घनश्याम केवट डाकू था, अच्छा हुआ मारा गया। जिस तरह वह मारा गया उससे तो लगता है कि वह किसी को भी मार सकता था। कितना बहादुर है आपकी पुलिस उस अकेले पर 51 घंटों के बाद 500 जवान भारी पड़े। ऐसे में उसे क्या हक़ था जीने का। अगर वह जीता रहता तो वह उत्तर प्रदेश की दो लाख जवानों की सबसे बड़ी वाहिनी की बेइज़्ज़ती का कारण बनता। आपकी भी। मै तो सवेरे से मना रहा था कि चाहे जो हो आपके डी जी पी साहब का बड़बोलेपन पर आंच न आए। आप भी उस आंच की झांव से न बचतीं। 51 घंटे आपके शेर उससे जूझते रहे। वह बेशर्म नंग अकेला उनके कपड़े उतारने पर लगा रहा। ऐसा लगता था कि वह अपनी रिश्तेदारी में छकड़ों में गोलबारूद भर कर लाया था। इसिलए डी जी पी साहब कह रहे थे कि हमारे पास गोली बारूद की कमी नहीं है और न मैन पावर की। पावर में तो डी जी पी साहब, वही 21 पड़ रहा था। उस अकेले की पावर और आप सबकी पावर। बुरा मत मानिए ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होता है। यह बहादुरी नहीं बेशर्मी है। 500 जवान गोलियां दाग रहे हैं आपको यही पता नहीं कि वह कहां बैठा है। बीच वीच में ऐसे चुप हो जाता था जैसे टैं बोल गया। जब मरने की तसदीक करने आई जी, डी आई जी या अन्य कोई आगे बढ़ा पता नहीं कहां से जी उठा और टिका दी गोली। यह तो तमीज़ से गिरी हुई बात हुई ना। एक आई जी ज़ख्मी, एक डी आई जी मरते मरते बचे। चार जवान तो मारे ही गए। आपके ए डी जी भी गोली खाते खाते बचे। वे तो चढ़ ही गए थे खपरैल पर, वह तो किस्मत ने बचा लिया। उस के खरोच भी नहीं आई।
पूर्व डी जी पी प्रकाश सिंह कह रहे थे मुठभेड़ तो पांच पांच दिन तक चल सकती है। आश्चर्य तो इस बात का है वह अकेला आदमी और दूसरी तरफ़ आदमी दर आदमी। एक से एक ज़हीन और प्रशिक्षित अफ़सर, वह अकेला। यह कहना कि पुलिस के पास मौरटर वगैरह आधुनिक हथियार नहीं थे कोई मायने नहीं रखता एक आदमी एक हथियार के सामने इतने हथियार नाकाफ़ी कैसे हो सकते हैं। मुख्यमंत्री जी, उसने दस हज़ार गोली या एक लाख गोलियां चलाई होंगी आपके पांच सौ अफ़सरों और जवानों ने लाखों लाख गोलियां झोंक दी होंगी, मानो किसी राजे महाराजा के यहां हर्ष फ़ायरिंग हो रहा हो। न हमारे पास मुख़बिर की सूचना और न हमारी सी आई डी किसी काम की। बिना टारगेट के फ़ायरिंग का मतलब अलल टप्प निशाना लगाना। आपकी सेना की तीन सर्किल्स में तैनाती थी। सब व्यर्थ जबकि वह बिना सोए खाए लगातार मोर्चा ले रहा था। आपकी फोर्स खाना भी खा रही थी, सिलसिलेवार आराम भी फरमा रही थी। जब घनश्याम भागा बकौल अखबारों के पी ए सी के कुछ लोग लेटे बैठे थे कुछ खाने में मुबतिला थे। 51 घंटे लगातार डटे रहने के बाद उसे वही मौक़ा मिला उसने भरपूर फ़ायदा उठाया। साहरा के फ़ोटोग्रफरों ने देख लिया लेकिन हमारे जवानों और अफसरों की आंख नहीं देख पाई। यह कैसी विडंबना है। दो किलो मीटर तक उस हालत में भी दौड़ता चला गया। आख़री सांस तक उसने लोहा लिया। वैसे तो लोहे से ही लोहा लिया जाता है। अगर नाले में न छुपता तो शायद ए डी जी ब्रजलाल जी अपनी पीठ थपथपाने के मौक़े से महरूम रह जाते।
मैं कई बार सोचता हूं कि कि चीन के साथ हुई लड़ाई में जनरल कौल चीन के आक्रमण की बात सुनकर सोते सोते अपने उन्हीं कपड़ों में भाग खड़े हुए थे जो पहने थे। सेना क्या करती, जनरल ही नहीं तो हुक्म कौन दे। कहते हैं बहादुरशाह को जब अंग्रज़ो ने गिरफ़तार किया तो उन्हें आधा घंटा मिला जिसमें चाहते तो भाग सकते थे। जब उनसे पूछा गया कि आपको आधा घंटा मिला था आप भाग सकते थे। उन्होंने कहा वहां जूते पहनाने वाला कोई नहीं था। हो सकता है यह बनाया हुआ चुटकुला हो। लेकिन परंपरा की बात है। यह डाकू तो पुलिस को 51 घंटे हलकान करने के बाद देश के सुरक्षा के ठेकेदारों की आंखों के सामने खुले किवाड़ों भागा था। जिस तरह व कूदकर भाग रहा था कोई भी दक्ष शूटर उसे मार सकता था। ताज्जुब है कि इतनी बड़ी फ़ोर्स में से किसी की नज़र भी उस पर नहीं पड़ी और पड़ी तो निशाना चूक गया। बल्कि भागने की ख़बर सुनते ही रिलेक्स पी ए सी के जवानों ने पहले पोजीशन ली फिर बंदूकें दीवार से टिका कर रख दी। कहीं यह तो नहीं सोचा भाग गया, जान बची सो लाखों पाए।
मुझे एक सवाल बराबर परेशान कर रहा है यह ठीक है कि वह दुर्दांत डाकू था उसे मार कर पुलिस ने ठीक किया। लेकिन क्या वह कायर था? यह सवाल क्या आप अपने आप से पूछेंगी? सारा गांव ख़ाली करा लिया गया था। उसकी मदद के लिए वहां कोई नहीं थे सिवाय उसकी अपनी गन के। गोली बारूद भी असीमित नहीं था। वह पुलिस वालों की तरह ज़रेबख्तर भी नहीं पहने था। गोलियों को अपव्यय करने की स्थिति में तो क़तई नहीं था। वह पुलिस के 500 जवानों से तरकीब और किफ़ायत से लड़ा। लेकिन उसने यह पता नहीं चलने दिया कि वह अकेला है और और एक गन और सीमित कारतूस के साथ इतनी बड़ी संख्या में आई गारद से लड़ रहा है। उसने अपनी रणनीति सोच समझ कर बनाई। हर एक गोली का उसके हिसाब से सदुपयोग हो। वह उनके दबाव में न आए उल्टे उन्हें अपने दबाव में ले ले। एक आदमी के लिए इतने बड़े अमले को दबाव में लेना असंभव काम था। 51 घंटे तक उसकी रणनीति पूरी तरह कारगर रही। मुझे नहीं लगता कि इन बड़े बड़े प्रशिक्षित अफ़सरों की कोई रणनीति थी। वे तो यह सोचकर फ़ायरिंग कर कर रहे थे किसी न किसी गोली पर तो उसका नाम लिखा होगा। 51 घंटे जो गालियां दागीं उनमें से किसी पर उसका नाम नहीं मिला। बल्कि उनके चार जवानों का नाम उसकी गोलियों पर जा खुदा। 11 घायल हुए। एक साहब कह रहे थे गोली चलाता था और छुप जाता था। जब कोई यह समझकर बढ़ता था वह मारा गया वह तपाक से गोली टिका देता था। मेरे सामने एक दूसरा सवाल है क्या ऐसे हिम्मती और रणनीतिकार को मारना ठीक हुआ या पकड़ना ठीक होता? इस सवाल का जवाब पुलिस वालों के पास एक ही था मार गिराना। जब वह भाग निकला तो ए डी जी से लेकर सिपही तक सबके हाथ पांव फूल गए। क्योंकि उनका उद्देश्य तो एनकाउंटर था। वह इस बात को समझ रहा था। हो सकता था वह समर्पण कर देता। लेकिन वह जान की लड़ाई लड़ रहा था। हो सकता है उसने ज़िंदगी में एक आध लोगों को बख्श भी दिया हो पर पुलिस किसी को नहीं बख्शती। जब तक उसका हित न हो। दूसरा पक्ष भी था एक नज़र उसके बेमिसाल साहस के बारे में सोचना। रणनीति प्रवरता पर ध्यान देना। उसके डकैत होने से ऊपर उठकर उसके हिम्मती होने और रणनीतिकार होने का देश और समाज के हित में लाभ उठाने की संभावना के बारे में सोचना। वहां केवल सिपाही नहीं ए डी जी रैंक के अफ़सर उस आपरेशन का सचालन कर रहे थे। वे उच्च अधिकारियों यहां तक मुखुयमंत्री तक को समझा सकते थे कि वे उससे यह कहने क अनुमति दें कि वे उससे बात करना चाहते हैं मारना नहीं चाहते। बेगुनाह से बेगुनाह आदमी पुलिस की छवि में यही देखता है कि वे आए हैं तो कुछ न कुछ करने आए हैं। अगर पुलिस दूसरे पैराए पर भी सोचना शुरू कर दे। हो सकता है मुनाहगार भी उनकी कही बात पर सोचने लगें। सिपाही दरोगा की बात पर विश्वास करे न करे लेकिन वरिष्ठतम अधिकारी और मंत्री तक विश्वसनीय नहीं रह गए। जयप्रकाश नारायण की बात पर वे लोग विश्वास कर सकते है जिनके पास न क्षमा करने का अधिकार था, न दंड देना का। जिनके पास ये सब अधिकार हैं उनकी बात तो विश्वनीय होनी चाहिए। लेकिन नहीं है। अधिकार का सकारात्मक उपयोग न हमने सीखा और न सिखाया गया। घनश्याम एक भटका हुआ बहादुर था जिसने प्रतिशोध और सताने के जवाब में मौत देना सीखा थे। अगर उसे गिरफ़्तार करके सुधारने का प्रयत्न किया जाता तो उसकी क्षमताओं का सदुपयोग क्या संभव नहीं था? वी शांता राम की दो आंखें बारह हाथ फिल्म देखकर संपूर्णानन्द जी ने सुधार गृह नाम से खुली जेलें बनाई थीं। गुरमा मिर्ज़ापुर की जेल देखने का मौक़ा मिला है। वहां कैदी खुले रहते थे। उन्हें काम करना, उनकी ग़लतियों को सुधारना, नमाज़, कीर्तन आदि सिखाया जाता था। लेकिन अब राजनीति से किसी को फुर्सत नहीं। गांधी जी को नाटक करने वाला कहकर अपनी भड़ास निकालने वाले इन सब बातों के बारे में शायद जानते भी न हों कि कै़दियों के संदर्भ में इतना महत्त्वपूर्ण प्रयोग गांधी जी का अनुसरण करके हो चुका है। दरअसल डाकुओं को मारना या बिना सुनवाई के गरीब और बेसहारा अंडरट्रायल्स का जेलों में जीवन काट देना जनतंत्र के लिए लज्जाजनक है। गांधी में बुराई खोजकर और अपनी ख़ूबियों का ढिंढोरा पीटकर आप कहीं नहीं पहुंच सकते। यह मनोविज्ञानिक वास्तविकता है कि जब आप अपनी तारीफ़ करते हैं लोगों की नज़र तत्काल आपकी कमज़रियों पर जाता है। ख़ैर, जब समाज और सरकार के स्तर पर जरायमपेशा लोगों के पुनर्वास की योजना नहीं बनायी जाएगी और उसके पीछे ईमानदारी होगी तब तक पुलिस और तथाकथित दबंग उनकी हत्याओं को ही सबसे आसान तरीक़ा मानकर हत्यओं में संलग्न रहेंगे। अगर कापुरूषों की सेना में ऐसे हिम्मती लोगों का मन परिवर्तन करके, भर्ती किया जा सकेगा तो उनके टेलेंट का सही इस्तेमाल हो सकेगा। वैसे भी एक आदमी पर भले ही वह डकैत हो 500 शस्त्र लोगों द्वारा आक्रमण मानवाअधिकार का सवाल उठाता है। इन सवालों पर हुकूमत के नज़रिए से न ोचकर अब मानवीय दृष्टिकोण से सोचना शुरू करना ज़ररी है।
Saturday, 27 June 2009
Monday, 22 June 2009
कहां आ रहे हैं हिंदी-चानी
जून 09 के सभी समाचर पत्रों में एक ख़बर छपी है ‘सावधान, आ रहे हैं हिंदी-चीनी’। हिंदी चीनी जब साथ छपा देखता हूं तो मैं चौंक जाता हूं । चाऊ एन लाइ और नेहरू ने हिंदी चीनी भाई भाई का नारा लगाया था उसका नतीजा जो हुआ उसने सबसे पहले नेहरू की ही बलि ली। ईश्वर के लिए दोनों को साथ साथ न रखो। कुछ पता नहीं कब क्या हो जाए। अभी तक तो यही देखने में आया कि चीनी हिंदी न साथ रहे, न आए, न गए। भारत एक दिशा चलता है चीन दूसरी दिशा। चीन और चीन के गुर्गे भारत पर मौक़ा मिलते ही झपटते हैं और हर काम के लिए उसे दोषी करार दे देते हैं। यह तो हिंदुस्तान की सहनशीलता है कि हर हाल ख़ुशी हर हाल अमीरी है बाबा, जब आशिक मस्त फ़कीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा। जब पोरस हारा तो उसने न अपना आपा खोया और न दूसरों को खोने दिया। लेकिन यह समाचार बिल्कुल भिन्न था। दरअसल अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा साहब ने अपने देश के लोगों को आगाह करने के लिए विंस्कानसन में हुई एक बैठक में यह कहा थी। अपने देश के बच्चों की शिक्षा को लेकर वे चिंतित हैं। उनका मानना है कि हिंदी चीनी अधिक मेहनती और मेधावी हैं। अमेरिका के बच्चे फिसड्डी होते जा रहे हैं। इस तरह की चिंता व्यक्त करने वाले वे पहले राष्ट्रपति हैं। उनकी यह चेतावनी कि अब कमर कसकर सावधान होने की ज़रूरत है क्योंकि हिंदी और चीनी अमेरिका आ रहे हैं। अमेरिकन बच्चों को डराने के लिए कि हव्वा आ रहा है। यह ओबामा के मन का डर है। मेरे विचार से ओबामा ने शपथ लेने के दो तीन महीने में अपने देश की शिक्षा का जायज़ा ले लिया और अपने देश को आगाह कर दिया कि देश की शिक्षा पद्धति में सुधार लाने की ज़रूरत है। इस तरह की चिंता हमारे देश के किसी नेता ने कभी व्यक्त नहीं की। जिस देश में शिक्षा शिक्षाविदों की जगह दोयम दर्जे के नौकरशाह चलाएं वहां कौन कह सकता है कि नेता शिक्षा के प्रति चिंतित हैं। हमारे नेता गाहे बगाहे ज़िक्र कर दिया करते हैं। अमेरिका आज भी सबसे शक्तिशाली और अमीर देश है। उसके बावजूद ओबामा चिंतित है कि अमेरिका 100 वर्ष तक समृद्धिशाली और शक्तिशाली देश रहा अगर छात्र वीडियो गेम और टी वी में समय बिताएंगे तो हिंदी चीनी आ धमकेंगे। हिंदी चीनी बच्चे वीडियो गेम्स कम खेलते हैं और टी वी भी कम देखते हैं वे मेधावी और परिश्रमी भी हैं। अमेरिका पी एच डी़ ग्रेजुएट्स, इंजिनियर्स, वैज्ञानिक सबसे अधिक पैदा करता था अब उसमें गिरावट आई है। जब शिक्षा की बात आती है तो वह दूसरे देशों से ऊपर नहीं है। दुनिया के देश प्रतिस्पर्धाधर्मी होते जा रहे हैं हमें भी अपनी गति बढ़ानी होगी। संदेश के साथ साथ यह चुनौती भी है।
हिंदुस्तान में चीन और अमेरिका से अधिक विश्विद्यालय हैं। इसके बावजूद बेरोज़गारी का प्रतिशत भारत में इन दोनों से अधिक है। नए विश्विवद्यालय और आई आई टी खुल गए हैं या खुलने की प्रक्रिया में हैं। प्राइवेट मेडिकल कालिज, बिज़नेस मैनेजमेंट संस्थान भी खुल रहे हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे संस्थान हैं जिनका उद्देश्य शिक्षा हो। अधिकतर प्राइवेट संस्थाएं उन्हें आमदनी का ज़रिया बनाए हुए हैं। 14 जून के अखबारों में निकला था कि कानपुर विश्विद्यालय के स्वपोषित बी एड कालिजों ने एक अरब सत्तर लाख रुपया निर्धारित फ़ीस के अलावा इकट्ठा किया। यह कैसी विडंबना है। स्वपोषित इंजिनियरिंग बिजनेस-मैनेजमेंट कालिज तो लाखों में केपिटेशन फीस वसूल करते हैं। अभी उत्तर प्रदेश में 18 हज़ार सिपाहियों की भरती हुई थी। सरकार बदलते ही उन नियुक्तियों को निरस्त कर दिया गया। लोग एक से तीन लाख रुपया देकर भर्ती हुए थे। उसके लिए लोगों ने घर ज़मीन ज़ेवर बेचकर रिश्वत देने के लिए धन जमा किया था। ज्वायन कराने के बाद नई सरकार ने उनको बर्खास्त कर दिया। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्टे के आदेश ने उन्हें बहाल कर दिया। इस बीच 100 से अधिक लोगो ने इस सदमे के कारण आत्महत्याऐं कर लीं कि सब कुछ बिक गया अब गुज़ारा कैसे होगा। सरकारों में लगता है मनुष्य नहीं रहते केवल कुर्सियां होती हैं। कुर्सियों में संवेदना नहीं होती। सवाल है कि ओबामा साहब को ऐसा लगना कि हिंदी या चीनी आ रहे हैं अपने देश में बढ़ती बेरोज़गारी की दृष्टि से भले ही ठीक है पर भारत के नज़रिए से चिंताजनक है। वे लोग जो यहां से वहां जा रहे हैं उनको संस्थाएं उनकी ज़रूरत के हिसाब से तैयार करती हैं। इस देश की ज़रूरत के हिसाब से उन्हें न तैयार किया जाता है और न वे उन्हें जानते समझते हैं। जिन प्रोबलम्स से वे जूझते हैं अधिकतर बाहरी देशों की होती हैं जो प्रोजेक्ट के रूप में वहां से आती हैं। इसलिए वे खपते भी वहीं हैं। वे मारे जाएं या पीटे जाएं रहंगे वहीं। इसका कारण मां बाप भी हैं वे होश संभालते नहीं उन्हें ठूस ठूस कर यह समझाना शुरू कर दिया जाता है कि उन्हें मैनेमेंट या इंजिनियरिंग या दूसरे विषय जिनकी वहां मांग है पढ़कर अमेरिका या जर्मनी आदि देशों में जाना है। इसलिए नहीं कि इससे देश का गौरव बढ़ेगा बल्कि इसलिए कि डालर मिलेंगे। उसके लिए बच्चों को बचपन से तैयार किया जाता है। मातृभाषा से विमुख करके पब्लिक स्कूलों में पढ़ाना, उनकी साहित्य संस्कृति और संवेदना की रीढ़ तोड़ना सबसे पहला काम होता है। मैकोले का यही गुरूमंत्र था। मां बाप यह तक जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके बच्चे स्कूलों में क्या सीख रहे हैं। वे केवल टेस्ट कापियों में दिए गए नंबर देखकर उनकी गिटपिट सुनकर आश्वस्त हो जाते हैं कि बच्चा उनकी मनचाही दिशा में जा रहा है। उन्हें तब पता चलता है जब बच्चों का मानवीय संवेदना कोश ख़ाली हो चुका होता है। जब वे उनके सुख दुख पैसे से तोलने लगते हैं। दरअसल, ओबामा साहब हम टैक्नीकलाजी में प्रशिक्षित गुलाम बेचते हैं। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं कि वे कितनी अवधि के बाद अपने वतन लौट आएंगे। लौटेंगे भी या नहीं। या तभी लौटेंगे जब निकाले जाएंगे। वे ग्रीन कार्ड ले लें या नागरिकता ले लें मुझे नहीं मालूम कि उनके पितृ देश से पूछा भी जाता है या नहीं। न इस तरह के अनुबंध का कोई प्रावधान ही है कि अगर उनके यहां कोई हादसा हो जाए तो उसका कोई मुआवज़ा मूल देश या घरवालों को देंगे। देंगे तो किस हिसाब से। आस्ट्रेलिया में भारतीयों के साथ जो नृशंस व्यवहार हो रहा है, मां बाप की बुढ़ापे की लकड़ी तोड़ी जा रही है उसकी चिंता न वहां की सरकार को है और न हमारी सरकार को। हुज़ूर, आपके महान देश में भारतीय छात्रों की कैंपसों में हत्याएं हुई हैं। किसने क्या किया। ओबामा साहब इससे सस्ता सौदा और क्या होगा? दरअसल अंतर्राष्ट्रीय कानून या परंपराएं योरोपिय और पश्चिमी देशों की जरूरतों के नज़रिए से बनाए गए हैं। अब जब मंदी के फेर में विकसित दुनिया पड़ी तो आपको इसका गणित समझ में आया कि अगर हमारे देश का युवा वर्ग चीनी और हिंदी जैसा मेधावी और मेहनती होता तो इतना धन बाहर न जाता। आप तो बेहतर समझते हैं गरीब का बच्चा चाहे देश हो विदेश, आसायश में वक्त बरबाद नहीं करता अपनी हालत सुधारने के लिए पहले हाथ पैर मारता है। आपने तो स्वयं सहा है। अमीर और साधन संपन्न मग़रूर भी हो जाता है और अपने शौकों की परवरिश बच्चे की तरह करता है। हमारे देश के अधिकतर मेधावी बच्चे उसी गरीब वर्ग के होते हैं। लेकिन उनको संवेदनाहीन बना के दूसरे देशों में भेजा जाता है। इसे आप संवेदना का वन्ध्याकरण भी कह सकते हैं। जिससे वे आपके लिए समस्या न बने। इतना उत्साह भर दिया जाता है कि देशज दुख सुख उन्हें सालते नहीं।
आपका यह कथन भले ही हमें अपने बच्चों की फिलहाल प्रशंसा महसूस हो। हम कुछ समय हर्षित भी हो लें पर वह आपके बच्चों को ईर्ष्या से भरने के लिए काफ़ी हैं। नतीजा वही होगा जो आस्ट्रेलिया में हो रहा है। उन्हें बचाने के लिए बहुत कुछ कहा और किया जाएगा पर अंततः यही होगा उनका न शहीदों में नाम रहेगा न देश भक्तों में। जो लौटेंगे वे सपनों का मलबा लादे। आपका यह भाषण हमारे पक्ष में न होकर विरुद्ध है। ईर्ष्या ऐसी आग है जो नज़र नहीं आती पर धीरे धीरे आधार को ख़ाक कर देती है।
हिंदुस्तान में चीन और अमेरिका से अधिक विश्विद्यालय हैं। इसके बावजूद बेरोज़गारी का प्रतिशत भारत में इन दोनों से अधिक है। नए विश्विवद्यालय और आई आई टी खुल गए हैं या खुलने की प्रक्रिया में हैं। प्राइवेट मेडिकल कालिज, बिज़नेस मैनेजमेंट संस्थान भी खुल रहे हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे संस्थान हैं जिनका उद्देश्य शिक्षा हो। अधिकतर प्राइवेट संस्थाएं उन्हें आमदनी का ज़रिया बनाए हुए हैं। 14 जून के अखबारों में निकला था कि कानपुर विश्विद्यालय के स्वपोषित बी एड कालिजों ने एक अरब सत्तर लाख रुपया निर्धारित फ़ीस के अलावा इकट्ठा किया। यह कैसी विडंबना है। स्वपोषित इंजिनियरिंग बिजनेस-मैनेजमेंट कालिज तो लाखों में केपिटेशन फीस वसूल करते हैं। अभी उत्तर प्रदेश में 18 हज़ार सिपाहियों की भरती हुई थी। सरकार बदलते ही उन नियुक्तियों को निरस्त कर दिया गया। लोग एक से तीन लाख रुपया देकर भर्ती हुए थे। उसके लिए लोगों ने घर ज़मीन ज़ेवर बेचकर रिश्वत देने के लिए धन जमा किया था। ज्वायन कराने के बाद नई सरकार ने उनको बर्खास्त कर दिया। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्टे के आदेश ने उन्हें बहाल कर दिया। इस बीच 100 से अधिक लोगो ने इस सदमे के कारण आत्महत्याऐं कर लीं कि सब कुछ बिक गया अब गुज़ारा कैसे होगा। सरकारों में लगता है मनुष्य नहीं रहते केवल कुर्सियां होती हैं। कुर्सियों में संवेदना नहीं होती। सवाल है कि ओबामा साहब को ऐसा लगना कि हिंदी या चीनी आ रहे हैं अपने देश में बढ़ती बेरोज़गारी की दृष्टि से भले ही ठीक है पर भारत के नज़रिए से चिंताजनक है। वे लोग जो यहां से वहां जा रहे हैं उनको संस्थाएं उनकी ज़रूरत के हिसाब से तैयार करती हैं। इस देश की ज़रूरत के हिसाब से उन्हें न तैयार किया जाता है और न वे उन्हें जानते समझते हैं। जिन प्रोबलम्स से वे जूझते हैं अधिकतर बाहरी देशों की होती हैं जो प्रोजेक्ट के रूप में वहां से आती हैं। इसलिए वे खपते भी वहीं हैं। वे मारे जाएं या पीटे जाएं रहंगे वहीं। इसका कारण मां बाप भी हैं वे होश संभालते नहीं उन्हें ठूस ठूस कर यह समझाना शुरू कर दिया जाता है कि उन्हें मैनेमेंट या इंजिनियरिंग या दूसरे विषय जिनकी वहां मांग है पढ़कर अमेरिका या जर्मनी आदि देशों में जाना है। इसलिए नहीं कि इससे देश का गौरव बढ़ेगा बल्कि इसलिए कि डालर मिलेंगे। उसके लिए बच्चों को बचपन से तैयार किया जाता है। मातृभाषा से विमुख करके पब्लिक स्कूलों में पढ़ाना, उनकी साहित्य संस्कृति और संवेदना की रीढ़ तोड़ना सबसे पहला काम होता है। मैकोले का यही गुरूमंत्र था। मां बाप यह तक जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके बच्चे स्कूलों में क्या सीख रहे हैं। वे केवल टेस्ट कापियों में दिए गए नंबर देखकर उनकी गिटपिट सुनकर आश्वस्त हो जाते हैं कि बच्चा उनकी मनचाही दिशा में जा रहा है। उन्हें तब पता चलता है जब बच्चों का मानवीय संवेदना कोश ख़ाली हो चुका होता है। जब वे उनके सुख दुख पैसे से तोलने लगते हैं। दरअसल, ओबामा साहब हम टैक्नीकलाजी में प्रशिक्षित गुलाम बेचते हैं। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं कि वे कितनी अवधि के बाद अपने वतन लौट आएंगे। लौटेंगे भी या नहीं। या तभी लौटेंगे जब निकाले जाएंगे। वे ग्रीन कार्ड ले लें या नागरिकता ले लें मुझे नहीं मालूम कि उनके पितृ देश से पूछा भी जाता है या नहीं। न इस तरह के अनुबंध का कोई प्रावधान ही है कि अगर उनके यहां कोई हादसा हो जाए तो उसका कोई मुआवज़ा मूल देश या घरवालों को देंगे। देंगे तो किस हिसाब से। आस्ट्रेलिया में भारतीयों के साथ जो नृशंस व्यवहार हो रहा है, मां बाप की बुढ़ापे की लकड़ी तोड़ी जा रही है उसकी चिंता न वहां की सरकार को है और न हमारी सरकार को। हुज़ूर, आपके महान देश में भारतीय छात्रों की कैंपसों में हत्याएं हुई हैं। किसने क्या किया। ओबामा साहब इससे सस्ता सौदा और क्या होगा? दरअसल अंतर्राष्ट्रीय कानून या परंपराएं योरोपिय और पश्चिमी देशों की जरूरतों के नज़रिए से बनाए गए हैं। अब जब मंदी के फेर में विकसित दुनिया पड़ी तो आपको इसका गणित समझ में आया कि अगर हमारे देश का युवा वर्ग चीनी और हिंदी जैसा मेधावी और मेहनती होता तो इतना धन बाहर न जाता। आप तो बेहतर समझते हैं गरीब का बच्चा चाहे देश हो विदेश, आसायश में वक्त बरबाद नहीं करता अपनी हालत सुधारने के लिए पहले हाथ पैर मारता है। आपने तो स्वयं सहा है। अमीर और साधन संपन्न मग़रूर भी हो जाता है और अपने शौकों की परवरिश बच्चे की तरह करता है। हमारे देश के अधिकतर मेधावी बच्चे उसी गरीब वर्ग के होते हैं। लेकिन उनको संवेदनाहीन बना के दूसरे देशों में भेजा जाता है। इसे आप संवेदना का वन्ध्याकरण भी कह सकते हैं। जिससे वे आपके लिए समस्या न बने। इतना उत्साह भर दिया जाता है कि देशज दुख सुख उन्हें सालते नहीं।
आपका यह कथन भले ही हमें अपने बच्चों की फिलहाल प्रशंसा महसूस हो। हम कुछ समय हर्षित भी हो लें पर वह आपके बच्चों को ईर्ष्या से भरने के लिए काफ़ी हैं। नतीजा वही होगा जो आस्ट्रेलिया में हो रहा है। उन्हें बचाने के लिए बहुत कुछ कहा और किया जाएगा पर अंततः यही होगा उनका न शहीदों में नाम रहेगा न देश भक्तों में। जो लौटेंगे वे सपनों का मलबा लादे। आपका यह भाषण हमारे पक्ष में न होकर विरुद्ध है। ईर्ष्या ऐसी आग है जो नज़र नहीं आती पर धीरे धीरे आधार को ख़ाक कर देती है।
Monday, 15 June 2009
साहित्य, संवेदना भाषा परंपरा
साहित्य यानी भाषाई साहित्य हमारी पहचान है। लेकिन माना जाता है कि जो साहित्य अंग्रज़ी में लिखा जा रहा है वह देश की पहचान है। ज़िंदगी से हम जूझते हैं उसके साथ दो दो दो हाथ हम भाषाई लोग करते हैं, भूख और तिरस्कार हम ओटते हैं। लेकिन वे लोग जो अपनी भाषा की जगह बाहरी भाषा में उसका रूपांतरण कर देते हैं, और जिसको विदेशी भाषा भाषी स्वाद बदलने के लिए या अपनी ज्ञान वृद्धि के लिए सोर्स सामग्री मानकर, अपना गवेषणा का आधार उस आयातित ज्ञान मंजुषा को सजा कर ख़ुश होते हैं, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं। मैं इस बात के खिलाफ़ नहीं कि हमारा अनुभव बाहर न जाए। ज़रूर जाए पर उसकी दो शर्तें होनी चाहिएं एक तो ज़मीनी अनुभव यानी लेखक जिसे ज़मीन से जु़ड़कर अर्जित करता है और उसे अपने अनुभव की भाषा में अभिव्यक्त करता है उस प्रक्रिया के साथ संलग्नता। दूसरी जातिय पहचान। अनुभव की भाषा ही अनुभवों को बिंब और जीवंतता देती है। मैं य़ह नहीं कहता कि अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं में संवेदनात्मक बिंब और जीवन के जीवंत चित्र संभव नहीं होते। ख़ूब होते हैं। शेक्सपियर मे मिलने वाली भाषाई चित्रात्मकता कालीदास से सर्वथा भिन्न है। चाहे प्रकृति हो या मानव मन की स्थितियां हों। कोई भी बड़े से बड़ा विदेशी कलाकार या लेखक मेघों को विरहिणी प्रेमिका का दूत बनाकर पर्वत पर्वत, जंगल जंगल, मौसम मौसम प्रीयतम के पास संदेश लेकर भेजने की कल्पना नहीं कर सकता। अगर करेगा तो परिवेश के साथ उसकी अंतरंगता कालीदास जितनी गहरी शायद न हो। इसी तरह शेक्सपियर की तरह ‘कमज़ोरी का नाम ही औरत है’ कहने में भारतीय लेखक को बहुत कसरत करनी पड़ेगी। दुर्गा काली सरस्वती सब सामने आ खड़ी होंगी। वातावरण और प्रकृति, संवेदना और भाषाई अभिव्यक्ति का अंतरंग स्त्रोत होती है। हम अपनी मातृ भाषा में ही जीते हैं। वही हमारे अनुभव और अभिव्यक्ति की कमलनाल है।
सवाल उठता है कि इस कमलनाल को हम दूसरी भाषाओं में कैसे प्रत्यारोपित करते हैं। क्या क़लम बांधते हैं? क़लम परिवर्धन नहीं करती। वह अपने स्टेम पर ही अपने रंग का प्रस्फुटन करती है। इसीलिए कलम के नीचे फूटने वाली देसी कल्लों को तोड़ते रहते हैं। वैसे कलम बांधकर उसे सुरक्षित रखना भी एक कला है। दूसरा विकल्प है विदेशी संस्कार या सभ्यता के लिए हम अपने साहित्य को पनीर की तरह उपयोग में लाते हैं। यानी जिस देसी पौध पर कलम बांध रहे हैं वह मूल रूप में मौजूद रहता है लेकिन रंग वही होते हैं जो आयातित संस्कार उसमें कलमबंद किए गए हैं। हिंद स्वराज में विदेशी सभ्यता को शैतान की सभ्यता कहा गया है। साहित्य चाहे वह किसी भी देश या सभ्यता से ताल्लुक रखता हो वह केवल समाज का ही नहीं अपनी संस्कृति और सभ्यता का भी संवाहक होता है। हमारा साहित्य हमारे जातिय संस्कारों और चिंतन को अभिव्यक्त करता है। भाषा, अनुभव, अनुभूति और चिंतन सब कुछ उसे अपनी जड़ों से मिलता है। लेकिन हमारे अनेक लेखक जो अंग्रेज़ी में लिखते हैं अधिकतर की विषय वस्तु विदेशी पाठकों को ख़ुश करने वाली होती है। सेक्स एक ऐसा माल है जो विदेशी बाज़ार में ख़ूब खपता है। जब ‘व्हाइट टाइगर’ को बुकर सम्मान मिला तब बुकर संस्था के पूर्व अध्यक्ष ने कहा था कि भारतीय अंग्रेज़ी लेखक अधिकतर सेक्स ओरियन्टेड उपन्यास लिखते हैं। अपने देश के बारे में क्यों नहीं लिखते? अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय लेखकों पर इस तरह के विदेशी विद्वान आलोचकों की बात का कोई असर होता है या नहीं यह तो कह सकना किठन है हालांकि देश के अनेक विद्वानों को सेक्स के प्रति उनका अतिरिक्त आग्रह अखरता है। क्या उनके ऊपर बाज़ार का दबाव है। जब टाल्सटाय का उपन्यास ‘वार एण्ड पीस’ आया था तो सामान्य पाठक रूस के बारे में कम जानते थे। लेकिन संवेदना और जीवनाअनुभव की व्यापकता के कारण भारत के ही नहीं संसार भर के पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया था। स्व. रोडारमल द्वारा किया अनुवाद गोदान का अंग्रेज़ी अनुवाद अमेरिका में उसके व्यापक सामाजिक संदर्भों के कारण शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है।
इन सब बातों के पीछे मेरे कहने का तात्पर्य केवल यह है भले ही राजनीतिक कारणों या अंग्रज़ी की चकाचौंध से हिंदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य हाशिए पर है लेकिन भारत के जीवन की विविधता भारतीय भाषाओं के साहित्य में है। उदाहारण के लिए संसार के 19वीं सदी के सबसे ऐतिहासिक और त्रासद भारत विभाजन पर उपन्यास अंग्रज़ी में नहीं लिखा गया जबकि बड़े बड़े अंग्रेज़ीदां प्रशासक और विचारक विभाजन से जुड़े थे। उन्होंने जीवनियां लिखीं लेकिन साहित्य ओर उस समय की बनते बिगड़ते सांस्कृतिक परिवेश की तरफ़ न्यूनतम नज़र गई। अलबत्ता हिंदी उर्दू में ज़रूर लिखे गए। यशपाल का झूठा सच, उदास नस्लें भीष्म जी का तमस इसके उदाहारण हैं। जब मैं मारक्वेस की रचनाऐ़ं पढ़ता हूं, ख़ासतौर से हंड्रेड ईयर्स आफ सालिट्यूड पढ़ते हुए तो मैं चकित रह जाता हूं कि अपने सीमित देशज परिवेश में विश्व की संस्कृति को अपने अंदाज़ में समेट लेते हैं। चाहे नियोग हो या उन ख़ित्तों में होने वाली लड़ाईयां हों या अंधविश्वास हों। लोक कथाएं हों या परास्वप्न हों और हज़ारो मील दूर भारत से आने वाली कथा परंपरा और भविष्यवाणियों के संदर्भ और भोजपत्र पर संस्कृत में लिखा इतिहास हो। संवेदना और कथा संदर्भों का ऐसा विलक्षण जुगाड़ और ऊनको आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता ही उसे महान बनाती है। एक समानान्तर महाभारत की संकल्पना अपनी धरती और परिवेश में रोपित करना इस बात का द्योतक है कि लेखक इस ख़तरे को उठाने के लिए तत्पर है कि अस्वीकृति उसकी रचनातमकता को किसी हालत मे छोटा नहीं कर पाएगी। वह भी अपनी भाषा में। शायद ज़मीन से जुड़कर रेंगने की अदम्य शक्ति ही लेखक को ऊपर और ऊपर उठाती है। मैं अंग्रेज़ी काम भर की जानता हूं। लेकिन जब भारतीय अंग्रेज़ी लेखकों की रचनाएं पढ़ता हूं तो मुझे अकसर महसूस होता कि जिस तरह वे स्लैंग का इस्तेमाल करते हैं वह मूल विदेशी लेखकों के स्लैंग प्रयोग से भिन्न होता है सच कहूं तो कमज़ोर होता है। कई बार तो नक़ल लगता है। अंग्रेज़ी के एक भारतीय उपन्यास में भाई बहिन के प्रेम संबंध को काफ़ी खुलेपन से प्रदर्शित किया गया है। उसके बारे में संभवतः टाइम मैगज़ीन में राइटअप पढ़कर काफ़ी आतंकित हुआ था। बोल्ड तो था। नग्नता शायद किसी शक्तिशाली तानाशाह के विरोध से भी अधिक बोल्ड होती है। लेकिन संलग्नता और समरसता की दृष्टि से वह कमज़ोर था। दरअसल वह लेखक की ख़ता नहीं। जिस पृष्ट भूमि से कोई भी भारतीय लेखक आता है उसमें उन स्थितियों के लिए जिन्हें वह गढ़ रहा है अगर उसमें उनके अनुसार न सटीक बिंब हों और न भाषा संसार तो वह गढ़ा हुआ कहा जाएगा। स्थितियों से अपरिचितता रचनात्मक संवेदना को क्षति पहुंचाती है। भाषा उधार ली हुई हो तो लुहार की तरह ढांचा खड़ा करके बढईगिरी करके सजाना अनिवार्य हो जाता है। यह तब तक करना होता जब तक वह संवेदना समाज पर आरोपित न कर दी जाय। क्या यह संभव है कि आयातित माल को अपना उत्पाद मानकर हम हम आत्मसात कर लें? यह किसी भी संवेदनशील साहित्यिक समाज के लिए कठिन परीक्षा होगी।
साहित्य यानी भाषाई साहित्य हमारी पहचान है। लेकिन माना जाता है कि जो साहित्य अंग्रज़ी में लिखा जा रहा है वह देश की पहचान है। ज़िंदगी से हम जूझते हैं उसके साथ दो दो दो हाथ हम भाषाई लोग करते हैं, भूख और तिरस्कार हम ओटते हैं। लेकिन वे लोग जो अपनी भाषा की जगह बाहरी भाषा में उसका रूपांतरण कर देते हैं, और जिसको विदेशी भाषा भाषी स्वाद बदलने के लिए या अपनी ज्ञान वृद्धि के लिए सोर्स सामग्री मानकर, अपना गवेषणा का आधार उस आयातित ज्ञान मंजुषा को सजा कर ख़ुश होते हैं, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं। मैं इस बात के खिलाफ़ नहीं कि हमारा अनुभव बाहर न जाए। ज़रूर जाए पर उसकी दो शर्तें होनी चाहिएं एक तो ज़मीनी अनुभव यानी लेखक जिसे ज़मीन से जु़ड़कर अर्जित करता है और उसे अपने अनुभव की भाषा में अभिव्यक्त करता है उस प्रक्रिया के साथ संलग्नता। दूसरी जातिय पहचान। अनुभव की भाषा ही अनुभवों को बिंब और जीवंतता देती है। मैं य़ह नहीं कहता कि अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं में संवेदनात्मक बिंब और जीवन के जीवंत चित्र संभव नहीं होते। ख़ूब होते हैं। शेक्सपियर मे मिलने वाली भाषाई चित्रात्मकता कालीदास से सर्वथा भिन्न है। चाहे प्रकृति हो या मानव मन की स्थितियां हों। कोई भी बड़े से बड़ा विदेशी कलाकार या लेखक मेघों को विरहिणी प्रेमिका का दूत बनाकर पर्वत पर्वत, जंगल जंगल, मौसम मौसम प्रीयतम के पास संदेश लेकर भेजने की कल्पना नहीं कर सकता। अगर करेगा तो परिवेश के साथ उसकी अंतरंगता कालीदास जितनी गहरी शायद न हो। इसी तरह शेक्सपियर की तरह ‘कमज़ोरी का नाम ही औरत है’ कहने में भारतीय लेखक को बहुत कसरत करनी पड़ेगी। दुर्गा काली सरस्वती सब सामने आ खड़ी होंगी। वातावरण और प्रकृति, संवेदना और भाषाई अभिव्यक्ति का अंतरंग स्त्रोत होती है। हम अपनी मातृ भाषा में ही जीते हैं। वही हमारे अनुभव और अभिव्यक्ति की कमलनाल है।
सवाल उठता है कि इस कमलनाल को हम दूसरी भाषाओं में कैसे प्रत्यारोपित करते हैं। क्या क़लम बांधते हैं? क़लम परिवर्धन नहीं करती। वह अपने स्टेम पर ही अपने रंग का प्रस्फुटन करती है। इसीलिए कलम के नीचे फूटने वाली देसी कल्लों को तोड़ते रहते हैं। वैसे कलम बांधकर उसे सुरक्षित रखना भी एक कला है। दूसरा विकल्प है विदेशी संस्कार या सभ्यता के लिए हम अपने साहित्य को पनीर की तरह उपयोग में लाते हैं। यानी जिस देसी पौध पर कलम बांध रहे हैं वह मूल रूप में मौजूद रहता है लेकिन रंग वही होते हैं जो आयातित संस्कार उसमें कलमबंद किए गए हैं। हिंद स्वराज में विदेशी सभ्यता को शैतान की सभ्यता कहा गया है। साहित्य चाहे वह किसी भी देश या सभ्यता से ताल्लुक रखता हो वह केवल समाज का ही नहीं अपनी संस्कृति और सभ्यता का भी संवाहक होता है। हमारा साहित्य हमारे जातिय संस्कारों और चिंतन को अभिव्यक्त करता है। भाषा, अनुभव, अनुभूति और चिंतन सब कुछ उसे अपनी जड़ों से मिलता है। लेकिन हमारे अनेक लेखक जो अंग्रेज़ी में लिखते हैं अधिकतर की विषय वस्तु विदेशी पाठकों को ख़ुश करने वाली होती है। सेक्स एक ऐसा माल है जो विदेशी बाज़ार में ख़ूब खपता है। जब ‘व्हाइट टाइगर’ को बुकर सम्मान मिला तब बुकर संस्था के पूर्व अध्यक्ष ने कहा था कि भारतीय अंग्रेज़ी लेखक अधिकतर सेक्स ओरियन्टेड उपन्यास लिखते हैं। अपने देश के बारे में क्यों नहीं लिखते? अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय लेखकों पर इस तरह के विदेशी विद्वान आलोचकों की बात का कोई असर होता है या नहीं यह तो कह सकना किठन है हालांकि देश के अनेक विद्वानों को सेक्स के प्रति उनका अतिरिक्त आग्रह अखरता है। क्या उनके ऊपर बाज़ार का दबाव है। जब टाल्सटाय का उपन्यास ‘वार एण्ड पीस’ आया था तो सामान्य पाठक रूस के बारे में कम जानते थे। लेकिन संवेदना और जीवनाअनुभव की व्यापकता के कारण भारत के ही नहीं संसार भर के पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया था। स्व. रोडारमल द्वारा किया अनुवाद गोदान का अंग्रेज़ी अनुवाद अमेरिका में उसके व्यापक सामाजिक संदर्भों के कारण शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है।
इन सब बातों के पीछे मेरे कहने का तात्पर्य केवल यह है भले ही राजनीतिक कारणों या अंग्रज़ी की चकाचौंध से हिंदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य हाशिए पर है लेकिन भारत के जीवन की विविधता भारतीय भाषाओं के साहित्य में है। उदाहारण के लिए संसार के 19वीं सदी के सबसे ऐतिहासिक और त्रासद भारत विभाजन पर उपन्यास अंग्रज़ी में नहीं लिखा गया जबकि बड़े बड़े अंग्रेज़ीदां प्रशासक और विचारक विभाजन से जुड़े थे। उन्होंने जीवनियां लिखीं लेकिन साहित्य ओर उस समय की बनते बिगड़ते सांस्कृतिक परिवेश की तरफ़ न्यूनतम नज़र गई। अलबत्ता हिंदी उर्दू में ज़रूर लिखे गए। यशपाल का झूठा सच, उदास नस्लें भीष्म जी का तमस इसके उदाहारण हैं। जब मैं मारक्वेस की रचनाऐ़ं पढ़ता हूं, ख़ासतौर से हंड्रेड ईयर्स आफ सालिट्यूड पढ़ते हुए तो मैं चकित रह जाता हूं कि अपने सीमित देशज परिवेश में विश्व की संस्कृति को अपने अंदाज़ में समेट लेते हैं। चाहे नियोग हो या उन ख़ित्तों में होने वाली लड़ाईयां हों या अंधविश्वास हों। लोक कथाएं हों या परास्वप्न हों और हज़ारो मील दूर भारत से आने वाली कथा परंपरा और भविष्यवाणियों के संदर्भ और भोजपत्र पर संस्कृत में लिखा इतिहास हो। संवेदना और कथा संदर्भों का ऐसा विलक्षण जुगाड़ और ऊनको आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता ही उसे महान बनाती है। एक समानान्तर महाभारत की संकल्पना अपनी धरती और परिवेश में रोपित करना इस बात का द्योतक है कि लेखक इस ख़तरे को उठाने के लिए तत्पर है कि अस्वीकृति उसकी रचनातमकता को किसी हालत मे छोटा नहीं कर पाएगी। वह भी अपनी भाषा में। शायद ज़मीन से जुड़कर रेंगने की अदम्य शक्ति ही लेखक को ऊपर और ऊपर उठाती है। मैं अंग्रेज़ी काम भर की जानता हूं। लेकिन जब भारतीय अंग्रेज़ी लेखकों की रचनाएं पढ़ता हूं तो मुझे अकसर महसूस होता कि जिस तरह वे स्लैंग का इस्तेमाल करते हैं वह मूल विदेशी लेखकों के स्लैंग प्रयोग से भिन्न होता है सच कहूं तो कमज़ोर होता है। कई बार तो नक़ल लगता है। अंग्रेज़ी के एक भारतीय उपन्यास में भाई बहिन के प्रेम संबंध को काफ़ी खुलेपन से प्रदर्शित किया गया है। उसके बारे में संभवतः टाइम मैगज़ीन में राइटअप पढ़कर काफ़ी आतंकित हुआ था। बोल्ड तो था। नग्नता शायद किसी शक्तिशाली तानाशाह के विरोध से भी अधिक बोल्ड होती है। लेकिन संलग्नता और समरसता की दृष्टि से वह कमज़ोर था। दरअसल वह लेखक की ख़ता नहीं। जिस पृष्ट भूमि से कोई भी भारतीय लेखक आता है उसमें उन स्थितियों के लिए जिन्हें वह गढ़ रहा है अगर उसमें उनके अनुसार न सटीक बिंब हों और न भाषा संसार तो वह गढ़ा हुआ कहा जाएगा। स्थितियों से अपरिचितता रचनात्मक संवेदना को क्षति पहुंचाती है। भाषा उधार ली हुई हो तो लुहार की तरह ढांचा खड़ा करके बढईगिरी करके सजाना अनिवार्य हो जाता है। यह तब तक करना होता जब तक वह संवेदना समाज पर आरोपित न कर दी जाय। क्या यह संभव है कि आयातित माल को अपना उत्पाद मानकर हम हम आत्मसात कर लें? यह किसी भी संवेदनशील साहित्यिक समाज के लिए कठिन परीक्षा होगी।
Thursday, 11 June 2009
सामान्य आदमी और ज़मीदोज़ कलाकृतियां
7 जून 09 के हिंदू में ‘A grocer with an eye for antiques, archaeological sites’ पढ़ा तो मुझे राहुल जी के साथ हुई एक घटना याद आई। वे इलाहाबाद आए हुए थे। सवेरे महात्मा गांधी रोड़ पर टहलने जा रहे थे। साथ में व्यास जी और कोई और एक सज्जन थे। व्यासजी स्वयं एन्टीक्स का ज्ञान रखते थे और इलाहाबाद संग्राहालय के शायद डायरेक्टर थे। राहुल जी एकाएक सी पी एम कालिज के सामने लगे पीपल के एक पेड़ के सामने रुक गए। कुछ देर खड़े उसकी जड़ों की तरफ़ टकटकी लगाकर देखते रहे। व्यास जी ने पूछा ‘क्या देख रहे हैं राहुल जी’। वे बोले अभी बताता हूं। दूसरे आदमी से कहा आप ज़रा दो तीन रिक्शा वालों को बुला लें। किसी के पास बेलचा हो तो लेता आए। नहीं तो हाथों से ही काम चलाएंगे। तीन चार आदमी आ गए बेलचा भी आ गया। उन्होंने स्वयं बेलचे से धीरे धीरे मिट्टी हटाई। एक मूर्ति दिखाई पड़ी। थोड़ी मिट्टी और हटाई। फिर जिन आदमियों को बुलाया उनसे कहा इसे धीरे धीरे हिलाकर निकालना शुरू करो। झटका न लगे। लगभग घंटे भर की मशक्कत के बाद लगभग डेढ़ दो फ़िट की किसी देवी की प्राचीन मुर्ति बाहर निकल आई। वहीं उसे धुलवाई। राहूल जी इस बीच चुप रहे। व्यास जी कह रहे थे कि शायद इसे मूर्तिचोर दबा गए। राहुल जी ने कहा ‘जब ज़मीन के अंदर से दबाव बनना शुरू होता है तो मिट्टी फूलने लगती है। धरती के अंदर दबी वस्तु ऊपर आने लगती है। यह मूर्ति दसवीं शताब्दी की मालूम पड़ती है।‘ बाद में उन्होंने व्यास जी के ज़रिए म्यूज़ियम में भिजवा दी।
‘ग्रोशर्स आई’ पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना का ध्यान आ गया। राजस्थान के ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की बूंदी में पड़चूनिए की दुकान करते हैं। हड़ौती क्षेत्र में दबी कलाकृतियों को उन्होंने निकाला है। हालांकि वे आठवी क्लास तक पढ़े हैं लेकिन उनकी नज़र कलाकृतियों को उसी तरह पहचानती है जैसे राहुल जी की नज़र ने ज़मीन में दबी मूर्ति को पहचान लिया था। कुक्की ने हड़ौती की मिट्टी में दबी संस्कृति को उन कलाकृतियों के रूप में एक तरह से ईजाद किया है। सारी ज़िंदगी इसी काम में लगा दी। किसी लालच में नहीं बल्कि कलाकृति और प्रचीन संस्कृति के प्यार में । अगर कुक्की चाहते तो वे भी अनेक स्मग्लरों की तरह अपने परिवार को एक सम्मानजनक जीवन दे सकते थे। विंध्याचल पर्वत श्रेणी में नमना स्थान में उन्होंने हरप्पापूर्व संस्कृति की तांबे और पत्थर की कलाकृतियों का भंडार खोजा है। प्राचीन राक पेंटिंग्स उनके संग्रह में हैं।
ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की मानते हैं कि मैं जानता था कि कि बूंदी प्रचीन सभ्यता की कलाकृतियों से भरा पड़ा है। मेरा मानना है कि गराडा नदी के किनारे 35 किलो मीटर लंबी पट्टी में सैंकड़ों चट्टानी गुफाएं है। इतनी लंबी आरकियोलाजिकल कलाकृतियां की पट्टी शायद ही दुनिया में कहीं हो। उसके पास 400 बी सी का ,सबसे पुराना सिक्का है। हालांकि वह समान्य पढ़ा लिखा है लेकिन उसने सब आर्कीयोलियोजिकल उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया है, जहां जहां इस क्षेत्र में दुनिया में काम हुआ है, उसका इल्म है। उसे इस बात का दुख है उसका काम दुनिया में किसी से कम नहीं। पश्चिम देशों में इस क्षेत्र में काम करने वाले तत्काल प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं। मैं दो दशक से अपने परिश्रम की स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
राहुल जी ने भी शिक्षा की दृष्टि से बड़ी बड़ी डिग्रियां प्राप्त नही थे। लेकिन उन्होंने गुना था। उसी ने उन्हें अनेक विषयों का उद्भट विद्वान बनाया। कुक्की में समर्पण है। अपने काम के प्रति लगाव है। इस तरह के बहुत से लोग मुफ्फ़सिल जगहों मे अभी भी मिल जाएंगे जिनके पास प्राचीन कलाकृतियां हैं लेकिन वे सरकार और पुलिस के डर के मारे निकालने में डरते हैं। दरअसल लोगों की नियमों के प्रति अनभिज्ञता भी इसका कारण है। बहुत से लोगों को वे लोकेशन्स मालूम हैं जहां प्राचीन कलाकृतियां दबी पड़ी हैं। वे दो कारणों से नहीं बताते 1. स्थानीयता का मोह, 2. पुलिस का भय। कानपुर में मकान बनवाते समय ज़मीन से काफ़ी सोने के सिक्के निकले थे वहां लूट मच गई थी। बाद में पुलिस ने बरामदी भी की, पर सब नहीं कर पाई। डा. जगदीश गुप्त हरदोई के शायद बिलग्राम के पास किसी गांव के रहने वाले थे। उनको तांबे के बने हथियार टेराकेटाज़ भांडे आदि प्रचीन कलाकृतियों का ज़खीरा मिल गया था। उस ज़माने में विभिन्न संग्रहलयों में महीने में एक बार वाज़ार लगता था। उसमें कलक्टर्स अपनी अपनी कलाकृतियों के साथ एकत्रित होते थे संग्रहालय उन कलाकृतियों को अच्छे दामों पर खरीदते थे। जगदीश जी ने नागवासुकी पर पहला मकान बनवाया तब बताया था धरती का पैसा धरती मे लगा दिया। लेकिन शायद बूंदी के इस अम्यचोर आरक्योलिजिस्ट को इस बात का इंतज़ार है कि उसके काम को अंतर्राष्ट्रीय एकेडेमिक दुनिया मे स्वीकृति मिले। कम से कम भारत सरकार तो उसके काम का संज्ञान ले।
7 जून 09 के हिंदू में ‘A grocer with an eye for antiques, archaeological sites’ पढ़ा तो मुझे राहुल जी के साथ हुई एक घटना याद आई। वे इलाहाबाद आए हुए थे। सवेरे महात्मा गांधी रोड़ पर टहलने जा रहे थे। साथ में व्यास जी और कोई और एक सज्जन थे। व्यासजी स्वयं एन्टीक्स का ज्ञान रखते थे और इलाहाबाद संग्राहालय के शायद डायरेक्टर थे। राहुल जी एकाएक सी पी एम कालिज के सामने लगे पीपल के एक पेड़ के सामने रुक गए। कुछ देर खड़े उसकी जड़ों की तरफ़ टकटकी लगाकर देखते रहे। व्यास जी ने पूछा ‘क्या देख रहे हैं राहुल जी’। वे बोले अभी बताता हूं। दूसरे आदमी से कहा आप ज़रा दो तीन रिक्शा वालों को बुला लें। किसी के पास बेलचा हो तो लेता आए। नहीं तो हाथों से ही काम चलाएंगे। तीन चार आदमी आ गए बेलचा भी आ गया। उन्होंने स्वयं बेलचे से धीरे धीरे मिट्टी हटाई। एक मूर्ति दिखाई पड़ी। थोड़ी मिट्टी और हटाई। फिर जिन आदमियों को बुलाया उनसे कहा इसे धीरे धीरे हिलाकर निकालना शुरू करो। झटका न लगे। लगभग घंटे भर की मशक्कत के बाद लगभग डेढ़ दो फ़िट की किसी देवी की प्राचीन मुर्ति बाहर निकल आई। वहीं उसे धुलवाई। राहूल जी इस बीच चुप रहे। व्यास जी कह रहे थे कि शायद इसे मूर्तिचोर दबा गए। राहुल जी ने कहा ‘जब ज़मीन के अंदर से दबाव बनना शुरू होता है तो मिट्टी फूलने लगती है। धरती के अंदर दबी वस्तु ऊपर आने लगती है। यह मूर्ति दसवीं शताब्दी की मालूम पड़ती है।‘ बाद में उन्होंने व्यास जी के ज़रिए म्यूज़ियम में भिजवा दी।
‘ग्रोशर्स आई’ पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना का ध्यान आ गया। राजस्थान के ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की बूंदी में पड़चूनिए की दुकान करते हैं। हड़ौती क्षेत्र में दबी कलाकृतियों को उन्होंने निकाला है। हालांकि वे आठवी क्लास तक पढ़े हैं लेकिन उनकी नज़र कलाकृतियों को उसी तरह पहचानती है जैसे राहुल जी की नज़र ने ज़मीन में दबी मूर्ति को पहचान लिया था। कुक्की ने हड़ौती की मिट्टी में दबी संस्कृति को उन कलाकृतियों के रूप में एक तरह से ईजाद किया है। सारी ज़िंदगी इसी काम में लगा दी। किसी लालच में नहीं बल्कि कलाकृति और प्रचीन संस्कृति के प्यार में । अगर कुक्की चाहते तो वे भी अनेक स्मग्लरों की तरह अपने परिवार को एक सम्मानजनक जीवन दे सकते थे। विंध्याचल पर्वत श्रेणी में नमना स्थान में उन्होंने हरप्पापूर्व संस्कृति की तांबे और पत्थर की कलाकृतियों का भंडार खोजा है। प्राचीन राक पेंटिंग्स उनके संग्रह में हैं।
ओम प्रकाश शर्मा उर्फ कुक्की मानते हैं कि मैं जानता था कि कि बूंदी प्रचीन सभ्यता की कलाकृतियों से भरा पड़ा है। मेरा मानना है कि गराडा नदी के किनारे 35 किलो मीटर लंबी पट्टी में सैंकड़ों चट्टानी गुफाएं है। इतनी लंबी आरकियोलाजिकल कलाकृतियां की पट्टी शायद ही दुनिया में कहीं हो। उसके पास 400 बी सी का ,सबसे पुराना सिक्का है। हालांकि वह समान्य पढ़ा लिखा है लेकिन उसने सब आर्कीयोलियोजिकल उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया है, जहां जहां इस क्षेत्र में दुनिया में काम हुआ है, उसका इल्म है। उसे इस बात का दुख है उसका काम दुनिया में किसी से कम नहीं। पश्चिम देशों में इस क्षेत्र में काम करने वाले तत्काल प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं। मैं दो दशक से अपने परिश्रम की स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
राहुल जी ने भी शिक्षा की दृष्टि से बड़ी बड़ी डिग्रियां प्राप्त नही थे। लेकिन उन्होंने गुना था। उसी ने उन्हें अनेक विषयों का उद्भट विद्वान बनाया। कुक्की में समर्पण है। अपने काम के प्रति लगाव है। इस तरह के बहुत से लोग मुफ्फ़सिल जगहों मे अभी भी मिल जाएंगे जिनके पास प्राचीन कलाकृतियां हैं लेकिन वे सरकार और पुलिस के डर के मारे निकालने में डरते हैं। दरअसल लोगों की नियमों के प्रति अनभिज्ञता भी इसका कारण है। बहुत से लोगों को वे लोकेशन्स मालूम हैं जहां प्राचीन कलाकृतियां दबी पड़ी हैं। वे दो कारणों से नहीं बताते 1. स्थानीयता का मोह, 2. पुलिस का भय। कानपुर में मकान बनवाते समय ज़मीन से काफ़ी सोने के सिक्के निकले थे वहां लूट मच गई थी। बाद में पुलिस ने बरामदी भी की, पर सब नहीं कर पाई। डा. जगदीश गुप्त हरदोई के शायद बिलग्राम के पास किसी गांव के रहने वाले थे। उनको तांबे के बने हथियार टेराकेटाज़ भांडे आदि प्रचीन कलाकृतियों का ज़खीरा मिल गया था। उस ज़माने में विभिन्न संग्रहलयों में महीने में एक बार वाज़ार लगता था। उसमें कलक्टर्स अपनी अपनी कलाकृतियों के साथ एकत्रित होते थे संग्रहालय उन कलाकृतियों को अच्छे दामों पर खरीदते थे। जगदीश जी ने नागवासुकी पर पहला मकान बनवाया तब बताया था धरती का पैसा धरती मे लगा दिया। लेकिन शायद बूंदी के इस अम्यचोर आरक्योलिजिस्ट को इस बात का इंतज़ार है कि उसके काम को अंतर्राष्ट्रीय एकेडेमिक दुनिया मे स्वीकृति मिले। कम से कम भारत सरकार तो उसके काम का संज्ञान ले।
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