Wednesday, 2 December 2009

दिल्ली में 19 नवबर 09

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 22 ज़िलों के गन्ना किसानों का अद्भुत जमावाड़ा था। किसान एकता का यह प्रशंसनीय उदाहारण है। किसान एक होकर अगर खड़े हो गए होते तो जिस प्रकार ज़मीनों का अधिग्रहण होता रहा है वह नहीं होता। न ही रसूमों के ख़रीद फरोख्त के दामों में मनमानी होती। जैसे सरकारी नौकरों का डीए बढ़ाने का फ़ारमूला बना हुआ है उसी प्रकार फ़सलों की रसूमों का बाज़ार भाव के हिसाब से इनडेक्स फ़ारमूला भी निर्धारित होना चाहिए। उसी हिसाब से फ़सल के आने से पहले हर फसल के खरीद के दाम घोषित हो जाने चाहिएं। किसानों को भी मालूम रहे कि अमुक फ़ारमूले से रसूम के दाम निर्धारित होंगें। मैथमैटिकल समाधान सरकार के हित में भी होगा और किसान के हित में भी। अनिश्चितता की गुंजायश कम से कम होना दोनों के लिए ही लाभकारी होगा। सरकार को यह मालूम होना चाहिए कि किस रसूम की कितनी खपत संदर्भित वर्ष में संभावित है। उसी के अनुरूप बुवाई से पहले संभावनाएं घोषित कर दी जाएं तो किसान अपनी रसूम की पैदावार उसी के अनुसार नियोजित कर सकते हैं। किसान की अपनी अस्मिता है। ज़मीन पहले गरिमा और सम्मान की बात होती थी अब व्यवसाय का माध्यम हो गई। जिस प्रकार औद्योगिकरण के लिए ज़मीन की खरीद फ़रोख्त का सिलसिला शुरू हो चुका है वह यह संकेत करता है कि किसान के लिए भी ज़मीन करेंसी या बाज़ार में बेची खरीदी जाने वाली वस्तु में बदल गई है। ऐसा क्यों हुआ? शायद इसलिए कि हर व्यक्ति की तरह किसान के मूल्य बदल गए हैं। ज़मीन उसके लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के ज्ञान को पैकेजों में बदलने की तरह अधिक से अधिक धन में बदलने का माध्यम रह गई है। नई पीढ़ी ख़ासतौर से यह मानने लगी है कि जमीन या किसानी स्टेटस सिंबल न होकर, व्यवसाय या सरकारी नौकरी अधिक सम्मानजनक है। ज़मीन के साथ उसका कोई भावनात्मक संबंध भी नहीं रह गया। प्रेमचंद ने गोदान और अन्य रचनाओं में जैसे पंचपरमेश्वर और भूलिप्सा जैसी कहानियों में गऊ और ज़मीन के प्रति किसानों की जिस भावनात्मकता का दिग्दर्शन कराया है वह अब बीते दिनों की चीज़ हो गई। अब गोदान के गोबर ही बचे हैं जो शहरों में जाकर बसना चाहते हैं या बस गए हैं। होरी विरल हैं। गुड़गांव और नोयडा आदि नगरों में जिस प्रकार बड़े किसानों ने ज़मीन बेच बेचकर ऐशो अशरत की ज़िंदगी बनाई है वह इस बात का प्रमाण है कि ज़मीन उनके लिए भावनात्मक या सम्मान की वस्तु नहीं रह गई। ज़मीन के मुआवज़े को लेकर जिस प्रकार आंदोलन होते हैं उस तरह के आंदोलन ज़मीन के अधिग्रहण के विरुद्ध नहीं होते। लालगढ़ का पूरा जन विरोध टाटा द्वारा दिए जाने वाले अपर्याप्त मुआवज़े को लेकर शुरू हुआ था। बाद में राजनीतिक मुद्दा बन गया। गाज़ियाबाद में भी अनिल अम्बानी को सेज के लिए दी गई ज़मीन को लेकर जो विराध हुआ था वह भी आर्थिक अधिक था बनिस्बत सैंद्धांतिक सवाल के। उसी सवाल पर मुलायम सिंह की सरकार इस चुनाव में चली गई थी। यही क्राइसिस तीस साल पुरानी सी पी एम सरकार के सामने है। अगर बाज़ार भाव पर मुआवज़ा दिला दिया जाता तो किसान किसी की न सुनते। उन्हें ज़मीन देने में आपत्ति नहीं थी बशर्ते के दाम मनोनुकूल मिलते। मज़े की बात है कि पूंजीपति की लड़ाई सरकारों को लड़नी पड़ती है। सरकारें पूंजीपतियों के पाले में खड़ी नज़र आने लगती हैं। लेकिन बड़े किसान भी छोटे किसानों और मज़दूरों के साथ पूंजीपतियों वाला व्यवहार करते हैं। ज़मीन कब्ज़ाने से लेकर हिस्सा बांट और मज़दूरी तक में। किसानों के नेता इस दिशा में पूरी तरह निष्क्रिय रहते हैं। यह उसे किसानों का हक़ मानते हैं। यह परंपरा ज़मीदारी जाने के बाद भी इस देश के लोगों के ख़ून में हैं। जैसे देश में जो अमीर है वह अमीर होता जा रहा है और जो गरीब वह गरीब होता जा रहा है उसी तरह किसानी में भी है।
मुझे सन् तो याद नहीं, संभवतः आज़ादी के बाद छठे दशक में कांग्रेस अधिवेशन में नेहरू जी ने सोवियत यूनियन की तरह कोपरेटिव फ़ार्मिंग लागू करने का प्रस्ताव रखा था। उसका विरोध मुख्यतः दो नेताओं ने किया था चंद्रभानु गुप्ता और चौ चरण सिंह ने। गुप्ता जी ने कहा था आपने गांव नहीं देखा, किसान जान दे देगा पर अपनी ज़मीन नहीं देगा। चौ साहब ने कहा था प्रधानमंत्री भले ही देश के लाभ की बातकर रहे हों पर वे नहीं जानते किसान धरती को अपनी मां समझता है मां से बच्चे को अलग करना क्या संभव है। तब राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र था। प्रधानमंत्री का विरोध अनुशासनहीनता नहीं मानी जाती थी। गोविंदाचार्य जैसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री का मुखौटा कहने मात्र से पार्टी से निकाल दिया गया था। जसवंत सिंह को जिन्ना पर अपनी मान्यता स्पष्ट करने पर पार्टीबदर कर दिया गया जो मात्र एक साहित्यिक कार्य था। ये सवाल संदर्भ जन्य होने के कारण यहां आ गए। तब पार्टी ने नेहरू जी का साथ न देकर इन दोनों नेताओं का समर्थन किया था। लेकिन अब किसानों और धरती के बीच का यह रिश्ता लगभग न्यूनतम हो गया। बहुत कम किसान रह गए जो ज़मीन के साथ पूर्ववत रिश्ता बनाए हैं। वह उनका अंदरूनी रिश्ता भी हो सकता है और मजबूरी का रिश्ता भी। नई पीढ़ी या तो फसल के वक्त हिस्से की रसूम लेने गांव जाती है या अच्छे दाम मिलने पर उसे बेचने का डौल बैठाने। गांधी जी ने गांवों की तरफ़ लौटने की बात चाहे हिंद स्वराज के माध्यम से कही हो या अपने जीवन का गांवों की आमदनी गावों पर ख़र्च करने के फ़लसफ़े के आधार पर, दोनों बातें इसलिए कहीं थीं कि किसान गावों से विमुख होकर शहर की तरफ़ न भागें। वे जानते थे कि अगर ऐसा हुआ तो गांव शहरों के गर्भ में समा जाएंगे। उनका देशपालक का दर्जा ख़त्म हो जाएगा। आत्म निर्भर न रह कर शहरों पर निर्भर हो जाएंगे। होना तो यह चाहिए था कि किसान नगरों का संरक्षण करते। लेकिन गांधी का यह सपना तत्कालीन और संभावित प्रधानमंत्री ने गावों के सशक्तिकरण के उनके 1945 के प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि जो गांव स्वयं सांस्कृतिक अंधकार में हैं वे देश को क्या समृद्ध करेंगे। मेरा इसमें कोई विश्वास नहीं। अगर नेतृत्व जन के विश्वास को इस तरह झिंझोड़ता रहेगा है तो वह भी इस स्टेज पर, जब जन अपने नए विश्वासों और आस्थाओं के निर्माण की आरंभिक प्रक्रिया में हो तो उसके विश्वास कभी मज़बूत आधार ग्रहण नहीं कर पाएंगे। गांधी ने गावों को देश की उस आर्थिक व्यवस्था को जो सदियों से इस देश का आधार रही थी और समय की कसौटी पर खरी उतरी थी अधिक आधुनिक तरह से पुनर्निर्मित करने का सपना देखा था। औद्योगिकरण से यह आगे की बात थी। जिसमें व्यक्ति से लेकर पूरे समाज में आत्म विश्वास प्रतिरोपित करने का दीर्घकालीन सपना निहित था। उस सपने के विरूद्ध नेहरू और देश के तत्लीन नेतृत्व ने स्पात की खेती करने की योजना को क्रियान्वित करने का बीड़ा तथाकथित प्रगतिशीलता और शैतानी आधुनिक सभ्यता के दबाव में उठाया। उसे खेती का पूरक न बनाकर मुख्य आर्थिक व्यवस्था का एंकर बनाया जिसमें देश को दूसरे देशों की विशेषज्ञता और संसाधनों पर निर्भर करना अनिवार्यता बन गई थी। जब अपने संसाधनों और विशेषज्ञता यानी एक्सपर्टाइज़ पर विश्वास खत्म होने लगता है तो एक तरह का भावनात्मक अलगाव भी विकसित होने लगता है जो नई पीढ़ी में नज़र आता है उसने अपनी पीढी दर पीढी से आज़माई हुई कृषि विशेषज्ञता से मुंह मोड़ लिया। उसी का नतीजा है कि खेती जो किसान के गहरे सरोकार और संवेदना का हिस्सा थी व्यवसाय मात्र रह गई। जब रिश्ता व्यवसायिकता पर निर्भर करने लगता है तो पारस्परिकता या बिलांगिगनेस अपने और अपनों से रह जाती हो तो उसकी सामाजिक ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है और समाज का सम्मान भी नहीं रहता। जब किसान का लगाव ज़मीन से नहीं रहेगा तो देश की उस संपत्ति से कैसे रह सकता है जिसे वह समझता है कि वह उसकी न होकर देश की है। जैसे देश उसका न हो। भले ही उसका धन , पसीना , और जीवन उसमें लगा हो। अगर ज़मीन से उसकी और उसके परिवार की रोटी न चलती होती तो वह भी उसके लिए देश की संपत्ति से अधिक कुछ न होती जिसे वह अपने आनंद के लिए जैसे चाहे तोड़ फोड़ सकता है। यह ठीक है कि सरकारें अगर जन की समस्याओं के प्रति असंवेदनशील हों तो जन अपनी ही संपत्ति को सरकार के आधीन होने के कारण समझाता है कि उसकी अपनी संपत्ति उसकी नहीं। उसका यह सोच तर्कसंगत नहीं क्योंकि दूसरों का बदला अपना घर और सामान तोड़ कर नहीं लिया जा सकता। यह हिंसा तो है ही तर्क विहिन नभी है। अपने भाइयों बच्चों की हत्या को कब तक न्यायोचित ठहराया जा सकता है।
अभी दिल्ली में किसान आन्दोलन के दौरान ऐसा ही कुछ देखने को मिला। जंतर मंतर में घुसकर जिस प्रकार हेरिटेज को नुकसान पहुंचाया तथा शराब पीकर बोतलें वहां फेंकी गईं इससे साफ़ पता लगता है भूमि को धारण करने वाले लोग ऐसी विशिष्ठ चीज़ों को नेस्तनाबूद करने से भी नहीं छोड़ते जो सदियों से उस ज़मीन की शोभा बढ़ा रही हैं जिसके वे रहबर हैं। ऐसा इस आंदोलन में पहली बार हुआ।
सवाल यह है कि हमारे किसान नेता उनको यह क्यों नहीं बता पाए कि यह संपत्ति भी हमारे लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी तुम्हारी अपनी काश्त की ज़मीन जिसकी डौल टूट जाने पर भी खून खराबे के लिए तैयार रहते हो। उस दिन एक चैनल पर इसी सवाल को लेकर हम लोग में परिचर्चा हो रही थी उसमें बड़े किसान नेता थे लेकिन किसी ने इस सवाल को नहीं उठाया। शायद इसलिए कि उससे उनके वोट बैंक पर असर पड़ेगा। क्या इस कारण हम बच्चों को एक अच्छा नागरिक भी नहीं बनाएंगे। यह कैसी राजनीति है। मैं जानता हूं यह हर आंदोलन का हश्र होता है। नेता उसे जन आक्रोश कहकर निश्चिन्त हो जाते हैं। जन आक्रोश कह देने मात्र से देश नहीं बचेगा। यह तोड़ फोड़ हिंसा भी है और देश की संपत्ति का संहार भी है। गर्म ख़ून का उपयोग अगर रचनात्मकता के काम में जोश भरने में हो तो शायद हम अघिक सुखी हो पाएं। कब तक तोड़ तोड़ कर बनाएंगें। चौरी चौरा में शांतिप्रिय आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने भारतीय सिपाहियों की हत्या कर दी थी। गांधी ने सफल होते आंदोलन को वापिस ले लिया था उसके लिए उन पर आरोप दर आरोप लगाए गए थे। वे इसिलिए नहीं झुके थे कि हर अहिंसात्मक आंदोलन की नियति हिंसा होगी। अब हमारे सामने आर्थिक लाभ मुख्य है, साधनों की पवित्रता गौण है । सत्यागृह और आंदोलन तो हमने ले लिया लेकिन उसकी निष्ठा और साधनों की पवित्रता को कलुषित कर दिया। हमारे देश का नेतृत्व चाहे वह किसी भी पार्टी का हो अपने क्षणिक और अस्थायी लाभों के लिए देश की अस्मिता और संवेदना का खुला सौदा अराजकता के साथ कर रहे हैं, देखिए इन हालात में देश कब तक सही सलामत रहता है।

2 comments:

सहसपुरिया said...

तमन्नाओ मैं उलझाया गया हू
खिलोने देके बहलाया गया हू

प्रदीप जिलवाने said...

आदरणीय गिरिराज किशोरजी,
नमस्‍कार
लेख के माध्‍यम से आपने कई गंभीर मुद्दों पर व्‍यापक विमर्श प्रस्‍तुत किया है. किसान के लिए अब जमीन से रिश्‍ता पहले-सा भावनात्‍मक नहीं रहा है. बाजार की चकाचौंध में वह भी अपने 'प्रोडक्‍ट' के साथ दुकान लगाए बैठा है, बिकने को तैयार, वाजिब दाम के इंतजार में.
बहरहाल दिल्‍ली में किसानों के उग्र प्रदर्शन और उसमें राजनीतिक कारणों की पड़ताल करता आपका लेख बहुत ही सटीक और सामयिक है. मेरी बधाई स्‍वीकारें.
- प्रदीप जिलवाने, खरगोन