घनश्याम केवट डाकू था, अच्छा हुआ मारा गया। जिस तरह वह मारा गया उससे तो लगता है कि वह किसी को भी मार सकता था। कितना बहादुर है आपकी पुलिस उस अकेले पर 51 घंटों के बाद 500 जवान भारी पड़े। ऐसे में उसे क्या हक़ था जीने का। अगर वह जीता रहता तो वह उत्तर प्रदेश की दो लाख जवानों की सबसे बड़ी वाहिनी की बेइज़्ज़ती का कारण बनता। आपकी भी। मै तो सवेरे से मना रहा था कि चाहे जो हो आपके डी जी पी साहब का बड़बोलेपन पर आंच न आए। आप भी उस आंच की झांव से न बचतीं। 51 घंटे आपके शेर उससे जूझते रहे। वह बेशर्म नंग अकेला उनके कपड़े उतारने पर लगा रहा। ऐसा लगता था कि वह अपनी रिश्तेदारी में छकड़ों में गोलबारूद भर कर लाया था। इसिलए डी जी पी साहब कह रहे थे कि हमारे पास गोली बारूद की कमी नहीं है और न मैन पावर की। पावर में तो डी जी पी साहब, वही 21 पड़ रहा था। उस अकेले की पावर और आप सबकी पावर। बुरा मत मानिए ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होता है। यह बहादुरी नहीं बेशर्मी है। 500 जवान गोलियां दाग रहे हैं आपको यही पता नहीं कि वह कहां बैठा है। बीच वीच में ऐसे चुप हो जाता था जैसे टैं बोल गया। जब मरने की तसदीक करने आई जी, डी आई जी या अन्य कोई आगे बढ़ा पता नहीं कहां से जी उठा और टिका दी गोली। यह तो तमीज़ से गिरी हुई बात हुई ना। एक आई जी ज़ख्मी, एक डी आई जी मरते मरते बचे। चार जवान तो मारे ही गए। आपके ए डी जी भी गोली खाते खाते बचे। वे तो चढ़ ही गए थे खपरैल पर, वह तो किस्मत ने बचा लिया। उस के खरोच भी नहीं आई।
पूर्व डी जी पी प्रकाश सिंह कह रहे थे मुठभेड़ तो पांच पांच दिन तक चल सकती है। आश्चर्य तो इस बात का है वह अकेला आदमी और दूसरी तरफ़ आदमी दर आदमी। एक से एक ज़हीन और प्रशिक्षित अफ़सर, वह अकेला। यह कहना कि पुलिस के पास मौरटर वगैरह आधुनिक हथियार नहीं थे कोई मायने नहीं रखता एक आदमी एक हथियार के सामने इतने हथियार नाकाफ़ी कैसे हो सकते हैं। मुख्यमंत्री जी, उसने दस हज़ार गोली या एक लाख गोलियां चलाई होंगी आपके पांच सौ अफ़सरों और जवानों ने लाखों लाख गोलियां झोंक दी होंगी, मानो किसी राजे महाराजा के यहां हर्ष फ़ायरिंग हो रहा हो। न हमारे पास मुख़बिर की सूचना और न हमारी सी आई डी किसी काम की। बिना टारगेट के फ़ायरिंग का मतलब अलल टप्प निशाना लगाना। आपकी सेना की तीन सर्किल्स में तैनाती थी। सब व्यर्थ जबकि वह बिना सोए खाए लगातार मोर्चा ले रहा था। आपकी फोर्स खाना भी खा रही थी, सिलसिलेवार आराम भी फरमा रही थी। जब घनश्याम भागा बकौल अखबारों के पी ए सी के कुछ लोग लेटे बैठे थे कुछ खाने में मुबतिला थे। 51 घंटे लगातार डटे रहने के बाद उसे वही मौक़ा मिला उसने भरपूर फ़ायदा उठाया। साहरा के फ़ोटोग्रफरों ने देख लिया लेकिन हमारे जवानों और अफसरों की आंख नहीं देख पाई। यह कैसी विडंबना है। दो किलो मीटर तक उस हालत में भी दौड़ता चला गया। आख़री सांस तक उसने लोहा लिया। वैसे तो लोहे से ही लोहा लिया जाता है। अगर नाले में न छुपता तो शायद ए डी जी ब्रजलाल जी अपनी पीठ थपथपाने के मौक़े से महरूम रह जाते।
मैं कई बार सोचता हूं कि कि चीन के साथ हुई लड़ाई में जनरल कौल चीन के आक्रमण की बात सुनकर सोते सोते अपने उन्हीं कपड़ों में भाग खड़े हुए थे जो पहने थे। सेना क्या करती, जनरल ही नहीं तो हुक्म कौन दे। कहते हैं बहादुरशाह को जब अंग्रज़ो ने गिरफ़तार किया तो उन्हें आधा घंटा मिला जिसमें चाहते तो भाग सकते थे। जब उनसे पूछा गया कि आपको आधा घंटा मिला था आप भाग सकते थे। उन्होंने कहा वहां जूते पहनाने वाला कोई नहीं था। हो सकता है यह बनाया हुआ चुटकुला हो। लेकिन परंपरा की बात है। यह डाकू तो पुलिस को 51 घंटे हलकान करने के बाद देश के सुरक्षा के ठेकेदारों की आंखों के सामने खुले किवाड़ों भागा था। जिस तरह व कूदकर भाग रहा था कोई भी दक्ष शूटर उसे मार सकता था। ताज्जुब है कि इतनी बड़ी फ़ोर्स में से किसी की नज़र भी उस पर नहीं पड़ी और पड़ी तो निशाना चूक गया। बल्कि भागने की ख़बर सुनते ही रिलेक्स पी ए सी के जवानों ने पहले पोजीशन ली फिर बंदूकें दीवार से टिका कर रख दी। कहीं यह तो नहीं सोचा भाग गया, जान बची सो लाखों पाए।
मुझे एक सवाल बराबर परेशान कर रहा है यह ठीक है कि वह दुर्दांत डाकू था उसे मार कर पुलिस ने ठीक किया। लेकिन क्या वह कायर था? यह सवाल क्या आप अपने आप से पूछेंगी? सारा गांव ख़ाली करा लिया गया था। उसकी मदद के लिए वहां कोई नहीं थे सिवाय उसकी अपनी गन के। गोली बारूद भी असीमित नहीं था। वह पुलिस वालों की तरह ज़रेबख्तर भी नहीं पहने था। गोलियों को अपव्यय करने की स्थिति में तो क़तई नहीं था। वह पुलिस के 500 जवानों से तरकीब और किफ़ायत से लड़ा। लेकिन उसने यह पता नहीं चलने दिया कि वह अकेला है और और एक गन और सीमित कारतूस के साथ इतनी बड़ी संख्या में आई गारद से लड़ रहा है। उसने अपनी रणनीति सोच समझ कर बनाई। हर एक गोली का उसके हिसाब से सदुपयोग हो। वह उनके दबाव में न आए उल्टे उन्हें अपने दबाव में ले ले। एक आदमी के लिए इतने बड़े अमले को दबाव में लेना असंभव काम था। 51 घंटे तक उसकी रणनीति पूरी तरह कारगर रही। मुझे नहीं लगता कि इन बड़े बड़े प्रशिक्षित अफ़सरों की कोई रणनीति थी। वे तो यह सोचकर फ़ायरिंग कर कर रहे थे किसी न किसी गोली पर तो उसका नाम लिखा होगा। 51 घंटे जो गालियां दागीं उनमें से किसी पर उसका नाम नहीं मिला। बल्कि उनके चार जवानों का नाम उसकी गोलियों पर जा खुदा। 11 घायल हुए। एक साहब कह रहे थे गोली चलाता था और छुप जाता था। जब कोई यह समझकर बढ़ता था वह मारा गया वह तपाक से गोली टिका देता था। मेरे सामने एक दूसरा सवाल है क्या ऐसे हिम्मती और रणनीतिकार को मारना ठीक हुआ या पकड़ना ठीक होता? इस सवाल का जवाब पुलिस वालों के पास एक ही था मार गिराना। जब वह भाग निकला तो ए डी जी से लेकर सिपही तक सबके हाथ पांव फूल गए। क्योंकि उनका उद्देश्य तो एनकाउंटर था। वह इस बात को समझ रहा था। हो सकता था वह समर्पण कर देता। लेकिन वह जान की लड़ाई लड़ रहा था। हो सकता है उसने ज़िंदगी में एक आध लोगों को बख्श भी दिया हो पर पुलिस किसी को नहीं बख्शती। जब तक उसका हित न हो। दूसरा पक्ष भी था एक नज़र उसके बेमिसाल साहस के बारे में सोचना। रणनीति प्रवरता पर ध्यान देना। उसके डकैत होने से ऊपर उठकर उसके हिम्मती होने और रणनीतिकार होने का देश और समाज के हित में लाभ उठाने की संभावना के बारे में सोचना। वहां केवल सिपाही नहीं ए डी जी रैंक के अफ़सर उस आपरेशन का सचालन कर रहे थे। वे उच्च अधिकारियों यहां तक मुखुयमंत्री तक को समझा सकते थे कि वे उससे यह कहने क अनुमति दें कि वे उससे बात करना चाहते हैं मारना नहीं चाहते। बेगुनाह से बेगुनाह आदमी पुलिस की छवि में यही देखता है कि वे आए हैं तो कुछ न कुछ करने आए हैं। अगर पुलिस दूसरे पैराए पर भी सोचना शुरू कर दे। हो सकता है मुनाहगार भी उनकी कही बात पर सोचने लगें। सिपाही दरोगा की बात पर विश्वास करे न करे लेकिन वरिष्ठतम अधिकारी और मंत्री तक विश्वसनीय नहीं रह गए। जयप्रकाश नारायण की बात पर वे लोग विश्वास कर सकते है जिनके पास न क्षमा करने का अधिकार था, न दंड देना का। जिनके पास ये सब अधिकार हैं उनकी बात तो विश्वनीय होनी चाहिए। लेकिन नहीं है। अधिकार का सकारात्मक उपयोग न हमने सीखा और न सिखाया गया। घनश्याम एक भटका हुआ बहादुर था जिसने प्रतिशोध और सताने के जवाब में मौत देना सीखा थे। अगर उसे गिरफ़्तार करके सुधारने का प्रयत्न किया जाता तो उसकी क्षमताओं का सदुपयोग क्या संभव नहीं था? वी शांता राम की दो आंखें बारह हाथ फिल्म देखकर संपूर्णानन्द जी ने सुधार गृह नाम से खुली जेलें बनाई थीं। गुरमा मिर्ज़ापुर की जेल देखने का मौक़ा मिला है। वहां कैदी खुले रहते थे। उन्हें काम करना, उनकी ग़लतियों को सुधारना, नमाज़, कीर्तन आदि सिखाया जाता था। लेकिन अब राजनीति से किसी को फुर्सत नहीं। गांधी जी को नाटक करने वाला कहकर अपनी भड़ास निकालने वाले इन सब बातों के बारे में शायद जानते भी न हों कि कै़दियों के संदर्भ में इतना महत्त्वपूर्ण प्रयोग गांधी जी का अनुसरण करके हो चुका है। दरअसल डाकुओं को मारना या बिना सुनवाई के गरीब और बेसहारा अंडरट्रायल्स का जेलों में जीवन काट देना जनतंत्र के लिए लज्जाजनक है। गांधी में बुराई खोजकर और अपनी ख़ूबियों का ढिंढोरा पीटकर आप कहीं नहीं पहुंच सकते। यह मनोविज्ञानिक वास्तविकता है कि जब आप अपनी तारीफ़ करते हैं लोगों की नज़र तत्काल आपकी कमज़रियों पर जाता है। ख़ैर, जब समाज और सरकार के स्तर पर जरायमपेशा लोगों के पुनर्वास की योजना नहीं बनायी जाएगी और उसके पीछे ईमानदारी होगी तब तक पुलिस और तथाकथित दबंग उनकी हत्याओं को ही सबसे आसान तरीक़ा मानकर हत्यओं में संलग्न रहेंगे। अगर कापुरूषों की सेना में ऐसे हिम्मती लोगों का मन परिवर्तन करके, भर्ती किया जा सकेगा तो उनके टेलेंट का सही इस्तेमाल हो सकेगा। वैसे भी एक आदमी पर भले ही वह डकैत हो 500 शस्त्र लोगों द्वारा आक्रमण मानवाअधिकार का सवाल उठाता है। इन सवालों पर हुकूमत के नज़रिए से न ोचकर अब मानवीय दृष्टिकोण से सोचना शुरू करना ज़ररी है।
Saturday, 27 June 2009
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7 comments:
आपने बहुत अच्छा लिखा है।
कृप्या पैराग्राफ़ के बीच में कुछ अंतर करें और बैगराऊंड का कलर भी बदल लें पढने में तकलीफ़ होती है।
वो डाकू अकेला ५०० से इसलिये लड़ पाया क्योंकि उसे जान का डर था और उसका इस पेशे के अलावा और कोई पेशा नहीं था परंतु इन ५०० के पीछे रोने वाले भी बहुत थे और केवल इतने से रुपयों के लिये भी भला कोई अपनी जान जोखिम में डालता है क्या !!
डाकू के मानवाधिकार का बहुत पक्ष नहीं लूंगा मैं।
डकैत का शौर्य लोक गाथा बन सकती है। और क्या?
ज्ञान दत्त जी, कम से कम इस तरह से कहना शोभा नहीं देता है. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी ग्वानतानामों के लिए इन शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकते हैं.
क्या आपने उत्तर प्रदेश के हालात देखे हैं? ऐसी राजनीतिक व्यवस्था जहाँ लोकतंत्र का (की) व्यवस्थापक राजाओं,सामंतों के कथित ऐश्वर्य को मात देता हो. सामान्य मानवाधिकार से वंचित जनता का एक उदाहरण पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को देखकर किया जा सकता है.यह ग्रामीण शोषित और लोकतंत्र की संभावनाओं से कतई रहित जनता मुंबई, दिल्ली जाने को अभिशप्त है(औप भइय्या सुनने को भी, और जहाँ राजठाकरे की मार खाने को भी). वे यदि इन ज़गहों पर न जा सकें, तो नक्सली बनने को मज़बूर हो जाते हैं. सरकार ने 100 दिन के रोजगार का वादा तो कर दिया (और मान भी लेते हैं कि वह सबकों मिल भी जाता है, जिसकी संभावना बिल्कुल कम है), तो क्या सबकुछ हो जाता है. अरे भूख तो 365/366 दिनों में हर दिन दो बार लगती ही है.
और फिर अंत में, केवट डाकू था, इसलिए उसके मानवाधिकार नहीं.ठीक. परन्तु घोटाला करने वाले राजनेता, नौकरशाह, बडी कंपनियों के मालिक, बैंकों के मालिक इन सबके मानवाधिकार है. ठीक कहते हैं, हमें लोकतंत्र के दायरे में रहकर लूट करने वालों के मानवाधिकार का समर्थन करना चाहिए.
गिरिराज जी इस पोस्ट के लिए शुक्रिया.
एक कसाब सारे तंत्र पर भारी पड़ रहा है - पकडे़ जाने के बावजूद!!!!!!!!!!! यही तो है आतंकवादी की छूट और देश की लूट का नतीजा:)
Ghatna ke dusre pahlu ko bhi ubhaar kar aapne ise ek vicharniya swaroop de diya hai.
Aap ise kewal daku ki drishti se dekh rehe hain. Kya aap sure hain ki mara gaya vyakti Ghanshsam kevat tha?
uski pahchan karai gai?
Police mai dabi zaban se charchacha kar rahe hain ki veh kevat nahi tha. agar yae galat hai to kya hum uski yudh kshmta ko appriciate nahi kar sakte. bure vyakti ki khubiyon ko bhi jagah milna kya galat hai?
गिरिराज जी,
बहुत अच्छा लगा आपके ब्ल़ॉग को देखकर...थोड़ा देख लू फिर आपसे बात होगी..
विमलेश त्रिपाठी
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