Thursday, 29 January 2009

हैदराबाद से मेरे पास एक पत्रिका Towards A Better Mankind आती है। दिसंबर 2008 का अंक सामने है। उसके टाइटिल कवर पर देशवासियों के लिए अंग्रेज़ी में कुछ चेतावनियां लिखी हैं जैसे-
Citizens of India;- your country is in grave peril stand up and be counted since everything you value is in danger; The Most corrupt, the most divisive, the most unreliable characters ever to rule this country are in power. They spend just 180 crores on their own and their families’ security. They spend just 150 crores on security of 100 crore Indians. Gandhi ji had refused security and demanded security of crores of Indian Citizens. Dr. Ambedkar had wondered what would happen if the constitutions taken over by Rakshas. Today the Rakshas have indeed taken over the constitution. And common citizens are being slaughtered everyday.
यह सवाल मुख्य हो जाता है कि आखिर सुरक्षा क्या है? किसकी सुरक्षा ? राजनेताओं की सुरक्षा? देश की संपत्ति की सुरक्षा या सब खेलों को छोड़कर केवल क्रिकेट प्लेयर्स की सुरक्षा? सुरक्षा का फ़िनोमिना पहले बहुत सीमित था। शत्रु के आक्रमण के समय प्रजा की सुरक्षा, आपदाओं से सुरक्षा, राज्य और प्रजा की संपत्ति की रक्षा। लेकिन अब ऐसा नहीं है। उसकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। पहले नंबर पर हैं राजनेता उनसे जुड़े हुए लोग। उनमें भी प्राथिकताएं हैं। रक्त संबंधी पहले, उनके बाद उनके जिताऊ ब्रिगेड के चुनिंदा सदस्य। तीसरे पर अफ़सरान। जनता के वे धनी लोग जो डरे हुए रहते हैं और नेताओं को पैसा देते हैं। उनके लिए सुरक्षा रुतबे की बात भी है। विशिष्टता का प्रमाण भी है। इन सब सुरक्षाओं के वर्ग हैं-ज़ेड, वाई और न जाने कौन कौन सी सुरक्षाएं किस किस के लिए आरक्षित हैं। ये सब कितने असुरक्षित हैं? जब राजा असुरक्षित अनुभव करता है तो उसके आश्रित जनता कितनी असुरक्षित हो जाती है उसका अंदाज़ तभी होता है जब बेगुनाह उनके औऱ उनकी नीतियों के कारण काट डाले जाते हैं।
सामान्य आदमी की अपनी सुरक्षाएं बहुत सीमित हैं। अधिक हुआ तो घर और खेत के चारों तरफ़ बाढ लगा लेता है। ज़रूरत हुई तो रात को जानवरों के हमले से बचने के लिए आग जला लेता है। बीमारी सिमारी में भी कोशिश करता है कि स्थानीय जड़ी बूटियों से इलाज मालजा कर ले। भूख से बचने के लिए भी उसके शार्ट कट्स हैं। पर वे दीर्घ सूत्री नहीं हैं। लेकिन ये बातें सुरक्षा के अंतर्गत नहीं आते ये सब सीमित दृष्टि से आत्म प्रबंधन की कोटि में आते हैं। सुरक्षा और आत्म प्रबंधन में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। प्रबंधन का मतलब है सीमित साधनों का यथासंभव बेहतर विभाजन करके आवश्यकताओं का समाधान करना। समा-धान का अर्थ है समानता के सिद्धांत पर परस्पर विभाजन। उस स्थिति में ज़रूरत की पूर्ती का अर्थ यह नहीं सबकी ज़रूरतों का निदान। वह आंशिक भी हो सकता है। बल्कि वह आंशिक ही होगा। सीमित साधनों का प्रबंधन पूर्ण संतुष्टी का द्योतक नहीं है। उस स्थिति में दो चीज़ें मुख्य भूमिका निभाती हैं-एक परस्पर विश्वास, दूसरा पारदर्शिता। अगर ऐसा नहीं है तो असंतोष व्यापक रूप लेता है। पारदर्शिता तो उसकी सबसे बड़ी शिकार है। जहाँ पारदर्शिता गई वहीं विश्वास गया तो असंतोष बढ़ा। अंसंतोष के साथ ही विद्रोह के अंकुर फूटे।

मानवीय सुरक्षा से तात्पर्य क्या है? किन किन क्षेत्रों से इसका संबंधहै? मनुष्य को क्या चाहिए? जो चाहिए क्या वह अपने साधन से प्राप्त नहीं कर सकता? क्या सुरक्षा एक सामाजिक ज़रूरत या जिम्मेदारी है? संभवतः राज्य की परिकल्पना मनुष्य की आपसी संवेदना और बाहरी या कहिए कबिलाई हमलों से निकली। वही संवेदना जो आपस में एक दूसरे को जोड़कर कबीले बनने में मदद कर रही थी उसने छोटे क्षेत्रिय राज्यों का रूप लिया और एक समाज बना उसकी ज़िम्मेदारियों में एक प्रमुख ज़िम्मेदारी यह हुई कि वह समाज मिल जुल कर एक दूसरे की रक्षा करेगा। जीवन रक्षा ही राज्य की स्थापना के मूल में है। रोटी यानी भूख भी है लेकिन पहला सवाल था मनुष्य सुरक्षित कैसे हो? पेट तो वह प्राकृतिक संसाधनों से भर ही रहा था पर आक्रमणों के द्वारा होने वाले संहार की काट के लिए संगठन एक ज़रूरत बन गई थी। राष्ट्र की परिकल्पना के पीछे एक होकर आत्मरक्षा की भावना ही राज्य का नियूक्लियस है। भले ही राष्ट्र आज के बुद्धिजीवियों की नज़र में मात्र एक भौगोलिक इकाई हो लेकिन इसके पीछे छिपी संवेदनाएं अनदेखी नहीं की जा सकती। संवेदना चाहे वह भय़ से उपजे या प्रेम से किसी भी समन्वय और जुड़ाव के लिए ज़रूरी है। राष्ट्र भले ही ऊपरी तौर से भौगोलिक वास्तविकता होने का अहसास कराता हो लेकिन इसका भावनात्मक अस्तित्व भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्र अगर केवल भौगोलिक सत्य होता तो उसके साथ संवेदनात्मक और भावनात्मक संदर्भ इतने प्रगाढ़ न हुए होते कि देशवासी बलिदान के लिए उतारू हो जाएं।
ये सवाल बाहरी हमलों से बचाव की बात नहीं करते। भले ही बाहरी हमलों से बचाव कभी राज्य या राष्ट्र के अस्तित्त्व में आने का प्रस्थान बिंदु रहा हो। उसके बाद तो राष्ट्र का स्वरूप निरंतर विकसित होता गया। अब धर्म-निरपेक्षता से लेकर मानव मूल्यों की सुरक्षा तक विस्तृत क्षेत्र हो गया। मानव मूल्यों का क्षेत्र भी सीमित नहीं रहा। वे केवल बाहरी आक्रमण तक ही सीमित नहीं है। भूख, बीमारी, विस्थापन बेरोज़गारी, दहेज़, महिला एवं बाल उत्पीड़न, तेज़ी मंदी, दुर्घटनाएं, दैवी प्रकोप आदि सब मानवीय सुरक्षा की परिधि में आते हैं। राज्य को आंशिक रूप से या संपूर्ण रूप से दायित्व निबाहना पड़ता है। यूरोप तथा अन्य पाश्चात्य देशों में तो सामाजिक सुरक्षा के तहत पूरा दायित्व राज्य ही वहन करता है। तीसरी दुनिया के देशों में मानवीय सुरक्षा का उलंघन अकसर होते हैं। उदाहरण के लिए भारत में हुकमरान की सुरक्षा सामान्य आदमी की सुरक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण और खर्चीली है। उसका सारा बोझ सामान्य आदमी पर पड़ता है। चाहे मंत्री हों या नौकरशाह या या जन प्रतिनिधि सबके लिए सुरक्षा कई कारणों से अनिवार्यता की कोटि में आगई है। उसके पीछे कुछ अनावश्यक कारण भी हैं कुछ आवश्यक कारण भी हैं। सबसे बड़ा कारण है भय। अपनी जनता के प्रति अविश्वास। उसे अपना अमित्र मानकर चलना। अपने आपको जनसाधारण से अलग समझना। यानी कुर्सी मिलते ही या जन प्रतिनिधि चुने जाते ही साधारण से असाधारण हो जाने की मानसिकता उनके अंदर की निर्भीकता या भाईचारे का पटाक्षेप कर देती है। इसके दो कारण मुख्य हैं। विशिष्टता का अहसास, दूसरा अतिरिक्त प्रतिष्ठा का संवहन। जिनसे प्रतिष्ठा या जिनके द्वारा प्रतिष्ठा मिलती है उन्हें याचक की नज़र से देखना। अपने याचकत्व को भूलकर उनसे दूरी बढ़ाते जाना। दूरी ही आशंकाओं को जन्म देती है। भय और कुंठाएं डरपोक बना देती हैं। उसके लिए उन्हें सुरक्षाओं के घेरे पर घेरे चाहिएं। दरअसल सुरक्षा के घेरे उनके लिए प्रतिष्टा के घेरे भी बन जाते हैं। उनसे बाहर आने का मतलब उनके लिए निरवस्त्र सड़क पर आ जाना। सुरक्षा का कवर उनके लिए ठीक वैसा ही हो जाता है जैसे नशेड़ी के लिए नशा। सामान्य आदमी क्या करे? व अंततः असुरक्षा को ही अपना कवच मानकर चलता है। मरना होगा तो मर जाएंगे उसके डर से जीना तो बंद नहीं कर सकते। यही भाव सताए जा रहे मज़लूम के भी अंततः सोच का हिस्सा बन जाता है और उस बलिदानी की मानसिकता का भी हिस्सा होता है जिसने किसी बड़े उद्येश्य के लिए अपने को न्यौछावर करने का निर्णय लिया हुआ है। व्यवहार की दृष्टी से दोनों के रवैय्ये भले ही अलग हों निष्कर्ष कमोबेश समान होते हैं। एक के लिए मृत्यु, दूसरे के लिए बलिदान। भाषा भावना को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। भय और साहस में भले ही अंतर हो पर भौतिक अंत न चाहते हुए भी कई बार एक सा ही होता है।
भय नितांत एक निजी और अंतरंग भाव है। उससे बचने के लिए विश्वास की ज़रूरत होती है। विश्वास कैसे आए? सुदृढ़ शासन व्यवस्था। भेदभाव विहीन पारदर्शिता। राज्य ही सामान्य व्यक्ति के विश्वास का संबल बन सकता है। चाहे बाहरी हमला हो या अंदर की ताक़तों का भय़। उन सबका सामना आत्म विश्वास और पारदर्शिता के द्वारा ही किया जा सकता है।
राज्य की स्थापना का उद्येश्य चाहे आरंभ में कुछ भी रहा हो लेकिन अब वह वेलफ़ेयर स्टेट है। लेकिन राज्य का वेलफ़यर स्टेट का आदर्श कहीं पर भी पूरी तरह प्राप्त नहीं हुआ और न निकट भविष्य में कोई संभावना है। अभी भी वह कुछ लोगों के हाथ की पुतली होने के साथ सत्ता ग्रहण का माध्यम है। नाम भले ही कुछ भी दे दिया जाए। साम्यवाद हो या समाजवाद या जनतंत्र य़ा कोई और स्वरूप हो सबके पीछे सत्ता में बने रहनी जुस्तजू है। उसमें सामान्य आदमी मात्र दृष्टा की भूमिका में रहता है। संविधान बनाने या लागू करने में भी उसकी भूमिका न्यूनतम रहती है। सत्ता की अक्षुणता के साथ कल्याणकारी और जुड़ गया है। यह सत्ता का गहना यानी आवरण है जो सत्ता की भयावहता को कम करता है। दरअसल सत्ता का सबसे बड़ा और सक्षम उपकरण भय है। भय की छाया को घनी व सर्वव्यापी बनाने के माध्यम दिन पर दिन जुड़ते जाते हैं। गांधी इसीलिए भयमुक्त होने की बात करते हैं। ऐसा क्या कोई राज्य अस्तित्व में है जो सामान्य स्थितयों में अपने समाज को भय मु्क्त होने की गारंटी देने की स्थिति में हो। बाहरी आक्रमण से सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी राज्य इसलिए लेते हैं कि सत्ता की अक्षुणता बनी रहे। लेकिन राज्य में अंतरंग सुरक्षा, न्याय में तटस्थता और निरपेक्षता बाहरी तौर पर बनी रहती हैं। उनके बारे में शंकाएं बरकरार रहती हैं। नतीजा क्या होगा?
सुरक्षा के प्रति विश्वास बना रहे इसके संभव आधार 1. भय से मुक्ति 2. अभावों से मुक्ति 3.नागरिक अधिकारों की अक्षुणता 4. धर्म जाति लिंग भाषा आदि को तर्कसंगत संरक्षण 5. अधिकारों की समानता 6. अपराधों का शिक्षा द्वारा उन्मूलन, ज़रूरत पड़े तो दंड योजना का प्रभावी प्रयोग। यह तभी संभव है जब राज्य संविधान को दृढ़ता और बिना भेदभाव से लागू करे। उसमें हर नागरिक की आस्था हो। वह शिक्षा से और वरिष्ठ जनों के आचरण के द्वारा अभिमंत्रित हो।
अभाव सामान्य व्यक्ति की सबसे बड़ी सीमा है। अभाव मनुष्य की विचार और आचरण बद्धता को तोड़ते हैं। इसी कारण उछृंखलता का विकास होता है। इसे कैसे दूर किया जा सकता है? क. जीविकोपार्जन के समुचित साधन ख. उनके प्रति पारदर्शिता और जन विश्वास 3. शिक्षा का समुचित प्रबंध ग. उसके लिए राज्य द्वारा समुचित समानता के स्तर पर प्रबंध घ. मातृ भाषा को वरीयता जिससे बच्चों का मानसिक संतुलन कुंठाग्रस्त न हो त. जीवन यापन और वेतन प्रबंधन में सर्वस्तरीय समानता थ. गांधी ने आर्थिक समानता की दृष्टी से समान वेतन के सिद्धान्त की बात कही थी। आज वैश्विकरण के दौर में मल्टिनेशनल व्यवस्था में समानता का वह सिद्धान्त बिलाय गया। पैकेज सिस्टम प्रमुख हो गया। गरीब देशों पर असमानता की पकड़ मज़बूत हो गई। नतीजतन कुंठाएं और प्रतिस्पर्धा की गति अनियंत्रित हो गई। इसका निराकरण वैश्विक स्तर पर संभव नहीं। वैश्विक स्तर पर आई मंदी का एक बड़ा कारण यह भी है। भारत जैसे देश जो अपने साधनों को सीमित रखने में आंशिक रूप से सफल हैं वे स्थिरता बनाने में कमोबेश सफल हैं। उसके पीछे इस देश का मध्यम वर्ग है जो अपनी आमदनी का कुछ अंश बचाकर रखता है। लेकिन जिस प्रकार विभिन्न आर्थिक ग्रुप विश्व मंदी की सुनामी की चिंता किए बिना वेतन वृद्धि के लिए आंदोलन कर रहे हैं, देश की संपत्ति को हानि पहुंचा रहे हैं, उसे देखते हुए मंदी की सुनामी का रुख़ इधर भी मुड़ सकता है। सरकारें भी चुनाव के चलते इस स्थिति के प्रति लापरवाह हैं। जिस लोकतंत्र पर मानवीय सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सर्वाधिक है अगर वह अपने दायित्व को निबाहने में कोताही केवल इसलिए करता है कि सत्ता उसके हाथ से निकल सकती है तो वह देश के प्रति अन्याय की श्रेणी में गिना जाएगा।

6 comments:

KK Yadav said...

जिस लोकतंत्र पर मानवीय सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सर्वाधिक है अगर वह अपने दायित्व को निबाहने में कोताही केवल इसलिए करता है कि सत्ता उसके हाथ से निकल सकती है तो वह देश के प्रति अन्याय की श्रेणी में गिना जाएगा...Bahut sahi likha apne.Par yah bhi to sachhai hai ki aise logon ko Lok hi chun kar janpratinidhi banata hai.Yadi lok bhi apni jimmedari ka kayde se nirvahan kare to yah naubat hi kyon aye...Nice Post !!

Vishal said...

aapko hamesha padta hu, hans me. aapka blog dekha, us star ka nahi hai jo vastav me aapka hai. aapke bare me padkar laga ki are ham to ek hi community ke hai. aapko MSW kiye 40 sal se upar ho gaye aur mujhe bas 9 sal. aap hamare path pradarshak hai.
aap social sector me ayi khamiyo aur UN agencies ke pressure me bani nitiyo par bhi kuchh likhe.
computer bahut achha madhyam hai aur aapne wah kar dikhaya jo achhe achhe lekhak nahi kar pate.
sadar pranam
Vishal pandit

गिरिराज किशोर said...

Vishal ji, kya apko esa laga ki star acha nahi. agar kami hai to bataye.Mujhe achcha laga ki aap msw hain. kahan kam kar rahe hain?kya vastav mai esa kuch kiya jo apko pasand aya? Dhanyavad

Vishal said...

Aadarniya,
mai aapko tabse padh raha hu jab mai sahitya kya hota hai, samajhta hi nahi tha. mere mama ujjain me librarian the. jab bhi garmi ki chhutiyo me jata tha to mai 2 mahino me kam se kam 100 pustake padh jata tha.
Ghar par paper nahi ata tha to doodhwale ke yaha ya fir ration ka saman lane par pudiya ka saman nikal dene ke us paper ke tukde ko padh jana meri adato me shumar raha hai. Lekin tab tak jo achha laga, interest aya padh dala. college ane ke bad aur kuchh sahityakaro se mulakato ke bad jaise naim sab, Prakashkantji, sandeep naik, swayamprakashji, vijay bahadur singh ji, dhruv shuklji jinse mujhe milne ka sobhagya prapt hua. charchaye hui vision bana.
Aapke alekh hamesha Hans me padhe hai. Aapke alekh padhkar hamesha uttejit hua, socha samjha. maine jis blog par apni tippani di hai wah padhkar mujjhe kuchh nahi hua.jo ki chinta ka vishay hai.

kuchh apne bare me. MSW karne ke bad bhi samajh nahi aya tha ki karna kya hai. parivarik paristithiya kuchh aisi thi ki age padh nahi paya aur nokri karni padi. ab tak nokri ki gadi khich raha hu. padhne ka shok hai, likhna chahta hu par likhta nahi, kyo ........mai nahi janta. filhal jaipur me hu.
Mai aapka shukragujar hu ki aapne mere comments par dhyan diya.
sadar
vishal pandit

Vishal said...

Bhukhe bachhe ki tasalli ke liye
Maa ne fir pani pakaya der tak

Bahadur Patel said...

bahut sari jankari di aapane.
bahut badhiya likha hai aapane.