शिक्षा जान का जंजाल
आज संसार के सबसे बड़े जनतंत्र का चुनाव हो रहा है। मुद्दे क्या हैं? कुछ नहीं। विदेशों मे जमा धन 100 दिन में ले आऐंगे जनता को क्या मिलेंगा? ऐसा लगता है अडवानी जी प्रधानमंत्री बनते ही आर्डर देंगे और स्वीटज़रलैंड के बैंक दरवाज़े खोल देंगे देश का सारा धन साइफ़न होकर देश में आ जाएगा। क्यों बेवकूफ़ बनाते हैं? आपके ज़माने में ही तो दाउद के चेले का प्रत्यार्पण का किस्सा चालू हुआ था। पुर्तगाल से लाने में कितना पैसा फुंका और कितना वक्त लगा। लिखकर देना पड़ा कुछ भी हो जाए फांसी नहीं देंगे। क़बुल की तरह फिर समर्पण। जो सरकारों को करना चाहिए और कर सकती हैं वह तो करती नहीं आसमान से तारे तोड़कर लाने की बात करती हैं। सबसे पहली प्राथमिकता तो थी बच्चों की शिक्षा की। साठ साल में कितना और क्या हुआ? वही नंगा ढाक। उस पर तीन पात भी नहीं आए। बच्चों की शिक्षा, भाषा और जन सुरक्षा। कभी सोचा कि क्यों नही आए? आपको एक दूसरे पर दोषारोपण से फ़ुर्सत मिले तो कुछ हो। बच्चे आपके मतदाता थोड़े ही हैं जो आप उनके लिए कुछ करेंगे। बड़े लोगों के बच्चों के लिए तो विदेश हैं ही। आप कहेंगे उनके मां बाप तो हैं मतदाता। मां बाप कई तरह के हैं, उनकी आवश्यकताऐं और प्राथमिकताऐं भी उतने ही तरह की हैं जितने तरह के वे स्वयं हैं। उसका फ़ायदा सरकारें उठाती हैं। जैसे जात बिरादरी ने देश को बांटा उसी तरह सरकारें जन को उनकी ज़रूरतों और प्राथिमकताओं के हिसाब से फेंट रही हैं। भाषाओं को बांटा, शिक्षा को बांटा सुरक्षा को बांटा। नेहरू जी ने तो 1945 में ही गांधी के इस प्रस्ताव को धुर से ठुकरा दिया था कि देश का संचालन हिंद स्वराज के हिसाब से हो। तीन बातें तो उनके मन माफ़िक थी ही नहीं बाकी भी नहीं थीं। गांधी ने उसमें साफ़ कहा आपको हमसे बात करनी है तो हिंदी में करनी होगी। नहीं तो जाइए अपने गांव। यह बात को नेहरू कैसे बर्दाशत करते। लेकिन संस्कृति और भाषा की बात करने वाली पार्टियां भी जब सत्ता में आई इन बातों को वे भी भूल गईं। शिक्षा तो किसी के एजेंडे में था ही नहीं। था तो बंदर बांट के साथ। पिछली सरकारों ने शिक्षा को खाने कमाने के लिए प्राइवेट सेक्टर में डाल दिया। खाओ कमाओ और बिगाड़ो। भाषा बिगाड़ो, पाठ्यक्रम बिगाड़ो और उनके ज़रिए सभ्यता संस्कृति बिगाड़ो। जहां तक सुरक्षा का सवाल है, सरकारी सुरक्षा हमारे यानी नेताओं के लिए, प्राइवेट औरों के लिए। सरकारी सुरक्षा के लिए अलग अलग वर्ग हैं। जैसे हत्याएं भी पद के हिसाब से होती हैं। जैसे जैसे भयक्रांत लोग पदासीन होते गए वैसे वैसे सुरक्षा बरीक होती गई। कई बार तो आम आदमी इन लोगों को सुरक्षा में ही मारा जात है। बेइज़्जत तो हो ही जाता है।
ख़ैर, मैं बात कर रहा था शिक्षा की। हम लोगों की शिक्षा बुनियादी शिक्षा में हुई थी। सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते थे। सब काम अपने हाथों से करते थे। एक रूपया फ़ीस जाती थी। देश आज़ाद होने के बाद श्रमदान और हाथ का काम उसका हिस्सा हो गया था। मूज़्फ्फ़रनगर के गांधीनगर की सड़क बनाने में हम बच्चों ने श्रमदान किया था। जब वहां जाता था तो सड़क देखऩे भी जाता था। अगर देश बनाने में भी बाद के लोगों ने श्रमदान किया होता तो शायद देश के प्रति ऐसी ही ललक उनमें भी होती। हैलीकाप्टरों से झांकते हुए ऊपर ऊपर से न उड़ जाते। आज शिक्षा, मेरा मतलब आरंभिक शिक्षा, सबसे अधिक अधिक रट में है। उसके बारे में कोई एक मत नहीं। पब्लिक स्कूल अपना पाठ्यक्रम चलाते हैं। अधिकतर नए स्कूलों के पास खेल के मैदान तक नहीं। किताबें इतनी की बच्चे कुबड़े हो जाएं। अधिक किताबें बच्चों के हित में नहीं रखी जातीं। इसलिए रखी जाती हैं कि मैनेजमेंट स्कूल ड्रेसेज़ और कोर्स की किताबों पर कमीशन लेकर धन कमाता है। फ़ीस इतनी कि मां बाप की कमर टेढ़ी हो जाती है। छठे पे कमीशन के नाम पर दो दो चार चार हज़ार फ़ीस बढ़ाई जा रही है। यह कोई नहीं जानना चाहता कि कितने स्कूलों ने पिछले पे कमीशन्स अपने यहां लागू किए हैं। किए भी हैं या दस्तख़त कराकर आधी पौनी तनख्वाह देकर छुट्टी पा लेते हैं। दरअसल पहले ही इतने आगे से दौड़ना शुरू किया कि अब फ़ीस बढ़ाया जाना मां बाप और बच्चों के जी का जंजाल हो गया। सारे देश में फ़ीस बढ़ाई जा रही है। उत्तर भारत में तो यह महामारी बुरी तरह फैली है। जहां तक मैं जानता हूं ब्रिटिश सरकार के जमाने में कान्वेंटस को छोड़कर लगभग सब स्कूलों में कोर्स समान थे। मेयो वगैरह तो हाई फाई थे ही। लेकिन गवर्मेंट स्कूल और म्यूनिसपेलिटी के स्कूल, मास्टरों के नाम से चलने वाले प्राइवेट स्कूलों में समानता थी। बच्चों को टार्चर किया जाता है इस हद तक कि वे मर जाते हैं।मारा पीटा पहले भी जाता था लेकिन उन्हें जान से मारने के लिए नहीं। कानपुर के जिला अदालत ने गार्जियन्स की फ़ीस बढ़ाने के खिलाफ अपील ख़ारिज कर दी। कहा नहीं जा सकता जज साहब मामले के अंदर कितनी गहराई तक गए। किन बिंदुओं पर जांच की। यह देश भर के बच्चों का मामला है। हाई कोर्ट को फ़ाइल मंगाकर जांच करनी चाहिए।
अगर इसका कोई रास्ता नहीं निकलता यह असमानता बच्चों के स्तर पर बढ़ती जाती है तो निरक्षरता फ़ीस के कारण बढ़ेगी। इस महामारी को रोकने का सत्याग्रह ही एक तरीक है। स्कूलों में नाम लिखा होने के बावजूद बच्चों को न स्कूल भेजें और न फ़ीस जमा करें।
दूसरे मां बाप अपने आराम में से कटौती करके घरों पर बीस बीस पच्चीस पच्चीस बच्चों के स्कूल चलाएं। आपस में विषय बांट कर पढ़ाएं। यह एक बड़ा आंदोलन बन सकता है। यह मानव अधिकार का मामला है। आप मां बाप पर एक सीमा तक दबाव डाल सकते हैं बच्चों के पाठ्क्रम में समान बनाएं। मातृ भाषा को प्रमुखता देना इसलिए भी ज़रूरी है कि गरीब और पिछड़े बच्चों में कुंठाएं न बढ़ें। इस समय देश की तकनीकी शिक्षा चाहे जितनी आगे हो पर आरंभिक शिक्षा बड़े भारी संकट से गुज़र रही है। अगर राष्ट्र स्तर पर इसका समाधान नहीं निकला गया तो भविष्य की पीढ़ी भारतीय कम और तकनीकी ज़्यादा होगी। तकनीक भी विदेशी। हम दूसरे देशों को थैंक्यू थैंक्यू कहते घूमेंगे।
Friday, 1 May 2009
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6 comments:
सच है कि देश के साठ वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी बच्चों के शिक्षा की राष्ट्रीय नीति भी नहीं बन पाई तो इस देश का भविष्य उज्जवल कैसे होगा। शायद हमारे नेता इस अशिक्षा में ही उनका और उनके परिवार का उज्जवल भविष्य देखते हैं।
पता नहीं क्यों हमेशा यह लगता है जैसे बाकायदा स्क्रीन-प्ले लिखकर इस देश का सत्यानाश किया जा रहा है. प्राथमिक शिक्षा की हालत की जब बात करेंगे तो उसपर चिंता व्यक्त कर देंगे. लगता है जैसे चिंता व्यक्त कर देने से लगेगा कि काम कर रहे हैं.
शिक्षा और स्वास्थ सेवा, इन दो क्षेत्रों में देश की जो हालत हो गई है, उसके चलते आनेवाली पीढ़ी बहुत गरियाएगी हमें.
Sahi kaha aapne ki aaj ki pidhi ka desh se judav hi nahin hai.
krishnabihari, abudhabi
girirajji,
achhalikha aapne.siksha ka beda gark hote main 30 saal se to dekh hi raha hoon.
is desh mein public distributin system, health care facilities,police system,education system sab, corruption ki limit ko pradarshit karte hain.is desh ki raajneeti ko corruption mein aakantha duba hua kaha jaata hai aur log sab cheezon ko jaisa chal raha hai chalte rehne do ka attitude rakhte hain.sochte hain jo ho raha hai achche ke liye ho raha hai sab kuch theek ho jaayega ek din.aakhir netaon ko gaali dene wale log yeh nahi samajhte hain ya samajh ke bhi nahi samajhna chahte hain ki ye neta kahin aur ke nahi isi desh ke logon me se aate hain.sach baat to yeh hai ki grassroot level level par mulyon ka hras hua hai aur ise har warg aur star par dekha ja raha ha/sakta hai.
Sawal yeh hai ki Shiksha ko jis prakar Jatiyon aur vargon mai bnata ja raha hai yeh ek chinta ka vishye hai. Yeh sab Dhan ke bal per kiya ja raha hai. Pahle Shiksha mai kafi samanta thi.Jab Tak Shiksha mai Arthik samanta nahi lai jayegi aur vyavsaikaran band nahi hoga hamara desh varg heen samaj banne ki or agrsar nahi hoga. Nai sarkar ke samne yeh sab se badi chunauti hai.
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