Thursday 5 November, 2009

अपणी ढोणी

राजस्थानी के लिए तो समझना कठिन नहीं है कि अपणी ढोणी क्या है। लेकिन बिना देखे और जाने किसी दूसरे प्रदेश वासी के लिए शायद आसान न हो। किसी भी प्रदेश के रहने वाले क्यों न हों, हम लोग अपनी ग्रामीण संस्कृति की न शब्दावली से रले मिले रहे और न जीवन से। बस सुने सुनाए नाम याद रह गए हों तो बात अलग है। लेकिन उनका नाता आम आदमी से क्या है, संवेदना से क्या है, उसकी अर्थवत्ता क्या है यह सब समझना आसान नहीं है। किसी भी शब्द के अर्थ से तब तक समरसता नहीं होती जब तक जीवन में उसका उपयोग न हो और संवेदना से रिश्ता न बने। यह बात इस बार संगमन के कार्यक्रम मे उदयपुर गए तो समझ में आई। मेरे मेज़बान, संबंधी तथा मेडिकल कालेज के बालरोग विभाग के अध्यक्ष डा ए पी गुप्ता ने अंतिम दिन कहा कि आज बाहर खाना खाया जाए। कहां? वे बोले एक ऐसी जगह जो आपने पहले कभी देखी नहीं होगी। मैंने कहा इस बात का ध्यान रखिएगा मैं और मेरी पत्नी पूरी तरह निरामिष हैं। वे दोनों स्वयं भी निरामिष हैं। इसीलिए अपणी ढोणी ले चल रहे हैं। वहां प्याज़ और लहसुन का प्रयोग भी कम प्रयोग होता है। यह नाम एकाएक समझ में नहीं आया। जब उन्होंने बताया इसका मतलब है अपनी झोपड़ी या कुटिया। भोजनालयों के अंगीठी, रसोई, साझाचूल्हा आदि नाम तो हमारी तरफ़ चलते थे। यह नया नाम था। वह ढोणी शहर से दूरी पर एक पहाड़ी पर थी। एकदम ऊबड़ खाबड, गांव का सा वातावरण। कार एक तरफ़ खड़ी की। थोड़ी दूर एक गेट था जिस पर बंदनवारें लटकी थी। ढोल बज रहा था। गेट पर एक आदमी पगड़ी वगड़ी बांधे राजस्थानी धोती पहने अंदर जाने वालों के तिलक लगाकर स्वागत कर रह था। उसकी थाली में लोग रूपये डाल देते थे। चढ़ाई के बाद ऊपर पहुंचे। वहां खाटें बिछीं थी। कुर्सियां भी थीं। राजस्थानी लोकगीत पर एक महिला ग्रामीण नृत्य कर रही थी। छाछ और पापड़ अतिथियों को पेश किया जा रहा था। एक छोटी ढोनी जादूगरी की थी। कहीं कपुतली का नाच हो रहा था। ऊंट की सवारी का इंतज़ाम था। यानी पूरा देहाती मेले का तामझाम था।तभी बारिश होने लगी।जिसको जहां जग मिली घुस गया। जादू की ढोनी जो ठंडी पड़ी थी गर्मा गई। जादूगर ने एक के तीन कबूतर बना दिए। बोला हाथ की सफ़ाई, पेट की कमाई।
असली बात थी जिम्मन की। ज़मीन में पटोरे बिछे थे। सामने चौकियां लगी थीं। हर जाति, धर्म का आदमी उस पंगत में मौजूद था। सब लोग खुशी से सजे बैठे थे। मैं सोच रहा था। हम लोग कितने आधुनिक हो गए। इन रवायतों को भूल गए। इसीलिए उसकी पुनर्प्रस्तुति का आयोजन करके कितने ख़ुश होते हैं। कई राजस्थानी टहलुए खाना परस रहे थे। लग रहा था जैसे किसी ब्याह शादी की पंगत हो। गट्टे की सब्ज़ी, पनीर, आलू, रायता दाल घी, बाटी, ताज़ा निकला मक्खन, गुड़ मक्का बाजरे की रोटी। यानी सब राजस्थानी ठाठ में रचे बसे थे। हालांकि छोटे स्तर पर ऐसा देहाती आयोजन कभी कभार परिवारों में भी किया जा सकता है। लकिन सब क्या, अधिकतर घरों में, डायनिंग टेबिल स्थायी रूप से थिर हो गई। उसे कौन खिसका सकता है। सब से महत्त्वपूर्ण था मनुहार का कार्यक्रम। पहले एक बार गर्म गर्म जलेबी परसी गई। फिर एक आदमी आया। उसके हाथ मेंजलेबी से भरी थाली थी। वह सबको अपनी तरफ़ से नाम देता जा रहा था और सीधे मुहं में जलेबी रखता जा रहा था। एक के बाद एक जब तक वह मुंह ही न फेर ले। वह मुंह में जलेबी रखता जाता था कहता जाता था वाह जी राम नारायण, एक राम के नाम की। महिला हुई तो ज़नाना नाम, मुसलमान हुआ तो कहता हां जी हमीदा बीबी। सब पंगत हंस हंस कर लोटपोट थी। उसके हाथ से जलेबी खाने और अपना नया नामकरण कराने में हर किसी को मज़ा आ रहा था।
सबसे बड़ी बात हिंदू, मुसलमान, ईसाई, ब्राह्मण, और अन्य जाति सब उसके ही हाथ से बिना भेद भाव के खा रहे थे। तबसे मेरे दिमाग में यह सवाल घूम रहा है गांव के एक प्रायोजित वातावरण में इन स्थितियों में हम फूले नहीं समाते लेकिन इस आत्मीयता को ज़िंदगी की वास्तविकता बना लेने में हमें गुरेज़ है। गांव हमारे लिए सपने की चीज़ हो गई। मसनूई गांव बनाकर उसमें कुछ समय जीना हमें तरोताज़ा कर देता है। वाह जी वाह!

8 comments:

प्रदीप जिलवाने said...

पहली बधाई स्‍वीकारें...
अपणी ढोली के माध्‍यम से आपने जिस मरणासन्‍न सामाजिक रवायतों और आतिथ्‍य सत्‍कार परंपरा पर लिखा और याद किया. पठनीय है.
एक बात और सर. इधर इंदौर में इस तरह के दो ढोणी बहुत सफलता से संचालित हो रही है. जहां राजस्‍थानी संस्‍कृति और परंपरा के दृश्‍य आत्‍मा को तृप्‍त कर देते हैं. हालांकि इधर इन्‍हें ढाणी कहते हैं. 'नखराली ढाणी' और 'चोखी ढाणी'. शहर से दूर बहुत लम्‍बे-चौड़े क्षेञ में बनी ये दोनों ढाणियां इधर अत्‍यन्‍त लोकप्रिय हो गई है. या कह ले पिकनिक स्‍पॉट में तब्‍दील हो गई हैं. संभवतः इसीलिए भी कि लोग कितना भी उत्‍तर आधुनिकता का गुणगान कर लें अंततः तृप्ति तो भारतीयता में ही पाते हैं.
बहरहाल बधाई एवं शुभकामनाओं सहित...
-प्रदीप जिलवाने, खरगोन

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

यहां हैदराबाद में भी एक जगह है ‘ढोला री ढानी’ जहां पूरा राजस्थानी माहौल बनाया गया है। कठपुतली नाच से लेकर संगीत, नाटक और भॊजन तो है ही, वातावरण भी राजस्थानीय हो जाता है।

नीरज गोस्वामी said...

कभी जयपुर जाएँ तो "चोखी ढाणी" जरूर जाएँ... आप उस अनुभव को भूल नहीं पाएंगे...
नीरज

Gyan Darpan said...

आपने जो ढाणीयां देखि है वे दरअसल राजस्थानी संस्कृति व खान पान वाले होटल है | पर असल ढाणी का मतलब होता है खेतों में बना घर ! बहुत सारे घरों के समूह को हम गांव कहते है वैसे ही गांव के बाहर व गांव से कुछ दूर खेतों में बने इकलोते घर को ढाणी कहा जाता है | इस ढाणी में पक्के मकान भी हो सकते है व कच्चे झोंपडे भी जो ढाणी के स्वामी की आर्थिक हेसियत पर निर्भर रहता है | खेतो में काम करने वाले किसान अक्सर अपने खेत में ही ढाणी बनाकर रहते है | झोपडो वाली सुन्दर ढाणीयां बाड़मेर जैसलमेर जिले में बहुतायत से देखि जा सकती है |
असली ढाणी की फोटो देखने के लिए इस पर क्लिक करें |http://picasaweb.google.com/lh/photo/I2N3UGRaAYv55qX3MHVoLg?feat=directlink

Priyankar said...

आदरणीय गिरिराज जी ,

यह शब्द ’ढोणी’ नहीं ’ढाणी’ है . और जहां आप गये थे उस जगह का नाम होगा ’ आपणी ढाणी’ .

और लहसुन-प्याज तो राजस्थानी खाने की जान है उसे काहे ढाणीनिकाला दे रहे हैं .

दिनेशराय द्विवेदी said...

शेखावत जी ने सब कुछ समझा दिया है। प्रियंकर जी की ससुराल राजस्थान में है इस लिए यह भी मान लेते हैं कि लहसुन प्याज राजस्थानी खाने की जान हैं। लेकिन ऐसा कतई नहीं है। लहसुन तो राजस्थानी भोजन में पड़ने वाले असली मसालों के स्वाद को दबा देता है। आज कल तो कच्चे रसोइए इसी लिए भरपूर लहसुन का प्रयोग करने लगे हैं जिस से उन के भोजन की कमियाँ छिप जाएँ।

और ये टिप्पणी बक्से के बाहर वर्ड वेरीफिकेशन का दरबान काहे बिठा रक्खा है इसे रफूचक्कर करें।

गिरिराज किशोर said...

Mujhe Dhoni aur dhani ki koi vishesh samajh nahi. Jo aap theek samjhen padh len. mujhe bhi bata den. mera mukhya matlab sanskriti se hai jo vida ho rahi hai.Hum use kritrim roop se bazar ke liye prastut karte hain. Gandhi shayad isi liye Gaon ki taraf lotne ke liye kahte the jise kisi ne nahi mana.shayad dhire dhire hum uska shahri sanskaran bana denge. mujhe vaha jakar acha to laga dukh bhi hua. kya hum udhar lot sakenge?

Bhoopendra pandey said...

aap ka lekh jansata me padkar bahut accha laga. ki log jate jate kitna hee door kyo na chale jaye par prakritik shukh ushee jagah milega jaha ke log prakritik hai.. aap ka lekh is dish me shahro ki or andhabhakt hote huye logo ko nayee disha degi...
aap ko dhanyabad..