साहित्य, संवेदना भाषा परंपरा
साहित्य यानी भाषाई साहित्य हमारी पहचान है। लेकिन माना जाता है कि जो साहित्य अंग्रज़ी में लिखा जा रहा है वह देश की पहचान है। ज़िंदगी से हम जूझते हैं उसके साथ दो दो दो हाथ हम भाषाई लोग करते हैं, भूख और तिरस्कार हम ओटते हैं। लेकिन वे लोग जो अपनी भाषा की जगह बाहरी भाषा में उसका रूपांतरण कर देते हैं, और जिसको विदेशी भाषा भाषी स्वाद बदलने के लिए या अपनी ज्ञान वृद्धि के लिए सोर्स सामग्री मानकर, अपना गवेषणा का आधार उस आयातित ज्ञान मंजुषा को सजा कर ख़ुश होते हैं, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं। मैं इस बात के खिलाफ़ नहीं कि हमारा अनुभव बाहर न जाए। ज़रूर जाए पर उसकी दो शर्तें होनी चाहिएं एक तो ज़मीनी अनुभव यानी लेखक जिसे ज़मीन से जु़ड़कर अर्जित करता है और उसे अपने अनुभव की भाषा में अभिव्यक्त करता है उस प्रक्रिया के साथ संलग्नता। दूसरी जातिय पहचान। अनुभव की भाषा ही अनुभवों को बिंब और जीवंतता देती है। मैं य़ह नहीं कहता कि अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं में संवेदनात्मक बिंब और जीवन के जीवंत चित्र संभव नहीं होते। ख़ूब होते हैं। शेक्सपियर मे मिलने वाली भाषाई चित्रात्मकता कालीदास से सर्वथा भिन्न है। चाहे प्रकृति हो या मानव मन की स्थितियां हों। कोई भी बड़े से बड़ा विदेशी कलाकार या लेखक मेघों को विरहिणी प्रेमिका का दूत बनाकर पर्वत पर्वत, जंगल जंगल, मौसम मौसम प्रीयतम के पास संदेश लेकर भेजने की कल्पना नहीं कर सकता। अगर करेगा तो परिवेश के साथ उसकी अंतरंगता कालीदास जितनी गहरी शायद न हो। इसी तरह शेक्सपियर की तरह ‘कमज़ोरी का नाम ही औरत है’ कहने में भारतीय लेखक को बहुत कसरत करनी पड़ेगी। दुर्गा काली सरस्वती सब सामने आ खड़ी होंगी। वातावरण और प्रकृति, संवेदना और भाषाई अभिव्यक्ति का अंतरंग स्त्रोत होती है। हम अपनी मातृ भाषा में ही जीते हैं। वही हमारे अनुभव और अभिव्यक्ति की कमलनाल है।
सवाल उठता है कि इस कमलनाल को हम दूसरी भाषाओं में कैसे प्रत्यारोपित करते हैं। क्या क़लम बांधते हैं? क़लम परिवर्धन नहीं करती। वह अपने स्टेम पर ही अपने रंग का प्रस्फुटन करती है। इसीलिए कलम के नीचे फूटने वाली देसी कल्लों को तोड़ते रहते हैं। वैसे कलम बांधकर उसे सुरक्षित रखना भी एक कला है। दूसरा विकल्प है विदेशी संस्कार या सभ्यता के लिए हम अपने साहित्य को पनीर की तरह उपयोग में लाते हैं। यानी जिस देसी पौध पर कलम बांध रहे हैं वह मूल रूप में मौजूद रहता है लेकिन रंग वही होते हैं जो आयातित संस्कार उसमें कलमबंद किए गए हैं। हिंद स्वराज में विदेशी सभ्यता को शैतान की सभ्यता कहा गया है। साहित्य चाहे वह किसी भी देश या सभ्यता से ताल्लुक रखता हो वह केवल समाज का ही नहीं अपनी संस्कृति और सभ्यता का भी संवाहक होता है। हमारा साहित्य हमारे जातिय संस्कारों और चिंतन को अभिव्यक्त करता है। भाषा, अनुभव, अनुभूति और चिंतन सब कुछ उसे अपनी जड़ों से मिलता है। लेकिन हमारे अनेक लेखक जो अंग्रेज़ी में लिखते हैं अधिकतर की विषय वस्तु विदेशी पाठकों को ख़ुश करने वाली होती है। सेक्स एक ऐसा माल है जो विदेशी बाज़ार में ख़ूब खपता है। जब ‘व्हाइट टाइगर’ को बुकर सम्मान मिला तब बुकर संस्था के पूर्व अध्यक्ष ने कहा था कि भारतीय अंग्रेज़ी लेखक अधिकतर सेक्स ओरियन्टेड उपन्यास लिखते हैं। अपने देश के बारे में क्यों नहीं लिखते? अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय लेखकों पर इस तरह के विदेशी विद्वान आलोचकों की बात का कोई असर होता है या नहीं यह तो कह सकना किठन है हालांकि देश के अनेक विद्वानों को सेक्स के प्रति उनका अतिरिक्त आग्रह अखरता है। क्या उनके ऊपर बाज़ार का दबाव है। जब टाल्सटाय का उपन्यास ‘वार एण्ड पीस’ आया था तो सामान्य पाठक रूस के बारे में कम जानते थे। लेकिन संवेदना और जीवनाअनुभव की व्यापकता के कारण भारत के ही नहीं संसार भर के पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया था। स्व. रोडारमल द्वारा किया अनुवाद गोदान का अंग्रेज़ी अनुवाद अमेरिका में उसके व्यापक सामाजिक संदर्भों के कारण शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है।
इन सब बातों के पीछे मेरे कहने का तात्पर्य केवल यह है भले ही राजनीतिक कारणों या अंग्रज़ी की चकाचौंध से हिंदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य हाशिए पर है लेकिन भारत के जीवन की विविधता भारतीय भाषाओं के साहित्य में है। उदाहारण के लिए संसार के 19वीं सदी के सबसे ऐतिहासिक और त्रासद भारत विभाजन पर उपन्यास अंग्रज़ी में नहीं लिखा गया जबकि बड़े बड़े अंग्रेज़ीदां प्रशासक और विचारक विभाजन से जुड़े थे। उन्होंने जीवनियां लिखीं लेकिन साहित्य ओर उस समय की बनते बिगड़ते सांस्कृतिक परिवेश की तरफ़ न्यूनतम नज़र गई। अलबत्ता हिंदी उर्दू में ज़रूर लिखे गए। यशपाल का झूठा सच, उदास नस्लें भीष्म जी का तमस इसके उदाहारण हैं। जब मैं मारक्वेस की रचनाऐ़ं पढ़ता हूं, ख़ासतौर से हंड्रेड ईयर्स आफ सालिट्यूड पढ़ते हुए तो मैं चकित रह जाता हूं कि अपने सीमित देशज परिवेश में विश्व की संस्कृति को अपने अंदाज़ में समेट लेते हैं। चाहे नियोग हो या उन ख़ित्तों में होने वाली लड़ाईयां हों या अंधविश्वास हों। लोक कथाएं हों या परास्वप्न हों और हज़ारो मील दूर भारत से आने वाली कथा परंपरा और भविष्यवाणियों के संदर्भ और भोजपत्र पर संस्कृत में लिखा इतिहास हो। संवेदना और कथा संदर्भों का ऐसा विलक्षण जुगाड़ और ऊनको आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता ही उसे महान बनाती है। एक समानान्तर महाभारत की संकल्पना अपनी धरती और परिवेश में रोपित करना इस बात का द्योतक है कि लेखक इस ख़तरे को उठाने के लिए तत्पर है कि अस्वीकृति उसकी रचनातमकता को किसी हालत मे छोटा नहीं कर पाएगी। वह भी अपनी भाषा में। शायद ज़मीन से जुड़कर रेंगने की अदम्य शक्ति ही लेखक को ऊपर और ऊपर उठाती है। मैं अंग्रेज़ी काम भर की जानता हूं। लेकिन जब भारतीय अंग्रेज़ी लेखकों की रचनाएं पढ़ता हूं तो मुझे अकसर महसूस होता कि जिस तरह वे स्लैंग का इस्तेमाल करते हैं वह मूल विदेशी लेखकों के स्लैंग प्रयोग से भिन्न होता है सच कहूं तो कमज़ोर होता है। कई बार तो नक़ल लगता है। अंग्रेज़ी के एक भारतीय उपन्यास में भाई बहिन के प्रेम संबंध को काफ़ी खुलेपन से प्रदर्शित किया गया है। उसके बारे में संभवतः टाइम मैगज़ीन में राइटअप पढ़कर काफ़ी आतंकित हुआ था। बोल्ड तो था। नग्नता शायद किसी शक्तिशाली तानाशाह के विरोध से भी अधिक बोल्ड होती है। लेकिन संलग्नता और समरसता की दृष्टि से वह कमज़ोर था। दरअसल वह लेखक की ख़ता नहीं। जिस पृष्ट भूमि से कोई भी भारतीय लेखक आता है उसमें उन स्थितियों के लिए जिन्हें वह गढ़ रहा है अगर उसमें उनके अनुसार न सटीक बिंब हों और न भाषा संसार तो वह गढ़ा हुआ कहा जाएगा। स्थितियों से अपरिचितता रचनात्मक संवेदना को क्षति पहुंचाती है। भाषा उधार ली हुई हो तो लुहार की तरह ढांचा खड़ा करके बढईगिरी करके सजाना अनिवार्य हो जाता है। यह तब तक करना होता जब तक वह संवेदना समाज पर आरोपित न कर दी जाय। क्या यह संभव है कि आयातित माल को अपना उत्पाद मानकर हम हम आत्मसात कर लें? यह किसी भी संवेदनशील साहित्यिक समाज के लिए कठिन परीक्षा होगी।
Monday, 15 June 2009
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2 comments:
बधाई व शुभकामनाएं....! मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है...
Sahi kaha aapne ki Bhashai Sahitya ki vividhta anuvadit aur angreji lekhan mein nahin jhalak pati.
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