Friday, 16 January 2009

Alibagh-anubhav

सागर रात में चुपचाप आता है....?
मुंबई का तीसरा पड़ाव! पहला पड़ाव तो बेटी का घर था। दूसरी सिरड़ी की यात्रा। तीसरे का मैं अब ज़िक्र कर रहा हूं। मुंबई से गोवा मार्ग पर 120 किलोमीटर पर एक मिनी गोवा है। उसका नाम है अलीबाग। लगभग एक लाख लोगों की बस्ती। वहां एक मनोरम बीच है। जया यानी मेरी बड़ी बेटी पिछले साल भी चाहती थी कि अलीबाग जाएं। उसकी सुंदरता और मनोरमता की प्रशंसा करते थकती नहीं थी। चौपाटी आदि बीच देखकर मैं कल्पना नहीं कर पाता था कि वास्तव में वह उतना सुंदर होगा। हालांकि जब मैं पहली बार आया था और ताज में चाय पी थी तब चौपाटी का बड़ा नक्शा था। तब भेलपूरी और चाट वहां भी बिकती थी। मुझे याद है हमारी तरफ़ के एक चाट वाले को बातचीत के अंदाज़ से पता चला कि हम उधर के हैं जहां से वह बीस साल पहले पढ़ाई छोड़कर बंबई एक्टर बनने आया था तो उसने अंततः चाट की दुकान खोल ली। हमवतन होने के कारण उसने किसी से भी चाट के पैसे नहीं लिए थे। एक्टर न बनने का उसे दुखः था या नहीं यह कहना तो मुश्किल था लेकिन वह संतुष्ट था। अब उसके तीन घर बंबई में थे। दुकान पर नौकर काम कर रहे थे। मेरा मतलब है तबकी चौपाटी का मेरे मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा था। बाद में वह प्रभाव बर्फ़ के ढेले की तरह पिघलकर मटमैला होता गया था। इसलिए मैं अलीबाग की प्रशंसा से निस्बत नहीं बैठा पाया था। इस बार वह और सलिल इस बात पर आमादा थे कि वे हमें अलीबाग ज़रूर ले जाएंगे।
अलीबाग बीच के किनारे किनारे वहां के लोगों की व्यक्तिगत प्रॉपर्टी है। उन लोगों ने वहां टूरिस्ट के रहने के लिए सूट्स बनाए हुए हैं। लोग पहले से बुकिंग करा लेते हैं। सलिल जया ने पता लगाया तो पता लगा कि पूरा दिसंबर और आधा जनवरी बुक्ड है। जया को निराशा हुई पर उसने हिम्मत नहीं हारी। उसकी एक मित्र अलीबाग जाने के लिए बहुत लालायित थी। उसके पति एक आध बार जा चुके थे। जया ने उसे पकड़ा। उसके पति ने संपर्क किया तो एक रात के लिए शिन्तरे वाड़ी के मुख्य बंगले के ग्राउंड फ्लोर के तीन कमरे 6 हज़ार रुपए में मिल गए। हम लोग छः थे, सलिल जया वान्या मैं मीरा और डेनमार्क में बसे मेरे छोटे भाई का बेटा हरी। हरी की मां डेनिश है। वह अंग्रेज़ी और डेनिश बोलता है। म्यूज़िक कंपोज़र है। भारतीय यानी हिंदी गाने पाश्चात्य आरकेस्ट्रा के साथ मिक्सिंग करके अपने स्टुडियो में कैसे्टस बनाता है। उसके लिए भारत से हिंदी फिल्मी क्लेसिकल गानों के रिकार्ड ऊंचे दामों में खरीदकर ले जाता है। केवल तेईस साल का है।
दूसरी तरफ जया की मित्र रितु, उसके पति हरी कांत और उनके दो बच्चे। दो कमरे हमने लिए एक उन लोगों ने। दो कारें सवेरे ही आठ बजे मुंबई से निकल पडीं। गोवा जाने वाली सड़क, एक छोटे से टुकड़े को छोड़कर, शेष बहुत अच्छी है। रा्स्ते में एक सरदार साहब के ढाबे में चाय पीने के लिए रूके। साथ में पूरियां और आलू की सब्जी थी। उत्तर भारतीयों की पूरी और आलू की सब्ज़ी सबसे मातबर हमसफ़र होती हैं। जैसे जैसे पेट में पहुंचती जाती हैं वैसे वैसे मंज़िल पास आती जाती है। सरदार साहब ने अपने ढाबे में चाय के साथ पूरी का नाश्ता करने की इजाज़त दे दी। आधे घंटे से ज़्यादा लगा। दस बारह मिनट बाथरूम की आवाजाही में लगे। महिलाएं ज़्यादा समय नहीं लगातीं। बाथरूम में एक एक करके सबका जाना समय पर भारी पड़ता है। इतना भी भारी नहीं वहन करना मुश्किल हो जाए। वहां से निकलकर हम सीधे अलीबाग पहुंचे। दरअसल बीच का नाम नागांव बीच है। हालंकि सड़क नेडी यानी संकरी है। पर टूटी फूटी नहीं। जब मैं पहली बार गोवा गया था दोनों तरफ़ की हरियाली निहारते हुए उसी में खो गया था। मुझे गोवा की याद आई। उसी तरह ऊंचे ऊंचे गहरे हरे नारियल के लकदक पेड़। वनस्पति स्वतंत्र भी है और मुक्त भी। मैंदानों में जिस तरह भयमारी और असुरक्षित सी मालूम पड़ती है वैसी वहां नहीं दिखती। जो आज़ादी पहले गावों के दौड़ते भागते अधनंगे बच्चों में दिखती थी वह अब इन दरख्तों में मालूम पड़ रही थी। भले ही एक जगह जमे थे पर जिस मुदित भाव से हिल हिलकर मंगल गीत गा रहे थे उससे लगता था न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। आए हो तो गाओ नाचो, करो सैर।
मुझे उस वाड़ी के मालिक जयकृष्णा शिंत्रे ने बताया कि यह क्षेत्र शिवा जी के सरदार आंद्रे की रियासत थी। यहां पर उस ज़माने के दो क़िले भी हैं। जब हम उस दिशा में मुड़े़ जिघर शिंतरेवाड़ी थी तो मोड़ पर लोहे के जंगले में शिवा जी का बस्ट लगा था। उसे देखकर पहले तो झुंझलाहट आई कि जिस शिवा जी को औऱंगज़ेब बांधकर नहीं रख सका उसे नागांववासियों ने जगले में क़ैद कर रखा है। लेकिन तुरंत हंस दिया कि हो सकता है यह स्थानीय लोगों का यशोदा मार्का प्यार हो। यशोदा ने कृष्ण को ओखल में बांधा था इन लोगों ने शिवाजी को केज में बंद कर दिया हो। कई बार इंसानी प्यार दुश्मनी से भी कठोर हो जाता है।
हम लोगों ने जाते ही चाय पी। कपड़े बदले। मैं और मीरा ही थे जो तैरना नहीं जानते थे। सलिल तो जहाज़ी थे। समुद्र से पुरानी दोस्ती थी। जया मेरी बेटी ने आई आई टी कानपुर के स्वीमिंगपूल में तैरना सीख लिया था। वान्या को उसके पापा ने अपने कैपटिन काल में समुद्र में तैरना जानते थे। उनका छः साल का बेटा लक्ष्य पानी से पहले तो डरा फिर पानी में घुसा तो निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। बस उनका गोद का बच्चा निश्चय अलबत्ता हमारी तरह था। लेकिन उसके पिता उसे गोद में लेकर पानी में उतर गए थे। हरी हमारे क्लान में ज़रूर था पर जल में ऐसा घुसा तो जैसे समुद्र का सगा हो गया। मैं और मीरा कपड़े समेटकर समुद्र में जाकर खड़े हो गए। क्षितिज से उठकर आती हुई लहरें देखते देखते रूप वदल लेती थीं। पहले उर्मियाँ भुरभुरा कर फैलती थीं फिर इकट्ठि होते होते चांदी की व्हेलें बनकर दौड़ती चली आतीं थीं और किनारे पर आकर बिखर जाती थीं। वे लहरें भिन्न भिन्न रंगों में बार बार आती थीं और किनारे को देखते ही ऐसे टूटती थीं जैसे मंज़िल पा गईं। कुछ तो हमारे पैरों में ही आकर टूटती थीं। मेरा मन होता था बिछड़े हुए बेटा बेटी की तरह पैरों पर से उठा कर गले लगा लूं। जो बिखर जाए उसे कौन समेटे? रह रहकर मेरे कानों में सी एच आत्मा के गाने की पंक्तियों की पहले गुनगुनाहट होने लगी। मैंने इधर उधर देखा यह गाना कौन गुनगुना रहा है। कहीं कोई नहीं था। वह गुनगुनाहट तेज़ होते होते मेरे होठों पर आ गई,,,मैं रोऊं सागर के किनारे सागर हंसी उड़ाए,,,। इस समय यह गाना! मैं चकित था। सब पानी में किलोल कर रहे थे। मेरे अंदर यह गाना बज रहा था। कैसा विरोधाभास है? जैसे जैसे सूरज उतरा वैसे वैसे चाँदी की व्हेलें रंग बदल कर आकाश के लोहित रंग में डूबने लगीं। वह गाना और तेज हुआ जैसे वह गान अब लहरों ने गुनगुनाना शुऱू कर दिया हो। पहले सी एच आत्मा का वह गाना मेरा हुआ अब देखते देखते लहरों का हो गया। दर्द कैसे एक के बाद दूसरे का फिर तीसरे का होता चला जाता है! दर्द कितना हरदिल अज़ीज़ होता है। सुख स्वार्थी और एकांगी। मैं लौट पड़ा। हल्की हल्की स्याही सागर के रंगों को कपड़े सुखाने वाली टंडैलनी की तरह समेट रही थी और अपना अक्स पछाड़ खाती लहरों पर छोड़ती जा रही थी।
मैं लौट आया। बंगले का वह हिस्सा कुछ देर के लिए सन्नाटे में डूबा सा लगा। लहरों का रव बहुत दूर छूट गया था। दिन भर जो चित्र इकट्ठे किए थे और अपने रंग भरे थे वे सब लुका छिपी खेल रहे थे। निगेटिव मेरे पास ही थे। बत्ती जली तो मैं चौक पड़ा। वे सब जिन्हें मैं अंदर अंदर ही संजो रहा था पोशिदा किस्म के लोगों की तरह अंर्ध्यान हो गए। मेरी नातिन वान्या आकर भीगे कपड़ों में मुझसे लिपट गई “नानू आप अकेले!” मुझे लगा जिन लहरों को मैं समुद्र के किनारे उस टंडैलनी के पास छोड़कर आया था उनमें से एक छुपकर आई और सारा भीगापन मुझ पर उडे़ल दिया। धीरे धीरे बाकी सब भी आ गए। मुझे लगा वे सब ख़ाली हाथ लौटे हैं। सब नहा नहाकर इतने थक गए थे कि उन्हें कुछ चाहिए था जो उनके पेट में हो रही घुडदौड पर लगाम लगा सके। सबने खाना खाया। खाना दो तरह का था। एक हम दोनों पति पत्नी के लिए बिना प्याज़ का। हालांकि वह प्याज़ खाती है। पर जब अकेला पड़ जाता हूं तो साथ देने के लिए...।अकेले आदमी का एतबार नहीं होता कब पलट जाए।
शिंतरेवाड़ी तरह तरह के पेड़ों से भरा था। पेड़ ऐसे भी जिन्हें पहले नहीं देखा था। नारियल से लदे पेड़ उत्तर भारतयों को लुभाते हैं। नारियल वाड़ियों से चलकर उत्तर में पहुंची कहानियां याद आने लगती हैं। वह आदमी जो नारियल के दरख़्त पर चढ़ तो गया पर उतरना नहीं आया। उसने मन्नत मांगी अगर सही सलामत उतर गया ते दस ब्राह्णण जिमाऊँगा। जब कुछ नीचे उतर आया तो बोला आठ तो जिमाऊंगा ही वह जैसे जैसे नीचे उतरा दो दो करके कम होते गए। नीचे उतरने पर उसने देखा यहां तो जिमाने के लिए एक भी नहीं बचा, किसे जिमाऊँ। वह ईश्वर का धन्यवाद करता हुआ घर लौट गया। वह उतर भी गया ब्राह्मण भोज भी नहीं करना पड़ा। शिंतरेवाड़ी में सैंकड़ों पेड़ और उनकी उतनी ही कहानियाँ। मारमुलक्के फल। एक वक्त में साठ अतिथि शिंत्रेवाड़ी में समुद्र की लहरों की तरह आते जाते रहते हैं। लेकिन उनकी एक बेटी 30 साल की है जो बोल सके न पढ़ सके । मां बाप के लिए वह दुखः समुद्र के जल से भी गहन औऱ असीम है। लेकिन शिंतरे दंपत्ति यही कहकर प्रसन्न हो लेते हैं लोग गोवा जाकर कितना पैसा खोते हैं, कितना प्रदूषण भोगते हैं। बीच दिन पर दिन गंदे होते जा रहे हैं। हमारा नागाँव प्रदूषण मुक्त मिनी गोवा, कमख़र्च और बालानशी। हम दुखः को दोस्त बनाने के कैसे कैसे तरीके खोज लेते है। समुद्री हवाएं आ आकर हिलोरती हैं पर शिंतरे और उनकी पत्नी के दिल में बेटी को लेकर कितने बवंडर उठते होंगे उसका अंदाज़ वहां एक दो दिन मौज मस्ती के लिए आकर चले जाने वाले टूरस्टिटों को नहीं लगता होगा। अगर उनके सुख दुख में न झांका होता तो हमें ही क्या पता चलता। कई बार हम सपाट हरी भरी धरती देखते हैं गड्ढे नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

हमें अगले दिन सवेरे 9 बजे बंगला खाली कर देना था। हमने सोचा सवेरे सवेरे समुद्र तट का नज़ारा लिया जाए। जल्दी तैयार होकर मैं और मीरा सबसे पहले निकले। उस वक्त बीच खाली था। दूर पर पांच छः लोग जो शायद जल्दी उठ गए थे चहल कदमी कर रहे थे। अलबत्ता समुद्री चिड़िएं भोर ही जग कर भोजन की तलाश में मंडरा रही थीं। चिड़ियों की कलाबाज़ियाँ हिंसक और सामिष न लगकर अहिंक तथा स्वाभाविक लग रही थीं। उनका चारों तरफ़ मंडराना वातावरण में लहरों से अधिक गतिशीलता भर रहा था। अब उजाला होने लगा था। हमने देखा रात हम सबके चले जाने के बाद सागर चुपके चुपके ऊपर बांध तक आया था। बालू गीला था पर पाँव नहीं पकड़ रहा था। एकदम साफ़ सुथरा और धुला पुछा। जैसे उसे पता था हम जाने से पहले बाय बाय करने आएंगे। ताज्जुब की बात थी कि लहरें अपने सारे निशान अल्पना की तरह तट पर एक लोक कलाकार की तरह चुन चुनकर छाप गई थीं। कहीं कहीं सीपियां भी अपने ध्वज चिन्ह की तरह छोड़ गईं थीं। तभी कुछ मछवारों को कंधों पर बांस के सहारे मछली पकड़ने का जाल लादकर जाते देखा। चार जन जाल लादे थे और कुछ मछुआरे अन्य उपकरण लिए इस तरह साथ साथ चल रहे थे जैसे किसी उत्सव में जा रहे हों। उनकी तैयारी उन चिड़ियों से ज़्यादा थी जो उड़ती हुई आती थीं हर ड्राइव के साथ बेमालूम ढंग से शिकार पकड़ ले जाती थीं। मछुआरों का अनुष्ठान अभी तक शुरू भी नहीं हुआ था। अब बाक़ी सब लोग भी वहां आ गए थे। लेकिन वे बिना इधऱ उधर देखे, जाल लेकर जाते मछुआरों की तरह समुद्र की तरफ़ जा रहे थे। जैसे पानी ही उनका सब कुछ हो और वे उससे अंतिम विदाई लेने जा रहे हों। हमने पुकारा भी पर वे पूरी तरह डूबे थे। हमने भी उस क्षण को अपने अंदर उतारा और जल हाथ में लेकर बुदबुदाया त्वदीयं वस्तु गोविंदं तुभ्यमेव समर्पये। जल छोड़ दिया। उस अनन्त जलराशि में हमारी अंजलियों का जल मिलकर फिर समुद्र हो गया। उन लोगों ने सूरज की बढ़ती रोशनी की चमक के पीछे छिपकर गोते लगाए।
कुछ देर बाद जल से निकलकर भीगे हुए सब बाहर आए। सब लोगों ने खड़े होकर बॉय बॉय किया और कहा महान अरब सागर फिर मिलेंगे। विदा की घड़ी गई।

पता नहीं ऐसे आत्मप्लावन करने वाले अनुभव के बाद इस अप्रत्याशित घटना का उल्लेख करना उचित होगा या नहीं। लेकिन अलीबाग-अनुभव जाने अनजाने मुंबई से लौटते हुए हमारे साथ ट्रेन में भी चल रहा था। हम भारतीय हमसफ़र से जब बात करने लगते हैं तो कोई सीमा नहीं रखते। हालांकि अब यह प्रवृत्ति अब कम होती जा रही है। अलीबाग-अनुभव का ज़िक्र मैंने पास में बैठे एक सज्जन से किया जो शायद अपने व्यवसाय के सिलसिले काफ़ी घूमते थे। उन सज्जन ने शिंतरेवाड़ी का पता भी नोट किया। एक दूसरे सज्जन जो मुंबई से उखड़कर जा रहे थे वे एकाएक बोले “आप ठीक कह रहे हैं, बहुत सुंदर जगह है। लेकिन मुबई में हुए पहले विस्फोट का आर डी एक्स अलीबाग के रास्ते मुंबई गया था।“ वह बात आ डी एक्स की तरह ही विस्फोक लगी। ऐसे मनोरम स्थान का संबंध एक ऐसे मारक विस्फोटिक से! एक क्षण को मैं तो सहम ही गया वे सज्जन भी असहज हो गए थे जिन्होंने शिंतरेवाड़ी का पता लिखा था। मुझे न जाने क्यों अलीबाग के बराबर में विष कन्या की तरह की एक रूपसी की छाया लरज़ती नज़र आई। सब कल्पना थी। मैंने कभी किसी ऐसी रूपसी को नहीं देखा था। उसके बाद मुझे अलीबाग-अनुभव के बारे मैं बात करना एक मनमोहक तस्वीर पर कालस पोतने की तरह लगा। एक सवाल मैं अपने आप से हमेशा पूछता हूं कि हम लोग अच्छी से अच्छी तस्वीर को विकृत करने में आनंद क्यों लेते हैं?

12 comments:

Anonymous said...

हम कई बार प्रयास कर चुके अलीबाग जाने का लेकिन नहीं जा पाए. बड़े मुश्किल से हम फ़िर वसई चले गए थे. आपके लेख को पढ़कर ऐसा लगा मानों हम hamingway की Old man and the Sea पढ़ रहे हों. आभार..

गिरिराज किशोर said...

subramaniamji, dhanyavad. aap jab awsar mile zaroor jaiyen, alibagh ek bada achcha spot hai. apko oldman and the sea padhne jaisa laga yeh mara saubhgya hai. mera ek upanyas gandhi ke south africa ptravas per 'Pehla Girmitia ' english me translation ho raha hai. shayad April mai Niyogi Books se aye.

गिरिराज किशोर said...

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Bahadur Patel said...

sir,

aapane bahut achchha likha hai.
padhkar alibagh jane ki ichchha ho rahi hai.
dhanywaad.

KK Yadav said...

एक सवाल मैं अपने आप से हमेशा पूछता हूं कि हम लोग अच्छी से अच्छी तस्वीर को विकृत करने में आनंद क्यों लेते हैं?....शायद इसका जवाब मिल जाये तो भारत एक बार फिर से महान हो जाये.

गिरिराज किशोर said...

Do hi baten hain ya to irshea ke karan ya ek acchi tasveer banane se darte hain. aap kaise hai mai bahar gaya tha

manmohan saral said...

priy giriraj ji
aapke blog ki samagri pasand aayi. vicharottejak sawal bhi aapne uthayein hain. janta ko sawal punchchne ke liye tayyr hona padega. sahitay akademi ki halat par aur phir mumbai mein hua 26/11 ke hadse par. sabhi aj ke jwalant prashna hain.
alibaag main bhi gaya hoon. aur uske aage Murud-Zazira bhi. Goa bhi. par jo jikra us sahyatri ne kiya, kabhi mere man mein nahin utha. ab to yeh nirvivaad hi hai ki hamare samudra-tat aatank ke liye darwaje ban chuke hai. cast guards ki nigraani uske samne kuch nahin hai. Unki laparvahi ka natiza Mumbai ne abhi haal dekha hai. Is sab ke khilaf awaz to uthani padegi hi.
MANMOHAN SARAL
Mumbai

गिरिराज किशोर said...

Saral ji, bahut zamane ke bad samvad sthapit hua.yeh theek hai ki hum apni suraksha ke bare mai laperwaha hian. is ka jawab hum sab ko dena hoga. mera aaj ka post is sawal per bhi roshni dalta hai. aapki pratikriya padh kar achcha laga. bhabhi ji ko namaskar.

manmohan saral said...

Priy Giriraj ji
kshama karen ki aapka uttar pahle nahin dekh paya. ji haan. sampark bahut samay baad ho raha hai. aaj aapke sab purane post bhi pad liye. sahitya akademi ke baare mein jaankari ankh kholne vali hai. akadmi ka paisa niji operation par kaise kharch kiya ja sakta hai, yeh to sharmanaak baat hai. is par kahin shor kyon nahin macha aur kisi ne awaj kyon nahin uthai? mujhe to iski jankari aap se hi mili.