Thursday 1 January, 2009

Sain Baba ke Nam ek Kripakanshi ki Chithi

साई बाबा के नाम एक कृपांक्षी की चिट्ठी
बाबा
पाँव लागी,
जब सत्य सांई बाबा के बारे में कोई कहता था कि वे सिरड़ी के बाबा के अवतार हैं तो मुझे यक़ीन नहीं होता था। उसका कारण था। सच्चाई कुछ भी हो। जो कुछ सुना था उससे जो चित्र मन ही मन बने थे उनमें और सत्य साईं बाबा के बीच कोई निस्बत बैठती ही नहीं थी। बाबा तुम मुझे एक अलमस्त फ़कीर लगते थे। थे भी। हां अगर कोई कहता तुम्हारा पाँच सौ साल पहले जन्मे कबीर से तुम्हारा रिश्ता था मैं तुरत मान लेता। न मैंने तुम्हे देखा ना बाबा कबीर को। उनका भी खड्डी चलाते जुलाहे के रूप में चित्र देखा और तुम्हारा भी भिक्षा पात्र लिए चित्र देखा। तुम भी सुना मुसलमान थे कबीर भी। वे निर्गुनिया थे तुम सगुनिया होकर भी निर्गुनिया ही ज़्यादा लगे। तुम्हारा यह सूत्र वाक्य कि सबका मालिक एक है मुझे हमेशा कबीर का पद वाक्य याद दिलाता था तू मुझे कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में। बाबा, तुम चक्की चलाते थे और रोग शोक पीस डालते थे। वह खड्डी पर बैठकर ऐसी नायाब चादर बुनता था ऋषि मुनि सबने ओढ़ी फिर जस की तस धऱ दीनी चदरिया। तुम चक्की में रोग शोक पीसकर सबको मुक्त करते थे पर बाबा कबीर चलती चाकी देख रोते थे। चलती चाकी देख दिया कबीरा रोए... चक्की में जाकर कोई साबित नहीं बचता। पर तुम मानते आटे की तरह बिखरो मत केंद्र की तरफ़ जाओ। न गेहूं बचता है और न घुन। बाबा आप दोनों के बीच चक्की जन कल्याण का अद्भुत उपकरण है। कैसी विचित्र बात है कि कबीर के चार सौ साल बाद तुमने चक्की को जनकल्याण के संदेश का माध्यम बनाया और तुम्हारे लगभग पांच दशक के बाद गांधी बाबा ने चऱ्खे को परिवर्तन का ज़रिया बनाया। ये जड़ के नीचे भी अगर कोई जड़ हो सकती है उससे जुड़े थे। ये दोनों आध्यात्मिक और सामाजिक परिवर्तन के प्रभावी माध्यम बन गए । शायद कुछ अंचलों में आज भी हैं। लगता है आप तीनों ही अपनी अपनी तरह वैज्ञानिक थे। आध्यात्मिक वैज्ञानिक । तीनों ने अपने अपने परिवर्तन के यंत्र खोज निकाले थे। बाबा, आपने आध्यात्म को कर्मकांड नहीं बनने दिया बल्कि जनकल्याण का सेकुलर यंत्र बना डाला। मंदिर में सोए और मस्जिद में जगे। लेकिन सौदागरों ने तुम्हें सोने के सिहांसन बैठा कर तुम्हारे ज़मीनी अनुयाइयों से जो तुम्हारी द्वारिका में आकर तुमसे अपना दुखः सुख बांटते थे, तुमसे शक्ति पाते थे, दूर कर दिया। अब भी क्या उनका तुमसे कोई संवाद बचा है। नहीं ना। उनका भी अब नया संस्करण आ गया है। वे अपने स्वार्थ को ही पहचानते हैं। आपके दया भाव को फ़ायदा का सौदा मानते हैं। तुम स्वभाववश करते हो वे स्वार्थवश।
बाबा, मैं जानता हूं तुम्हें सब कुछ मालूम है लेकिन फिर भी कुछ बातें अरज करना चाहता हूं। पिछले दो तीन साल से हम लोग मुंबई आते हैं। बचपन से मैं और मीरा सिरड़ी साईं बाबा यानी आपके चमत्कारों के बारे में सुनते रहे हैं इसलिए हर साल सोचते थे तुम्हारे दरबार में हाज़री दे आएं लेकिन हर बार टल जाता रहा। न पहुंच पाने को जैसे कि होता है हमने आपके ऊपर थोप दिया बाबा ने नहीं बुलाया। बाबा क्या निमंत्रण देंगे। हम लोगों की प्रवृत्ति है अपनी बला दूसरों पर टालने की। लेकिन 21 दिसंबर को मुंबई पहुंचे और 22 दिसबर को सवेरे ही अपने दामाद सलिल की कार से सिरड़ी सिधार गए। पता नहीं तब हमने सोचा या नहीं कि बाबा ने बुलाया है। लेकिन बाबा, सच कहता हूं वहां जाकर कम से कम मुझे अच्छा नहीं लगा।
बस एक बात ही अच्छी लगी कि आप वहां हैं। पर आप तो सब जगह हैं। पर वहां तो मजबूर और महकूम ही अपनी अरदास सुनाने आते हैं। बड़े और धनाड्य तो पिछले दरवाज़े से आए कुछ तुम्हारे पुजारियों को पूजा कुछ तुम्हें...वह पूजा भी तुम्हें कितनी पहुंचती होगी वह तो न्यासी जानते होंगे। वे बेचारे जिनके बीच तुम रहे या जिनको तुमने अपनी कृपा का बूर बिना भेद भाव के बांटा उनकी रदीफ़ के लोग तो मूर्ति के सामने मुंह तक नहीं खोल पाते, धकेल दिए जाते हैं। बाबा कुछ कहते नहीं बनता। तुम्हारे सिवाय किससे कहूं। सामान्य आदमी की तरह जाना कितना दुश्वार है। विशिष्ट आदमी पहले। न्यास में इतना धन आता है। लेकिन उस धन का न आपके लिए उपयोग है औऱ न आपके जन के लिए। आपका जन तो मारा फिरता है। वालिंटियर्स तक नहीं रहते। लाईन लगवा कर दर्शन करने में मदद करें। तीन तीन तल्ले फिर सीढ़ियां। धक्कम धक्का करते चलते चले जाओ। ऊपर जाकर तुम्हारा सिहांसन। तुम्हारी कृपा है सब ठीक है। कभी कुछ उल्टा सीधा हो गया तेरे जन ही जाएंगे। कोई रास्ता बताने वाला तक नहीं होता। यह तक बताने वाला नहीं कि वरिष्ठ नागरिक के जाने का दरवाजा किधऱ है। वर्दी वाले तक भरमाते हैं न. एक दरवाज़े पर जाओ वहां से तीन पर भेज देंगे। लोगो में सहुलियत से बात करने की सलाहियत तक नहीं। एक विकलांग बच्चे को आपकी प्रतिमा के सामने से धकेल दिया गया। मुझे उन लोगों से कहना पड़ा कि साईबाबा से कहना होगा कि बाबा इन्हें जो कुछ देना हो दो पर थोड़ी इंसानियत भी दो। एक महिला स्वयंसेविका बोली जा कह दे। वे तुझसे भी नहीं डरते। न डरें लिहाज़ तो करें। साई बाबा के सेवक हैं। वे तो अपने को मालिक समझते हैं। बाबा आपको इन मालिकों से क्या लेना। इन्हें तुमसे लेना है इस लिए तुम्हें इस सिंहासन पर बैठाकर, बांधकर, तुम्हें अपनों से दूर कर देना चाहते हैं। बाबा क्या तुम अपनों से दूर रह कर ख़ुश रह सकते हो।

तुम्हारा एक कृपाकांक्षी

9 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

कबीर ने किसी को लहरतारा या मगहर नहीं बुलाया। कौन बुलाता है शिरड़ी और कौन करता है सांई के स्थान को इंस्टीट्यूशनलाइज?
विभूति के स्थान को पीठ बना कर व्यापारतंत्र के हवाले करते हैं लोग, और दूसरे व्यथित होते हैं उस इंस्टीट्यूशनलाइजेशन से।
यही सच है - तू मुझे कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में।

Arvind Mishra said...

गिरिराज जी ऐसी ही स्थिति कमोबेस हर बड़े पूजास्थलों पर है -प्रबुद्ध जन भी वहा जाते ही क्यों हैं ?

Bahadur Patel said...

mujhe kuchh samajh nahi aa raha.
main to kabhi is tarah ki jagahon par nahin jata.
aap sahi kah rahe hain aajkal dhakosale vo bhi dharm ke nam par bahut ho rahe hain.
sab kamai ke jariye hain aur kai anetik kamo ke addey hain.

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan said...

Dear Sir, Pranam. Naye- Purane magazine is still waiting for your article on Dr. Budhinath Mishraji's Creative Works. Please drop it to me as soon as possible.
Reading you on this site is a pleasant experience and it's my pleaser to see your update articles on internet having deep insight and profundity of knowledge and wisdom.
Cordially,
Abnish Singh Chauhan
Acting Editor
Naye-Purane

गिरिराज किशोर said...

Jana chahiye. tabhi pratham anubhav hoga. Suni bat kahna koi matlab nahi rakhta. prabudh ka matlab jo her jhroke mai jhank kar pukhta rai banai.

गिरिराज किशोर said...

Kabir ko budh ko ab Gandhi ko instituthonalise karke hi apno ko pratishtit kiya gaya koi nahi bulata sab apne swarth ke liye jate hain. ja kar dehk kar hi pratham anubhav hoga. tab auron tak bat pahuchegi. nav varsh shubh

गिरिराज किशोर said...

Abinash ji, mai bahar tha do din pahle lota. Fir jana hai.samye milte hi likhunga.thanks for your comment

गिरिराज किशोर said...

patel ji aap to kavi hain sab jagha ja kar hi anubhav sankalan hota hai.ache bure ki pahachan hoti hai

Bahadur Patel said...

sir aap thik kah rahe hain. aapaki baton ko swikar karata hoon.
aapane bahut achchhe se samjhaya. vakai yah kaam bhi anubhav sankalan ke liye mahatvpuran hai.
sir aabhar.
aapake blog par pata nahin kyon bahut shukun milata hai.
aapane abhi abhi ek lambi post dali hai.padhkar likhata hoon.