मैं यह कह सकता हूं और कहना भी चाहता हूं कि हिंदी का राजभाषा होना हमारे लिए सम्मान की बात है पर चाह कर भी कह नहीं पाता। ‘राजभाषा’ नेहरू सरकार द्वारा हिंदी के धंधेबाज़ों को दिया गया स्वर्ण खिलौना है। हिंदी के लिए राजभाषा नाम उस वक्त निर्मित यानी कॉयन किया था जब उसे राष्ट्रभाषा बनाने की जद्दोजहद जारी थी। यह काम किसी हिंदी वाले ने ही किया होगा सरकार की नज़रों में चढ़ने के लिए। क्योंकि अंग्रेज़ी पोषित भारतीय विद्वानों के लिए तो यह संभव नहीं था। उन्होंने तो ‘स्टेट लेंग्वेज’ की तरह अधकचरा अंग्रेज़ी पर्याय सूझ रहा होगा, उन सज्जन ने उसे हिंदी में तबदील कर दिया होगा। क्योंकि मेरे अल्पज्ञान के अनुसार तो संसार भर में उस समय हर देश की भाषा को नेशनल लैंग्वेज यानी राष्ट्रभाषा ही कहा जाता था। किसी देश में राज भाषा वाली स्थिति शायद ही रही हो। हमारे देश में हिंदी को राष्ट्र भाषा के नाम से संबोधित करना कुफ़्र तोलने की तरह था। बीच का रास्ता राजभाषा ही हो सकता था। यह ऐसा ही था जैसे पटेल बहुमत के बावजूद प्रधानमंत्री नहीं बन सके तो उन्हें उप-प्रधानमंत्री बना दिया गया। राजभाषा से क्या भाषा का विकास हुआ? भाषा को राजसम्मत नाम देकर उसका गौरव कभी नहीं बढ़ता। भाषा का संवर्धन साहित्य में प्रयुक्त उन ध्वनियों से होता है जो शब्द विभिन्न स्रोतों से आकर समाहित होते हैं। यह तभी संभव है जब किसी भाषा की स्वायत्तता एक ईकाई की तरह अक्षुण्य हो। राजभाषा और हिंदी भाषा का विचित्र समीकरण है। राजाभाषा की सरकारी कार्यालयों में सीमित भूमिका है जैसे 1. हिंदी भाषी राज्यों के अंग्रेज़ी न जानने वाली जनता के लिए अंग्रेज़ी की प्रामाणिक मानी जाने वाली दस्तावेज़ों/ शासनादेशों का अनुवाद करके लोगों तक पहुंचाना। लिखा है कि प्रामाणिक दस्तावेज़ अंग्रेज़ी की ही मानी जाएगी। 2.दफ़तरों में हिंदी उपस्कर यानी टंकनक, शब्द कोषों और टेककों का होना सुनिशचित करना। अब उसमें कंप्यूटर भी जुड़ गया। राष्ट्र स्तर पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में निर्मित राजभाषा सलाहाकार समिति के सदस्य देश भर में सरकारी खर्च पर घूम घूमकर देखेंगे कि राजभाषा का काम सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं। 3. हिंदी निदेशालय हिंदी का प्रचार प्रसार देखेगा। 4. तकनीकी शब्दवली आयोग शब्दकोष बनाएगा जो अधिकतर कार्यालयों के बुकशेल्फ़ों में शोभायमान रहेगा आदि।
गांधी जी ने हिंद स्वराज के 18वें अध्याय में 100 साल पहले एक महत्त्वपूर्ण वाक्य लिखा था ‘सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए , वह हिंदी ही होगी।‘ इस वाक्य का राजभाषा एक फूहड़ मज़ाक है। आज़ादी के बाद बकौल इतिहासकार रामचंद्र गूहा के इस सबसे समझदार आदमी की बातों को रद्दी की टोकरी में, चाहे ग्रामो उत्थान की बात हो या हिंदी की उनके अनुयाइयों की सरकार ने ही फेंका। इस काम में उस समय के हिंदी के अलंबारदार भी अपनी चुप्पी के साथ शरीक थे। हिंद स्वराज के 20वें अध्याय में उन्होंने अंग्रेज़ों को यह कहकर ललकारा था भारत की भाषा अंग्रेज़ी नहीं है, हिंदी है। वह आपको सीखनी पड़ेगी। और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे। हुआ उलटा, ललकार भारतियों पर ही लागू कर दी गई। भारत को सब भाषाएं भूलकर अंग्रेज़ीमय होना होगा। सरकार अंग्रेज़ी में ही काम करेगी। हुकूमत का उद्देश्य पूरा हुआ। जब पंद्रह पंद्रह साल की अवधि बढ़ाकर हिंदी को ही संपर्क भाषा बनाने का मसला टाला जा रहा था तो डा लोहिया ने कहा था ज़िंदा कौमें इंतज़ार नहीं करतीं। गांधी की तरह उनकी बात भी देश ने इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दी। ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे। उल्टे नमाज़ की जगह रोज़े गले पड़ गए। राज भाषा बनाकर, जिस हिंदी को आज़ादी के दौरान पूरा देश प्यार करता था उसी हिंदी के लिए दूसरी भाषाओं के दिलों में साज़िशन ज़हर भर दिया गया। अंग्रेज़ी जीत गई या जिता दी गई। काश हिंदीवालों ने सोचा होता कि राजभाषा का यह टुकड़ा गले मे ऐसा फंसेगा न निकालते बनेगा न सटकते। वही स्थिति हिंदी की हुई कि जैसी सत्ता के लालच में बंटवारा मानकर आज देश चारों तरफ़ से घिर गया। भाई भी दुश्मन हो गए। अब भी वक्त है कह सको तो कह दो राजभाषा का पद जिसको देना हो दे दो हमें हमारा मोहब्बत प्यार लौटा दो।
Wednesday, 9 September 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
10 comments:
विचारणीय भाषा विमर्श ! शुक्रिया !
हिन्दी आज भी उस धर्मपत्नी की तरह है जिसे दूसरी पत्नी से ब्याहने के बाद उपेक्षित कर दिया जाता है भले ही उस का धर्मपत्नी का रुतबा बरकरार रहे।
यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस देश की राजनीति ने राष्ट्रभाषा को एक मज़ाक बना कर रख दिया है। पितृ-पक्ष की तरह हिंदी दिवस व पखवाडा बनाकर भाषा को निबटा दिया जाता है।
हमारा दुर्भाग्य ही तो है ये...
अब यह ज़रूरी हो गया कि हम लोग गहराई से चिंतन करें। हिंदी को राजभाषा बनाना सोची समझी चाल थी। सबसे अधिक नुकसान राजनीतिज्ञों ने किया है। फिल्म ने जहां हिंदी को देश विदेशमें पापुलरइज़ किया है। वहीं एक्टरों ने टी वी चैनल्स पर बातचीत में अंग्रेज़ी का प्रयोग करके हानि भी की है। पुराने कलाकार दिलीप कमार, अशोक कुमार, रजकपूर आदि अधिकतर हिंदी में बात करते थे। अब ऐसा नहीं है। हम हिंदी भाषी मा बाप बच्चों से अंग्रेज़ी में बात करते हैं। यह कैसा भारत बन रहा है। बिग बी पिसर बच्चन जी अंग्रेज़ी की पैरवी कर रहे है।
आदरणीय गिरिराजजी,
नमस्कार
अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर हमारी चिंताएं जायज भी हैं. फिर भी मैं इन बिखरी हुई चिंताओं को एक समग्र आंदोलन में देखने की इच्छा रखता हूं. हिंदी के लिए इस कठिन समय में यह जरूरी भी है. बहरहाल लेख उम्दा है. बधाई स्वीकारें.
-प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.
प्रियवर,Mai apki rai se sahamat hoon. lakin iske liye bharatiye star per kam karna hoga uske liye mai dekhta hoon ki yoova pidhj abhi angrezi ke jadoo se grasit hai.samya door nahi jab moh bhag hoga.
आदरणीय गिरिराजजी
नमस्कार
आपने मेरी टिप्पणी को गंभीरता से लिया और व्यक्तिगत प्रतिक्रिया दी. इस संवाद हेतु धन्यवाद. आपने सही कहा है कि इसके लिए हमें अपने स्तर पर (भारतीय स्तर पर) ही कुछ करना होगा और यह भी सच है कि देश की युवा पीढ़ी इन दिनों अंग्रेजी के मोहपाश में है.
अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव से सिर्फ हिंदी ही नहीं, हमारी क्षेञीय भाषाएं भी ग्रसित हो रही हैं. मैं इसे एक वैश्विक चिंता की तरह भी देखता हूं क्योंकि विश्व के सभी देशों की अपनी लोकभाषा है और अंग्रेजी ने इन्हें लगभग अपदस्थ कर दिया है या कर रही है जिससे लोक संस्कृति का क्षरण भी और तेजी से प्रारम्भ हो गया है.
एक बात और है कि अंग्रेजी को खतरे हिंदी से भी है. हमारी चिंताओं में 'हिंदी' भले ही 'हिंग्लिश' होकर अपना सौंदर्य खो रही है लेकिन वस्तुस्थिति को यदि हम विलोम दृष्टिकोण से देखें तो अंग्रेजी के मूल स्वरूप में भी धीरे-धीरे बड़े परिवर्तन आ रहे हैं और अंग्रेजी भाषी साहित्यकार और देश भी अंग्रेजी के इस विकृत होते स्वरूप के लिए इतने ही चिंतातुर हैं जितने शायद हम. ऐसा मेरा मानना है. और इस आशय की कुछेक टिप्पणियां मैंने इधर-उधर पढ़ी हैं. मसलन हम अंग्रेजी के शब्दों को अपने अनुसार उपयोग और व्याकरण में इस्तेमाल करते हैं जैसे truck का बहूवचन trucks है तो हम ट्रकों कहते हैं या Bus को बसों या Computer को Computers न उच्चारित कर कम्प्यूटरों कहते/लिखते हैं.
बहरहाल आपने स्वयं मेरी टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया दी. मेरे लिए यही इस दीपावली का उपहार है.
दीप पर्व की अनेक शुभकामनाओं सहित...
-प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.
ये हमारा दुर्भाग्य ही है, कि हम अपनी ही भाषा में बात करने से शर्माते हैं. हिन्दी बोलते हुए खुद को हीन समझते हैं.चार अंग्रेज़ी बोलने वालों के बीच हिन्दी बोलने वाले की दुर्दशा देखिये...
हिंदी की दुर्दशा में जितना हाथ सरकारी क्षेत्र का है उतना ही हिंदी क्षेत्र की जनता का भी है। हिंदी मातृभाषिक लोगों को तो राजभाषा संपर्क भाषा में प्रविण होना चाहिए था लेकिन अंग्रेजी की मोहमाया ने सारा संसार बदल दिया। हिंदी के नाम पर न जाने कितनी समितियाँ,संघठन काम कर रहे है। हिंदी का विकास निश्चित हो रहा है लेकिन सरकारी हिंदी की दुर्दशा और नौटंकी की तो अब हद हो गई।
Post a Comment