Friday, 6 November 2009

प्रभाष जोशी हिंदी के अंतिम समर्पित सेनानी

आज सवेरे हिंदुस्तान दैनिक के पहले पृष्ठ पर सूचना देखी तो सन्न रह गया प्रभाष जी चुपके से निकल गए। मुझसे एक साल छोटे थे। पहले मैं उन्हें अपने से बड़ा ही समझता था। जब यह राज़ खुला कि मैं उनसे एक साल बड़ा हूं तो वे बोले अब मैं तुम्हें प्रणाम किया करूंगा। इस बात को उन्होंने कुछ दिन पहले तक निभाया। हिंद स्वराज पर मेरी पुस्तक सस्ता साहित्य मंडल से आई तो मैंनें उन्हें बताने के लिए फ़ोन किया तो उन्होंने प्रणाम करने वाली रिवायत को निभाया। जब वे प्रणाम कहते थे मुझे संकोच होता था। मैंने बेकार ही बताया कि मैं उनसे एक साल बड़ा हूं। दरअसल पहला गिरिमिटिया पर जनसत्ता में बहुत उन्होंने आत्मीय ढंग से समृद्ध लेख लिखा था। लेकिन दलित विमर्श-संदर्भ गांधी पढ़कर स्पष्ट कहा था दलित विमर्श के लिए गांधी को जस्टिफ़िकेशन की ज़रूरत नहीं है। उनमें साफ़ कहने की अद्भुत शक्ति थी। उन्होंने सोनिया गांधी को हिंद स्वराज पढ़ने की सलाह दी थी।
मेरी उनसे तब मुलाकात हुई थी जब वे अज्ञेय जी के साथ एवरीमेन में काम करते थे। जहां तक मुझे याद है तब वे बुशर्ट पैंट भी पहनते थे। बाद में उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखना पढ़ना लगभग छोड़ दिया। दूसरी बार मैं उनसे राजेन्द्र यादव के साथ इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग में मिला था। उन्होंने लिखी कागद कोरे की प्रति भी भेंट की थी। हालांकि उन दिनों मैं फ्री लेंसिंग कर रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा ‘आप कहानी उपन्यास के सिवाय भी कुछ और लिखते हैं?’
मैंने कहा ‘नाटक भी लिख लेता हूं।‘
‘नहीं, मेरा मतलब है अखबारं के लिए भी लिखते हैं।‘ मैंने गर्दन हिला दी। वे चुप रहकर बोले।
‘आपके मित्र तो बड़े लेखक हैं। इन्हें तो जनरलिस्टिक लेखन छोटा काम लगता है। लेकिन एक लेखक को समसामयिक विषयों पर ज़रूर लिखना चाहिए। इससे एक तो अपने सरोकारों का पता चलता है दूसरे देश की हालत और समस्याओं से दो चार होने का अवसर मिलता है।‘ यह बात मुझे रघुवीर सहाय भी कहते थे। लेकिन जिस तरह उन्होंने कहा उसमें एक तरह की पकड़ थी। हो सकता उसके पीछे यह भी मंशा रही हो कि यह आदमी फ्री लेंसिग कर रहा है अगर यह अखबारों मे लिखेगा तो आर्थिक मदद भी मिल जाएगी। या केवल एक लेखक को जरनेलिस्टिक लेखन की तरफ़ आकर्षित करने का तरीका था। मेरे मामा 1920 में जब आक्सफोर्ड लंदन से एम ए करके आए तो गांधी जी का संदेश मिला। बापू बंबई में ही थे। वे उनसे मिलने गए। बापू ने सीधे सवाल किया ‘तुम आज़ादी से सरोकार रखते हो या गुलामी की सुख सुविधा से?’
वे कुछ देर समझ नहीं पाए सवाल का मर्म क्या है। बापू काम करते रहे। कुछ देर बाद पूछा क्या सोचा। उनके मुहं से अनायास निकला –आज़ादी। हालंकि इन दोनों घटनाओं में कोई साम्य नहीं था। लेकिन एकाएक उस घटना का ध्यान आ गया था, पर मैं बोला नहीं। कुछ महीने बाद जब मैं उनसे मिलने गया तो वे बोले आपने क्या सोचा। मैंने एक लेख निकालकर उनके सामने रख दिया। जहां तक मुझे याद है वह भाषा के संदर्भ में था। उन्होंने अल्टा पल्टा और पी ए को बुलाकर कहा यह जाएगा। किसी काम का इतना जल्दी नतीजा पहली बार मिला था। हो सकता है यह उनका प्रोत्साहित करने का तरीका रहा हो।
प्रभाष जी ने चंद दिनों पहले मुझसे फ़ोन पर कहा था। मैंने कलकत्ता संस्कृति संसद वालों से कहा है कि जब पहला गिरमिटिया जैसे बड़े उपन्यास के लेखक आ रहे हैं तो 15 नवंबर को होने वाले हिंद स्वराज की गोष्ठी की वही अध्यक्षता करेंगे। कुछ ही देर बाद सचिव रत्नशाह जी का फ़ोन आ गया। हम भले ही कम मिलते हों पर उन्हें सदा गांधी के संदर्भ में मेरी याद रहती थी। जब मेरा उपन्यास छपा तो उन्होंने मुझे फ़ोन किया आपको पटना चलना है और गिरमिटिया पर बोलना है। मैं दिल्ली से आऊंगा आप कानपुर अमुक गाड़ी पर मिलें। मैं जाम के कारण वक्त के वक्त स्टेशन पहुंचा। वे इंतज़ार में टहल रहे थे। बिस्तर लगा तैयार था। जैसी आडियंस वहां मिली वैसी कहीं और नहीं मिली। शिवानंद जी तो थे ही। लालू जी से भी पहली बार उन्होंने ही भेंट कराई। मुझे विचित्र अनुभव हो रहा है हिंदी और गांधी के प्रति समर्पित ऐसा जुझारू योद्धा अब कौन मिलेगा। उनके दम से मुझे दम था। कोई पत्रकार आज हिंदी में ऐसा नहीं जो हिंदी के सवाल को जन्म मरण का सवाल समझता हो। अधिकतर हिंदी के पत्रकार हिंग्लिश के पत्रकार हैं। उन्हीं का दम था कि जनसत्ता को उन्होंने हिंदी का शीर्ष पत्र बना दिया था। आज भी हिंदी के अख़बारों में जनसत्ता को ही बौद्धिक सम्मान प्राप्त है। यह ठीक है कि तीसरे नंबर पर वे क्रिकेट के शैदाई थे। उन्होंने जनसत्ता के बाद कोई दूसरा अखबार नहीं पकड़ा। यही खेल के साथ हुआ। खेलों में क्रिकेट ही उनका पहला प्यार बना रहा। जब गए तो अपने प्रिय खेल देख रहे थे। मैं समझ सकता हूं कि सचिन के इतने बड़े स्कोर पर वे कितने ख़ुश होंगे लकिन 3 रन से हारना कितना बड़ा धक्का रहा होगा। शायद अपने प्रिय खेल और देश के लिए इतना बड़ा बलिदान इतने बड़े पत्रकार ने शायद ही कभी दिया हो।
एक घटना मुझे इस समय फिर याद आ रही है। सूरीनाम भारत सरकार का प्रतिनिधि मंडल जाने वाला था। विदेश मंत्रालय से नाम प्रस्तावित होकर पी एम ओ भेजे गए। उसमें जोशी जी का और मेरा भी नाम था। उन्हीं दिनों मैंने जनसत्ता में इस बात का सख्त शब्दों में खंडन किया था कि मैं आचार्य गिरिराज किशोर नहीं हूं। लोग कई बार मुझे वी एच पी का नेता समझकर पत्र लिखते थे। परिचय देते हुए नाम से पहले आचार्य लगा देते थे। सांप्रदायिकता के प्रतीक व्यक्ति से मेरा नाम जोड़ना मेरे लिए अपमानजनक था। शायद प्रधानमंत्री हाऊस में उस बात को पढ़ लिया गया था। फ़ाइल लौटी तो मेरे और जोशी जी के नाम पर फ़ाइल में निशान लगा था। राज्यमंत्री विदेश ने पीएम से जाकर कहा कि जोशी जी इतने बड़े पत्रकार और गिरिराज किशोर ने गांधी जी पर पहला गिरमिटिया जैसा उपन्यास लिखा है। प्रधानमंत्री ने सदाशयता दिखाई और दिग्विजय सिहं जी की बात मान ली। दरअसल जोशी जी ने अपनी राय के साथ कभी धोखा नहीं किया। वे निडर होकर बी जे पी नीतियों के खिलाफ़ बोलते रहे। इतना बड़ा पत्रकार क्या राज्यसभा में जाने योग्य नहीं थे। लेकिन पार्टियां सरकार में रहीं और गिरीं पर किसी को न हिंदी का धयान आया और न जोशी जीजैसे निर्भीक पत्रकार का।
मैंने समाचार पढ़कर उनके सहयोगी रहे प्रताप सोमवंशी को फ़ोन करके पूछा दाह संस्कार कब होगा उन्होंने बताया कि उनका शरीर इंदौर ले जाया जा रहा है। ख़ामोश हो जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। वे अपना काम पूरा करके घर लौट रहे थे। मैंने मन ही मन प्रणाम कर लिया।

7 comments:

satish aliya said...

joshi ji ko naman, aapke sansmaran ko padkar ek aur phloo pta chla.

अविनाश वाचस्पति said...

सब कुछ याद आएगा

वे नहीं आयेंगे अब

उनके विचार छायेंगे जब।

विनम्र श्रद्धांजलि।

रामकुमार अंकुश said...

इतने जल्दी चले जायेंगे किसने सोचा था. मनोहर श्याम जोशी कमलेश्वर और अब प्रभाष जी... अपूरणीय क्षति... उनका लेखन हमेशा युवा रहा.. उनके बेलाग और खरे वैचारिक तेवर हमेशा हमारे साथ रहेंगे....
उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि..

अजित गुप्ता का कोना said...

आज आपका ब्‍लाग देखकर प्रसन्‍नता हुई। आप उदयपुर आए और मेरा दुर्भाग्‍य रहा कि मैं आपसे मिल नहीं पायी। मैं उन दिनों मुज्‍जफर नगर गयी हुई थी। आज आपके ब्‍लाग को देखकर आपने जन्‍मस्‍थान मुज्‍जफर नगर के बारे में जानकारी मिली। प्रभाष जी से अभी एक साल पहले भोपाल में मिलना हुआ था, वे हिन्‍दी के लिए समर्पित व्‍यक्तिव थे। भोपाल में उनका सम्‍बोधन मील का पत्‍थर था। उस पर चर्चा होनी चाहिए।

अनुनाद सिंह said...

"कोई पत्रकार आज हिंदी में ऐसा नहीं जो हिंदी के सवाल को जन्म मरण का सवाल समझता हो। अधिकतर हिंदी के पत्रकार हिंग्लिश के पत्रकार हैं। उन्हीं का दम था कि जनसत्ता को उन्होंने हिंदी का शीर्ष पत्र बना दिया था।"

प्रभाष जी की आत्मा को शान्ति मिले। हिन्दी को उनसे सदा प्रेरणा मिले। उनके जैसे स्पष्टवादी और स्वभाषाप्रेमी हिन्दी को मिलते रहें।

विनम्र श्रद्धांजलि !

सुशील छौक्कर said...

प्रभाष जी इस दुनिया से चले गए पर हम जैसे पाठकों के दिलों में उन्होंने जो जगह बनाई है उसमें वो सदा रहेंग़े।

गिरिराज किशोर said...

Ajita ji, mujhe Dr. Ap Gupta ne apke bare mai batya tha. Apse bhent nahi ho saki. Joshi ji ne hindi ko nai shabdawali dee.