों को उद्धृत करना चाहूंगा। विपिनचंद्रा ने 22 अगस्त 09 के द हिंदू में कहा है कि यह कहना कि पटेल ने नेहरू के कहने पर ऐसा किया उनको बदनाम करना है। पटेल अपने मत और अंतरआत्मा के विरुद्ध कुछ भी करने वाले नहीं थे। इसी तरह इरफ़ान हबीब साहब ने द हिंदू में कहा है ‘मैंने गोलवलकर और पटेल के बीच हुई ख़तोकिताबत पढ़ी है। हालांकि उन्होंने आर एस एस को गांधी जी की हत्या के लिए दोषी नहीं माना लेकिन उन्होंने उसे सांप्रदायिक वातावरण बनाने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया जिसके कारण गाधी जी की हत्या हुई। उस पत्रव्यवहार में आर एस एस की हिंसक राजनीति के खिलाफ़ पटेल का रुख़ स्पष्ट है।‘ (उपरोक्त दोनो अंश उन दोनों विद्वानों के कथन का भावार्थ है)।
बाद में उस प्रतिबंध को पटेल ने तभी हटाया जब आर एस एस के नेतृत्व ने लिखित आश्वासन दिया कि वे सांस्कृतिक संस्था के रूप मे कार्य करेंगे राजनीति में भाग नहीं लेंगे। यह पटेल की दूरअंदेश कूटनीति का प्रमाण है। मैं इस विमर्श को यह कहकर यहीं छोड़ता हूं कि आर एस एस एक तरह से मिलिटेंट शक्ति के रूप में उभर रहा था उसको सांस्कृतिक संस्था का रूप देकर उन्होंने हिंदू मुस्लिम संघर्षों की संभावनाओं पर काफ़ी हद तक विराम लगा दिया। जहां तक जसवंत सिहं की पुस्तक का सवाल है उसके खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही सिद्धान्त आधारित इतनी नहीं जितना प्रभावशाली नेताओं का पार्टी के कोर सिद्धान्त की आड़ में व्यक्तिगत हिसाब निबटाने का प्रयास है। लोग जल्दी भूल जाते हैं अडवानी जी ने अपन पुस्तक में लिखा है कि जसवंत सिहं द्वारा आतंकवादियों को काबुल छोड़कर आने के बार में उन्हें मालूम नहीं था। गृहमंत्री की मर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना क्या जसवंत सिहं छापा मारकर आतंकवादियों को ले गए थे। लौहपुरुश चुप रहा। उसी समय जसवंत सिंह ने इस बात का प्रतिवाद किया था। अडवानी जी ने जहां तक मुझे याद है स्वीकार किया था मुझे याद नहीं रहा । बाद में क्या पुस्तक में इस तथ्यात्मक भूल को सुधारा? शायद नहीं। इसका मतलब पुस्तक में लिखा यह तथ्य इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री को तानाशाह और विदेश मंत्री को उनकी साज़िश का हिस्सा मान लिया जाएगा। यह सरकार और पार्टी के ऊपर धब्बा बनकर चमकेगा। मैं तत्कालीन गृहमंत्री का यह इंदराज देश की राजनीति के लिए लांछन मानता हूं। जसवंत सिहं ने जो लिखा उसका ख़मियाज़ा भुगता। लेकिन अपनी बात पर कायम रहे। लेकिन पार्टी का एक बहुत बड़ा नेता लिखने में कुछ और कहने मे कुछ,फिर भी सुरक्षित। सुना है कि पार्टी प्रवाक्ताओं को निर्देश हुए हैं कि वे इस प्रकरण पर चुप रहेंगे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि पुस्तक विमोचन के समय लेखक पार्टी में था। लेकिन कोई नेता विमोचन में उपस्थित नहीं था। पार्टी के लिए यह अच्छा मौक़ा था कि कोई भी प्रतिनिधि उपस्थित होकर पार्टी की स्थिति स्पष्ट कर सकता था। जसवंत सिह को मजबूरन गैरपार्टी लोगों को मंच पर बैठाना पड़ा भले ही प्रगतिशीलता के शीर्ष पुरूष हों। लेकिन उनको उनके समुदाय ने शायद इसलिए आपत्ति मुक्त कर दिया हो कि लेखक और आलोचक के बीच सजातियता होती है।
समाज को ख़ासतौर से पढ़े लिखे जागरूक समुदायों को समानता का व्यवहार सीखना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। यह बात राजनीति पर ही लागू नहीं होती। बौद्धिक क्षेत्रों में भी लागू होनी चाहिए। जसवंत सिहं को तो स्पष्टीकरण का अवसर भी नहीं दिया गया। अडवानी साहब तो पूछे जाने से ऊपर हैं ही। अंत में कहना चाहूंगा समाज संवेदनशील अवयवों से बना है एक भी अटपटा काम समाज में तरंगे पैदा करने के लिए काफ़ी है। चाहे राजनीति हो या साहित्य। राजनीति खुला खेल है उसकी प्रतिक्रिया समाज में तत्काल होती है। साहित्य शब्दों से घिरी दुनिया, जो धीरे धीरे खुलती है। खरोंचे वहां भी पड़ती हैं। एक समाचार पत्र में कवियों की तस्वीरों का कोलाज छपा था। एक छात्र ने मुझसे पूछा अंकल सुमित्रानंदन पंत की छोटी सी तस्वीर एक कोने में क्यों छपी है। पहले तो ये बहुत बड़े कवि माने जाते थे। मेरे पास इसका जवाब कुछ नहीं था। यह सब अनायास भी होता है पर किसी प्रगतिशील शीर्ष पुरुष का हिंदूवादी मंच पर जाकर बैठना भी क्या अनायास हो सकता है? इसका भी मेरे पास कोई उत्तर नहीं। वहां भी लोग चुप हैं।
प्रिय ओ जी,
मैंने गांधी जी के संदर्भ में एक लेख भेजा था।मिला होगा। लेकिन जसवंत सिहं वाले मामले ने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया। साहित्य के शीर्ष पुरुष की उपस्थिति ने इसे साहित्य से भी जोड़ दिया। अगर उपयूक्त समझें तो उपयेग करलें अपने निर्णय से अवगत कराएं धन्वाद। जी के
Monday, 24 August 2009
आज़ादी के संदर्भमें गांधी
यह सवाल विचारकों और लेखकों के लिए परेशान करने वाला है। कैंसरवार्ड के लेखक सालझेनित्सिन को इसलिए साइबेरिया भेज दिया गया था कि सोवियतसंघ की सरकार उनके मत से असहमत थी। यह तो मान लिया कि वह सरकार तानाशाहनुमा सरकार थी। लेकिन हिंदुस्तान एक जनतंत्र है। ऐसा जनतंत्र, जहां सामान्य आदमी को भी अपनी राय बिना लाग लपेट के अभिव्यक्त करने की आज़ादी है। इसका लाभ सबसे अधिक रा. स्वं. सं. और बीजेपी उठाते रहें। गांधी जी जीवित थे तो आर एस एस और साम्यवादी सबसे अधिक उन्हें कोसते थे। आर आर एस वाले पागल बुड्ढा कहते थे। हर शहर में उनका सालाना जलसा होता था। उसमें पद संचालन और लाठी संचालन आदि खेल होते थे। मुख्य अतिथि संचालक आदि ओहदेदार होते थे। सबसे अधिक संस्कृत निष्ठ गालियां देने का खेल गांधी जी के माध्यम से खेला जाता था। यहां तक हिंदूवादी समुदायों की साजि़श से ही उन्हें गोली भी मारी गई। यह सब जनतंत्र का फ़ायदा उठाकर किया गया। अगर स्टालिन या हिटलर का निज़ाम होता तो न जाने क्या हुआ होता। अंग्रे़ज़ों ने बहुत ज़्यादतियां कीं लेकिन अभिव्यक्ति की स्वत्रंता को यथासंभव महत्त्व वे भी देने की कोशिश करते थे। कितना दे पाते थे यह अलग है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माडल वहीं से लिया गया है। आज भी गांधी जी को राष्ट्रपिता मानने में सबसे अधिक आपत्ति उन्हें ही है। मुस्लमान वंदेमातरम नहीं गाते उसे वे अपने धर्म के ख़िलाफ़ मानते हैं। लेकिन बी जे पी उनकी मातृ संस्था आर एस एस जो धर्म को सर्वोपरि मानते हैं, इस बात को देशद्रोह करार देने पर आमादा रहते हैं। सवाल उठता है किसकी असहिष्णुता जनतांत्रिक सीमा के अंदर है, किसकी तनाशाही की सीमा में प्रवेश कर जाती है। वह सीमा क्या है? शायद यह किसी को मालूम नहीं हर व्यक्ति, नेता और पार्टीयां विकेटस को दूसरे को आउट करने के लिए, अपने हिसाब से इधर उधर सरकाती रहती हैं।
एक ही घर में स्वत्रंत्रता के कई पैमाने हों तो उस घर की आंतरिक आज़ादी और शांति का ख़तरे में पड़ जाना अवश्यंभावी है। जब तक डंडा है तब तक सब चुप हैं जैसे ही डंडा कमज़ोर हुआ वैसे ही घर सड़क बनी। बी जे पी के अध्यक्ष अडवानी पाकिस्तान एक हाजी की तरह गए थे। ख़ासतौर से जिन्ना साहब के मकबरे की ज़ियारत करने। वैसे तो राजा रंजीतसिंह की समाधि भी पाकिस्तान में ही थी। वहां उन्होंने जो भाखा था उसने तो इतिहास का रुख़ ही बदल दिया था। जिन्ना को विश्व का सबसे चमत्कारी व्यक्ति पुरूष बना दिया जिसने एक नया देश एक टाइपराइटर और टाइपिस्ट के ज़रिए बना दिया। सांप्रदायिकता की बात यह कहते हुए उन्हें ाद नहीं आई। जिन्ना साहब को सेकुलर बताते हुए अडवानी साहब को भी ध्यान नहीं आया कि उनकी पार्टी का बुनियादी सिद्धान्त है एक जन, एक संस्कृति और एक राष्ट्र। उसी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा रही है।
उस पुस्तक में जो लिखा वह तो चिंतन की ऐसी पर्त खोल रही थी उसे पढ़कर लगता है गंगा दास जमुना दास होकर आए हैं। देश में आए तो सबसे ज़्यादा बी जे पी के लोग उनके खिलाफ़ मुखर थे। लेकिन समरथ को नहीं दोस गुसांई। बाद में बी जे पी नेतृत्व ने रास्ता निकाल लिया ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। किसी को बचाना हो तिनका भी पतवार बन जाता है। जब डुबाना हो तो किनारा भी मझधार बन जाता है। दरअसल जिन्ना बटवारे के लिए ज़िम्मेदार हैं या नेहरू और पटेल, सवाल इस बात का नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि बटवारे की नींव तो वीर सावरकर ने डाल दी थी। आर एस एस उनका परम समर्थक था। साथ ही आर एस एस मुस्लिमों के खिलाफ़ था। उनका मुसलमानों के खिलाफ़ होना वीर सावरकर की टू नेशन्स थ्योरी का ही विस्तार था। उसके बाद जिन्ना ने टू नेशन्स थ्योरी की बात उठाई। दरअसल आर एस एस तो अखंड भारत की बात करता था लेकिन मुसलमानों को हिकारत की दृष्टि से देखता था। प्रकारंतर से मुसलमानों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा कर रहा था वे इधर जाएं या उधर। उधर जाएंगे तो उन्हें एक मुल्क चाहिए। यहां रहें तो आर एस एस की शर्तों पर रहें। दोनों ही बातें जोखिम भरी थीं। अखंड भारत तभी संभव था जब देश में एक दूसरे के लिए सहिष्णुता का वातावरण हो। जो 1916 में तिलक जी और जिन्ना के प्रयत्नों से बना था। दिलों में गुंजायश हो तो सब संभव है। गांधी हृदय परिवर्तन की बात कहते थे। लेकिन आर एस एस देश में मुसलमानों के लिए इस तरह का वातावरण बनाने के पक्ष में नहीं थी इसी बात को लेकर उनका गांधीजी से मतभेद था। यह कहना शायद ठीक न लगे कि वे लोग प्रकांतर से बटवारे को प्रोत्साहित कर रहे थे। हिंदू पार्टियों के दबाव में 1857 में अंग्रज़ों के खिलाफ़ जो हिंदू मुस्लिम एकता बनी थी उसमें दरार उन्होंने ही पैदा की।
जहां तक जिन्ना का सवाल है वे एक सेकुलर से कट्टर मुस्लिम नेता कैसे बने इस बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर नज़र डालना ज़रूरी है। उस पीढ़ी के जीवन काल में दो विश्वयुद्ध हो चुके थे। उसका नतीजा हुआ था कि विश्व भर मे नए राष्ट्रों की बाहुलता हुई थी। राजशाही का स्थान सर्वसत्तावाद यानी टोटलिटेरियनिज्म ने लेना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान उन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों की देन भी था। जिन्ना वैसे भी एक बहु-आकांक्षी व्यक्ति होने के साथ साथ समय की चाल को पहचानने में अपना सानी नहीं रखते थे। उन्होंने समय की नब्ज़ को समझा। वे समझ गए थे कि अपनी पहचान के लिए उन्हे विश्व में हो रहे परिवर्तन का लाभ उठाना चाहिए। हिंदूबाहुल देश में सम्मान भले ही पा लें पर एक स्वतंत्र के मुखिया नहीं बन सकते। गांधी ने बटवारे को रोकने के लिए जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था जिसका नेहरू और पटेल ने यह कहकर विरोध किया था कि आप देश की आज़ादी चाहते हैं या सिविल वार। यह ठीक है कि हिंदूवादी शक्तियां और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ सिविल वार की स्थितियां उत्पन्न कर देते। शायद वे बटवारे जितनी भयावह न होतीं। गांधी के इस प्रस्ताव का मर्म सत्ता के आकर्षण से विरक्त होकर ही समझा जा सकता था। इस प्रस्ताव का दूरगामी प्रभाव होता। देश बटने से बच जाता। हिंदूवादी ताकतों का अखंड भारत बनाने का सपना मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बिना भेदभाव के पूरा होने की संभावना हो सकती थी। शायद गांधी की हत्या भी न होती। जहां तक पटेल का सवाल है वे गांधी भक्त थे। गांधी का हत्यारा गोडसे आर एस एस का सदस्य रह चुका था। वीर सावरकर गोडसे उसके मेन्टर, आर एस एस के आईकन थे। पटेल ने उनकी हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया था। अडवानी का यह कहना भ्रामक है कि नेहरू के दबाव में पटेल ने ऐसा किया। यह आश्चर्य की बात है कि अपने को लौहपुरूष कहलाने वाला व्यक्ति वास्तविक लौहपुरूष की यह कह कर अवमानना करता है कि वह दूसरे व्यक्ति के दबाव में अपनी मान्यता के विरुद्ध काम करेगा। यहां मैं दो वामपथीं इतिहासकारों को उद्धृत करना चाहूंगा। विपिनचंद्रा ने 22 अगस्त 09 के द हिंदू में कहा है कि यह कहना कि पटेल ने नेहरू के कहने पर ऐसा किया उनको बदनाम करना है। पटेल अपने मत और अंतरआत्मा के विरुद्ध कुछ भी करने वाले नहीं थे। इसी तरह इरफ़ान हबीब साहब ने द हिंदू में कहा है ‘मैंने गोलवलकर और पटेल के बीच हुई ख़तोकिताबत पढ़ी है। हालांकि उन्होंने आर एस एस को गांधी जी की हत्या के लिए दोषी नहीं माना लेकिन उन्होंने उसे सांप्रदायिक वातावरण बनाने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया जिसके कारण गाधी जी की हत्या हुई। उस पत्रव्यवहार में आर एस एस की हिंसक राजनीति के खिलाफ़ पटेल का रुख़ स्पष्ट है।‘ (उपरोक्त दोनो अंश उन दोनों विद्वानों के कथन का भावार्थ है)।
बाद में उस प्रतिबंध को पटेल ने तभी हटाया जब आर एस एस के नेतृत्व ने लिखित आश्वासन दिया कि वे सांस्कृतिक संस्था के रूप मे कार्य करेंगे राजनीति में भाग नहीं लेंगे। यह पटेल की दूरअंदेश कूटनीति का प्रमाण है। मैं इस विमर्श को यह कहकर यहीं छोड़ता हूं कि आर एस एस एक तरह से मिलिटेंट शक्ति के रूप में उभर रहा था उसको सांस्कृतिक संस्था का रूप देकर उन्होंने हिंदू मुस्लिम संघर्षों की संभावनाओं पर काफ़ी हद तक विराम लगा दिया। जहां तक जसवंत सिहं की पुस्तक का सवाल है उसके खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही सिद्धान्त आधारित इतनी नहीं जितना प्रभावशाली नेताओं का पार्टी के कोर सिद्धान्त की आड़ में व्यक्तिगत हिसाब निबटाने का प्रयास है। लोग जल्दी भूल जाते हैं अडवानी जी ने अपन पुस्तक में लिखा है कि जसवंत सिहं द्वारा आतंकवादियों को काबुल छोड़कर आने के बार में उन्हें मालूम नहीं था। गृहमंत्री की मर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना क्या जसवंत सिहं छापा मारकर आतंकवादियों को ले गए थे। लौहपुरुश चुप रहा। उसी समय जसवंत सिंह ने इस बात का प्रतिवाद किया था। अडवानी जी ने जहां तक मुझे याद है स्वीकार किया था मुझे याद नहीं रहा । बाद में क्या पुस्तक में इस तथ्यात्मक भूल को सुधारा? शायद नहीं। इसका मतलब पुस्तक में लिखा यह तथ्य इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री को तानाशाह और विदेश मंत्री को उनकी साज़िश का हिस्सा मान लिया जाएगा। यह सरकार और पार्टी के ऊपर धब्बा बनकर चमकेगा। मैं तत्कालीन गृहमंत्री का यह इंदराज देश की राजनीति के लिए लांछन मानता हूं। जसवंत सिहं ने जो लिखा उसका ख़मियाज़ा भुगता। लेकिन अपनी बात पर कायम रहे। लेकिन पार्टी का एक बहुत बड़ा नेता लिखने में कुछ और कहने मे कुछ,फिर भी सुरक्षित। सुना है कि पार्टी प्रवाक्ताओं को निर्देश हुए हैं कि वे इस प्रकरण पर चुप रहेंगे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि पुस्तक विमोचन के समय लेखक पार्टी में था। लेकिन कोई नेता विमोचन में उपस्थित नहीं था। पार्टी के लिए यह अच्छा मौक़ा था कि कोई भी प्रतिनिधि उपस्थित होकर पार्टी की स्थिति स्पष्ट कर सकता था। जसवंत सिह को मजबूरन गैरपार्टी लोगों को मंच पर बैठाना पड़ा भले ही प्रगतिशीलता के शीर्ष पुरूष हों। लेकिन उनको उनके समुदाय ने शायद इसलिए आपत्ति मुक्त कर दिया हो कि लेखक और आलोचक के बीच सजातियता होती है।
समाज को ख़ासतौर से पढ़े लिखे जागरूक समुदायों को समानता का व्यवहार सीखना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। यह बात राजनीति पर ही लागू नहीं होती। बौद्धिक क्षेत्रों में भी लागू होनी चाहिए। जसवंत सिहं को तो स्पष्टीकरण का अवसर भी नहीं दिया गया। अडवानी साहब तो पूछे जाने से ऊपर हैं ही। अंत में कहना चाहूंगा समाज संवेदनशील अवयवों से बना है एक भी अटपटा काम समाज में तरंगे पैदा करने के लिए काफ़ी है। चाहे राजनीति हो या साहित्य। राजनीति खुला खेल है उसकी प्रतिक्रिया समाज में तत्काल होती है। साहित्य शब्दों से घिरी दुनिया, जो धीरे धीरे खुलती है। खरोंचे वहां भी पड़ती हैं। एक समाचार पत्र में कवियों की तस्वीरों का कोलाज छपा था। एक छात्र ने मुझसे पूछा अंकल सुमित्रानंदन पंत की छोटी सी तस्वीर एक कोने में क्यों छपी है। पहले तो ये बहुत बड़े कवि माने जाते थे। मेरे पास इसका जवाब कुछ नहीं था। यह सब अनायास भी होता है पर किसी प्रगतिशील शीर्ष पुरुष का हिंदूवादी मंच पर जाकर बैठना भी क्या अनायास हो सकता है? इसका भी मेरे पास कोई उत्तर नहीं। वहां भी लोग चुप हैं।
एक ही घर में स्वत्रंत्रता के कई पैमाने हों तो उस घर की आंतरिक आज़ादी और शांति का ख़तरे में पड़ जाना अवश्यंभावी है। जब तक डंडा है तब तक सब चुप हैं जैसे ही डंडा कमज़ोर हुआ वैसे ही घर सड़क बनी। बी जे पी के अध्यक्ष अडवानी पाकिस्तान एक हाजी की तरह गए थे। ख़ासतौर से जिन्ना साहब के मकबरे की ज़ियारत करने। वैसे तो राजा रंजीतसिंह की समाधि भी पाकिस्तान में ही थी। वहां उन्होंने जो भाखा था उसने तो इतिहास का रुख़ ही बदल दिया था। जिन्ना को विश्व का सबसे चमत्कारी व्यक्ति पुरूष बना दिया जिसने एक नया देश एक टाइपराइटर और टाइपिस्ट के ज़रिए बना दिया। सांप्रदायिकता की बात यह कहते हुए उन्हें ाद नहीं आई। जिन्ना साहब को सेकुलर बताते हुए अडवानी साहब को भी ध्यान नहीं आया कि उनकी पार्टी का बुनियादी सिद्धान्त है एक जन, एक संस्कृति और एक राष्ट्र। उसी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा रही है।
उस पुस्तक में जो लिखा वह तो चिंतन की ऐसी पर्त खोल रही थी उसे पढ़कर लगता है गंगा दास जमुना दास होकर आए हैं। देश में आए तो सबसे ज़्यादा बी जे पी के लोग उनके खिलाफ़ मुखर थे। लेकिन समरथ को नहीं दोस गुसांई। बाद में बी जे पी नेतृत्व ने रास्ता निकाल लिया ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। किसी को बचाना हो तिनका भी पतवार बन जाता है। जब डुबाना हो तो किनारा भी मझधार बन जाता है। दरअसल जिन्ना बटवारे के लिए ज़िम्मेदार हैं या नेहरू और पटेल, सवाल इस बात का नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि बटवारे की नींव तो वीर सावरकर ने डाल दी थी। आर एस एस उनका परम समर्थक था। साथ ही आर एस एस मुस्लिमों के खिलाफ़ था। उनका मुसलमानों के खिलाफ़ होना वीर सावरकर की टू नेशन्स थ्योरी का ही विस्तार था। उसके बाद जिन्ना ने टू नेशन्स थ्योरी की बात उठाई। दरअसल आर एस एस तो अखंड भारत की बात करता था लेकिन मुसलमानों को हिकारत की दृष्टि से देखता था। प्रकारंतर से मुसलमानों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा कर रहा था वे इधर जाएं या उधर। उधर जाएंगे तो उन्हें एक मुल्क चाहिए। यहां रहें तो आर एस एस की शर्तों पर रहें। दोनों ही बातें जोखिम भरी थीं। अखंड भारत तभी संभव था जब देश में एक दूसरे के लिए सहिष्णुता का वातावरण हो। जो 1916 में तिलक जी और जिन्ना के प्रयत्नों से बना था। दिलों में गुंजायश हो तो सब संभव है। गांधी हृदय परिवर्तन की बात कहते थे। लेकिन आर एस एस देश में मुसलमानों के लिए इस तरह का वातावरण बनाने के पक्ष में नहीं थी इसी बात को लेकर उनका गांधीजी से मतभेद था। यह कहना शायद ठीक न लगे कि वे लोग प्रकांतर से बटवारे को प्रोत्साहित कर रहे थे। हिंदू पार्टियों के दबाव में 1857 में अंग्रज़ों के खिलाफ़ जो हिंदू मुस्लिम एकता बनी थी उसमें दरार उन्होंने ही पैदा की।
जहां तक जिन्ना का सवाल है वे एक सेकुलर से कट्टर मुस्लिम नेता कैसे बने इस बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर नज़र डालना ज़रूरी है। उस पीढ़ी के जीवन काल में दो विश्वयुद्ध हो चुके थे। उसका नतीजा हुआ था कि विश्व भर मे नए राष्ट्रों की बाहुलता हुई थी। राजशाही का स्थान सर्वसत्तावाद यानी टोटलिटेरियनिज्म ने लेना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान उन अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों की देन भी था। जिन्ना वैसे भी एक बहु-आकांक्षी व्यक्ति होने के साथ साथ समय की चाल को पहचानने में अपना सानी नहीं रखते थे। उन्होंने समय की नब्ज़ को समझा। वे समझ गए थे कि अपनी पहचान के लिए उन्हे विश्व में हो रहे परिवर्तन का लाभ उठाना चाहिए। हिंदूबाहुल देश में सम्मान भले ही पा लें पर एक स्वतंत्र के मुखिया नहीं बन सकते। गांधी ने बटवारे को रोकने के लिए जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था जिसका नेहरू और पटेल ने यह कहकर विरोध किया था कि आप देश की आज़ादी चाहते हैं या सिविल वार। यह ठीक है कि हिंदूवादी शक्तियां और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ सिविल वार की स्थितियां उत्पन्न कर देते। शायद वे बटवारे जितनी भयावह न होतीं। गांधी के इस प्रस्ताव का मर्म सत्ता के आकर्षण से विरक्त होकर ही समझा जा सकता था। इस प्रस्ताव का दूरगामी प्रभाव होता। देश बटने से बच जाता। हिंदूवादी ताकतों का अखंड भारत बनाने का सपना मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बिना भेदभाव के पूरा होने की संभावना हो सकती थी। शायद गांधी की हत्या भी न होती। जहां तक पटेल का सवाल है वे गांधी भक्त थे। गांधी का हत्यारा गोडसे आर एस एस का सदस्य रह चुका था। वीर सावरकर गोडसे उसके मेन्टर, आर एस एस के आईकन थे। पटेल ने उनकी हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लगाया था। अडवानी का यह कहना भ्रामक है कि नेहरू के दबाव में पटेल ने ऐसा किया। यह आश्चर्य की बात है कि अपने को लौहपुरूष कहलाने वाला व्यक्ति वास्तविक लौहपुरूष की यह कह कर अवमानना करता है कि वह दूसरे व्यक्ति के दबाव में अपनी मान्यता के विरुद्ध काम करेगा। यहां मैं दो वामपथीं इतिहासकारों को उद्धृत करना चाहूंगा। विपिनचंद्रा ने 22 अगस्त 09 के द हिंदू में कहा है कि यह कहना कि पटेल ने नेहरू के कहने पर ऐसा किया उनको बदनाम करना है। पटेल अपने मत और अंतरआत्मा के विरुद्ध कुछ भी करने वाले नहीं थे। इसी तरह इरफ़ान हबीब साहब ने द हिंदू में कहा है ‘मैंने गोलवलकर और पटेल के बीच हुई ख़तोकिताबत पढ़ी है। हालांकि उन्होंने आर एस एस को गांधी जी की हत्या के लिए दोषी नहीं माना लेकिन उन्होंने उसे सांप्रदायिक वातावरण बनाने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया जिसके कारण गाधी जी की हत्या हुई। उस पत्रव्यवहार में आर एस एस की हिंसक राजनीति के खिलाफ़ पटेल का रुख़ स्पष्ट है।‘ (उपरोक्त दोनो अंश उन दोनों विद्वानों के कथन का भावार्थ है)।
बाद में उस प्रतिबंध को पटेल ने तभी हटाया जब आर एस एस के नेतृत्व ने लिखित आश्वासन दिया कि वे सांस्कृतिक संस्था के रूप मे कार्य करेंगे राजनीति में भाग नहीं लेंगे। यह पटेल की दूरअंदेश कूटनीति का प्रमाण है। मैं इस विमर्श को यह कहकर यहीं छोड़ता हूं कि आर एस एस एक तरह से मिलिटेंट शक्ति के रूप में उभर रहा था उसको सांस्कृतिक संस्था का रूप देकर उन्होंने हिंदू मुस्लिम संघर्षों की संभावनाओं पर काफ़ी हद तक विराम लगा दिया। जहां तक जसवंत सिहं की पुस्तक का सवाल है उसके खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही सिद्धान्त आधारित इतनी नहीं जितना प्रभावशाली नेताओं का पार्टी के कोर सिद्धान्त की आड़ में व्यक्तिगत हिसाब निबटाने का प्रयास है। लोग जल्दी भूल जाते हैं अडवानी जी ने अपन पुस्तक में लिखा है कि जसवंत सिहं द्वारा आतंकवादियों को काबुल छोड़कर आने के बार में उन्हें मालूम नहीं था। गृहमंत्री की मर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना क्या जसवंत सिहं छापा मारकर आतंकवादियों को ले गए थे। लौहपुरुश चुप रहा। उसी समय जसवंत सिंह ने इस बात का प्रतिवाद किया था। अडवानी जी ने जहां तक मुझे याद है स्वीकार किया था मुझे याद नहीं रहा । बाद में क्या पुस्तक में इस तथ्यात्मक भूल को सुधारा? शायद नहीं। इसका मतलब पुस्तक में लिखा यह तथ्य इतिहास का हिस्सा बन जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री को तानाशाह और विदेश मंत्री को उनकी साज़िश का हिस्सा मान लिया जाएगा। यह सरकार और पार्टी के ऊपर धब्बा बनकर चमकेगा। मैं तत्कालीन गृहमंत्री का यह इंदराज देश की राजनीति के लिए लांछन मानता हूं। जसवंत सिहं ने जो लिखा उसका ख़मियाज़ा भुगता। लेकिन अपनी बात पर कायम रहे। लेकिन पार्टी का एक बहुत बड़ा नेता लिखने में कुछ और कहने मे कुछ,फिर भी सुरक्षित। सुना है कि पार्टी प्रवाक्ताओं को निर्देश हुए हैं कि वे इस प्रकरण पर चुप रहेंगे। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि पुस्तक विमोचन के समय लेखक पार्टी में था। लेकिन कोई नेता विमोचन में उपस्थित नहीं था। पार्टी के लिए यह अच्छा मौक़ा था कि कोई भी प्रतिनिधि उपस्थित होकर पार्टी की स्थिति स्पष्ट कर सकता था। जसवंत सिह को मजबूरन गैरपार्टी लोगों को मंच पर बैठाना पड़ा भले ही प्रगतिशीलता के शीर्ष पुरूष हों। लेकिन उनको उनके समुदाय ने शायद इसलिए आपत्ति मुक्त कर दिया हो कि लेखक और आलोचक के बीच सजातियता होती है।
समाज को ख़ासतौर से पढ़े लिखे जागरूक समुदायों को समानता का व्यवहार सीखना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। यह बात राजनीति पर ही लागू नहीं होती। बौद्धिक क्षेत्रों में भी लागू होनी चाहिए। जसवंत सिहं को तो स्पष्टीकरण का अवसर भी नहीं दिया गया। अडवानी साहब तो पूछे जाने से ऊपर हैं ही। अंत में कहना चाहूंगा समाज संवेदनशील अवयवों से बना है एक भी अटपटा काम समाज में तरंगे पैदा करने के लिए काफ़ी है। चाहे राजनीति हो या साहित्य। राजनीति खुला खेल है उसकी प्रतिक्रिया समाज में तत्काल होती है। साहित्य शब्दों से घिरी दुनिया, जो धीरे धीरे खुलती है। खरोंचे वहां भी पड़ती हैं। एक समाचार पत्र में कवियों की तस्वीरों का कोलाज छपा था। एक छात्र ने मुझसे पूछा अंकल सुमित्रानंदन पंत की छोटी सी तस्वीर एक कोने में क्यों छपी है। पहले तो ये बहुत बड़े कवि माने जाते थे। मेरे पास इसका जवाब कुछ नहीं था। यह सब अनायास भी होता है पर किसी प्रगतिशील शीर्ष पुरुष का हिंदूवादी मंच पर जाकर बैठना भी क्या अनायास हो सकता है? इसका भी मेरे पास कोई उत्तर नहीं। वहां भी लोग चुप हैं।
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