Wednesday 18 August, 2010

14 अगस्त 10
प्रिय अखिलेश जी़,
आपका 9 अगस्त का पत्र मिला। धन्यवाद।
आपके इस आश्वासन से मन को अच्छा लगा कि आप ज्ञानपीठ की गरिमा बनाए रखने के प्रति कृतसंकल्प हैं यह तभी संभव है जब एक प्रोफेशनल प्रशासक की तरह स्थितियों का तटस्थता के साथ मूल्यांकन करके निष्कर्षों पर पहुंचा जा सके। व्यक्तिगत आग्रहों को नज़रअंदाज़ किया जा सके। मैं समझता हूं आप और अन्य सदस्य ऐसा कर सकेंगे।
जहां तक आपत्तिजनक शब्द निकाल कर पृष्ठ पुनर्प्रकाशित करने की बात है इस संदर्भ में दो बाते हैं 1. जितना जिसको नुकसान होना था हो चुका। चाहे ज्ञानपीठ हो या इंगित व्यक्ति हों। मुझे नहीं पता कौन कौन से शब्द निकाले गए। छिनाल तो निकाल ही दिया गया होगा। प्रोमोटेड और ओवररेटेड? जो महिला विशेष की ओर संकेत करता है। जबकि यह कहने वाला स्वयं भी इसी घेरे में आता है। इसके अलावा कितने बिस्तरों पर कितनी बार भी किसी महिला विशेष की ओर संकेत करता है। यही स्थिति साक्षात्कार में प्रयुक्त निम्फोमेनियाक कुतिया का है। उस महिला को साक्षात्कार देने वाला ही नहीं जानता आपकी पत्रिका संपादक भी जानता है, शायद। 2. आपने शब्द निकलवा दिए चटख़ारे लेने और महिलाओं को अपमानित करने की मानसिकता भी क्या निकल सकी है?
कुलपति महोदय ने मंत्री जी को अपना माफीनामा दे दिया संपादक जी ने आपको। क्या यह आभास नहीं देता कितना संयुक्तरूप से नियोजित निर्णय है भले ही अलग अलग कार्यान्वित हुआ हो। हत्या करके माफी मांगना कितना तर्क संगत है यह तो माफ़ करने वाले जानें। कई बार सोचता हूं देह हत्या बड़ी है या सम्मान की हत्या।
आपके संपादक का कथन है कि वे गोवा गए थे। जहां तक मासिक पत्रिकाओं का सवाल वे महीने की बीस तरीख को तैयार हो जाती हैं। प्रूफ रीडींग पहले खत्म हो चुकती है। संपादक महोदय पहले ही अपने संपादकीय में उस साक्षात्कार को बेबाक कहकर प्रशंसा कर चुके हैं। इस पृष्ठ भूमि में प्रबंधन उनके इस तर्क से संतुष्ट है तो बात अलग है।
हमने आपको संदर्भित पत्र में ज्ञानपीठ से संबंध न रखने की बात मजबूरी में कही है। मेरा संबंध तो ज्ञानपीठ से पुराना है। साहू शाति प्रसाद जैन, रमा जी के ज़माने से है। साहू रमेश चंद जैन से तो मित्रवत था। उनका आग्रह था कि मैं अपनी पुस्तकें ज्ञानपीठ को देता रहूं। लेकिन मैंने वर्तमान निदेशक के रवैए से आहत होकर आपको सबसे पहला पत्र लिखाथा। मुझे संदेश मिला था आप चाहें किताबे वापिस ले लें। उस वक्त तो मैं रमेश जी का आग्रह याद करके खामोश रहा लेकिन उसके बाद मैंने अपनी चार पुस्तकें दूसरे प्रकाशकों को देना उचित समझा। इस घटना के बाद अगर कुलपति और वर्तमान संपादक का युग्म ज्ञानपीठ से जुड़ा रहता है तो उपरोक्त सदेश स्वीकार करना होगा। प्रियंवद जी पिछले पत्र में अपनी इस तरह की इच्छा ज़ाहिर कर चुके हैं। बाद में अशोक वाजपेयी ने भी इस आशय की अपील की थी। मैं ज्ञानपीठ की सफलता की कामना करता हूं।

श्री अखिलेश जैन, प्रबंधन न्यासी
ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
आपका

(गिरिराज किशोर)

4 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

प्रेमचंद के ‘चमार’ के बाद अब छोनाल शब्द को भी निकाल बाहर किया :)

कुमार अम्‍बुज said...

आपके संयमित लेकिन सुस्थिर मत का समर्थन करता हुं।

राजेश उत्‍साही said...

हमें भी अपने साथ ही समझें।

गिरिराज किशोर said...

dhanyavad, lekhak prakashkon ke anusar na chalen aur unki niti ke shikar na hon to behtar hai. Sarkar ka virodh karke hum apni swatatrta ke prati pratibadhata dikhate hain lekin hamare bade bade lekhak bhi prakashkon ke anugami ban kar unka karobar chalate hain. Sab apni apni traha swatantr hain.Hame bhi apni lekhakiyye swatantrta ki raksha karne ka hak hai, Police wale aur prakashkon ke vetan bhogi agar apna adhipatya na dikhayen to behtar hai.