Monday, 22 June 2009

कहां आ रहे हैं हिंदी-चानी

जून 09 के सभी समाचर पत्रों में एक ख़बर छपी है ‘सावधान, आ रहे हैं हिंदी-चीनी’। हिंदी चीनी जब साथ छपा देखता हूं तो मैं चौंक जाता हूं । चाऊ एन लाइ और नेहरू ने हिंदी चीनी भाई भाई का नारा लगाया था उसका नतीजा जो हुआ उसने सबसे पहले नेहरू की ही बलि ली। ईश्वर के लिए दोनों को साथ साथ न रखो। कुछ पता नहीं कब क्या हो जाए। अभी तक तो यही देखने में आया कि चीनी हिंदी न साथ रहे, न आए, न गए। भारत एक दिशा चलता है चीन दूसरी दिशा। चीन और चीन के गुर्गे भारत पर मौक़ा मिलते ही झपटते हैं और हर काम के लिए उसे दोषी करार दे देते हैं। यह तो हिंदुस्तान की सहनशीलता है कि हर हाल ख़ुशी हर हाल अमीरी है बाबा, जब आशिक मस्त फ़कीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा। जब पोरस हारा तो उसने न अपना आपा खोया और न दूसरों को खोने दिया। लेकिन यह समाचार बिल्कुल भिन्न था। दरअसल अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा साहब ने अपने देश के लोगों को आगाह करने के लिए विंस्कानसन में हुई एक बैठक में यह कहा थी। अपने देश के बच्चों की शिक्षा को लेकर वे चिंतित हैं। उनका मानना है कि हिंदी चीनी अधिक मेहनती और मेधावी हैं। अमेरिका के बच्चे फिसड्डी होते जा रहे हैं। इस तरह की चिंता व्यक्त करने वाले वे पहले राष्ट्रपति हैं। उनकी यह चेतावनी कि अब कमर कसकर सावधान होने की ज़रूरत है क्योंकि हिंदी और चीनी अमेरिका आ रहे हैं। अमेरिकन बच्चों को डराने के लिए कि हव्वा आ रहा है। यह ओबामा के मन का डर है। मेरे विचार से ओबामा ने शपथ लेने के दो तीन महीने में अपने देश की शिक्षा का जायज़ा ले लिया और अपने देश को आगाह कर दिया कि देश की शिक्षा पद्धति में सुधार लाने की ज़रूरत है। इस तरह की चिंता हमारे देश के किसी नेता ने कभी व्यक्त नहीं की। जिस देश में शिक्षा शिक्षाविदों की जगह दोयम दर्जे के नौकरशाह चलाएं वहां कौन कह सकता है कि नेता शिक्षा के प्रति चिंतित हैं। हमारे नेता गाहे बगाहे ज़िक्र कर दिया करते हैं। अमेरिका आज भी सबसे शक्तिशाली और अमीर देश है। उसके बावजूद ओबामा चिंतित है कि अमेरिका 100 वर्ष तक समृद्धिशाली और शक्तिशाली देश रहा अगर छात्र वीडियो गेम और टी वी में समय बिताएंगे तो हिंदी चीनी आ धमकेंगे। हिंदी चीनी बच्चे वीडियो गेम्स कम खेलते हैं और टी वी भी कम देखते हैं वे मेधावी और परिश्रमी भी हैं। अमेरिका पी एच डी़ ग्रेजुएट्स, इंजिनियर्स, वैज्ञानिक सबसे अधिक पैदा करता था अब उसमें गिरावट आई है। जब शिक्षा की बात आती है तो वह दूसरे देशों से ऊपर नहीं है। दुनिया के देश प्रतिस्पर्धाधर्मी होते जा रहे हैं हमें भी अपनी गति बढ़ानी होगी। संदेश के साथ साथ यह चुनौती भी है।
हिंदुस्तान में चीन और अमेरिका से अधिक विश्विद्यालय हैं। इसके बावजूद बेरोज़गारी का प्रतिशत भारत में इन दोनों से अधिक है। नए विश्विवद्यालय और आई आई टी खुल गए हैं या खुलने की प्रक्रिया में हैं। प्राइवेट मेडिकल कालिज, बिज़नेस मैनेजमेंट संस्थान भी खुल रहे हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे संस्थान हैं जिनका उद्देश्य शिक्षा हो। अधिकतर प्राइवेट संस्थाएं उन्हें आमदनी का ज़रिया बनाए हुए हैं। 14 जून के अखबारों में निकला था कि कानपुर विश्विद्यालय के स्वपोषित बी एड कालिजों ने एक अरब सत्तर लाख रुपया निर्धारित फ़ीस के अलावा इकट्ठा किया। यह कैसी विडंबना है। स्वपोषित इंजिनियरिंग बिजनेस-मैनेजमेंट कालिज तो लाखों में केपिटेशन फीस वसूल करते हैं। अभी उत्तर प्रदेश में 18 हज़ार सिपाहियों की भरती हुई थी। सरकार बदलते ही उन नियुक्तियों को निरस्त कर दिया गया। लोग एक से तीन लाख रुपया देकर भर्ती हुए थे। उसके लिए लोगों ने घर ज़मीन ज़ेवर बेचकर रिश्वत देने के लिए धन जमा किया था। ज्वायन कराने के बाद नई सरकार ने उनको बर्खास्त कर दिया। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्टे के आदेश ने उन्हें बहाल कर दिया। इस बीच 100 से अधिक लोगो ने इस सदमे के कारण आत्महत्याऐं कर लीं कि सब कुछ बिक गया अब गुज़ारा कैसे होगा। सरकारों में लगता है मनुष्य नहीं रहते केवल कुर्सियां होती हैं। कुर्सियों में संवेदना नहीं होती। सवाल है कि ओबामा साहब को ऐसा लगना कि हिंदी या चीनी आ रहे हैं अपने देश में बढ़ती बेरोज़गारी की दृष्टि से भले ही ठीक है पर भारत के नज़रिए से चिंताजनक है। वे लोग जो यहां से वहां जा रहे हैं उनको संस्थाएं उनकी ज़रूरत के हिसाब से तैयार करती हैं। इस देश की ज़रूरत के हिसाब से उन्हें न तैयार किया जाता है और न वे उन्हें जानते समझते हैं। जिन प्रोबलम्स से वे जूझते हैं अधिकतर बाहरी देशों की होती हैं जो प्रोजेक्ट के रूप में वहां से आती हैं। इसलिए वे खपते भी वहीं हैं। वे मारे जाएं या पीटे जाएं रहंगे वहीं। इसका कारण मां बाप भी हैं वे होश संभालते नहीं उन्हें ठूस ठूस कर यह समझाना शुरू कर दिया जाता है कि उन्हें मैनेमेंट या इंजिनियरिंग या दूसरे विषय जिनकी वहां मांग है पढ़कर अमेरिका या जर्मनी आदि देशों में जाना है। इसलिए नहीं कि इससे देश का गौरव बढ़ेगा बल्कि इसलिए कि डालर मिलेंगे। उसके लिए बच्चों को बचपन से तैयार किया जाता है। मातृभाषा से विमुख करके पब्लिक स्कूलों में पढ़ाना, उनकी साहित्य संस्कृति और संवेदना की रीढ़ तोड़ना सबसे पहला काम होता है। मैकोले का यही गुरूमंत्र था। मां बाप यह तक जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके बच्चे स्कूलों में क्या सीख रहे हैं। वे केवल टेस्ट कापियों में दिए गए नंबर देखकर उनकी गिटपिट सुनकर आश्वस्त हो जाते हैं कि बच्चा उनकी मनचाही दिशा में जा रहा है। उन्हें तब पता चलता है जब बच्चों का मानवीय संवेदना कोश ख़ाली हो चुका होता है। जब वे उनके सुख दुख पैसे से तोलने लगते हैं। दरअसल, ओबामा साहब हम टैक्नीकलाजी में प्रशिक्षित गुलाम बेचते हैं। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं कि वे कितनी अवधि के बाद अपने वतन लौट आएंगे। लौटेंगे भी या नहीं। या तभी लौटेंगे जब निकाले जाएंगे। वे ग्रीन कार्ड ले लें या नागरिकता ले लें मुझे नहीं मालूम कि उनके पितृ देश से पूछा भी जाता है या नहीं। न इस तरह के अनुबंध का कोई प्रावधान ही है कि अगर उनके यहां कोई हादसा हो जाए तो उसका कोई मुआवज़ा मूल देश या घरवालों को देंगे। देंगे तो किस हिसाब से। आस्ट्रेलिया में भारतीयों के साथ जो नृशंस व्यवहार हो रहा है, मां बाप की बुढ़ापे की लकड़ी तोड़ी जा रही है उसकी चिंता न वहां की सरकार को है और न हमारी सरकार को। हुज़ूर, आपके महान देश में भारतीय छात्रों की कैंपसों में हत्याएं हुई हैं। किसने क्या किया। ओबामा साहब इससे सस्ता सौदा और क्या होगा? दरअसल अंतर्राष्ट्रीय कानून या परंपराएं योरोपिय और पश्चिमी देशों की जरूरतों के नज़रिए से बनाए गए हैं। अब जब मंदी के फेर में विकसित दुनिया पड़ी तो आपको इसका गणित समझ में आया कि अगर हमारे देश का युवा वर्ग चीनी और हिंदी जैसा मेधावी और मेहनती होता तो इतना धन बाहर न जाता। आप तो बेहतर समझते हैं गरीब का बच्चा चाहे देश हो विदेश, आसायश में वक्त बरबाद नहीं करता अपनी हालत सुधारने के लिए पहले हाथ पैर मारता है। आपने तो स्वयं सहा है। अमीर और साधन संपन्न मग़रूर भी हो जाता है और अपने शौकों की परवरिश बच्चे की तरह करता है। हमारे देश के अधिकतर मेधावी बच्चे उसी गरीब वर्ग के होते हैं। लेकिन उनको संवेदनाहीन बना के दूसरे देशों में भेजा जाता है। इसे आप संवेदना का वन्ध्याकरण भी कह सकते हैं। जिससे वे आपके लिए समस्या न बने। इतना उत्साह भर दिया जाता है कि देशज दुख सुख उन्हें सालते नहीं।
आपका यह कथन भले ही हमें अपने बच्चों की फिलहाल प्रशंसा महसूस हो। हम कुछ समय हर्षित भी हो लें पर वह आपके बच्चों को ईर्ष्या से भरने के लिए काफ़ी हैं। नतीजा वही होगा जो आस्ट्रेलिया में हो रहा है। उन्हें बचाने के लिए बहुत कुछ कहा और किया जाएगा पर अंततः यही होगा उनका न शहीदों में नाम रहेगा न देश भक्तों में। जो लौटेंगे वे सपनों का मलबा लादे। आपका यह भाषण हमारे पक्ष में न होकर विरुद्ध है। ईर्ष्या ऐसी आग है जो नज़र नहीं आती पर धीरे धीरे आधार को ख़ाक कर देती है।

5 comments:

अभिषेक मिश्र said...

Aapki chinta jayaj hai. Obama sahab ki yeh soch swasth pratidwadita ke sthan par irshya ko hi prerit na kar de !

Science Bloggers Association said...

चिंता का विषय।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

ओबामा अपनी शिक्षा पद्धति का जायज़ा ले रहे है तो हमारे सिब्बल जी भी कम नहीं - वो तो अब दसवीं की परीक्षा भी रद्द करने की फ़िराक में है! कौन परीक्षा की झंझट झेले- आखिर सभी पढे-लिखॊं को विदेश ही जाना है:)

गिरिराज किशोर said...

Sawal Bahut bada hai ki ek bata hui samsyaon ka desh kya kare? rajnitik star par hum American vyavsayikta ko Shiksha mai mahtva de kar apni jadon ko khokla kar rahe hain, veh zyada mahtve purn hai, . Choti Choti Smasyon mai shiksha ko uljha kar bade udeshyon ko nazar andaz kar rahe hain. Dress Code hamare liye zaroori ho gya, Highier ED arambhik education ke mukable adhik zaroori hai. Jaden Kamzor hongi to ham doosri kheti adhiuk asani se ka r payenge. Dasvin tak to hamari shiksha Easy cycling mai ajayegi. UP board mazboot tha lekin ab sab dhan 22 paseri. Ek rai banani hogi jisse hum matri bhashon ko mazboot karen Paramparagat maths ko sawanr saken. Aunch Pauncha Tables to khatm ho gai, Pahade khatma hai desi gan na khatm hai. Mai adhunik Shiksha padhati ke khilaf nahi hoon per apni shiksa padhati ke khilaf bhi nahi hoon.

गिरिराज किशोर said...

Is szaoori hai.amsya per vistar se bat hona