‘द गिरमिटिया सागा’ का विमोचन
यह ‘द गरिमिटिया सागा’ क्या है यह सवाल दिमाग में आना स्वाभाविक है। मैं शायद इस बारे में न लिखता क्योंकि यह अपने बारे में है। यह पहला और अलग अनुभव है। मेरे मित्र और आई आई टी कानपुर के सहयोगी प्रो. प्रजापति साह ने पहला गिरमिटिया का दो वर्ष लगाकर अंग्रेज़ी में ‘द गिरमिटिया सागा’ नाम से अनुवद किया है। लगभग 1012 पृष्टों में, संक्षिप्त करते भी फैल गया। हालांकि मूल हिंदी उपन्यास 904 पृष्टों में है। इसका विमोचन यानी लांचिंग भी साहित्यिक पुस्तकों की विमोचन परंपरा से थोड़ा अलग ढंग से हुआ। 18 मार्च 10 को, गांधी स्मृति, 30 जनवरी मार्ग नई दिल्ली के हाल में, न किसी राज नेता द्वारा हुआ और न किसी नामी गिरामी साहित्यकार द्वारा, गांधी जी की पौत्री श्रीमती तारा गांधी भट्टाचार्य ने किया। गांधी स्मृति गांधी जी के बलिदान की पुण्य भूमि है। राजेंद्र यादव, बरनवाल जैसे मित्रों को छोड़कर दिल्ली के बड़े़ लेखक कम ही शरीक हुए। किसी ने कहा तुम बाहरी हो। ज़रूरी नहीं यही ए कारण हो। हो सकता है प्रकाशक द्वारा भेजे गए निमंत्रण न मिले हों। लेकिन जिन लोगों को एस एम एस किए या फ़ोन किए, हामी के बावजूद उनमें से भी कम ही लोग पाए। महिला लेखक तो नहीं के बराबर। उनकी अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन फिर भी हाल भरा था। अपने जैसे लोग थे। जहा तक अंग्रेज़ी पत्रकारों की उपस्थिति का सवाल है हिंदी के आयोजनों में उनकी उपस्थिति स्वाति बूंद की सी होती है। एक समाचार पत्र जो हिंदी और साहित्य का पक्षधर माना जाता है उसकी अप्रत्याशित अनुपस्थिति ने चौंकया ज़रूर। वाजिब कारण हो सकते हैं। रुख़ की भी बात होती है।
द गिरमिटिया सागा दिल्ली के नियोगी बुक्स(डी 78, ओखला इंडिस्ट्रियल एस्टेटफेज़ 1,नई दिल्ली 20) ने छापा है। एक साल से अधिक लगा। वैसे वे एकेडेमिक पुस्तकें छापते हैं यह पहली पुस्तक है जो उपन्यास की श्रेणी में आती है। व्यवसायी से अधिक एक उत्साही और संवेदनशील प्रकाशक। लोगों का कहना है कि प्रोडेक्शन विश्व स्तरीय हुआ है। ख़ैर इस मामले में पाठकों की राय सर्वोपरि होगी। इस अवसर पर प्रो. इन्द्रनाथ चौधरी एवं श्री निर्मलकांत भट्टाचार्य ने अपने अपने पर्चे पढ़े। मेरे लिए इसके अलावा और कुछ भी कहना संभव नहीं, दो बातें कह सकता हूं कि उनमें आत्मीयता के साथ साहित्य मानकों का निर्वहन था। रचना के प्रति व्यापक दृष्टि थी। दोनों ही एक बात पर एकमत थे कि अनुवाद निर्बाध बहते जल की तरह है। इनके अलावा प्रजापति साह ने अपना वक्तव्य दिया जो अनुवाद और अनुवादकों तथा समाज के परस्पर संबंधों का खुलासा करता था। एक बात और बताई कि उन्होंने अनुवाद के लिए मेरे इस उपन्यास को क्यों चुना। वे चाहते थे यह उपन्यास जो हिंदी पाठकों में आवश्यकता बनता जा रहा है और अहिंदी भाषी लोग भी पढ़ने में रुचि रखते हैं वह अंग्रेज़ी पाठकों तक भी पहुंचे। अभी नवजीवऩ अहमादाबाद द्वारा गुजराती में छपा है। मराठी और उड़िया में प्रकाशाधीन है। साह साह ने उस घटना का भी उल्लेख किया जो मेरे साथ घटी थी। ज्ञानपीठ ने पहला गिरमिटिया की पहली प्रति राष्ट्रपति नारायणन साहब को भेंट की थी। चलते समय उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा था कि मैं इस उपन्यास को कैसे पढ़ूंगा। मैंने कहा था कि जैसे ही अंग्रे़ज़ी में छपेगा मैं लेकर उपस्थित हूंगा। अब जब छपा तो वे नहीं हैं। द गिरमिटिया सागा उनको समर्पित करने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं था। केवल अपने मन की शांति के लिए। साह साहब ने ढ़ाईघर उपन्यास भी साहित्य अकाडेमी के लिए अनुदित किया था। जो वहीं से प्रकाशित है।
श्रीमती तारा गांधी का भाषण गांधी जी के बारे में अनेक संस्मरणों से युक्त था। उन्होंने पहला गिरमिटिया और द गिरमिटिया सागा से मार्मिक प्रसंग तक उद्धृत किए थे। चौधरी साहब और निर्मल जी ने भी किए थे। पाठकों को रुचिकर लगे। तारा जी ने एक बात कही कि मैंने तीन सत्याग्रही देखे एक बापू और दो और, गिरिराज किशोर तथा प्रजापति साह। मैं चौंका। फिर सोचा कि शायद इसलिए इस श्रेणी में रख दिया कि हम दोनों बटुकों की तरह चोटी छत से बांधकर इस काम मे सन्नद्ध हो गए थे, गफलत में पड़कर सो न जाएं। वे 14 साल तक अपने दादा के साथ रहीं थीं। वह भी दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद। अगले दिन मुझे फोन करके कहा कि देखो मैंने इस उपन्यास को तीन बार पढ़ा। कस्तूर बा के बारे में भी लिखो। उनके कहने में ममत्व था। मेरी तरह श्री नियोगी का भी यही प्रयत्न है कि गांधी जी के इस अपेक्षाकृत कमतर जाने गए, पर महत्त्व पूर् 20 साल के निर्माण काल को लोग गहराई से जानें।
20 मार्च को इस पुस्तक को आई आई टी कानपुर में निदेशक प्रो. संजय गोंविंद ढांढे द्वारा विमोचित कराया गया। श्री नियोगी चाहते थे कि जिस रचनात्मक केंद्र को मैंने आरंभ किया और जहां इस उपन्यास के पहले दो ड्राफ्ट तैयार हुए वहां ज़रूर विमोचन किया जाए। मैं बहुत आशावान नहीं था। क्योंकि आई आई टी के लिए अस्पर्श्य की श्रेणी में आता था। इतने बड़े संस्थान से लड़कर आने वाला सामान्य व्यक्ति चुभन पैदा करता है। ढांढे साहित्य की दृष्टि से संवेदनशील व्यक्ति हैं। अगर कोई निदेशक होता तो शायद इस काम के लिए उत्साहपूर्वक तैयार न होता। उऩ्होंने एक बात कही हम सब गिरमिटिया हैं फर्क इतना ही है कि अपने एग्रीमेंट का पता नहीं है कि कब उसकी तरीख समाप्त होगी। गिरमिट यानी एग्रीमेंट की यह एक दार्शनिक व्याख्या है। प्रो साह ने इतिहास और रचनात्मकता की द गिरमिट सागा से उदाहारण देकर मार्मिक व्याख्या की। इतिहास ने कस्तूरबा से चेंबर पाट उठवा फेंकने की घटना को चार छः पंक्तियों में निबटा दिया उसी को एक रचनाकार कितनी संवेदना और कल्पनाशील ढंग से बयान करता है इस बात को उन्होंने गिरमिटिया सागा प्रभावी ढंग से प्रसतुत किया। लीलावती कृष्णन जो ह्यूमेनिटिज़ और रचनात्मक लेखन केंद्र की अध्यक्षा हैं उन्होंने और उनके साथियों ने तैयारी में व्यक्तिगत रुचि ली। श्री नियोगी ने लंच का आयोजन किया और धन्यवाद देते हुए संकेत किया कि उनका अन्य मेगा सिटिज़ में भी इस पुस्तक की लांचिंग का इरादा है। मुझे खुशी है कि जहां मैंने कठिनाई के दिन देखे वहीं मेरे जीवन का सर्वाधिक रचनात्मक काल बीता है। मैं इसलिए इस संस्था अवदान को याद रखुंगा।
Thursday, 1 April 2010
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8 comments:
hardik badhai......
अच्छी चीजों का प्रसार हो, यही शुभ है।
बहुत बधाईयाँ ।
आपको इस उपलब्धि पर हार्दिक बधाई. वैसे पहला गिरमिटिया का अनुवाद बहुत पहले हो जाना चाहिए था, पर देर से ही सही पर एक सार्थक पहल.
हम सब गिरमिटिया हैं फर्क इतना ही है कि अपने एग्रीमेंट का पता नहीं है कि कब उसकी तरीख समाप्त होगी।
निश्चित रूप से संवेदनशील दार्शनिक उक्ति.
काफी समय बाद आपको ब्लोग पर पढ़्ना भला लगा.
बहुत ख़ुशी हुई. बहुत ही ज्यादा. सही में ख़ुशी की बात इसलिए कि एक बडी कृति अंग्रेजी भाषी- भिन्न भारतीय भाषाओं के जानकारों के उपलब्ध होई पाई. मेरी तरफ़ से बडी शुभकामनाएँ.
Badhai.
आभारी हूं
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