23 अप्रेल 2010 को लोकसभा में आदिवासी विकास के बजट पर बहस में झारखंड के पूर्व मुख्य मंत्री अर्जुन मुंडे को सुन रहा था। अर्जुन मुंडे बी जे पी से संसद सदस्य हैं। बी जे पी से हों या कांग्रेस या किसी साम्यवादी पार्टीँ से अगर बात दिल की गहराई से आती है तो असर करती है। केवल राजनीति, उखाड़ पछाड़ और जुगाड़बाज़ी हो तो बकवास अधिक लगती है। अकसर लोग टी वी बंद कर देते हैं। आई पी एल पर बात हो रही थी तो लग रहा था संभालने की नहीं गिराने उठाने की राजनीति ज्यादा है। मुझे लगा हालांकि मुंडे, सरकार के 9 करोड़ आदिवासियों के लिए केवल 32 हज़ार करोड़ के बजट प्रवधान की आलोचना कर रहे थे जो पूरे बजट का 1 प्रतिशत भी नहीं है। जैसे ऊंट के मुंह में ज़ीरा। सवाल है सरकारें आदिवासियों के विकास का गाना क्यों गाती हैं। छः साल बी जे पी की सरकार रही उसने ही कौनसा आदिवासयों को सिर से खड़ा कर दिया। इसलिए सवाल सरकारों का नहीं यह आदिवासियों के प्रति सामाऩ्य संवेदनहीनता का है। यह बात सही है कि जो भी आता है वह यही कहता है कि आदिवासियों को अंग्रज़ों ने जंगलो में बसाया। मुंडे का सवाल था कि अंग्रेज़ पहले आए या आदिवासी पहले से थे। जंगल किसके थे, किसने उनकी परवरिश की, किसने देख भाल की, किसने जंगल के ख़तरे उठाए। आदिवासियों के बारे में कहना है कि वे गरीब नहीं हैं। उन्होंने एक से एक मूल्यवान खनिज की जान देकर रक्षा की। सम्मानित चोरों की तरह विदेशियों को नहीं बेची। वे लोग जंगल के पेड़ पौधो की भी पूजा करते हैं। फल भी तोड़ना हो तो पहले इजाज़त लेते हैं। धरती की जुताई करने से पूर्व धरती माता से क्षमा मांगते हैं। तुम्हें कष्ट होगा मुझे पेट भरने के लिए खेती करने की आज्ञा दो जिससे मैं पेट भर सकूं। इसका जवाब क्या इन तथाकथित आधुनिक वादियों के पास है। सवाल है कि इन आदिवासयों को जंगलों से क्यों उजाड़ जा रहा है? दांतेवाड़ा के आसपास पता चला है कार्पोरेटस् को जगह देने के लिए आदिवासियों के लगभग 2500 गावों को उजाड़ा गया है। अभी मैंने कनाडा की संस्था संसद की एक ई मेल में देखा कि 30 मार्च को राजस्थान में एक गांव को एक औद्योगिक घराने के गुंडो ने ज़बरदस्ती उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया। लगता है इस देश में या तो सत्ता की नकेल इन व्यवसायिक घरानों के हाथ में है। या औद्योगिक क्षेत्रों की नकेल ट्रेड यूनिनों के हाथ में है। कानपुर में फ़ैक्ट्रियों की कब्रगाह इसका प्रमाण है। सवाल यह है कि गांधी के अंतिम आदमी की चिंता किसको है, क्या सरकार को या तथाकथित मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा करने के नाम पर बेरोज़गारी के गर्त में बेहतरी का झांसा देकर उन्हें उद्योगपतियों की भूख के बायलर में धकेल देनेवाली यूनियनों को। सवाल बहुत असुविधाजनक भी है और अपने अंदर झांकने के लिए गुंजायश भी पैदा करता है। इसका तोड़ जन के पास है। किसी के पास नहीं।
डा. बनवारी लाल रायपुर से दंतेवाड़ा तक शांत मार्च कर रहे हैं। इस दुहरी हत्या के विरोध में। सरकार की नीतियां भी गरीब को मारती हैं और माओवादी भी। सवाल है कि माओवादियों को ज़मीन कैसे मिली। इसपर न माओवादियों का अधिकार है न पूंजीपतियों का। वनवासियों की जमीन के अधिकार उन्हें न देकर सरमायेदारों को सेज के लिए दी जा रही है, उनकी नदियों पर मल्टीनेशनल कब्ज़ा कर रहे हैं, उनके द्वारा परवरिश दरख्त ठेकेदार और धनपति काट रहे हैं। खनिज की लड़ाई है जिसे आदिवासियों ने जानकी बाज़ी लगाकर बचाया हुआ है। उन जानवरों को जो उनके द्वारा पालित हैं, उनकी दवादारू के उपयोग में उनके अंगो के हिस्से आते हैं उन्हें व्यवसायिक शिकारी मार रहे हैं। उनके बच्चे हर साल बिमारियों से मर जाते हैं। जो बच जाते हैं वे गरीबी की चक्की में पिसते हैं। जो बच जाते हैं उन्हें आश्चर्य होता है कि वे मौत के पंजे से कैसे बच गए। सवाल है जो माओवादी उनके हमदर्द हैं और जिनके बल पर वे लड़ रहे हैं। उनका उद्देश्य भी औद्योगिकरण ही है। उसी को वे समृद्धि का साधन मानते हैं। अब औद्योगिकरण चीन में भी व्यक्तिगत सरमाए का रूप लेता जा रहा है। आगे उसका क्या रूप होगा कहना मुश्किल है। लेकिन यह निश्चित है कि सर्वहारा का दखल सैद्धांतिक फलसफा रह जाए तो रह जाए। लेकिन उन्हें भी सेज के लिए ज़मीन चाहिए, पानी चाहिए, बिजली चाहिए, जो इन सरकारों को चाहिए वह सब कुछ इन जुझारू माओवादियों को भी चाहिएगा। उनकी सत्ता बंदूक से निकलती है शायद तब भी निकले। यह बात अलग है कि उनका तरीका जनतंत्रात्मक होते हुए भी शब्द तानाशाही से जुड़ा होगा। बंदुक अब ताकत है तो तब भी ताकत होगी। हर सत्ता के अपने पूंजीपति होते हैं। व्यवसायी होते हैं। कुछ शासन के नियम होते हैं और कुछ वे अपने नियम चलाते हैं जिनकी मौन स्वीकृति प्राप्त रहती है। उसका लाभ राज्य को भी मिलता है पार्टी को भी और व्यक्तियों को भी। यह राजनीति की प्रकृति है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है, मुसीबत में जहां से सहनुभूति की बयार आती महसूस होती है सब लोग उधर ही सिमटते चले जाते हैं भले ही उसमें हिंसा की गंध मिली हो। हिंसा अगर दूसरों के लिए संभव हो सकती है तो हमारे लिए क्यों नहीं हो सकती, दरअसल हिंसा किसी को नहीं पहचानत वह साम्यवादी निज़ाम पहचानती। उन देशों में जहां खेती जीवनाधार होता है वहां समग्र औद्योगिकरण उस देश की संस्कृति की हित को हानि पहुंचाता है। खेती को पूर्ण रूप से औद्यौगिकरण में हस्तांरित करना उस देश के सांस्कृतिक़, आर्थिक टिशूज़ के लिए कीमोथरिपी की तरह है। जबकि खेती ही उस देश का स्वास्थ्य होता है वह कोई बीमारी या कमज़ोरी नहीं होती। ये आदिवासी उस पूरी उत्पादन संस्कृति की रक्षा ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उसे संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। अगर माओवादी उनकी सहानुभूति अपनी तथाकथित सहानुभूति की एवज़ में हिंसा के पक्ष में भुना सकते हैं तो हमारी जनतंत्रात्मक सरकारें क्यों नहीं भुना सकती। एक ही कारण हो सकता है कि सरकारों की पक्षधरताएं न्याय और 9 करोड़ लोगों के हितों से बड़ी हैं। सब जानते हैं अगर स्टालिन का अहं और तानाशाही प्रवृत्ति सर्वहारा और जनहित से बड़ा न हुआ होता तो सोवियत यूनियन का निज़ाम इतनी जल्दी न बिखरता। इंसान कितना भी शक्तिशाली बन जाए उसे हिंसा का रास्ता अंततः छोड़ना ही पड़ता। भले ही वह हिटलर हो मसोलोनी हो, स्टालिन हो या चीन में कल्चरल रेव्यूलूशन के प्रणेता हूं सबको अंत में वैचारिक और भौतिक हिंसा को बिना स्थायित्व प्रदान किए उस ज़मीन को छोड़नी पड़ी। समय जितना भी लगा हो। शांति और हिंसा में तो स्थायित्व होता भी है। तालाब के जल की तरह भले ही कुछ समय के लिए हलचल पैदा करने में सफल हो जाएं सब जानते हैं अंततः जल को शांत होना ही है। आप अपनी ज़िद में जल के स्रोत ही बंद करने पर उतारू हो जाएं तो बात अलग। पर यह भी सही कि दूसरे स्रोत खुल जाएंगे।
Saturday, 1 May 2010
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3 comments:
bahut khub
badhai is ke liye aap ko
sir bhut hi samyik lekh hai
जिन समस्याओं के उसकी तह में जाकर हल खोजने चाहिए... बंदूक से हल खोजे जा रहे हैं.
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