Thursday 5 March, 2009

चुनाव और चेतना का समय फिर आ गया।

बंधु नमस्कार,
16 मई 09 तक सारी ताकत अब आपके हाथ में है। स्याह भी आप ही करेंगे और सफ़ेद भी। उसके बाद फिर बाड़े के दरवाज़े बंद। लेकिन घबराएं नहीं। हम जनतंत्र के वासी हैं। सब तरफ़ जो हो रहा वह आपके सामने है। पहले खेल भावना को महत्त्व दिया जाता था और कहा जाता था कि खेल भावना शत्रुता से बचाती है लेकिन पाकिस्तान में जिस प्रकार खिलाड़ियों पर श्रीलंका के क्रिकेटियरों पर गोलियों की ईशान शर्मा या मुरली की सी गति से गेंदबारी की गई उससे महसूस हुआ कि इस कहावत की उम्र भी ‘बातमीज़ बानसीब’ की तरह खत्म होने को है। बल्लों की जगह एके 47 और गेंद की जगह गोलियां ले लेंगी। एम्पायरी करेंगे ओबामा और तालिबान के मुखिया। लेकिन इसे जैसे भी होगा सबको मिलकर रोकना होगा। मज़हब सबसे ऊपर है पर अगर इंसानियत और इंसान को बचाना है तो खेल भावना को तर्जी देनी होगी। बचपन में ध्यान चंद का ज़माना था। तब कई बार हाकियां निकल आती थीं। लेकिन कुछ देर तक खटपट होती थी मैच फिर चालू। मैच खत्म होने पर खिलाड़ी एक दूसरे के गले मिले और शांति। शायद उसी का उदाहारण लेकर दिग्विजय सिंह सपा और कांग्रेस के बीच दोस्ताना मैच यानी चुनाव की बात करते घम रहे हैं। नई पीढ़ी को कहां पता ऐसा भी होता था।
हम अपने अधिकारों को पहचानते हैं। लेकिन उनकी रक्षा के लिए कुछ नारे, कुछ दबंग, कुछ स्वार्थार्थ हड़तालें सत्ता में बैठे या बाहर इंतज़ार में खड़े बाहूबली हमें उन हथियारों की तरह सौंप देते हैं कह देते हैं जब तक हम अंदर नही पहुंचते और अंदर वाले बाहर नहीं निकलते तुम इन हथियारों को भांजते रहो। पर उनकी चालाकी से अपनी दानिशमंदी को बचाना होगा। वरना न खेल बचेंगे और न खेल भावना।
यह देश एशिया क्या विश्व का सबसे बडा जनतंत्र है। भारत ही पहला देश है जिसमें बिना लिंग, जाति, आय धर्म आदि के विचार के सबको समान मताधिकार मिला्। जबकि संसार के सबसे शक्तिशाली और धनी देश अमेरिका में रंगभेद के चलते 1965 में कालों को पहली बार मताधिकार दिया गया उसी का नतीजा है कि ओबामा पहला काला राष्ट्रपति अमेरिका के सिंहासन पर बैठा। हम गरीब देश हैं। उसके बावजूद विश्व भर में आई मंदी की इस आंधी में यूरोप के धनी देशों से बेहतर हालत में हैं। हमारे बैंक फ़ेल नहीं हुए। हमारे 60 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के आस पास बताए जाते हैं शायद हैं भी लेकिन अमरीका से निकाले जाने की हालत का सामना करने से बेहतर स्थिति में है। अपने घर में तो हैं। अपनी इंसानियत को गरीबी के बावजूद बचाए हुए हैं। कम खाते हैं और गम खाते हैं। हमारे गावों में बैंक नहीं पोस्ट आफिस हैं अगर सौ रुपया कमाते हैं तो कोशिश करते हैं वक्त ज़रूरत के लिए पास पासबुक में पचास डाल दें। किसी को दस हज़ार एरियर मिल गया तो वह तब तक नहीं निकालता जब तक जान पर ही न बन आए। यह क्रिकेट है न हाकी यह मात्र चूल्हे का सम्मान है। पहले कहा जाता था कि अगर घर में कुछ नहीं होता था तो चूल्हा जला कर पतीले में पानी चढ़ा दिया जाता था। पड़ौस वाले यह न समझें कि आज घर में कुछ नहीं इसिलए चूल्हा नहीं चढ़ा। आपके देश ने भी अपनी छोटी सी बचत के सहारे इतने बड़े देश की एकोनामी को फ़ेल नहीं होने दिया। मुंबई पर हुए हमले पर भी अपने होश हवास को एकॉनामी की तरह दुरुस्त रखा। आज यही काम चुनावों के घोषित होने पर करना है। जैसे पैसे की बचत करके देश की इज़्जत को बचाया उसी तरह अपनी वोट की इज़्जत को देश की राजनीति को भेड़ा चाल से जात पात और धर्म से बचाना है। पुराने अनुभव को सामने रखकर नई संभावनों को खोजना है। जिसने जनहित देखा उसे आगे बढ़ाना है। जिसकी संभावना कुर्सी पर न होकर जनहित में हो उसे जनता तक ले जाना है। संसद में बैठी महिलाएं अधिकारों की बात करती करती थक गईं, कुछ कर पाईं? बांदा के गुलाबी साड़ी ब्रिगेड ने अपनी आज़ादी का रास्ता स्वयं खोज निकाला। स्वामी रामदेव कानपुर में डेरा डालकर गंगा की शुद्धी का पाठ पढ़ाकर चले गए। अब जूस और फलों के अर्क की कंपनी के सी ओ बन गए। कानपुर बाट जोह रहा है कब गंगा का तारणहार आता है। गंगा को शोधता है। बस कुछ ट्रेनें ज़रूर चली हैं कानपुर से दिल्ली और मुंबई। उन नेताओं को पहचानना है जो कहते हैं तू चल मैं आया। काश हम यह कह सकते-
आख़री बादल हैं, एक गुज़रे
हुए तूँफ़ा के हम....

5 comments:

222222222222 said...

इसी को राजनीति कहते हैं सहाब।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

"भारत ही पहला देश है जिसमें बिना लिंग, जाति, आय धर्म आदि के विचार के सबको समान मताधिकार मिला्। "
सचमुच ऐसा होता तो आज वोटर बिकाऊ नहीं होते थे, जाति और धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे जाते थे, यहां तक कि नेता को उसकी जाति के आधार पर टिकट नहीं बांटा जाता था।तुष्टिकरण और आरक्षण के नाम पर राजनीति नहीं होती थी और हिन्दुस्तात सच मुच एक गणतंत्र हो जाता।

naveen kumar naithani said...

हां,यहां भी उम्मीद की किरण नजर आती है.
जनतंत्र के जितने रूप हो सकते हैं,हमने देख लिये हैं.यहां सामंजस्य ऒर गठ्जोड़ की राजनीति का अनूठा रूप सामने आया है. क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी है.अखिल भारतीय दलों की उपस्थिति घटी है. निश्चित रूप से जनतंत्र हमें बचाये हुए है.

गिरिराज किशोर said...

AAp theek kehte hain jantantr mai itne bade Scale per yeh ek mahtv purn pryog hai.

गिरिराज किशोर said...

Bikna manushya ki bhi apni kamzori hai. Jab pahli bar chunav huai thei ti Azad ne aapatti ki thi ki unhe muslim kshetr se ticket kyon diya gaya. kaun sunta hai?