Thursday, 29 January 2009

हैदराबाद से मेरे पास एक पत्रिका Towards A Better Mankind आती है। दिसंबर 2008 का अंक सामने है। उसके टाइटिल कवर पर देशवासियों के लिए अंग्रेज़ी में कुछ चेतावनियां लिखी हैं जैसे-
Citizens of India;- your country is in grave peril stand up and be counted since everything you value is in danger; The Most corrupt, the most divisive, the most unreliable characters ever to rule this country are in power. They spend just 180 crores on their own and their families’ security. They spend just 150 crores on security of 100 crore Indians. Gandhi ji had refused security and demanded security of crores of Indian Citizens. Dr. Ambedkar had wondered what would happen if the constitutions taken over by Rakshas. Today the Rakshas have indeed taken over the constitution. And common citizens are being slaughtered everyday.
यह सवाल मुख्य हो जाता है कि आखिर सुरक्षा क्या है? किसकी सुरक्षा ? राजनेताओं की सुरक्षा? देश की संपत्ति की सुरक्षा या सब खेलों को छोड़कर केवल क्रिकेट प्लेयर्स की सुरक्षा? सुरक्षा का फ़िनोमिना पहले बहुत सीमित था। शत्रु के आक्रमण के समय प्रजा की सुरक्षा, आपदाओं से सुरक्षा, राज्य और प्रजा की संपत्ति की रक्षा। लेकिन अब ऐसा नहीं है। उसकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। पहले नंबर पर हैं राजनेता उनसे जुड़े हुए लोग। उनमें भी प्राथिकताएं हैं। रक्त संबंधी पहले, उनके बाद उनके जिताऊ ब्रिगेड के चुनिंदा सदस्य। तीसरे पर अफ़सरान। जनता के वे धनी लोग जो डरे हुए रहते हैं और नेताओं को पैसा देते हैं। उनके लिए सुरक्षा रुतबे की बात भी है। विशिष्टता का प्रमाण भी है। इन सब सुरक्षाओं के वर्ग हैं-ज़ेड, वाई और न जाने कौन कौन सी सुरक्षाएं किस किस के लिए आरक्षित हैं। ये सब कितने असुरक्षित हैं? जब राजा असुरक्षित अनुभव करता है तो उसके आश्रित जनता कितनी असुरक्षित हो जाती है उसका अंदाज़ तभी होता है जब बेगुनाह उनके औऱ उनकी नीतियों के कारण काट डाले जाते हैं।
सामान्य आदमी की अपनी सुरक्षाएं बहुत सीमित हैं। अधिक हुआ तो घर और खेत के चारों तरफ़ बाढ लगा लेता है। ज़रूरत हुई तो रात को जानवरों के हमले से बचने के लिए आग जला लेता है। बीमारी सिमारी में भी कोशिश करता है कि स्थानीय जड़ी बूटियों से इलाज मालजा कर ले। भूख से बचने के लिए भी उसके शार्ट कट्स हैं। पर वे दीर्घ सूत्री नहीं हैं। लेकिन ये बातें सुरक्षा के अंतर्गत नहीं आते ये सब सीमित दृष्टि से आत्म प्रबंधन की कोटि में आते हैं। सुरक्षा और आत्म प्रबंधन में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। प्रबंधन का मतलब है सीमित साधनों का यथासंभव बेहतर विभाजन करके आवश्यकताओं का समाधान करना। समा-धान का अर्थ है समानता के सिद्धांत पर परस्पर विभाजन। उस स्थिति में ज़रूरत की पूर्ती का अर्थ यह नहीं सबकी ज़रूरतों का निदान। वह आंशिक भी हो सकता है। बल्कि वह आंशिक ही होगा। सीमित साधनों का प्रबंधन पूर्ण संतुष्टी का द्योतक नहीं है। उस स्थिति में दो चीज़ें मुख्य भूमिका निभाती हैं-एक परस्पर विश्वास, दूसरा पारदर्शिता। अगर ऐसा नहीं है तो असंतोष व्यापक रूप लेता है। पारदर्शिता तो उसकी सबसे बड़ी शिकार है। जहाँ पारदर्शिता गई वहीं विश्वास गया तो असंतोष बढ़ा। अंसंतोष के साथ ही विद्रोह के अंकुर फूटे।

मानवीय सुरक्षा से तात्पर्य क्या है? किन किन क्षेत्रों से इसका संबंधहै? मनुष्य को क्या चाहिए? जो चाहिए क्या वह अपने साधन से प्राप्त नहीं कर सकता? क्या सुरक्षा एक सामाजिक ज़रूरत या जिम्मेदारी है? संभवतः राज्य की परिकल्पना मनुष्य की आपसी संवेदना और बाहरी या कहिए कबिलाई हमलों से निकली। वही संवेदना जो आपस में एक दूसरे को जोड़कर कबीले बनने में मदद कर रही थी उसने छोटे क्षेत्रिय राज्यों का रूप लिया और एक समाज बना उसकी ज़िम्मेदारियों में एक प्रमुख ज़िम्मेदारी यह हुई कि वह समाज मिल जुल कर एक दूसरे की रक्षा करेगा। जीवन रक्षा ही राज्य की स्थापना के मूल में है। रोटी यानी भूख भी है लेकिन पहला सवाल था मनुष्य सुरक्षित कैसे हो? पेट तो वह प्राकृतिक संसाधनों से भर ही रहा था पर आक्रमणों के द्वारा होने वाले संहार की काट के लिए संगठन एक ज़रूरत बन गई थी। राष्ट्र की परिकल्पना के पीछे एक होकर आत्मरक्षा की भावना ही राज्य का नियूक्लियस है। भले ही राष्ट्र आज के बुद्धिजीवियों की नज़र में मात्र एक भौगोलिक इकाई हो लेकिन इसके पीछे छिपी संवेदनाएं अनदेखी नहीं की जा सकती। संवेदना चाहे वह भय़ से उपजे या प्रेम से किसी भी समन्वय और जुड़ाव के लिए ज़रूरी है। राष्ट्र भले ही ऊपरी तौर से भौगोलिक वास्तविकता होने का अहसास कराता हो लेकिन इसका भावनात्मक अस्तित्व भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्र अगर केवल भौगोलिक सत्य होता तो उसके साथ संवेदनात्मक और भावनात्मक संदर्भ इतने प्रगाढ़ न हुए होते कि देशवासी बलिदान के लिए उतारू हो जाएं।
ये सवाल बाहरी हमलों से बचाव की बात नहीं करते। भले ही बाहरी हमलों से बचाव कभी राज्य या राष्ट्र के अस्तित्त्व में आने का प्रस्थान बिंदु रहा हो। उसके बाद तो राष्ट्र का स्वरूप निरंतर विकसित होता गया। अब धर्म-निरपेक्षता से लेकर मानव मूल्यों की सुरक्षा तक विस्तृत क्षेत्र हो गया। मानव मूल्यों का क्षेत्र भी सीमित नहीं रहा। वे केवल बाहरी आक्रमण तक ही सीमित नहीं है। भूख, बीमारी, विस्थापन बेरोज़गारी, दहेज़, महिला एवं बाल उत्पीड़न, तेज़ी मंदी, दुर्घटनाएं, दैवी प्रकोप आदि सब मानवीय सुरक्षा की परिधि में आते हैं। राज्य को आंशिक रूप से या संपूर्ण रूप से दायित्व निबाहना पड़ता है। यूरोप तथा अन्य पाश्चात्य देशों में तो सामाजिक सुरक्षा के तहत पूरा दायित्व राज्य ही वहन करता है। तीसरी दुनिया के देशों में मानवीय सुरक्षा का उलंघन अकसर होते हैं। उदाहरण के लिए भारत में हुकमरान की सुरक्षा सामान्य आदमी की सुरक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण और खर्चीली है। उसका सारा बोझ सामान्य आदमी पर पड़ता है। चाहे मंत्री हों या नौकरशाह या या जन प्रतिनिधि सबके लिए सुरक्षा कई कारणों से अनिवार्यता की कोटि में आगई है। उसके पीछे कुछ अनावश्यक कारण भी हैं कुछ आवश्यक कारण भी हैं। सबसे बड़ा कारण है भय। अपनी जनता के प्रति अविश्वास। उसे अपना अमित्र मानकर चलना। अपने आपको जनसाधारण से अलग समझना। यानी कुर्सी मिलते ही या जन प्रतिनिधि चुने जाते ही साधारण से असाधारण हो जाने की मानसिकता उनके अंदर की निर्भीकता या भाईचारे का पटाक्षेप कर देती है। इसके दो कारण मुख्य हैं। विशिष्टता का अहसास, दूसरा अतिरिक्त प्रतिष्ठा का संवहन। जिनसे प्रतिष्ठा या जिनके द्वारा प्रतिष्ठा मिलती है उन्हें याचक की नज़र से देखना। अपने याचकत्व को भूलकर उनसे दूरी बढ़ाते जाना। दूरी ही आशंकाओं को जन्म देती है। भय और कुंठाएं डरपोक बना देती हैं। उसके लिए उन्हें सुरक्षाओं के घेरे पर घेरे चाहिएं। दरअसल सुरक्षा के घेरे उनके लिए प्रतिष्टा के घेरे भी बन जाते हैं। उनसे बाहर आने का मतलब उनके लिए निरवस्त्र सड़क पर आ जाना। सुरक्षा का कवर उनके लिए ठीक वैसा ही हो जाता है जैसे नशेड़ी के लिए नशा। सामान्य आदमी क्या करे? व अंततः असुरक्षा को ही अपना कवच मानकर चलता है। मरना होगा तो मर जाएंगे उसके डर से जीना तो बंद नहीं कर सकते। यही भाव सताए जा रहे मज़लूम के भी अंततः सोच का हिस्सा बन जाता है और उस बलिदानी की मानसिकता का भी हिस्सा होता है जिसने किसी बड़े उद्येश्य के लिए अपने को न्यौछावर करने का निर्णय लिया हुआ है। व्यवहार की दृष्टी से दोनों के रवैय्ये भले ही अलग हों निष्कर्ष कमोबेश समान होते हैं। एक के लिए मृत्यु, दूसरे के लिए बलिदान। भाषा भावना को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। भय और साहस में भले ही अंतर हो पर भौतिक अंत न चाहते हुए भी कई बार एक सा ही होता है।
भय नितांत एक निजी और अंतरंग भाव है। उससे बचने के लिए विश्वास की ज़रूरत होती है। विश्वास कैसे आए? सुदृढ़ शासन व्यवस्था। भेदभाव विहीन पारदर्शिता। राज्य ही सामान्य व्यक्ति के विश्वास का संबल बन सकता है। चाहे बाहरी हमला हो या अंदर की ताक़तों का भय़। उन सबका सामना आत्म विश्वास और पारदर्शिता के द्वारा ही किया जा सकता है।
राज्य की स्थापना का उद्येश्य चाहे आरंभ में कुछ भी रहा हो लेकिन अब वह वेलफ़ेयर स्टेट है। लेकिन राज्य का वेलफ़यर स्टेट का आदर्श कहीं पर भी पूरी तरह प्राप्त नहीं हुआ और न निकट भविष्य में कोई संभावना है। अभी भी वह कुछ लोगों के हाथ की पुतली होने के साथ सत्ता ग्रहण का माध्यम है। नाम भले ही कुछ भी दे दिया जाए। साम्यवाद हो या समाजवाद या जनतंत्र य़ा कोई और स्वरूप हो सबके पीछे सत्ता में बने रहनी जुस्तजू है। उसमें सामान्य आदमी मात्र दृष्टा की भूमिका में रहता है। संविधान बनाने या लागू करने में भी उसकी भूमिका न्यूनतम रहती है। सत्ता की अक्षुणता के साथ कल्याणकारी और जुड़ गया है। यह सत्ता का गहना यानी आवरण है जो सत्ता की भयावहता को कम करता है। दरअसल सत्ता का सबसे बड़ा और सक्षम उपकरण भय है। भय की छाया को घनी व सर्वव्यापी बनाने के माध्यम दिन पर दिन जुड़ते जाते हैं। गांधी इसीलिए भयमुक्त होने की बात करते हैं। ऐसा क्या कोई राज्य अस्तित्व में है जो सामान्य स्थितयों में अपने समाज को भय मु्क्त होने की गारंटी देने की स्थिति में हो। बाहरी आक्रमण से सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी राज्य इसलिए लेते हैं कि सत्ता की अक्षुणता बनी रहे। लेकिन राज्य में अंतरंग सुरक्षा, न्याय में तटस्थता और निरपेक्षता बाहरी तौर पर बनी रहती हैं। उनके बारे में शंकाएं बरकरार रहती हैं। नतीजा क्या होगा?
सुरक्षा के प्रति विश्वास बना रहे इसके संभव आधार 1. भय से मुक्ति 2. अभावों से मुक्ति 3.नागरिक अधिकारों की अक्षुणता 4. धर्म जाति लिंग भाषा आदि को तर्कसंगत संरक्षण 5. अधिकारों की समानता 6. अपराधों का शिक्षा द्वारा उन्मूलन, ज़रूरत पड़े तो दंड योजना का प्रभावी प्रयोग। यह तभी संभव है जब राज्य संविधान को दृढ़ता और बिना भेदभाव से लागू करे। उसमें हर नागरिक की आस्था हो। वह शिक्षा से और वरिष्ठ जनों के आचरण के द्वारा अभिमंत्रित हो।
अभाव सामान्य व्यक्ति की सबसे बड़ी सीमा है। अभाव मनुष्य की विचार और आचरण बद्धता को तोड़ते हैं। इसी कारण उछृंखलता का विकास होता है। इसे कैसे दूर किया जा सकता है? क. जीविकोपार्जन के समुचित साधन ख. उनके प्रति पारदर्शिता और जन विश्वास 3. शिक्षा का समुचित प्रबंध ग. उसके लिए राज्य द्वारा समुचित समानता के स्तर पर प्रबंध घ. मातृ भाषा को वरीयता जिससे बच्चों का मानसिक संतुलन कुंठाग्रस्त न हो त. जीवन यापन और वेतन प्रबंधन में सर्वस्तरीय समानता थ. गांधी ने आर्थिक समानता की दृष्टी से समान वेतन के सिद्धान्त की बात कही थी। आज वैश्विकरण के दौर में मल्टिनेशनल व्यवस्था में समानता का वह सिद्धान्त बिलाय गया। पैकेज सिस्टम प्रमुख हो गया। गरीब देशों पर असमानता की पकड़ मज़बूत हो गई। नतीजतन कुंठाएं और प्रतिस्पर्धा की गति अनियंत्रित हो गई। इसका निराकरण वैश्विक स्तर पर संभव नहीं। वैश्विक स्तर पर आई मंदी का एक बड़ा कारण यह भी है। भारत जैसे देश जो अपने साधनों को सीमित रखने में आंशिक रूप से सफल हैं वे स्थिरता बनाने में कमोबेश सफल हैं। उसके पीछे इस देश का मध्यम वर्ग है जो अपनी आमदनी का कुछ अंश बचाकर रखता है। लेकिन जिस प्रकार विभिन्न आर्थिक ग्रुप विश्व मंदी की सुनामी की चिंता किए बिना वेतन वृद्धि के लिए आंदोलन कर रहे हैं, देश की संपत्ति को हानि पहुंचा रहे हैं, उसे देखते हुए मंदी की सुनामी का रुख़ इधर भी मुड़ सकता है। सरकारें भी चुनाव के चलते इस स्थिति के प्रति लापरवाह हैं। जिस लोकतंत्र पर मानवीय सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सर्वाधिक है अगर वह अपने दायित्व को निबाहने में कोताही केवल इसलिए करता है कि सत्ता उसके हाथ से निकल सकती है तो वह देश के प्रति अन्याय की श्रेणी में गिना जाएगा।
हैदराबाद से मेरे पास एक पत्रिका Towards A Better Mankind आती है। दिसंबर 2008 का अंक सामने है। उसके टाइटिल कवर पर देशवासियों के लिए अंग्रेज़ी में कुछ चेतावनियां लिखी हैं जैसे-
Citizens of India;- your country is in grave peril stand up and be counted since everything you value is in danger; The Most corrupt, the most divisive, the most unreliable characters ever to rule this country are in power. They spend just 180 crores on their own and their families’ security. They spend just 150 crores on security of 100 crore Indians. Gandhi ji had refused security and demanded security of crores of Indian Citizens. Dr. Ambedkar had wondered what would happen if the constitutions taken over by Rakshas. Today the Rakshas have indeed taken over the constitution. And common citizens are being slaughtered everyday.
यह सवाल मुख्य हो जाता है कि आखिर सुरक्षा क्या है? किसकी सुरक्षा ? राजनेताओं की सुरक्षा? देश की संपत्ति की सुरक्षा या सब खेलों को छोड़कर केवल क्रिकेट प्लेयर्स की सुरक्षा? सुरक्षा का फ़िनोमिना पहले बहुत सीमित था। शत्रु के आक्रमण के समय प्रजा की सुरक्षा, आपदाओं से सुरक्षा, राज्य और प्रजा की संपत्ति की रक्षा। लेकिन अब ऐसा नहीं है। उसकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। पहले नंबर पर हैं राजनेता उनसे जुड़े हुए लोग। उनमें भी प्राथिकताएं हैं। रक्त संबंधी पहले, उनके बाद उनके जिताऊ ब्रिगेड के चुनिंदा सदस्य। तीसरे पर अफ़सरान। जनता के वे धनी लोग जो डरे हुए रहते हैं और नेताओं को पैसा देते हैं। उनके लिए सुरक्षा रुतबे की बात भी है। विशिष्टता का प्रमाण भी है। इन सब सुरक्षाओं के वर्ग हैं-ज़ेड, वाई और न जाने कौन कौन सी सुरक्षाएं किस किस के लिए आरक्षित हैं। ये सब कितने असुरक्षित हैं? जब राजा असुरक्षित अनुभव करता है तो उसके आश्रित जनता कितनी असुरक्षित हो जाती है उसका अंदाज़ तभी होता है जब बेगुनाह उनके औऱ उनकी नीतियों के कारण काट डाले जाते हैं।
सामान्य आदमी की अपनी सुरक्षाएं बहुत सीमित हैं। अधिक हुआ तो घर और खेत के चारों तरफ़ बाढ लगा लेता है। ज़रूरत हुई तो रात को जानवरों के हमले से बचने के लिए आग जला लेता है। बीमारी सिमारी में भी कोशिश करता है कि स्थानीय जड़ी बूटियों से इलाज मालजा कर ले। भूख से बचने के लिए भी उसके शार्ट कट्स हैं। पर वे दीर्घ सूत्री नहीं हैं। लेकिन ये बातें सुरक्षा के अंतर्गत नहीं आते ये सब सीमित दृष्टि से आत्म प्रबंधन की कोटि में आते हैं। सुरक्षा और आत्म प्रबंधन में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। प्रबंधन का मतलब है सीमित साधनों का यथासंभव बेहतर विभाजन करके आवश्यकताओं का समाधान करना। समा-धान का अर्थ है समानता के सिद्धांत पर परस्पर विभाजन। उस स्थिति में ज़रूरत की पूर्ती का अर्थ यह नहीं सबकी ज़रूरतों का निदान। वह आंशिक भी हो सकता है। बल्कि वह आंशिक ही होगा। सीमित साधनों का प्रबंधन पूर्ण संतुष्टी का द्योतक नहीं है। उस स्थिति में दो चीज़ें मुख्य भूमिका निभाती हैं-एक परस्पर विश्वास, दूसरा पारदर्शिता। अगर ऐसा नहीं है तो असंतोष व्यापक रूप लेता है। पारदर्शिता तो उसकी सबसे बड़ी शिकार है। जहाँ पारदर्शिता गई वहीं विश्वास गया तो असंतोष बढ़ा। अंसंतोष के साथ ही विद्रोह के अंकुर फूटे।

मानवीय सुरक्षा से तात्पर्य क्या है? किन किन क्षेत्रों से इसका संबंधहै? मनुष्य को क्या चाहिए? जो चाहिए क्या वह अपने साधन से प्राप्त नहीं कर सकता? क्या सुरक्षा एक सामाजिक ज़रूरत या जिम्मेदारी है? संभवतः राज्य की परिकल्पना मनुष्य की आपसी संवेदना और बाहरी या कहिए कबिलाई हमलों से निकली। वही संवेदना जो आपस में एक दूसरे को जोड़कर कबीले बनने में मदद कर रही थी उसने छोटे क्षेत्रिय राज्यों का रूप लिया और एक समाज बना उसकी ज़िम्मेदारियों में एक प्रमुख ज़िम्मेदारी यह हुई कि वह समाज मिल जुल कर एक दूसरे की रक्षा करेगा। जीवन रक्षा ही राज्य की स्थापना के मूल में है। रोटी यानी भूख भी है लेकिन पहला सवाल था मनुष्य सुरक्षित कैसे हो? पेट तो वह प्राकृतिक संसाधनों से भर ही रहा था पर आक्रमणों के द्वारा होने वाले संहार की काट के लिए संगठन एक ज़रूरत बन गई थी। राष्ट्र की परिकल्पना के पीछे एक होकर आत्मरक्षा की भावना ही राज्य का नियूक्लियस है। भले ही राष्ट्र आज के बुद्धिजीवियों की नज़र में मात्र एक भौगोलिक इकाई हो लेकिन इसके पीछे छिपी संवेदनाएं अनदेखी नहीं की जा सकती। संवेदना चाहे वह भय़ से उपजे या प्रेम से किसी भी समन्वय और जुड़ाव के लिए ज़रूरी है। राष्ट्र भले ही ऊपरी तौर से भौगोलिक वास्तविकता होने का अहसास कराता हो लेकिन इसका भावनात्मक अस्तित्व भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्र अगर केवल भौगोलिक सत्य होता तो उसके साथ संवेदनात्मक और भावनात्मक संदर्भ इतने प्रगाढ़ न हुए होते कि देशवासी बलिदान के लिए उतारू हो जाएं।
ये सवाल बाहरी हमलों से बचाव की बात नहीं करते। भले ही बाहरी हमलों से बचाव कभी राज्य या राष्ट्र के अस्तित्त्व में आने का प्रस्थान बिंदु रहा हो। उसके बाद तो राष्ट्र का स्वरूप निरंतर विकसित होता गया। अब धर्म-निरपेक्षता से लेकर मानव मूल्यों की सुरक्षा तक विस्तृत क्षेत्र हो गया। मानव मूल्यों का क्षेत्र भी सीमित नहीं रहा। वे केवल बाहरी आक्रमण तक ही सीमित नहीं है। भूख, बीमारी, विस्थापन बेरोज़गारी, दहेज़, महिला एवं बाल उत्पीड़न, तेज़ी मंदी, दुर्घटनाएं, दैवी प्रकोप आदि सब मानवीय सुरक्षा की परिधि में आते हैं। राज्य को आंशिक रूप से या संपूर्ण रूप से दायित्व निबाहना पड़ता है। यूरोप तथा अन्य पाश्चात्य देशों में तो सामाजिक सुरक्षा के तहत पूरा दायित्व राज्य ही वहन करता है। तीसरी दुनिया के देशों में मानवीय सुरक्षा का उलंघन अकसर होते हैं। उदाहरण के लिए भारत में हुकमरान की सुरक्षा सामान्य आदमी की सुरक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण और खर्चीली है। उसका सारा बोझ सामान्य आदमी पर पड़ता है। चाहे मंत्री हों या नौकरशाह या या जन प्रतिनिधि सबके लिए सुरक्षा कई कारणों से अनिवार्यता की कोटि में आगई है। उसके पीछे कुछ अनावश्यक कारण भी हैं कुछ आवश्यक कारण भी हैं। सबसे बड़ा कारण है भय। अपनी जनता के प्रति अविश्वास। उसे अपना अमित्र मानकर चलना। अपने आपको जनसाधारण से अलग समझना। यानी कुर्सी मिलते ही या जन प्रतिनिधि चुने जाते ही साधारण से असाधारण हो जाने की मानसिकता उनके अंदर की निर्भीकता या भाईचारे का पटाक्षेप कर देती है। इसके दो कारण मुख्य हैं। विशिष्टता का अहसास, दूसरा अतिरिक्त प्रतिष्ठा का संवहन। जिनसे प्रतिष्ठा या जिनके द्वारा प्रतिष्ठा मिलती है उन्हें याचक की नज़र से देखना। अपने याचकत्व को भूलकर उनसे दूरी बढ़ाते जाना। दूरी ही आशंकाओं को जन्म देती है। भय और कुंठाएं डरपोक बना देती हैं। उसके लिए उन्हें सुरक्षाओं के घेरे पर घेरे चाहिएं। दरअसल सुरक्षा के घेरे उनके लिए प्रतिष्टा के घेरे भी बन जाते हैं। उनसे बाहर आने का मतलब उनके लिए निरवस्त्र सड़क पर आ जाना। सुरक्षा का कवर उनके लिए ठीक वैसा ही हो जाता है जैसे नशेड़ी के लिए नशा। सामान्य आदमी क्या करे? व अंततः असुरक्षा को ही अपना कवच मानकर चलता है। मरना होगा तो मर जाएंगे उसके डर से जीना तो बंद नहीं कर सकते। यही भाव सताए जा रहे मज़लूम के भी अंततः सोच का हिस्सा बन जाता है और उस बलिदानी की मानसिकता का भी हिस्सा होता है जिसने किसी बड़े उद्येश्य के लिए अपने को न्यौछावर करने का निर्णय लिया हुआ है। व्यवहार की दृष्टी से दोनों के रवैय्ये भले ही अलग हों निष्कर्ष कमोबेश समान होते हैं। एक के लिए मृत्यु, दूसरे के लिए बलिदान। भाषा भावना को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। भय और साहस में भले ही अंतर हो पर भौतिक अंत न चाहते हुए भी कई बार एक सा ही होता है।
भय नितांत एक निजी और अंतरंग भाव है। उससे बचने के लिए विश्वास की ज़रूरत होती है। विश्वास कैसे आए? सुदृढ़ शासन व्यवस्था। भेदभाव विहीन पारदर्शिता। राज्य ही सामान्य व्यक्ति के विश्वास का संबल बन सकता है। चाहे बाहरी हमला हो या अंदर की ताक़तों का भय़। उन सबका सामना आत्म विश्वास और पारदर्शिता के द्वारा ही किया जा सकता है।
राज्य की स्थापना का उद्येश्य चाहे आरंभ में कुछ भी रहा हो लेकिन अब वह वेलफ़ेयर स्टेट है। लेकिन राज्य का वेलफ़यर स्टेट का आदर्श कहीं पर भी पूरी तरह प्राप्त नहीं हुआ और न निकट भविष्य में कोई संभावना है। अभी भी वह कुछ लोगों के हाथ की पुतली होने के साथ सत्ता ग्रहण का माध्यम है। नाम भले ही कुछ भी दे दिया जाए। साम्यवाद हो या समाजवाद या जनतंत्र य़ा कोई और स्वरूप हो सबके पीछे सत्ता में बने रहनी जुस्तजू है। उसमें सामान्य आदमी मात्र दृष्टा की भूमिका में रहता है। संविधान बनाने या लागू करने में भी उसकी भूमिका न्यूनतम रहती है। सत्ता की अक्षुणता के साथ कल्याणकारी और जुड़ गया है। यह सत्ता का गहना यानी आवरण है जो सत्ता की भयावहता को कम करता है। दरअसल सत्ता का सबसे बड़ा और सक्षम उपकरण भय है। भय की छाया को घनी व सर्वव्यापी बनाने के माध्यम दिन पर दिन जुड़ते जाते हैं। गांधी इसीलिए भयमुक्त होने की बात करते हैं। ऐसा क्या कोई राज्य अस्तित्व में है जो सामान्य स्थितयों में अपने समाज को भय मु्क्त होने की गारंटी देने की स्थिति में हो। बाहरी आक्रमण से सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी राज्य इसलिए लेते हैं कि सत्ता की अक्षुणता बनी रहे। लेकिन राज्य में अंतरंग सुरक्षा, न्याय में तटस्थता और निरपेक्षता बाहरी तौर पर बनी रहती हैं। उनके बारे में शंकाएं बरकरार रहती हैं। नतीजा क्या होगा?
सुरक्षा के प्रति विश्वास बना रहे इसके संभव आधार 1. भय से मुक्ति 2. अभावों से मुक्ति 3.नागरिक अधिकारों की अक्षुणता 4. धर्म जाति लिंग भाषा आदि को तर्कसंगत संरक्षण 5. अधिकारों की समानता 6. अपराधों का शिक्षा द्वारा उन्मूलन, ज़रूरत पड़े तो दंड योजना का प्रभावी प्रयोग। यह तभी संभव है जब राज्य संविधान को दृढ़ता और बिना भेदभाव से लागू करे। उसमें हर नागरिक की आस्था हो। वह शिक्षा से और वरिष्ठ जनों के आचरण के द्वारा अभिमंत्रित हो।
अभाव सामान्य व्यक्ति की सबसे बड़ी सीमा है। अभाव मनुष्य की विचार और आचरण बद्धता को तोड़ते हैं। इसी कारण उछृंखलता का विकास होता है। इसे कैसे दूर किया जा सकता है? क. जीविकोपार्जन के समुचित साधन ख. उनके प्रति पारदर्शिता और जन विश्वास 3. शिक्षा का समुचित प्रबंध ग. उसके लिए राज्य द्वारा समुचित समानता के स्तर पर प्रबंध घ. मातृ भाषा को वरीयता जिससे बच्चों का मानसिक संतुलन कुंठाग्रस्त न हो त. जीवन यापन और वेतन प्रबंधन में सर्वस्तरीय समानता थ. गांधी ने आर्थिक समानता की दृष्टी से समान वेतन के सिद्धान्त की बात कही थी। आज वैश्विकरण के दौर में मल्टिनेशनल व्यवस्था में समानता का वह सिद्धान्त बिलाय गया। पैकेज सिस्टम प्रमुख हो गया। गरीब देशों पर असमानता की पकड़ मज़बूत हो गई। नतीजतन कुंठाएं और प्रतिस्पर्धा की गति अनियंत्रित हो गई। इसका निराकरण वैश्विक स्तर पर संभव नहीं। वैश्विक स्तर पर आई मंदी का एक बड़ा कारण यह भी है। भारत जैसे देश जो अपने साधनों को सीमित रखने में आंशिक रूप से सफल हैं वे स्थिरता बनाने में कमोबेश सफल हैं। उसके पीछे इस देश का मध्यम वर्ग है जो अपनी आमदनी का कुछ अंश बचाकर रखता है। लेकिन जिस प्रकार विभिन्न आर्थिक ग्रुप विश्व मंदी की सुनामी की चिंता किए बिना वेतन वृद्धि के लिए आंदोलन कर रहे हैं, देश की संपत्ति को हानि पहुंचा रहे हैं, उसे देखते हुए मंदी की सुनामी का रुख़ इधर भी मुड़ सकता है। सरकारें भी चुनाव के चलते इस स्थिति के प्रति लापरवाह हैं। जिस लोकतंत्र पर मानवीय सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सर्वाधिक है अगर वह अपने दायित्व को निबाहने में कोताही केवल इसलिए करता है कि सत्ता उसके हाथ से निकल सकती है तो वह देश के प्रति अन्याय की श्रेणी में गिना जाएगा।

Friday, 16 January 2009

Alibagh-anubhav

सागर रात में चुपचाप आता है....?
मुंबई का तीसरा पड़ाव! पहला पड़ाव तो बेटी का घर था। दूसरी सिरड़ी की यात्रा। तीसरे का मैं अब ज़िक्र कर रहा हूं। मुंबई से गोवा मार्ग पर 120 किलोमीटर पर एक मिनी गोवा है। उसका नाम है अलीबाग। लगभग एक लाख लोगों की बस्ती। वहां एक मनोरम बीच है। जया यानी मेरी बड़ी बेटी पिछले साल भी चाहती थी कि अलीबाग जाएं। उसकी सुंदरता और मनोरमता की प्रशंसा करते थकती नहीं थी। चौपाटी आदि बीच देखकर मैं कल्पना नहीं कर पाता था कि वास्तव में वह उतना सुंदर होगा। हालांकि जब मैं पहली बार आया था और ताज में चाय पी थी तब चौपाटी का बड़ा नक्शा था। तब भेलपूरी और चाट वहां भी बिकती थी। मुझे याद है हमारी तरफ़ के एक चाट वाले को बातचीत के अंदाज़ से पता चला कि हम उधर के हैं जहां से वह बीस साल पहले पढ़ाई छोड़कर बंबई एक्टर बनने आया था तो उसने अंततः चाट की दुकान खोल ली। हमवतन होने के कारण उसने किसी से भी चाट के पैसे नहीं लिए थे। एक्टर न बनने का उसे दुखः था या नहीं यह कहना तो मुश्किल था लेकिन वह संतुष्ट था। अब उसके तीन घर बंबई में थे। दुकान पर नौकर काम कर रहे थे। मेरा मतलब है तबकी चौपाटी का मेरे मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा था। बाद में वह प्रभाव बर्फ़ के ढेले की तरह पिघलकर मटमैला होता गया था। इसलिए मैं अलीबाग की प्रशंसा से निस्बत नहीं बैठा पाया था। इस बार वह और सलिल इस बात पर आमादा थे कि वे हमें अलीबाग ज़रूर ले जाएंगे।
अलीबाग बीच के किनारे किनारे वहां के लोगों की व्यक्तिगत प्रॉपर्टी है। उन लोगों ने वहां टूरिस्ट के रहने के लिए सूट्स बनाए हुए हैं। लोग पहले से बुकिंग करा लेते हैं। सलिल जया ने पता लगाया तो पता लगा कि पूरा दिसंबर और आधा जनवरी बुक्ड है। जया को निराशा हुई पर उसने हिम्मत नहीं हारी। उसकी एक मित्र अलीबाग जाने के लिए बहुत लालायित थी। उसके पति एक आध बार जा चुके थे। जया ने उसे पकड़ा। उसके पति ने संपर्क किया तो एक रात के लिए शिन्तरे वाड़ी के मुख्य बंगले के ग्राउंड फ्लोर के तीन कमरे 6 हज़ार रुपए में मिल गए। हम लोग छः थे, सलिल जया वान्या मैं मीरा और डेनमार्क में बसे मेरे छोटे भाई का बेटा हरी। हरी की मां डेनिश है। वह अंग्रेज़ी और डेनिश बोलता है। म्यूज़िक कंपोज़र है। भारतीय यानी हिंदी गाने पाश्चात्य आरकेस्ट्रा के साथ मिक्सिंग करके अपने स्टुडियो में कैसे्टस बनाता है। उसके लिए भारत से हिंदी फिल्मी क्लेसिकल गानों के रिकार्ड ऊंचे दामों में खरीदकर ले जाता है। केवल तेईस साल का है।
दूसरी तरफ जया की मित्र रितु, उसके पति हरी कांत और उनके दो बच्चे। दो कमरे हमने लिए एक उन लोगों ने। दो कारें सवेरे ही आठ बजे मुंबई से निकल पडीं। गोवा जाने वाली सड़क, एक छोटे से टुकड़े को छोड़कर, शेष बहुत अच्छी है। रा्स्ते में एक सरदार साहब के ढाबे में चाय पीने के लिए रूके। साथ में पूरियां और आलू की सब्जी थी। उत्तर भारतीयों की पूरी और आलू की सब्ज़ी सबसे मातबर हमसफ़र होती हैं। जैसे जैसे पेट में पहुंचती जाती हैं वैसे वैसे मंज़िल पास आती जाती है। सरदार साहब ने अपने ढाबे में चाय के साथ पूरी का नाश्ता करने की इजाज़त दे दी। आधे घंटे से ज़्यादा लगा। दस बारह मिनट बाथरूम की आवाजाही में लगे। महिलाएं ज़्यादा समय नहीं लगातीं। बाथरूम में एक एक करके सबका जाना समय पर भारी पड़ता है। इतना भी भारी नहीं वहन करना मुश्किल हो जाए। वहां से निकलकर हम सीधे अलीबाग पहुंचे। दरअसल बीच का नाम नागांव बीच है। हालंकि सड़क नेडी यानी संकरी है। पर टूटी फूटी नहीं। जब मैं पहली बार गोवा गया था दोनों तरफ़ की हरियाली निहारते हुए उसी में खो गया था। मुझे गोवा की याद आई। उसी तरह ऊंचे ऊंचे गहरे हरे नारियल के लकदक पेड़। वनस्पति स्वतंत्र भी है और मुक्त भी। मैंदानों में जिस तरह भयमारी और असुरक्षित सी मालूम पड़ती है वैसी वहां नहीं दिखती। जो आज़ादी पहले गावों के दौड़ते भागते अधनंगे बच्चों में दिखती थी वह अब इन दरख्तों में मालूम पड़ रही थी। भले ही एक जगह जमे थे पर जिस मुदित भाव से हिल हिलकर मंगल गीत गा रहे थे उससे लगता था न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। आए हो तो गाओ नाचो, करो सैर।
मुझे उस वाड़ी के मालिक जयकृष्णा शिंत्रे ने बताया कि यह क्षेत्र शिवा जी के सरदार आंद्रे की रियासत थी। यहां पर उस ज़माने के दो क़िले भी हैं। जब हम उस दिशा में मुड़े़ जिघर शिंतरेवाड़ी थी तो मोड़ पर लोहे के जंगले में शिवा जी का बस्ट लगा था। उसे देखकर पहले तो झुंझलाहट आई कि जिस शिवा जी को औऱंगज़ेब बांधकर नहीं रख सका उसे नागांववासियों ने जगले में क़ैद कर रखा है। लेकिन तुरंत हंस दिया कि हो सकता है यह स्थानीय लोगों का यशोदा मार्का प्यार हो। यशोदा ने कृष्ण को ओखल में बांधा था इन लोगों ने शिवाजी को केज में बंद कर दिया हो। कई बार इंसानी प्यार दुश्मनी से भी कठोर हो जाता है।
हम लोगों ने जाते ही चाय पी। कपड़े बदले। मैं और मीरा ही थे जो तैरना नहीं जानते थे। सलिल तो जहाज़ी थे। समुद्र से पुरानी दोस्ती थी। जया मेरी बेटी ने आई आई टी कानपुर के स्वीमिंगपूल में तैरना सीख लिया था। वान्या को उसके पापा ने अपने कैपटिन काल में समुद्र में तैरना जानते थे। उनका छः साल का बेटा लक्ष्य पानी से पहले तो डरा फिर पानी में घुसा तो निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। बस उनका गोद का बच्चा निश्चय अलबत्ता हमारी तरह था। लेकिन उसके पिता उसे गोद में लेकर पानी में उतर गए थे। हरी हमारे क्लान में ज़रूर था पर जल में ऐसा घुसा तो जैसे समुद्र का सगा हो गया। मैं और मीरा कपड़े समेटकर समुद्र में जाकर खड़े हो गए। क्षितिज से उठकर आती हुई लहरें देखते देखते रूप वदल लेती थीं। पहले उर्मियाँ भुरभुरा कर फैलती थीं फिर इकट्ठि होते होते चांदी की व्हेलें बनकर दौड़ती चली आतीं थीं और किनारे पर आकर बिखर जाती थीं। वे लहरें भिन्न भिन्न रंगों में बार बार आती थीं और किनारे को देखते ही ऐसे टूटती थीं जैसे मंज़िल पा गईं। कुछ तो हमारे पैरों में ही आकर टूटती थीं। मेरा मन होता था बिछड़े हुए बेटा बेटी की तरह पैरों पर से उठा कर गले लगा लूं। जो बिखर जाए उसे कौन समेटे? रह रहकर मेरे कानों में सी एच आत्मा के गाने की पंक्तियों की पहले गुनगुनाहट होने लगी। मैंने इधर उधर देखा यह गाना कौन गुनगुना रहा है। कहीं कोई नहीं था। वह गुनगुनाहट तेज़ होते होते मेरे होठों पर आ गई,,,मैं रोऊं सागर के किनारे सागर हंसी उड़ाए,,,। इस समय यह गाना! मैं चकित था। सब पानी में किलोल कर रहे थे। मेरे अंदर यह गाना बज रहा था। कैसा विरोधाभास है? जैसे जैसे सूरज उतरा वैसे वैसे चाँदी की व्हेलें रंग बदल कर आकाश के लोहित रंग में डूबने लगीं। वह गाना और तेज हुआ जैसे वह गान अब लहरों ने गुनगुनाना शुऱू कर दिया हो। पहले सी एच आत्मा का वह गाना मेरा हुआ अब देखते देखते लहरों का हो गया। दर्द कैसे एक के बाद दूसरे का फिर तीसरे का होता चला जाता है! दर्द कितना हरदिल अज़ीज़ होता है। सुख स्वार्थी और एकांगी। मैं लौट पड़ा। हल्की हल्की स्याही सागर के रंगों को कपड़े सुखाने वाली टंडैलनी की तरह समेट रही थी और अपना अक्स पछाड़ खाती लहरों पर छोड़ती जा रही थी।
मैं लौट आया। बंगले का वह हिस्सा कुछ देर के लिए सन्नाटे में डूबा सा लगा। लहरों का रव बहुत दूर छूट गया था। दिन भर जो चित्र इकट्ठे किए थे और अपने रंग भरे थे वे सब लुका छिपी खेल रहे थे। निगेटिव मेरे पास ही थे। बत्ती जली तो मैं चौक पड़ा। वे सब जिन्हें मैं अंदर अंदर ही संजो रहा था पोशिदा किस्म के लोगों की तरह अंर्ध्यान हो गए। मेरी नातिन वान्या आकर भीगे कपड़ों में मुझसे लिपट गई “नानू आप अकेले!” मुझे लगा जिन लहरों को मैं समुद्र के किनारे उस टंडैलनी के पास छोड़कर आया था उनमें से एक छुपकर आई और सारा भीगापन मुझ पर उडे़ल दिया। धीरे धीरे बाकी सब भी आ गए। मुझे लगा वे सब ख़ाली हाथ लौटे हैं। सब नहा नहाकर इतने थक गए थे कि उन्हें कुछ चाहिए था जो उनके पेट में हो रही घुडदौड पर लगाम लगा सके। सबने खाना खाया। खाना दो तरह का था। एक हम दोनों पति पत्नी के लिए बिना प्याज़ का। हालांकि वह प्याज़ खाती है। पर जब अकेला पड़ जाता हूं तो साथ देने के लिए...।अकेले आदमी का एतबार नहीं होता कब पलट जाए।
शिंतरेवाड़ी तरह तरह के पेड़ों से भरा था। पेड़ ऐसे भी जिन्हें पहले नहीं देखा था। नारियल से लदे पेड़ उत्तर भारतयों को लुभाते हैं। नारियल वाड़ियों से चलकर उत्तर में पहुंची कहानियां याद आने लगती हैं। वह आदमी जो नारियल के दरख़्त पर चढ़ तो गया पर उतरना नहीं आया। उसने मन्नत मांगी अगर सही सलामत उतर गया ते दस ब्राह्णण जिमाऊँगा। जब कुछ नीचे उतर आया तो बोला आठ तो जिमाऊंगा ही वह जैसे जैसे नीचे उतरा दो दो करके कम होते गए। नीचे उतरने पर उसने देखा यहां तो जिमाने के लिए एक भी नहीं बचा, किसे जिमाऊँ। वह ईश्वर का धन्यवाद करता हुआ घर लौट गया। वह उतर भी गया ब्राह्मण भोज भी नहीं करना पड़ा। शिंतरेवाड़ी में सैंकड़ों पेड़ और उनकी उतनी ही कहानियाँ। मारमुलक्के फल। एक वक्त में साठ अतिथि शिंत्रेवाड़ी में समुद्र की लहरों की तरह आते जाते रहते हैं। लेकिन उनकी एक बेटी 30 साल की है जो बोल सके न पढ़ सके । मां बाप के लिए वह दुखः समुद्र के जल से भी गहन औऱ असीम है। लेकिन शिंतरे दंपत्ति यही कहकर प्रसन्न हो लेते हैं लोग गोवा जाकर कितना पैसा खोते हैं, कितना प्रदूषण भोगते हैं। बीच दिन पर दिन गंदे होते जा रहे हैं। हमारा नागाँव प्रदूषण मुक्त मिनी गोवा, कमख़र्च और बालानशी। हम दुखः को दोस्त बनाने के कैसे कैसे तरीके खोज लेते है। समुद्री हवाएं आ आकर हिलोरती हैं पर शिंतरे और उनकी पत्नी के दिल में बेटी को लेकर कितने बवंडर उठते होंगे उसका अंदाज़ वहां एक दो दिन मौज मस्ती के लिए आकर चले जाने वाले टूरस्टिटों को नहीं लगता होगा। अगर उनके सुख दुख में न झांका होता तो हमें ही क्या पता चलता। कई बार हम सपाट हरी भरी धरती देखते हैं गड्ढे नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

हमें अगले दिन सवेरे 9 बजे बंगला खाली कर देना था। हमने सोचा सवेरे सवेरे समुद्र तट का नज़ारा लिया जाए। जल्दी तैयार होकर मैं और मीरा सबसे पहले निकले। उस वक्त बीच खाली था। दूर पर पांच छः लोग जो शायद जल्दी उठ गए थे चहल कदमी कर रहे थे। अलबत्ता समुद्री चिड़िएं भोर ही जग कर भोजन की तलाश में मंडरा रही थीं। चिड़ियों की कलाबाज़ियाँ हिंसक और सामिष न लगकर अहिंक तथा स्वाभाविक लग रही थीं। उनका चारों तरफ़ मंडराना वातावरण में लहरों से अधिक गतिशीलता भर रहा था। अब उजाला होने लगा था। हमने देखा रात हम सबके चले जाने के बाद सागर चुपके चुपके ऊपर बांध तक आया था। बालू गीला था पर पाँव नहीं पकड़ रहा था। एकदम साफ़ सुथरा और धुला पुछा। जैसे उसे पता था हम जाने से पहले बाय बाय करने आएंगे। ताज्जुब की बात थी कि लहरें अपने सारे निशान अल्पना की तरह तट पर एक लोक कलाकार की तरह चुन चुनकर छाप गई थीं। कहीं कहीं सीपियां भी अपने ध्वज चिन्ह की तरह छोड़ गईं थीं। तभी कुछ मछवारों को कंधों पर बांस के सहारे मछली पकड़ने का जाल लादकर जाते देखा। चार जन जाल लादे थे और कुछ मछुआरे अन्य उपकरण लिए इस तरह साथ साथ चल रहे थे जैसे किसी उत्सव में जा रहे हों। उनकी तैयारी उन चिड़ियों से ज़्यादा थी जो उड़ती हुई आती थीं हर ड्राइव के साथ बेमालूम ढंग से शिकार पकड़ ले जाती थीं। मछुआरों का अनुष्ठान अभी तक शुरू भी नहीं हुआ था। अब बाक़ी सब लोग भी वहां आ गए थे। लेकिन वे बिना इधऱ उधर देखे, जाल लेकर जाते मछुआरों की तरह समुद्र की तरफ़ जा रहे थे। जैसे पानी ही उनका सब कुछ हो और वे उससे अंतिम विदाई लेने जा रहे हों। हमने पुकारा भी पर वे पूरी तरह डूबे थे। हमने भी उस क्षण को अपने अंदर उतारा और जल हाथ में लेकर बुदबुदाया त्वदीयं वस्तु गोविंदं तुभ्यमेव समर्पये। जल छोड़ दिया। उस अनन्त जलराशि में हमारी अंजलियों का जल मिलकर फिर समुद्र हो गया। उन लोगों ने सूरज की बढ़ती रोशनी की चमक के पीछे छिपकर गोते लगाए।
कुछ देर बाद जल से निकलकर भीगे हुए सब बाहर आए। सब लोगों ने खड़े होकर बॉय बॉय किया और कहा महान अरब सागर फिर मिलेंगे। विदा की घड़ी गई।

पता नहीं ऐसे आत्मप्लावन करने वाले अनुभव के बाद इस अप्रत्याशित घटना का उल्लेख करना उचित होगा या नहीं। लेकिन अलीबाग-अनुभव जाने अनजाने मुंबई से लौटते हुए हमारे साथ ट्रेन में भी चल रहा था। हम भारतीय हमसफ़र से जब बात करने लगते हैं तो कोई सीमा नहीं रखते। हालांकि अब यह प्रवृत्ति अब कम होती जा रही है। अलीबाग-अनुभव का ज़िक्र मैंने पास में बैठे एक सज्जन से किया जो शायद अपने व्यवसाय के सिलसिले काफ़ी घूमते थे। उन सज्जन ने शिंतरेवाड़ी का पता भी नोट किया। एक दूसरे सज्जन जो मुंबई से उखड़कर जा रहे थे वे एकाएक बोले “आप ठीक कह रहे हैं, बहुत सुंदर जगह है। लेकिन मुबई में हुए पहले विस्फोट का आर डी एक्स अलीबाग के रास्ते मुंबई गया था।“ वह बात आ डी एक्स की तरह ही विस्फोक लगी। ऐसे मनोरम स्थान का संबंध एक ऐसे मारक विस्फोटिक से! एक क्षण को मैं तो सहम ही गया वे सज्जन भी असहज हो गए थे जिन्होंने शिंतरेवाड़ी का पता लिखा था। मुझे न जाने क्यों अलीबाग के बराबर में विष कन्या की तरह की एक रूपसी की छाया लरज़ती नज़र आई। सब कल्पना थी। मैंने कभी किसी ऐसी रूपसी को नहीं देखा था। उसके बाद मुझे अलीबाग-अनुभव के बारे मैं बात करना एक मनमोहक तस्वीर पर कालस पोतने की तरह लगा। एक सवाल मैं अपने आप से हमेशा पूछता हूं कि हम लोग अच्छी से अच्छी तस्वीर को विकृत करने में आनंद क्यों लेते हैं?

Sunday, 4 January 2009

JANTA KO SAWAL PUCHNE KI ADAT DALNI HOGI

जनता को सवाल पूछने की आदत डालनी होगी

आप क्या चाहते हैं यह आप भी नहीं जानते। आपने अपने से पूछा कि आप क्या चाहते हैं या हवा का रूख़ देखा और राय पर राय देनी शुऱू कर दी। आप मारना चाह सकते हैं पर मरना नहीं चाहेंगे। उसमें अपनी जान जाती है। यह प्रक्रिया अपने आप में बड़ी भयानक है। कहना आसान है, मरना मुश्किल। हम जान दे देंगे, हम देश भक्त हैं। लेकिन क्या जान ही अकेली जाती है। जान के साथ बहुत कुछ जाता है। क्या क्या जाता है इसकी सूची किसी के पास नहीं। पिछले माह 26 नवंबर को मुंबई पर सबसे बड़ा हमला हुआ था। मुंबई पर नहीं पूरे देश पर। जैसे किसी ज़माने में दुश्मन कहो या लुटेरे लाव लश्कर के साथ कभी रेगिस्तान से आते थे या समुद्र से आकर हमला बोल देते थे। बाबर के साथ तो चंद घुड़ सवार थे। क्लाइव के भी कुछ सिपाहियों और घुड़सवारों ने नवाब की पूरी सेना चंद घंटों में हरा दी थी। यहां तो पड़ौसी मुल्क से दस आतंकवादी समुद्री रास्ते से आए और कुछ समय के लिए पूरे मुंबई को बंधक बना लिया। हम नाराज़ हैं हमारे इतने बड़े देश की गरिमा को पड़ौसी देश के आंकवादियों ने चोट पहुंचाई। नाराज़ होना वाजिब है। पर क्या हम अपने आपसे भी नाराज़ हैं। हमने अपने आप से पूछा इसके लिए कौन जिम्मेदार है। शायद अपने आपसे पूछना हमारी आदत में शुमार नहीं। हमने कभी पूछा ही नहीं। इतने हमले हुए। अंदर से, बाहर से। कभी किसी की ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई। सब तू तू मैं मैं में निकल गई। सोमनाथ के मंदिर से लेकर बाबरी मस्जिद तक, इधर संसद और अक्षरधाम से लेकर मुंबई पर हुए हमलों तक। सब तू तू मैं मैं में गुज़र गया। जो मर जाते हैं उन्हें शहीद बना दिया जाता है जो बच जाते हैं वे निर्दोष भी और योद्धा भी उनसे कोई नहीं पूछता मरनेवाले कैसे मर गए, तुम कैसे बच गए। सबसे पहले तो यही सवाल उठता यह सब हो कैसे गया। ये सवाल न नेता से पूछे जाते हैं और न नौकरशाह से। चीन से हारने के बाद भी जिम्मेदारी किस ने ली। न किसी को दी गई। सब दूध के धुले। हम इतने महान कैसे हो गए कि न साहू को बख्शिश और न दोषी को दंड।
ठीक है हम पर हमला किया गया। हमारा नुकसान हुआ। हमला हमारी कमज़ोरी का नतीजा भी था। उस कमज़ोरी का कारण हमारी अंतर कलह भी हैं। ताड़ने वाले कयामत की नज़र रखते हैं। उदाहरण के लिए हम धर्म परिवर्तन के लिए दूसरे लोगों को दोषी मानते हैं लेकिन अपने धर्म को परिवर्तन मुक्त करने की दिशा में कुछ नहीं करना चाहते। लकीर पीट रहे हैं। सांप के निकल जाने पर हमें कोई आपत्ति नहीं, बस लकीर न छोड़े। जब सत्ता के केंद्र संसद पर हमला हुआ था उस वक्त भी यही सब हुआ था। इस बार मुंबई पर हुए हमले ने जनता पर चोट की है। सी एस टी पर बेगुनाह लोग मारे गए। ओबेराय और ताज होटलों में विदेशी टूरिस्ट और साधन संपन्न लोग मारे गए। लेकिन जनता का गुस्सा उन लोगों को लेकर ज्या़दा है जो अनपहचाने चले गए। उसी ने लोगों को जोड़ा। दबाव बनाया। इस देश का मनोविज्ञान है कि उपेक्षित और पीड़ित लोगों के साथ सहानुभूति सक्रियता के साथ उत्पन्न होती है। प्रतिक्रिया भी प्रभावी होती है। वैसे संसद पर हुए हमले के कारण जन आक्रोश तो था लेकिन सहानुभूति की सक्रियता अपेक्षाकृत कम थी। प्रतीक पर हमला सम्मान को आहत करता है जन पर होने वाला हमला संवेदना को ज़ख्मी करता है। मुंबई पर हुए हमले ने बहुत कुछ बदला। उस सरकार के गृहमंत्री को न तो त्यागपत्र देने की बाध्यता का सामना करना पड़ा और न किसी सरकारी ढांचे में बदलाव की बाध्यता महसूस हुई। सब पूर्ववत चलता रहा। इस सरकार को मंदी के साथ इस संकट का सामना करना पड़ रहा है। पैकेज देकर मंदी के इस आलम में आर्थिक स्थिति को सामान्य बनाए रखने की चुनौती है। शायद उसी का नतीजा है कि मुद्रास्फीति में गिरावट आई है। तीन हफ़्ते में आतंकवाद रोकने के लिए कानून भी बनाए गए। इंटरनेशनल स्तर पर आतंकवाद के खिलाफ़ वातावरण बनाया जा रहा है। राजनीति काम के सामने कमज़ोर पड़ने लगत है। सवाल है सरकार के ऊपर यह दबाव कब तक बना रहेगा। जनता का दबाव दिल से उपजता है राजनीति का दबाव वक्ती होता, मौका परस्ती का। जनता के जुड़ते ही नक्शा बदल गया। किसी ने किसी से नहीं कहा। इंसानी तारबरकी स्वतः चालू हो गई। कश्मीर तक बदल गया। 26 दिसंबर को मैं मुंबई में था। लोग हमले का महीना मना रहे थे। किसी के मन में किसी के प्रति बैर या गुस्सा नहीं था। 60 साल में जनता ने क्यों और कैसे का जवाब खोजना सीख लिया। यह जनता की परिपक्वता का प्रमाण है। अगले दिन हम लोग पहले ओबेराय में चाय पीने गए। वहां लगा जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ हो। पूछने पर एक कारकून ने कहा। हमारी भी गलती थी हम सरकार के दम पर हाथ छोडकर गाड़ी चला रहे थे। धोखा खा गए। औंधे मुंह गिर पड़े। कोशिश करेंगे दोबारा ऐसा न हो। ताज होटल गए। दसवी क्लास के दिनों में लड़कों के साथ टूर में बंबई गया था। तब ताजमहल की तरह ताज होटल भी बंबई की शान का प्रतीक था। हम दो तीन लड़के ताज में चाय पीने गए थे। महीनों गाते फिरे थे ताज में चाय पिए हुए हैं। वे साथी चकित होते थे जिन्होंने उसके बारे में सुन रखा था जो नहीं जानते थे वे करेक्शन करने की कोशिश करते थे ताज बंबई में नहीं आगरा में है। ख़ैर, जब ताज पहुंचे तो चारों तरफ़ सिक्योरिटी पड़ी थी। गाड़ियां तो जाने ही नहीं दी जा रही थी। हमसे पूछा गया आपका रिज़र्वेशन है। हमने कहा नहीं। उसने रास्ता दिखा दिया। रत्न जी टाटा ने कहा था कि हम अपनी सुरक्षा आप करेंगे। सरकार पर विश्वास नहीं किया जा सकता। लेकिन यहां सुरक्षा इतनी तगड़ी थी कि सरकारी ज़मीन तक पर चलने की मनाई थी। ओबेराय में सब खुला था। उनकी आवाज़ में जनता का सा आत्मविश्वास था। यहां पर आत्मनिर्भरता की घोषणा के बावजूद परनिर्भरता थी। लेकिन एक संदेश जो ओबेराय में सुनने को मिला था उसमें जनता की उस इच्छा का प्रतिबिंब था जिसके ज़रिए हमले के बाद बिना कुछ कहे सब कुछ कह दिया था। भारतीय जनता की परिपक्वता का यह भी एक प्रमाण है कि इतना सब हो जाने के बाद लड़ने को अनावश्यक समझती है। प्रधानमंत्री ने भी लड़ाई की संभावना को नकारा है। सबसे पहली ज़रूरत है आर्थिक स्थायित्व की। यहां की जनता ने इस मंदी के दौरान इसके महत्व तो समझा है। उस स्थायित्व के पीछे सामान्य जन हैं। अगर लड़ाई होती है यह दो देशों तक ही सीमित नहीं रहेगी सारा एशिया आर्थिक संकट की चपेट में आ जाएगा। सब समीकरण बदल जाएंगे। आधार होगा राजनीतिक हित। इसलिए डिप्लोमेसी के द्वारा ही इस संकट से निबटा जा सकता है।
कुल मिलाकर जनमानस को अपने निर्णय स्वयं लेने की आदत डालनी होगी। निर्णय ही लेना काफ़ी नहीं होगा उसे उन हुक्मरानों के कानों तक भी पहुंचाना होगा जो उसे क्रियान्वित करने के लिए ज़िम्मेदार बनाए गए हैं। उसे हुक्मरानों से सवाल पूछने की मानिकता भी विकसित करनी होगी। वरना निर्णय कहीं लिया जाएगा और भुगतेगा कोई और यानी हम और वो।
गिरिराज किशोर, 11-210, सूटरगंज, कानपुर -1


जनता को सवाल पूछने की आदत डालनी होगी

आप क्या चाहते हैं यह आप भी नहीं जानते। आपने अपने से पूछा कि आप क्या चाहते हैं या हवा का रूख़ देखा और राय पर राय देनी शुऱू कर दी। आप मारना चाह सकते हैं पर मरना नहीं चाहेंगे। उसमें अपनी जान जाती है। यह प्रक्रिया अपने आप में बड़ी भयानक है। कहना आसान है, मरना मुश्किल। हम जान दे देंगे, हम देश भक्त हैं। लेकिन क्या जान ही अकेली जाती है। जान के साथ बहुत कुछ जाता है। क्या क्या जाता है इसकी सूची किसी के पास नहीं। पिछले माह 26 नवंबर को मुंबई पर सबसे बड़ा हमला हुआ था। मुंबई पर नहीं पूरे देश पर। जैसे किसी ज़माने में दुश्मन कहो या लुटेरे लाव लश्कर के साथ कभी रेगिस्तान से आते थे या समुद्र से आकर हमला बोल देते थे। बाबर के साथ तो चंद घुड़ सवार थे। क्लाइव के भी कुछ सिपाहियों और घुड़सवारों ने नवाब की पूरी सेना चंद घंटों में हरा दी थी। यहां तो पड़ौसी मुल्क से दस आतंकवादी समुद्री रास्ते से आए और कुछ समय के लिए पूरे मुंबई को बंधक बना लिया। हम नाराज़ हैं हमारे इतने बड़े देश की गरिमा को पड़ौसी देश के आंकवादियों ने चोट पहुंचाई। नाराज़ होना वाजिब है। पर क्या हम अपने आपसे भी नाराज़ हैं। हमने अपने आप से पूछा इसके लिए कौन जिम्मेदार है। शायद अपने आपसे पूछना हमारी आदत में शुमार नहीं। हमने कभी पूछा ही नहीं। इतने हमले हुए। अंदर से, बाहर से। कभी किसी की ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई। सब तू तू मैं मैं में निकल गई। सोमनाथ के मंदिर से लेकर बाबरी मस्जिद तक, इधर संसद और अक्षरधाम से लेकर मुंबई पर हुए हमलों तक। सब तू तू मैं मैं में गुज़र गया। जो मर जाते हैं उन्हें शहीद बना दिया जाता है जो बच जाते हैं वे निर्दोष भी और योद्धा भी उनसे कोई नहीं पूछता मरनेवाले कैसे मर गए, तुम कैसे बच गए। सबसे पहले तो यही सवाल उठता यह सब हो कैसे गया। ये सवाल न नेता से पूछे जाते हैं और न नौकरशाह से। चीन से हारने के बाद भी जिम्मेदारी किस ने ली। न किसी को दी गई। सब दूध के धुले। हम इतने महान कैसे हो गए कि न साहू को बख्शिश और न दोषी को दंड।
ठीक है हम पर हमला किया गया। हमारा नुकसान हुआ। हमला हमारी कमज़ोरी का नतीजा भी था। उस कमज़ोरी का कारण हमारी अंतर कलह भी हैं। ताड़ने वाले कयामत की नज़र रखते हैं। उदाहरण के लिए हम धर्म परिवर्तन के लिए दूसरे लोगों को दोषी मानते हैं लेकिन अपने धर्म को परिवर्तन मुक्त करने की दिशा में कुछ नहीं करना चाहते। लकीर पीट रहे हैं। सांप के निकल जाने पर हमें कोई आपत्ति नहीं, बस लकीर न छोड़े। जब सत्ता के केंद्र संसद पर हमला हुआ था उस वक्त भी यही सब हुआ था। इस बार मुंबई पर हुए हमले ने जनता पर चोट की है। सी एस टी पर बेगुनाह लोग मारे गए। ओबेराय और ताज होटलों में विदेशी टूरिस्ट और साधन संपन्न लोग मारे गए। लेकिन जनता का गुस्सा उन लोगों को लेकर ज्या़दा है जो अनपहचाने चले गए। उसी ने लोगों को जोड़ा। दबाव बनाया। इस देश का मनोविज्ञान है कि उपेक्षित और पीड़ित लोगों के साथ सहानुभूति सक्रियता के साथ उत्पन्न होती है। प्रतिक्रिया भी प्रभावी होती है। वैसे संसद पर हुए हमले के कारण जन आक्रोश तो था लेकिन सहानुभूति की सक्रियता अपेक्षाकृत कम थी। प्रतीक पर हमला सम्मान को आहत करता है जन पर होने वाला हमला संवेदना को ज़ख्मी करता है। मुंबई पर हुए हमले ने बहुत कुछ बदला। उस सरकार के गृहमंत्री को न तो त्यागपत्र देने की बाध्यता का सामना करना पड़ा और न किसी सरकारी ढांचे में बदलाव की बाध्यता महसूस हुई। सब पूर्ववत चलता रहा। इस सरकार को मंदी के साथ इस संकट का सामना करना पड़ रहा है। पैकेज देकर मंदी के इस आलम में आर्थिक स्थिति को सामान्य बनाए रखने की चुनौती है। शायद उसी का नतीजा है कि मुद्रास्फीति में गिरावट आई है। तीन हफ़्ते में आतंकवाद रोकने के लिए कानून भी बनाए गए। इंटरनेशनल स्तर पर आतंकवाद के खिलाफ़ वातावरण बनाया जा रहा है। राजनीति काम के सामने कमज़ोर पड़ने लगत है। सवाल है सरकार के ऊपर यह दबाव कब तक बना रहेगा। जनता का दबाव दिल से उपजता है राजनीति का दबाव वक्ती होता, मौका परस्ती का। जनता के जुड़ते ही नक्शा बदल गया। किसी ने किसी से नहीं कहा। इंसानी तारबरकी स्वतः चालू हो गई। कश्मीर तक बदल गया। 26 दिसंबर को मैं मुंबई में था। लोग हमले का महीना मना रहे थे। किसी के मन में किसी के प्रति बैर या गुस्सा नहीं था। 60 साल में जनता ने क्यों और कैसे का जवाब खोजना सीख लिया। यह जनता की परिपक्वता का प्रमाण है। अगले दिन हम लोग पहले ओबेराय में चाय पीने गए। वहां लगा जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ हो। पूछने पर एक कारकून ने कहा। हमारी भी गलती थी हम सरकार के दम पर हाथ छोडकर गाड़ी चला रहे थे। धोखा खा गए। औंधे मुंह गिर पड़े। कोशिश करेंगे दोबारा ऐसा न हो। ताज होटल गए। दसवी क्लास के दिनों में लड़कों के साथ टूर में बंबई गया था। तब ताजमहल की तरह ताज होटल भी बंबई की शान का प्रतीक था। हम दो तीन लड़के ताज में चाय पीने गए थे। महीनों गाते फिरे थे ताज में चाय पिए हुए हैं। वे साथी चकित होते थे जिन्होंने उसके बारे में सुन रखा था जो नहीं जानते थे वे करेक्शन करने की कोशिश करते थे ताज बंबई में नहीं आगरा में है। ख़ैर, जब ताज पहुंचे तो चारों तरफ़ सिक्योरिटी पड़ी थी। गाड़ियां तो जाने ही नहीं दी जा रही थी। हमसे पूछा गया आपका रिज़र्वेशन है। हमने कहा नहीं। उसने रास्ता दिखा दिया। रत्न जी टाटा ने कहा था कि हम अपनी सुरक्षा आप करेंगे। सरकार पर विश्वास नहीं किया जा सकता। लेकिन यहां सुरक्षा इतनी तगड़ी थी कि सरकारी ज़मीन तक पर चलने की मनाई थी। ओबेराय में सब खुला था। उनकी आवाज़ में जनता का सा आत्मविश्वास था। यहां पर आत्मनिर्भरता की घोषणा के बावजूद परनिर्भरता थी। लेकिन एक संदेश जो ओबेराय में सुनने को मिला था उसमें जनता की उस इच्छा का प्रतिबिंब था जिसके ज़रिए हमले के बाद बिना कुछ कहे सब कुछ कह दिया था। भारतीय जनता की परिपक्वता का यह भी एक प्रमाण है कि इतना सब हो जाने के बाद लड़ने को अनावश्यक समझती है। प्रधानमंत्री ने भी लड़ाई की संभावना को नकारा है। सबसे पहली ज़रूरत है आर्थिक स्थायित्व की। यहां की जनता ने इस मंदी के दौरान इसके महत्व तो समझा है। उस स्थायित्व के पीछे सामान्य जन हैं। अगर लड़ाई होती है यह दो देशों तक ही सीमित नहीं रहेगी सारा एशिया आर्थिक संकट की चपेट में आ जाएगा। सब समीकरण बदल जाएंगे। आधार होगा राजनीतिक हित। इसलिए डिप्लोमेसी के द्वारा ही इस संकट से निबटा जा सकता है।
कुल मिलाकर जनमानस को अपने निर्णय स्वयं लेने की आदत डालनी होगी। निर्णय ही लेना काफ़ी नहीं होगा उसे उन हुक्मरानों के कानों तक भी पहुंचाना होगा जो उसे क्रियान्वित करने के लिए ज़िम्मेदार बनाए गए हैं। उसे हुक्मरानों से सवाल पूछने की मानिकता भी विकसित करनी होगी। वरना निर्णय कहीं लिया जाएगा और भुगतेगा कोई और यानी हम और वो।
गिरिराज किशोर, 11-210, सूटरगंज, कानपुर -1


जनता को सवाल पूछने की आदत डालनी होगी

आप क्या चाहते हैं यह आप भी नहीं जानते। आपने अपने से पूछा कि आप क्या चाहते हैं या हवा का रूख़ देखा और राय पर राय देनी शुऱू कर दी। आप मारना चाह सकते हैं पर मरना नहीं चाहेंगे। उसमें अपनी जान जाती है। यह प्रक्रिया अपने आप में बड़ी भयानक है। कहना आसान है, मरना मुश्किल। हम जान दे देंगे, हम देश भक्त हैं। लेकिन क्या जान ही अकेली जाती है। जान के साथ बहुत कुछ जाता है। क्या क्या जाता है इसकी सूची किसी के पास नहीं। पिछले माह 26 नवंबर को मुंबई पर सबसे बड़ा हमला हुआ था। मुंबई पर नहीं पूरे देश पर। जैसे किसी ज़माने में दुश्मन कहो या लुटेरे लाव लश्कर के साथ कभी रेगिस्तान से आते थे या समुद्र से आकर हमला बोल देते थे। बाबर के साथ तो चंद घुड़ सवार थे। क्लाइव के भी कुछ सिपाहियों और घुड़सवारों ने नवाब की पूरी सेना चंद घंटों में हरा दी थी। यहां तो पड़ौसी मुल्क से दस आतंकवादी समुद्री रास्ते से आए और कुछ समय के लिए पूरे मुंबई को बंधक बना लिया। हम नाराज़ हैं हमारे इतने बड़े देश की गरिमा को पड़ौसी देश के आंकवादियों ने चोट पहुंचाई। नाराज़ होना वाजिब है। पर क्या हम अपने आपसे भी नाराज़ हैं। हमने अपने आप से पूछा इसके लिए कौन जिम्मेदार है। शायद अपने आपसे पूछना हमारी आदत में शुमार नहीं। हमने कभी पूछा ही नहीं। इतने हमले हुए। अंदर से, बाहर से। कभी किसी की ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई। सब तू तू मैं मैं में निकल गई। सोमनाथ के मंदिर से लेकर बाबरी मस्जिद तक, इधर संसद और अक्षरधाम से लेकर मुंबई पर हुए हमलों तक। सब तू तू मैं मैं में गुज़र गया। जो मर जाते हैं उन्हें शहीद बना दिया जाता है जो बच जाते हैं वे निर्दोष भी और योद्धा भी उनसे कोई नहीं पूछता मरनेवाले कैसे मर गए, तुम कैसे बच गए। सबसे पहले तो यही सवाल उठता यह सब हो कैसे गया। ये सवाल न नेता से पूछे जाते हैं और न नौकरशाह से। चीन से हारने के बाद भी जिम्मेदारी किस ने ली। न किसी को दी गई। सब दूध के धुले। हम इतने महान कैसे हो गए कि न साहू को बख्शिश और न दोषी को दंड।
ठीक है हम पर हमला किया गया। हमारा नुकसान हुआ। हमला हमारी कमज़ोरी का नतीजा भी था। उस कमज़ोरी का कारण हमारी अंतर कलह भी हैं। ताड़ने वाले कयामत की नज़र रखते हैं। उदाहरण के लिए हम धर्म परिवर्तन के लिए दूसरे लोगों को दोषी मानते हैं लेकिन अपने धर्म को परिवर्तन मुक्त करने की दिशा में कुछ नहीं करना चाहते। लकीर पीट रहे हैं। सांप के निकल जाने पर हमें कोई आपत्ति नहीं, बस लकीर न छोड़े। जब सत्ता के केंद्र संसद पर हमला हुआ था उस वक्त भी यही सब हुआ था। इस बार मुंबई पर हुए हमले ने जनता पर चोट की है। सी एस टी पर बेगुनाह लोग मारे गए। ओबेराय और ताज होटलों में विदेशी टूरिस्ट और साधन संपन्न लोग मारे गए। लेकिन जनता का गुस्सा उन लोगों को लेकर ज्या़दा है जो अनपहचाने चले गए। उसी ने लोगों को जोड़ा। दबाव बनाया। इस देश का मनोविज्ञान है कि उपेक्षित और पीड़ित लोगों के साथ सहानुभूति सक्रियता के साथ उत्पन्न होती है। प्रतिक्रिया भी प्रभावी होती है। वैसे संसद पर हुए हमले के कारण जन आक्रोश तो था लेकिन सहानुभूति की सक्रियता अपेक्षाकृत कम थी। प्रतीक पर हमला सम्मान को आहत करता है जन पर होने वाला हमला संवेदना को ज़ख्मी करता है। मुंबई पर हुए हमले ने बहुत कुछ बदला। उस सरकार के गृहमंत्री को न तो त्यागपत्र देने की बाध्यता का सामना करना पड़ा और न किसी सरकारी ढांचे में बदलाव की बाध्यता महसूस हुई। सब पूर्ववत चलता रहा। इस सरकार को मंदी के साथ इस संकट का सामना करना पड़ रहा है। पैकेज देकर मंदी के इस आलम में आर्थिक स्थिति को सामान्य बनाए रखने की चुनौती है। शायद उसी का नतीजा है कि मुद्रास्फीति में गिरावट आई है। तीन हफ़्ते में आतंकवाद रोकने के लिए कानून भी बनाए गए। इंटरनेशनल स्तर पर आतंकवाद के खिलाफ़ वातावरण बनाया जा रहा है। राजनीति काम के सामने कमज़ोर पड़ने लगत है। सवाल है सरकार के ऊपर यह दबाव कब तक बना रहेगा। जनता का दबाव दिल से उपजता है राजनीति का दबाव वक्ती होता, मौका परस्ती का। जनता के जुड़ते ही नक्शा बदल गया। किसी ने किसी से नहीं कहा। इंसानी तारबरकी स्वतः चालू हो गई। कश्मीर तक बदल गया। 26 दिसंबर को मैं मुंबई में था। लोग हमले का महीना मना रहे थे। किसी के मन में किसी के प्रति बैर या गुस्सा नहीं था। 60 साल में जनता ने क्यों और कैसे का जवाब खोजना सीख लिया। यह जनता की परिपक्वता का प्रमाण है। अगले दिन हम लोग पहले ओबेराय में चाय पीने गए। वहां लगा जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ हो। पूछने पर एक कारकून ने कहा। हमारी भी गलती थी हम सरकार के दम पर हाथ छोडकर गाड़ी चला रहे थे। धोखा खा गए। औंधे मुंह गिर पड़े। कोशिश करेंगे दोबारा ऐसा न हो। ताज होटल गए। दसवी क्लास के दिनों में लड़कों के साथ टूर में बंबई गया था। तब ताजमहल की तरह ताज होटल भी बंबई की शान का प्रतीक था। हम दो तीन लड़के ताज में चाय पीने गए थे। महीनों गाते फिरे थे ताज में चाय पिए हुए हैं। वे साथी चकित होते थे जिन्होंने उसके बारे में सुन रखा था जो नहीं जानते थे वे करेक्शन करने की कोशिश करते थे ताज बंबई में नहीं आगरा में है। ख़ैर, जब ताज पहुंचे तो चारों तरफ़ सिक्योरिटी पड़ी थी। गाड़ियां तो जाने ही नहीं दी जा रही थी। हमसे पूछा गया आपका रिज़र्वेशन है। हमने कहा नहीं। उसने रास्ता दिखा दिया। रत्न जी टाटा ने कहा था कि हम अपनी सुरक्षा आप करेंगे। सरकार पर विश्वास नहीं किया जा सकता। लेकिन यहां सुरक्षा इतनी तगड़ी थी कि सरकारी ज़मीन तक पर चलने की मनाई थी। ओबेराय में सब खुला था। उनकी आवाज़ में जनता का सा आत्मविश्वास था। यहां पर आत्मनिर्भरता की घोषणा के बावजूद परनिर्भरता थी। लेकिन एक संदेश जो ओबेराय में सुनने को मिला था उसमें जनता की उस इच्छा का प्रतिबिंब था जिसके ज़रिए हमले के बाद बिना कुछ कहे सब कुछ कह दिया था। भारतीय जनता की परिपक्वता का यह भी एक प्रमाण है कि इतना सब हो जाने के बाद लड़ने को अनावश्यक समझती है। प्रधानमंत्री ने भी लड़ाई की संभावना को नकारा है। सबसे पहली ज़रूरत है आर्थिक स्थायित्व की। यहां की जनता ने इस मंदी के दौरान इसके महत्व तो समझा है। उस स्थायित्व के पीछे सामान्य जन हैं। अगर लड़ाई होती है यह दो देशों तक ही सीमित नहीं रहेगी सारा एशिया आर्थिक संकट की चपेट में आ जाएगा। सब समीकरण बदल जाएंगे। आधार होगा राजनीतिक हित। इसलिए डिप्लोमेसी के द्वारा ही इस संकट से निबटा जा सकता है।
कुल मिलाकर जनमानस को अपने निर्णय स्वयं लेने की आदत डालनी होगी। निर्णय ही लेना काफ़ी नहीं होगा उसे उन हुक्मरानों के कानों तक भी पहुंचाना होगा जो उसे क्रियान्वित करने के लिए ज़िम्मेदार बनाए गए हैं। उसे हुक्मरानों से सवाल पूछने की मानिकता भी विकसित करनी होगी। वरना निर्णय कहीं लिया जाएगा और भुगतेगा कोई और यानी हम और वो।
गिरिराज किशोर, 11-210, सूटरगंज, कानपुर -1


जनता को सवाल पूछने की आदत डालनी होगी

आप क्या चाहते हैं यह आप भी नहीं जानते। आपने अपने से पूछा कि आप क्या चाहते हैं या हवा का रूख़ देखा और राय पर राय देनी शुऱू कर दी। आप मारना चाह सकते हैं पर मरना नहीं चाहेंगे। उसमें अपनी जान जाती है। यह प्रक्रिया अपने आप में बड़ी भयानक है। कहना आसान है, मरना मुश्किल। हम जान दे देंगे, हम देश भक्त हैं। लेकिन क्या जान ही अकेली जाती है। जान के साथ बहुत कुछ जाता है। क्या क्या जाता है इसकी सूची किसी के पास नहीं। पिछले माह 26 नवंबर को मुंबई पर सबसे बड़ा हमला हुआ था। मुंबई पर नहीं पूरे देश पर। जैसे किसी ज़माने में दुश्मन कहो या लुटेरे लाव लश्कर के साथ कभी रेगिस्तान से आते थे या समुद्र से आकर हमला बोल देते थे। बाबर के साथ तो चंद घुड़ सवार थे। क्लाइव के भी कुछ सिपाहियों और घुड़सवारों ने नवाब की पूरी सेना चंद घंटों में हरा दी थी। यहां तो पड़ौसी मुल्क से दस आतंकवादी समुद्री रास्ते से आए और कुछ समय के लिए पूरे मुंबई को बंधक बना लिया। हम नाराज़ हैं हमारे इतने बड़े देश की गरिमा को पड़ौसी देश के आंकवादियों ने चोट पहुंचाई। नाराज़ होना वाजिब है। पर क्या हम अपने आपसे भी नाराज़ हैं। हमने अपने आप से पूछा इसके लिए कौन जिम्मेदार है। शायद अपने आपसे पूछना हमारी आदत में शुमार नहीं। हमने कभी पूछा ही नहीं। इतने हमले हुए। अंदर से, बाहर से। कभी किसी की ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई। सब तू तू मैं मैं में निकल गई। सोमनाथ के मंदिर से लेकर बाबरी मस्जिद तक, इधर संसद और अक्षरधाम से लेकर मुंबई पर हुए हमलों तक। सब तू तू मैं मैं में गुज़र गया। जो मर जाते हैं उन्हें शहीद बना दिया जाता है जो बच जाते हैं वे निर्दोष भी और योद्धा भी उनसे कोई नहीं पूछता मरनेवाले कैसे मर गए, तुम कैसे बच गए। सबसे पहले तो यही सवाल उठता यह सब हो कैसे गया। ये सवाल न नेता से पूछे जाते हैं और न नौकरशाह से। चीन से हारने के बाद भी जिम्मेदारी किस ने ली। न किसी को दी गई। सब दूध के धुले। हम इतने महान कैसे हो गए कि न साहू को बख्शिश और न दोषी को दंड।
ठीक है हम पर हमला किया गया। हमारा नुकसान हुआ। हमला हमारी कमज़ोरी का नतीजा भी था। उस कमज़ोरी का कारण हमारी अंतर कलह भी हैं। ताड़ने वाले कयामत की नज़र रखते हैं। उदाहरण के लिए हम धर्म परिवर्तन के लिए दूसरे लोगों को दोषी मानते हैं लेकिन अपने धर्म को परिवर्तन मुक्त करने की दिशा में कुछ नहीं करना चाहते। लकीर पीट रहे हैं। सांप के निकल जाने पर हमें कोई आपत्ति नहीं, बस लकीर न छोड़े। जब सत्ता के केंद्र संसद पर हमला हुआ था उस वक्त भी यही सब हुआ था। इस बार मुंबई पर हुए हमले ने जनता पर चोट की है। सी एस टी पर बेगुनाह लोग मारे गए। ओबेराय और ताज होटलों में विदेशी टूरिस्ट और साधन संपन्न लोग मारे गए। लेकिन जनता का गुस्सा उन लोगों को लेकर ज्या़दा है जो अनपहचाने चले गए। उसी ने लोगों को जोड़ा। दबाव बनाया। इस देश का मनोविज्ञान है कि उपेक्षित और पीड़ित लोगों के साथ सहानुभूति सक्रियता के साथ उत्पन्न होती है। प्रतिक्रिया भी प्रभावी होती है। वैसे संसद पर हुए हमले के कारण जन आक्रोश तो था लेकिन सहानुभूति की सक्रियता अपेक्षाकृत कम थी। प्रतीक पर हमला सम्मान को आहत करता है जन पर होने वाला हमला संवेदना को ज़ख्मी करता है। मुंबई पर हुए हमले ने बहुत कुछ बदला। उस सरकार के गृहमंत्री को न तो त्यागपत्र देने की बाध्यता का सामना करना पड़ा और न किसी सरकारी ढांचे में बदलाव की बाध्यता महसूस हुई। सब पूर्ववत चलता रहा। इस सरकार को मंदी के साथ इस संकट का सामना करना पड़ रहा है। पैकेज देकर मंदी के इस आलम में आर्थिक स्थिति को सामान्य बनाए रखने की चुनौती है। शायद उसी का नतीजा है कि मुद्रास्फीति में गिरावट आई है। तीन हफ़्ते में आतंकवाद रोकने के लिए कानून भी बनाए गए। इंटरनेशनल स्तर पर आतंकवाद के खिलाफ़ वातावरण बनाया जा रहा है। राजनीति काम के सामने कमज़ोर पड़ने लगत है। सवाल है सरकार के ऊपर यह दबाव कब तक बना रहेगा। जनता का दबाव दिल से उपजता है राजनीति का दबाव वक्ती होता, मौका परस्ती का। जनता के जुड़ते ही नक्शा बदल गया। किसी ने किसी से नहीं कहा। इंसानी तारबरकी स्वतः चालू हो गई। कश्मीर तक बदल गया। 26 दिसंबर को मैं मुंबई में था। लोग हमले का महीना मना रहे थे। किसी के मन में किसी के प्रति बैर या गुस्सा नहीं था। 60 साल में जनता ने क्यों और कैसे का जवाब खोजना सीख लिया। यह जनता की परिपक्वता का प्रमाण है। अगले दिन हम लोग पहले ओबेराय में चाय पीने गए। वहां लगा जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ हो। पूछने पर एक कारकून ने कहा। हमारी भी गलती थी हम सरकार के दम पर हाथ छोडकर गाड़ी चला रहे थे। धोखा खा गए। औंधे मुंह गिर पड़े। कोशिश करेंगे दोबारा ऐसा न हो। ताज होटल गए। दसवी क्लास के दिनों में लड़कों के साथ टूर में बंबई गया था। तब ताजमहल की तरह ताज होटल भी बंबई की शान का प्रतीक था। हम दो तीन लड़के ताज में चाय पीने गए थे। महीनों गाते फिरे थे ताज में चाय पिए हुए हैं। वे साथी चकित होते थे जिन्होंने उसके बारे में सुन रखा था जो नहीं जानते थे वे करेक्शन करने की कोशिश करते थे ताज बंबई में नहीं आगरा में है। ख़ैर, जब ताज पहुंचे तो चारों तरफ़ सिक्योरिटी पड़ी थी। गाड़ियां तो जाने ही नहीं दी जा रही थी। हमसे पूछा गया आपका रिज़र्वेशन है। हमने कहा नहीं। उसने रास्ता दिखा दिया। रत्न जी टाटा ने कहा था कि हम अपनी सुरक्षा आप करेंगे। सरकार पर विश्वास नहीं किया जा सकता। लेकिन यहां सुरक्षा इतनी तगड़ी थी कि सरकारी ज़मीन तक पर चलने की मनाई थी। ओबेराय में सब खुला था। उनकी आवाज़ में जनता का सा आत्मविश्वास था। यहां पर आत्मनिर्भरता की घोषणा के बावजूद परनिर्भरता थी। लेकिन एक संदेश जो ओबेराय में सुनने को मिला था उसमें जनता की उस इच्छा का प्रतिबिंब था जिसके ज़रिए हमले के बाद बिना कुछ कहे सब कुछ कह दिया था। भारतीय जनता की परिपक्वता का यह भी एक प्रमाण है कि इतना सब हो जाने के बाद लड़ने को अनावश्यक समझती है। प्रधानमंत्री ने भी लड़ाई की संभावना को नकारा है। सबसे पहली ज़रूरत है आर्थिक स्थायित्व की। यहां की जनता ने इस मंदी के दौरान इसके महत्व तो समझा है। उस स्थायित्व के पीछे सामान्य जन हैं। अगर लड़ाई होती है यह दो देशों तक ही सीमित नहीं रहेगी सारा एशिया आर्थिक संकट की चपेट में आ जाएगा। सब समीकरण बदल जाएंगे। आधार होगा राजनीतिक हित। इसलिए डिप्लोमेसी के द्वारा ही इस संकट से निबटा जा सकता है।
कुल मिलाकर जनमानस को अपने निर्णय स्वयं लेने की आदत डालनी होगी। निर्णय ही लेना काफ़ी नहीं होगा उसे उन हुक्मरानों के कानों तक भी पहुंचाना होगा जो उसे क्रियान्वित करने के लिए ज़िम्मेदार बनाए गए हैं। उसे हुक्मरानों से सवाल पूछने की मानिकता भी विकसित करनी होगी। वरना निर्णय कहीं लिया जाएगा और भुगतेगा कोई और यानी हम और वो।
गिरिराज किशोर, 11-210, सूटरगंज, कानपुर -1

Thursday, 1 January 2009

Sain Baba ke Nam ek Kripakanshi ki Chithi

साई बाबा के नाम एक कृपांक्षी की चिट्ठी
बाबा
पाँव लागी,
जब सत्य सांई बाबा के बारे में कोई कहता था कि वे सिरड़ी के बाबा के अवतार हैं तो मुझे यक़ीन नहीं होता था। उसका कारण था। सच्चाई कुछ भी हो। जो कुछ सुना था उससे जो चित्र मन ही मन बने थे उनमें और सत्य साईं बाबा के बीच कोई निस्बत बैठती ही नहीं थी। बाबा तुम मुझे एक अलमस्त फ़कीर लगते थे। थे भी। हां अगर कोई कहता तुम्हारा पाँच सौ साल पहले जन्मे कबीर से तुम्हारा रिश्ता था मैं तुरत मान लेता। न मैंने तुम्हे देखा ना बाबा कबीर को। उनका भी खड्डी चलाते जुलाहे के रूप में चित्र देखा और तुम्हारा भी भिक्षा पात्र लिए चित्र देखा। तुम भी सुना मुसलमान थे कबीर भी। वे निर्गुनिया थे तुम सगुनिया होकर भी निर्गुनिया ही ज़्यादा लगे। तुम्हारा यह सूत्र वाक्य कि सबका मालिक एक है मुझे हमेशा कबीर का पद वाक्य याद दिलाता था तू मुझे कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में। बाबा, तुम चक्की चलाते थे और रोग शोक पीस डालते थे। वह खड्डी पर बैठकर ऐसी नायाब चादर बुनता था ऋषि मुनि सबने ओढ़ी फिर जस की तस धऱ दीनी चदरिया। तुम चक्की में रोग शोक पीसकर सबको मुक्त करते थे पर बाबा कबीर चलती चाकी देख रोते थे। चलती चाकी देख दिया कबीरा रोए... चक्की में जाकर कोई साबित नहीं बचता। पर तुम मानते आटे की तरह बिखरो मत केंद्र की तरफ़ जाओ। न गेहूं बचता है और न घुन। बाबा आप दोनों के बीच चक्की जन कल्याण का अद्भुत उपकरण है। कैसी विचित्र बात है कि कबीर के चार सौ साल बाद तुमने चक्की को जनकल्याण के संदेश का माध्यम बनाया और तुम्हारे लगभग पांच दशक के बाद गांधी बाबा ने चऱ्खे को परिवर्तन का ज़रिया बनाया। ये जड़ के नीचे भी अगर कोई जड़ हो सकती है उससे जुड़े थे। ये दोनों आध्यात्मिक और सामाजिक परिवर्तन के प्रभावी माध्यम बन गए । शायद कुछ अंचलों में आज भी हैं। लगता है आप तीनों ही अपनी अपनी तरह वैज्ञानिक थे। आध्यात्मिक वैज्ञानिक । तीनों ने अपने अपने परिवर्तन के यंत्र खोज निकाले थे। बाबा, आपने आध्यात्म को कर्मकांड नहीं बनने दिया बल्कि जनकल्याण का सेकुलर यंत्र बना डाला। मंदिर में सोए और मस्जिद में जगे। लेकिन सौदागरों ने तुम्हें सोने के सिहांसन बैठा कर तुम्हारे ज़मीनी अनुयाइयों से जो तुम्हारी द्वारिका में आकर तुमसे अपना दुखः सुख बांटते थे, तुमसे शक्ति पाते थे, दूर कर दिया। अब भी क्या उनका तुमसे कोई संवाद बचा है। नहीं ना। उनका भी अब नया संस्करण आ गया है। वे अपने स्वार्थ को ही पहचानते हैं। आपके दया भाव को फ़ायदा का सौदा मानते हैं। तुम स्वभाववश करते हो वे स्वार्थवश।
बाबा, मैं जानता हूं तुम्हें सब कुछ मालूम है लेकिन फिर भी कुछ बातें अरज करना चाहता हूं। पिछले दो तीन साल से हम लोग मुंबई आते हैं। बचपन से मैं और मीरा सिरड़ी साईं बाबा यानी आपके चमत्कारों के बारे में सुनते रहे हैं इसलिए हर साल सोचते थे तुम्हारे दरबार में हाज़री दे आएं लेकिन हर बार टल जाता रहा। न पहुंच पाने को जैसे कि होता है हमने आपके ऊपर थोप दिया बाबा ने नहीं बुलाया। बाबा क्या निमंत्रण देंगे। हम लोगों की प्रवृत्ति है अपनी बला दूसरों पर टालने की। लेकिन 21 दिसंबर को मुंबई पहुंचे और 22 दिसबर को सवेरे ही अपने दामाद सलिल की कार से सिरड़ी सिधार गए। पता नहीं तब हमने सोचा या नहीं कि बाबा ने बुलाया है। लेकिन बाबा, सच कहता हूं वहां जाकर कम से कम मुझे अच्छा नहीं लगा।
बस एक बात ही अच्छी लगी कि आप वहां हैं। पर आप तो सब जगह हैं। पर वहां तो मजबूर और महकूम ही अपनी अरदास सुनाने आते हैं। बड़े और धनाड्य तो पिछले दरवाज़े से आए कुछ तुम्हारे पुजारियों को पूजा कुछ तुम्हें...वह पूजा भी तुम्हें कितनी पहुंचती होगी वह तो न्यासी जानते होंगे। वे बेचारे जिनके बीच तुम रहे या जिनको तुमने अपनी कृपा का बूर बिना भेद भाव के बांटा उनकी रदीफ़ के लोग तो मूर्ति के सामने मुंह तक नहीं खोल पाते, धकेल दिए जाते हैं। बाबा कुछ कहते नहीं बनता। तुम्हारे सिवाय किससे कहूं। सामान्य आदमी की तरह जाना कितना दुश्वार है। विशिष्ट आदमी पहले। न्यास में इतना धन आता है। लेकिन उस धन का न आपके लिए उपयोग है औऱ न आपके जन के लिए। आपका जन तो मारा फिरता है। वालिंटियर्स तक नहीं रहते। लाईन लगवा कर दर्शन करने में मदद करें। तीन तीन तल्ले फिर सीढ़ियां। धक्कम धक्का करते चलते चले जाओ। ऊपर जाकर तुम्हारा सिहांसन। तुम्हारी कृपा है सब ठीक है। कभी कुछ उल्टा सीधा हो गया तेरे जन ही जाएंगे। कोई रास्ता बताने वाला तक नहीं होता। यह तक बताने वाला नहीं कि वरिष्ठ नागरिक के जाने का दरवाजा किधऱ है। वर्दी वाले तक भरमाते हैं न. एक दरवाज़े पर जाओ वहां से तीन पर भेज देंगे। लोगो में सहुलियत से बात करने की सलाहियत तक नहीं। एक विकलांग बच्चे को आपकी प्रतिमा के सामने से धकेल दिया गया। मुझे उन लोगों से कहना पड़ा कि साईबाबा से कहना होगा कि बाबा इन्हें जो कुछ देना हो दो पर थोड़ी इंसानियत भी दो। एक महिला स्वयंसेविका बोली जा कह दे। वे तुझसे भी नहीं डरते। न डरें लिहाज़ तो करें। साई बाबा के सेवक हैं। वे तो अपने को मालिक समझते हैं। बाबा आपको इन मालिकों से क्या लेना। इन्हें तुमसे लेना है इस लिए तुम्हें इस सिंहासन पर बैठाकर, बांधकर, तुम्हें अपनों से दूर कर देना चाहते हैं। बाबा क्या तुम अपनों से दूर रह कर ख़ुश रह सकते हो।

तुम्हारा एक कृपाकांक्षी